गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

बदलाव बिना बदलाव - आप



बदलाव बिना बदलाव - आप


भारत के साथ बहुत बड़ी समस्या है, इसे बदकिस्मती भी कह सकते हैं, और अशुभ कर्म भी कह सकते हैं। समस्या ये है कि यहां चीजें बीच से शुरु हो जाती हैं, ना उनका आदि होता है ना अंत....बस बीच से शुरु....। इससे दिक्कत होती है, विश्लेषकों को ये पता लगाने में दिक्कत होती है कि क्या हुआ, कैसे हुआ, क्या होगा, कैसे होगा, आदि-आदि। 
”आप” को ही लीजिए...यूं ही बीच से चल निकली....अरे भाई लोगों, पहले शुरु, फिर मध्य, फिर अंत, क्योंकि जो बीच में से शुरु होगा वो अधर में लटकेगा। ये वैसा ही सार्वभौमिक सत्य है जैसा ये कि जहां तेल होगा, वहां लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका हमला करेगा ही करेगा। मेरे हिसाब से होना यूं चाहिए था कि पहले होती ”मा” यानी ” मैं और आप” अंग्रेजी में ”एम ए ए” फिर होता ”बाप” जो शायद है भी यानी ”भारतीय आम आदमी पार्टी” ठीक ही है। और फिर ये दोनो मिल जाते तब बनती ”आप” यानी ”आम आदमी पार्टी”। कुछ बात बनती, कुछ ठीक होता, हमें पता होता कि इसकी जड़ कहां है, सिर कहां है, पैर कहां है और दिमाग कहां है। याद रखिए जिसका दिमाग ना पता हो, कहां है ऐसी चीजों से दूर रहना चाहिए। पता नहीं कब क्या कर दें। जैसे अन्ना। 
जबसे दिल्ली के चुनावों के नतीजे आए हैं, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक विश्लेषकों, राजनीतिक जिज्ञासुओं और भी ना जाने कैसे-कैसे और कैसे-कैसे जन्तुओं ने जीना हराम कर दिया है। कुछ लोग तो इसे क्रांति तक घोषित कर बैठे हैं, कर रहे हैं। समस्या सिर्फ यही है कि ”आप” के सिर-पैर का पता नहीं चल पा रहा है। क्यूं बनी, कैसे बनी, इसकी राजनीतिक विचारधारा क्या है, और आगे क्या होने वाली है। लोगों को लग सकता है कि ये सवाल आसान हैं, लेकिन जनाब इन सवालों के जवाब सबसे ज्यादा मुश्किल हैं, क्योंकि ये वो सवाल हैं जिनके जवाब बहुत घुमावदार और गंुजल वाले होते हैं। योगेन्द्र यादव कुछ बोलते हैं, केजरीवाल कुछ बोलते हैं, और इनके बुद्धिजीवी, रसिक कवि महोदय, कुमार विश्वास जिन पर विश्वास नहीं किया जा सकता, कुछ और ही सुर लगाते हैं। 
लेकिन तथ्य ये है कि ”आप” ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीता है, भारी मतों से जीता है, कई दिग्गजों को धूल चटा कर जीता है, जिसमें सबसे ज्यादा मिट्टी पलीत की है, भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की, जिन्हे करीब 25000 वोटों से हरा कर चुनाव जीता है। तो सबसे पहला विश्लेषण तो ये होना चाहिए कि आखिर ”आप” में दिल्ली की जनता को क्या दिखा कि उसे चुनावा जिता दिया। दूसरा सवाल ये होना चाहिए कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई पार्टी आई और छा गई, तीसरा सवाल होना चाहिए कि क्या ”आप” यही जादू पूरे देश में कर सकती है। याद रखिए ये क्षेत्रीय पार्टियों का दौर है, जिसमें राष्ट्रीय पार्टियों की ऐसी-तैसी फिर रही है। 
पहले पहली बात, ”आप” में दिल्ली की जनता को क्या दिखाई दिया होगा। बात कुछ यूं है कि जबसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरु हुआ, चला तबसे ही ये बात चल रही है कि ये एक मध्य वर्गी आंदोलन है, क्या ये सही बात है, क्या अन्ना का आंदोलन मध्यवर्गीय आंदोलन था, जिससे आप निकली, अगर ये बात सही होगी तो कम से कम आप के स्रोत का पता चल जाएगा। यानी ये माना जाएगा कि आप एक मध्यवर्गीय आंदोलन से उपजी पार्टी है। इसका सीधा सा मतलब ये होगा कि आप एक मध्यवर्गीय राजनीतिक पार्टी है। अगर इस विचार को मान लिया जाए तो दिल्ली में आप की सफलता समझ में आ सकती है। कैसे?
अगर वर्ग विश्लेषण के तौर पर देखा जाए तो समझ में आता है कि ”आप” की जीत के इलाके भी ज्यादातर और अक्सर वही रहे जहां मघ्यवर्गीय जनता बहुसंख्या में है। जरा एक नज़र इस नक्शे पर डालें तो समझ में आता है। 

”आप” ने किन सीटों पर बाजी मारी है, कालका जी, जंगपुरा, नई दिल्ली.....वगैरा-वगैरा, 
अब अगर ये बात समझ में आ रही है तो ये साफ हो जाता कि आप को दिल्ली में जिताने वाला असल में ये मध्यवर्ग ही है। ना इससे कोई समस्या नहीं है, समस्या तो इससे खत्म होती है, क्योंकि इससे आपको ये समझ में आ जाता है कि आप क्या पार्टी है, और वो क्या करने वाली है। ये समझ में आ जाता है कि असल में आप क्यूं जीती है। 
असल में मध्यवर्ग बदलाव चाहता है, ना ना....चौंकिए मत, मध्यवर्ग सच में बदलाव चाहता है। लेकिन वो बदलाव जो दिखने में बदलावा हो, लेकिन बदलाव ना हो। आप सोचेंगे, ये कैसा बदलाव है भाई। जनाब ये वो बदलाव है जो मध्यवर्ग चाहता है, और आप ने परोसा है। मध्यवर्ग इस राजनीति के कोर-किनारों में, नारों में, कामों में कोई बदलाव नहीं चाहता। मध्यवर्ग चाहता है ऐसी पार्टी, जो उसे ये भरोसा दे, कि आप के काम-काज के तरीके में, राज चलाने में कोई बदलाव नहीं होगा, बस थोड़ा-मोड़ा कॉस्मेटिक चेंज हम करेंगे, ताकि आपको लगातार ये लगता रहे कि राजनीति की साफ-सफाई हो रही है। जैसे हम भ्रष्टाचार को पकड़ेंगे, लेकिन हम ठेका मजदूरों के बारे में बात नहीं करेंगे, हम बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के देश में होने वाले भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहेंगे। जैसे हम टाटा-बिडला का नाम नहीं लेंगे, बस भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलेंगे। कौन से भ्रष्टाचार के खिलाफ, कि जो टेलीफोन के ऑफिस में 150 रुपये की रिश्वत का होता है, बाकी उस भ्रष्टाचार की हम बात ही ना करेंगे, जो टाटा के लिए जमीन हथियाते हुए आदिवासियों का जनसंहार करके किया जाता है। 
मध्यवर्ग तब तक आमूल बदलाव से डरता है, उसे रोकने की कोशिश करता है, जब तक वो बदलाव उसके सिर पर खड़ा ना हो जाए। ये खामख्याली ही है कि लोग ज्यादा बेहतर जीवन के लिए बदलाव का चुनाव कर रहे हैं, असल में लोग, बदलाव के खिलाफ चुनाव कर रहे हैं, लोग चाहते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी ही व्यवस्था और नीतियों वाला, थोड़ा दिखने में ठीक-ठाक, थोड़ा ईमानदार, थोड़ा पढ़ा-लिखा आदमी आ जाए, वैसी कोई पार्टी आ जाए, ताकि कहीं ऐसा ना हो कि कोई भगतसिंह खड़ा हो जाए, क्योंकि आज के तेज़ संचार के जमाने में अगर कोई भगतसिंह खड़ा हो गया, तो ये सारी शासकवर्गीय पार्टियां, चाहे वो भाजपा हो, कांग्रेस, बसपा, राजद, जद, आप, टी एम सी, डी एम के.....मेरा मतलब इन सभी पार्टियों को तो जगह भी ना मिलेगी छुपने की। 
पिछले एक साल में इस देश ने काफी कुछ इतिहास में पहली बार होने वाला देख लिया है, दामिनी के लिए देश भर में आंदोलन,  भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जनता का आंदोलन, अगर एक और झटका लगता तो ये पक्का था कि इस देश में जनता का इस कदर जोर झटका लगता कि सत्ताधारियों को पानी मांगने का मौका ना मिलता। इससे बचाव का, सेफ्टी वाल्व है आप, जैसा कांग्रेस थी किसी जमाने में, जबकि उससे पहले कितने ही मंच आजादी के लिए बातें कर रहे थे। तो यूं कहिए कि आप जैसा करिश्मा जाने कितनी ही बार हुआ है। बसपा ने, सपा, कांग्रेस, भाजपा जैसी पार्टियों की नींद हराम कर दी। ए आई यू डी एफ 2006 की पार्टी है और उसने असम में सभी पार्टियों की नाक में दम कर रखा है, होने दीजिए चुनाव, इस बार वो भी कुछ कमाल ही करेगी। टी एम सी ने पश्चिम बंगाल के वाम शासन की जड़ें हिला दीं। कैसे हुआ ये सब करिश्मा, बिल्कुल वैसे ही जैसे दिल्ली में आप ने किया है। मध्यवर्ग के बदलाव के बिना बदलाव के सपनों को अपनी जुबान से कहने के चलते, इन सपनों से बदलाव निकाल कर इन पर साफ-सुथराई का रैपर चढ़ाने के चलते। वरना हम सभी जानते हैं कि टी एम सी, सी पी एम से बेहतर नहीं है, नीतीश लालू से बेहतर नहीं हैं, और आप - कंाग्रेस या भाजपा से बेहतर नहीं है। 
अब आती है बात ये कि क्या ये जादू पूरे देश में भी चलेगा.....बिल्कुल चल सकता है साहब। पिछले 20-22 सालों में इस देश में मध्यवर्ग बहुत मजबूत हुआ है, सेवा क्षेत्र का इतना विस्तार हुआ है कि हमारी ग्रोथ सिर्फ सेवा क्षेत्र में ही दिखाई देती है। ऐसे में अगर थोड़ा बहुत भी मध्यवर्ग को साध लिया गया तो कुछ बहुत सीट तो ”आप” झेंट ही लेगी। लेकिन इसमें ये बात भी होगी कि दिल्ली में आप क्या करती है, समस्या ये है कि वादे, वादों के तौर पर तो बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन एक तो ये कि वादे कितने और कैसे पूरे किए गए, दूसरे एक बार वादा पूरा कर दिया जाए तब क्या, यानी उसके बाद आप कुछ नया वादा करेंगे या फिर पुराने वादे को ही दोहराएंगे, जैसे कांग्रेस ने ”गरीबी हटाओ” के नारे के साथ किया, लेकिन ”कांग्रेेस का हाथ, आम आदमी के साथ” के साथ ना कर पाई। तो भ्रष्टाचार हटाने वाला नारा कैसे चलेगा, महंगाई तो ”आप” के नारों से कम ना होगी, क्योंकि ये महंगाई भ्रष्टाचार से पैदा नहीं हुई है, बल्कि भ्रष्टचार का ये आधुनिकतम रूप और ये कमरतोड़ महंगाई दोनो ही जिन नीतियों की देन हैं, उनके बारे में मुझे नहीं लगता कि आप या आप के वोटरों के मत, कांग्रेस या भा ज पा से कुछ भिन्न हैं। 

तो कुल मिलाकर बात का लब्बो-लुबाब ये है दोस्तों कि ”आप” बाज़ी में अभी आगे चल रही है, लेकिन बदलाव के बिना बदलाव चाहने वालों को ये कब तक रास आएगी ये वाकई देखने वाली बात है।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

गुल्लक





गुल्लक 



आज महीने का 21वां दिन था, और जेब खाली हो चुकी थी, उसने एक बार फिर अपनी जेबों में हाथ डाला। शायद कहीं से कुछ निकल आए, एक बार फिर दरवाजे के पास वाली अल्मारी के सबसे उपर वाले खाने में देखा, कई बार बेध्यानी में वहां दस या बीस का नोट डाल का भूल जाता है। फिर ध्यान आया कि महीने के शुरु में ही खुली सिगरेट लेने के लिए वहां से पैसे निकाल चुका था। फिर भी हाथ डाला तो एक-एक के दो सिक्के दिखाई दिए। उसका मुहं बन गया, इन सिक्कों से क्या होगा। बस का किराया भी 10 रुपये से कम नहीं था। वो पड़ोस में रहने वाले शंकर से उधार नहीं मांगना चाहता था, पिछली बार उधार देते हुए, हंसते-हंसते ही शंकर ने उसे जो-जो ताने मारे थे, वो उसे आज तक याद थे। तनख्वाह मिलते ही सबसे पहले उसने शंकर के पैसे दिए थे। लेकिन अब क्या करे, ना जेब में सिगरेट थी, ना घर में राशन था, लेकिन पहले पहली जरूरत, उसे ऑफिस जाना था, और किराए तक के लिए पैसे नहीं थे। एक गहरी सांस लेकर वो फिर से बिस्तर पर पड़ गया।

बिस्तर क्या था, फर्श पर एक गद्दा डाल लिया था, जिस पर चद्दर डाल ली थी, वही बिस्तर था, वही बैठक का दीवान था, वही खाने की टेबल थी, और वही पढ़ाई-लिखाई की जगह भी थी। उसके घर, यानी उस कमरे में इतनी ही जगह थी जिसमें एक गद्दा बिछ सकता था, एक तरफ को अंदर जाने का रास्ता निकल सकता था, उसके दांयी तरफ एक शेल्फ जैसा कुछ बना हुआ था, जिसे चाहो तो किचन कह सकते थे, उस शेल्फ में एक छोटा सा छेद था, जो इसलिए किया गया था ताकि अगर नीचे सिलेंडर रखा हो तो उसका पाइप उपर गैस पर जा सके। लेकिन उसके पास छोटा सिलेंडर था, जिसके उपर ही चूल्हा लगा हुआ था, चावल-दाल हों, मैगी, चाय या आमलेट, वो सबकुछ उसी पर बनाता था। किचन की ये शेल्फ सीढ़ियों के नीचे की जगह पर था, इसलिए इसकी छत भी एक तरफ उंची और एक तरफ को नीची थीं। जिन सीढ़ियों के नीचे ये किचन नुमा शेल्फ या शेल्फ नुमा किचन थी, वो सीढ़ियां उपर छत पर बसे गुसलखाने को जाती थीं, जो टॉयलेट और गुसल दोनो का काम देता था। 

3000 महीने में इसी तरह का घर मिला करता है। बिजली का बिल अलग से था, महीने के पहले ही हफ्ते में घर का और बिजली का बिल चुका कर उसके पास बचते थे कुछ 9000 रुपये, जिसमें राशन, सिगरेट, आने-जाने का किराया और कुछ चाय-पानी के बाद उसके पास महीने के अंत में कुछ नहीं बचता था। और कभी-कभी तो नौबत ये होती थी कि उसे महीने के बीच में ही किसी ना किसी से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता था। उधार वो चुका भी देता था, इसलिए उसे उधार मिल भी जाता था, जैसे नीचे की दुकान पर बनिए से, महीने भर अंडे, दूध और डबलरोटी वो उधार ही लेता था, महीने के शुरु में हिसाब चुका देता था।

 जारी.....

शनिवार, 2 नवंबर 2013

मोदी और इतिहास, या ऐतिहासिक मोदी




मोदी और इतिहास, या ऐतिहासिक मोदी


”अपनी बात यहां से शुरु करते हैं कि मोदी ने कहीं भी झूठ नहीं बोला, ना ही गलत बोला है।” ये लेख इस कथन से शुरु करने की एक खास वजह है, पिछले दिनो एक ”भारी-भरकम” रैली में मोदी ने जो कुछ बोला, उसे लेकर आजकल के लौंडे-लपाड़े बहुत उछल रहे हैं, और उनकी इस उछाल-पछाड़ के चक्कर में बहुत सारे प्रौढ़ और वृद्ध भी उछलने लगे हैं। मैं अपने पहले के लेखों में ये स्पष्ट कर चुका हूं मोदी पर निशाना लगाने वाले ये लोग असल में मोदी को सही तरह से पहचाने नहीं हैं, ये लोग राष्ट्रद्रोही हैं, भारत ”मां” का अपमान करने वालों में से हैं, जो भारत ”माता” का सम्मान करने की सोचने वालों से जलते हैं, कुढ़ते हैं, और इसलिए तीन को तीस बताते हैं। 

मोदी और मोदी की राजनीतिक विचारधारा, ब्रहमांड के दृष्टिकोण से चलती है, वो एक गांव, कस्बे, राज्य या देश के हिसाब से नहीं चलती। हुंह, तुमने तो ब्रहमांड देखा ही नहीं होगा, देखना क्या तुम सोच भी नहीं सकते। बच्चे हो तुम लोग राजनीति में, मोदी इस विषय पर पी.एच.डी कर चुके हैं, तुम्हारे जैसों को तो वो तिगनी का नाच नचा देंगे बचा, संभल कर। तुम लोग करते हो देस-जवार की राजनीति, मोदी की राजनीति बड़ी है, मेरा मतलब विशाल है। 

जब मोदी ने कहा कि तक्षशिला बिहार में है तो वो असल में उस भौगोलिक परिघटना की बात कर रहे थे, जिसके चलते पृथ्वी नाम के इस शुद्र ग्रह की जमीन इधर से उधर खिसक गई थी, असल में पहले सारी धरती एक साथ जुड़ी थी, जिसे घनघोर आर्यावृत कहते थे, वो सत्युग था, फिर सत्युग से सत्य का प्रभाव जब घटने-मिटने लगा तो धरती जो सत्य के प्रभाव से जुड़ी हुई थी, उसका विघटन होने लगा, और एक स्थान की चीज़ दूसरी जगह पर जाने लगी, इसमें पेड़ पौधे पशु-पक्षी और इमारतें भी शामिल थीं, हमारे पुरातन यानी प्राचीन मतलब प्रागैतिहासिक वैज्ञानिक ऋषियों को तो पहले ही ये बात मालूम थी, लेकिन आज के ये चवन्नी छाप वैज्ञानिक अब जाकर ये बात समझ सके हैं, तो अब वो भी मानने लगे हैं कि धरती के भूखंड बिखर रहे हैं। तो जब वो एक थे, उस समय, जान रहे हैं, उस समय तक्षशिला बिहार में था। जब सत्य का प्रभाव कम हुआ और धरती के खंड खिसकने लगे तो वो पापियों की धरती यानी पाकिस्तान में चला गया। अब मोदी जब ये कहते हैं कि तक्षशिला बिहार में था, तो उनका इतिहास ज्ञान सही है, आपका इतिहास ज्ञान थोड़ा कम है, यानी आप तो इतिहास तभी से जानते हैं जब से तक्षशिला बना होगा, मोदी उससे पहले से उसके इतिहास को जानते हैं। आप अपने सीमित इतिहास ज्ञान को मोदी जैसे महापुरुष के कपाल पर फोड़ने की कोशिश करते हैं, आपको खुद चोट आएगी। तो सवाल ये है कि मोदी ने अब ये क्यूं कहा कि तक्षशिला बिहार में है। इसलिए मेरे भाई कि जब मोदी पी एम बन जाएंगे, जो कि अब तय है, ”आप चाहे वोट दीजिए या ना दीजिए, मोदी के लिए तो पूरे ब्रहमांड की सत्ता तैयार है”, तो आप जान लीजिए कि देश में फिर से ऋषि मुनियों का, संतों का राज होगा, फिर वो मंत्रोच्चार करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, और तक्षशिला फिर से बिहार में पहुंचा दिया जाएगा। वैसे भारत के सभी विश्वविद्यालयों की भी उसी पुराने तक्षशिला के आधार पर पुर्नरसंरचना की जाएगी। मध्यप्रदेश में इसकी शुरुआत हो चुकी है, जहां योग करवाया जाता है, विधान-सभा में संत आसाराम की चरणरज से उसे पवित्र किया जाता है, ”हम उनकी अपवित्रता, और पापी छवि को अस्वीकार करते हैं, ये पापियों का ही षड्यंत्र है” सभी विश्वविद्यालयों से आधुनिक, पाश्चात्य और पापी पाठ्यक्रमों को हटा दिया जाएगा, और फिर से सत्युग लाया जाएगा। तब, आप देखिएगा, कि तक्षशिला आपको बिहार में ही दिखाई देगा। 

दूसरी बात सिकंदर और गंगा तट से संबंधित है। असल में आप छोटी सोच वाले लोग इस बात का संदर्भ भी समझ नहीं सके। मोदी असल में ये कह रहे थे कि एक जमाना था जब हर नदी गंगा थी। आपने वो गाना नहीं सुना, ”जहां हर बालक में कृष्ण है और हर लड़की में सीता है” हो सकता है गाने में कैरेक्टर कोई दूसरे हों, जैसे राम या हनुमान, और राधा या शकुंतला, लेकिन मामला खालिस समझदारी का है। मोदी का ये मानना है कि सिकंदर कहीं भी पहुंचा हो, उसे गंगा तट तक पहुंचा मान लिया जाए, अब विकास-पुरुष, लौह-पुरुष, युग-पुरुष, का-पुरुष ऐसा कुछ कहें तो मान लिया जाना चाहिए। तो अब इसमें झगड़ा करने की बात नहीं बची कोई, ठीक।

तीसरी बात जो मोदी ने कही वो थी कि चन्द्रगुप्त मौर्य गुप्त वंश का था, अरे भाई ये तो छोटी सी भूल है। इसकी दो वजहे हैं, एक तो चन्द्रगुप्त के नाम में ही गुप्त लगा है, अब कोई गुप्त और मौर्य एक साथ तो नहीं हो सकता ना, तो मोदी को लगा होगा कि फर्स्ट नेम चन्द्र और लास्ट नेम गुप्त होगा, इसलिए कह गए कि चन्द्र्रगुप्त गुप्त वंश का था। इसमें इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है। इतनी जिम्मेदारी है उनके सिर पर, ऐसी भूलें हो ही जाती हैं अक्सर। दूसरे जब कोई बड़ा-बूढ़ा आपकी पहचान पूछता है, तो यूं पूछता है ना, ”रे तू किसका छोरा से....” अब ऐसे में उन्हे दिखाई कम देता है, सुनाई कम देता है, छोरे ने नाम लिया राम लाल, उन्हे सुनाई दिया श्याम लाल। तो मोदी के साथ भी यही हुआ हो सकता है, जिम्मेदारी भी तो कितनी है उनके पास, अपने शासित प्रदेश से पापियों का नाश करना, फिर उस कांड को छुपाने के लिए छिटपुट पापियों को ”वध” करवाना, फिर कहीं ये सत्य गलत समय पर बाहर ना आ जाए इसका प्रबंध करना, आदि आदि, उपर से पूरे ब्रहमांड की जिम्मेदारी, और पी एम पद की शपथ याद करना, वो भी संसकरित में....तो इतनी जिम्मेदारियों के बीच में किसी एक अदने से राजा-फाजा का नाम गलत हो भी गया तो उसके लिए हो-हल्ला कैसा।

खैर हमारा काम था, मोदी के व्यक्तित्व और वक्तव्य को आप सबके सामने स्पष्ट करना, बाकी आपकी मर्ज़ी है, आप वोट दे ंना दें, मोदी का पी एम बनना तय है, ऐसा उपर से आदेश हो चुका है। मेरी प्रार्थना यही है कि ऐतिहासिक मोदी के ऐतिहासिक क्षण और ऐतिहासिक भाषण को इतिहास की अपनी सीमित समझ पर ना तौलें, और ये हो-हल्ला बंद करें।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

रुकेगी नहीं मेरी दिल्ली.....



चुनाव आ गए हैं भाई! हमें कैसे पता लगा, हमारे जैसे लोकतंत्र में रहने वाले लोगों को चुनाव के आने का पता कुकरहांव से चलता है। जैसे ही चुनाव आते हैं बहुत हाउं-हाउं मचती है, झगड़े होते हैं, लोग मारे जाते हैं, कारों, जीपों के काफिले और कहीं-कहीं तो रथों की दौड़ होने लगती है। जब हम बच्चे थे तो चुनावी रैलियों में से बिल्ले और झण्डे लेने के लिए दौड़ते थे, इधर बिल्ले और झण्डे नहीं मिलते लेकिन बाकी काफी कुछ मिलने लगा है। मिक्सी, टीवी, लैपटॉप, साइकिल.....और भी ना जाने क्या-क्या। मतदाता लोग काफी खुश हैं, जो नेता सुसरे थोथे आश्वासनों की तख्ती की बदौलत ”अमूल्य या बहुमूल्य” वोट ले लेते थे और फिर ठेंगा दिखा देते थे, वो अब कम से कम कुछ तो कीमत दे ही रहे हैं, इस दो कौड़ी के वोट की। यूं भी अगर आप ना दे के आएंगे तो आपके नाम पर कोई और डाल देगा, अब ई वी एम, वोटर का फेस रिकॉग्नीशन तो नहीं कर सकती ना, तो एक आदमी एक से ज्यादा बार वोट डाल ही सकता है, या किसी और का वोट कोई और डाल सकता है।
लेकिन वो मतदाता कोई और होंगे जिन्हे इस चुनाव से फायदा हो रहा है। हम दिल्लीवाले बहुत बिचारे से लोग हैं, वैसे देश के हर राज्य के लोग समझते हैं कि दिल्ली में रहने वाले मजे कर रहे हैं, लेकिन भईया सच तो ये है कि मजे तुम ही लोग कर रहे हो, हमें तो चुनाव के मौसम में भी धमकियां मिल रही हैं। कैसे पूछ रहे हैं, लीजिए, इधर चुनाव का मौसम शुरु हुआ, उधर सड़क पर बड़े-बड़े होर्डिंग लग गए, और रेडुआ में चीख-चीख कर धमकियां जारी करना शुरु कर दिया गया है। एक आदमी चीखता है, ”रुकेगी नहीं मेरी दिल्ली......” तो भाई दिल्ली तो उसकी हुई, हमारी क्या हुई, हम ठहरे गरीब-गुरबा लोग, जीवन भर बारिश में सड़क पर भीगते खड़े रहे इस इंतजार में कि नेता जी, मंत्री लोग या विदेशी मेहमानों का काफिले निकले तो आगे निकलें, घर पहुंचे ज़रा बदन ही पोंछ लें। लेकिन ये जो गाना गाया जा रहा है, चीख-चीख कर रेडुआ पर, कि दिल्ली नहीं रुकेगी, वो धमकी है, साफ धमकी, कि तुम कुछ भी कर लो, जैसी तुम्हारी ऐसी की तैसी अब तक हो रही है, वैसी ही आगे भी होगी, अब कर लो जो करना हो। जान रहे हैं, मैट्रो बनी, किराया इत्ता कि आम आदमी तो देख के डर जाए, उपर से मैट्रो में गाना, खाना, हंसना, रोना, यानी सांस लेने के अलावा हर काम की मनाही है, और जगह-जगह धमकी भरी सूचनाएं चिपकी हैं, ये किया तो 100 रु जुर्माना, ये किया तो 200 रु। बसों की हालत ये है कि जिन बसों को लो फ्लोर और लो पॉल्यूशन कहा गया था, एक तो उनका किराया मजदूर की दिहाड़ी जितना है, उपर से तुर्रा ये कि जब शिकायत की तो कहा गया कि, ”बड़े बेमुरव्वत हैं, सुसरे, अगर इतना बूता नहीं है तो ना रहो दिल्ली में, चले जाओ वापिस.....” अब बताओ भैया, ये धमकी नही ंतो क्या है, बल्कि सच कहें, कॉमनवेल्थ के समय तो सच में उठा-उठा कर गाड़ियों में भरा और दिल्ली से बाहर फेंक आए थे, बिजली-पानी इतना महंगा है कि बिजली के साथ हमने चेतावनी वाला अलार्म लगवा लिया है, तो एक घंटे के बाद ही सूचना देने लगता है कि, ”अब बिजली बंद कर लो बेटा, वरना बिजली वाले आकर बिजली काट जाएंगे।” ये बात और है कि बिजली कंपनियां खुद अपनी मर्जी से दिन-दिन भर बिजली काटे रहती हैं। ये सिर्फ आपको ही लगता है कि आपके ही इलाके में बिजली जाती है, मेरा यकीन मानिए, यहां राजधानी में ही 24 घंटे बिजली नहीं आती, आपके राज्य में कैसे आ जाएगी। पानी का ये हाल है कि या तो आता नहीं है और आता है तो इतना गंदा कि खुद नल शर्मा जाता है। 
हमें पहले दिया था बी पी एल कार्ड, कहा गया कि 2 रु किलो चावल मिलेंगे, अब कहने लगे कि पैसे ले लो, चावल बाजार से खरीद लो। ल्यो, 2 रुपये किलो चावल खुले बाजार में क्या तुम्हारा मौसा देगा, फिर धमकी, या तो पैसा ले लो, नहीं तो बी पी एल से भी हाथ धो बैठोगे। तो भैया लोगों, यहां तो धमकियों के सहारे जी रहे हैं। 
हमने सोचा था कि चुनाव के मौसम में हमे दुलराया जाएगा, हमे कहा जाएगा कि ये देंगे, वो देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे, या हो सकता है दे ही दें, यानी कुछ थोड़ा बहुत दे दें, पर दीदादिलेरी की ये हालत है कि साफ-साफ धमकियां मिल रही हैं, ”रुकेगी नहीं मेरी दिल्ली....” माने कर लो जो करना है, बिजली का बिल बढ़ता ही जाएगा, पुलिस वाले ऐसी ही मनमानी करेंगे, सड़कों पर पहले रात को बलात्कार की घटनाएं होती थीं, अब दिन-दहाड़े हुआ करेंगी, हे रे बाबा.....अब हमारा क्या होगा। माथे पर पसीना आ रहा है, रातों को नींद नहीं आती, थोड़ी आंख लगती है तो भयानक सपना आता है कि शीला दीक्षित खुद अपनी निगरानी में गरीब-गुरबा को उठा-उठा कर दिल्ली के बार्डर से बाहर फिंकवा रही है, और अमीर देशी-विदेशियों को गोद मंे उठा कर दुलार रही है। हमारा क्या होगा?
इधर एक और पार्टी आ गई है, नई है, लेकिन धमकियां माशाअल्लाह कमाल की हैं, कह रहे हैं, इस बार दिल्ली में झाडू लगेगी, और अंदाज बिल्कुल पुराने बाजार के चौराहे पर मजमा जमा कर मर्दाना ताकत का हलवा बेचने वाला है, ”ये देखो भाई सा’ब, बदन रगड़ लोहा हो जाएगा, मार धक्का पसीना निकलेगा लेकिन......नहीं निकलेगा। जिसने खाया वो फिर लेने आता है, तुमको चइए तो बोलो, 175 का शीशी, 150 में, लो भाई सा’ब, हां भाई सा’ब, अभी आता हूं भाई सा’ब....” तो इनका अंदाज ऐसा ही है, जैसे कह रहे हों, ”सैंकड़ो बार दूसरों से बेवकूफ बने, एक बार हमसे बेवकूफ बन कर देखिए, हमारे खेमे में आ जाइए, हमसे बेवकूफ बनने में अलग ही मजा है साहब।” रामलीला मैदान में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की धमकी दे रहे हैं, गांव बसा नहीं, लुटेरे पहले आ गए। क्या होगा उस विशेष सत्र में, लोकपाल बिल पास होगा, कैसे होगा, आप कह देंगे कि, ”हो जा सिम-सिम” और हो जाएगा। 
चलिए मान लीजिए हो गया, फिर क्या होगा, फिर आप क्या करेंगे, दिल्ली विधान सभा में बैठकर मंजीरे और खड़ताल बजा कर कीर्तन करेंगे, क्योंकि बाकी तो आप कुछ ऐसा खास नहीं कर रहे हैं। तो अब धमकी यही नहीं है कि ये उस विशेष लोकपाल को बिना किसी जांच-पड़ताल के पास कर देंगे, बल्कि ये भी है, ये बेवकूफ जो ये समझे बैठे हैं कि दिल्ली की महंगाई, दिल्ली विधानसभा के करने से या लोकपाल बिल पास हो जाने से, कम हो जाएगी, ये दिल्ली के राजे बन जाएंगे, और तब दिल्ली वालों का कौन रखवाला होगा। ये दिल्ली की जनता के स्वयंभू हिताभिलाषी, वो बेवकूफ दोस्त हैं, जिनके बारे में किसी ज्ञानी ने सही कहा है कि, ”बेवकूफ दोस्त से, समझदार दुश्मन भला” कम से कम ये तो अंदाजा रहता है कि आगे क्या आने वाला है। इनके बारे में तो यही ना पता कि ये लोग अपने उंट को किस करवट बैठाएंगे, क्योंकि इन्हे खुद नहीं पता कि उंट किस करवट बैठेगा। तो यही सोच-सोच कर धमनियों में रक्त प्रवाह की रफ्तार तेज़ हो जाती है कि अगर ये किसी तरह जीत गए तो आम दिल्ली वासी का क्या होगा। 
तीसरी पार्टी तो भैया धमकियों से ही जन्मी, पली, बड़ी हुई है तो अब अगर वो धमकियां दे रही है तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ये धमकियां ढके-छुपे ढंग से नहीं दे रहे, खुलेआम दे रहे हैं, अपने कारनामों के जरिए, जहां चले वहां बात, नहीं तो लात, घूंसे, डंडा, दंगा, मार-पिटाई, लड़कियां घर में बैठें, चूल्हा-चौका करें, यूं लगे कि दिल्ली की मॉरल पुलिस होगी, बजरंग दल की टुकड़ियां और जज की कुर्सी पर होंगे खाप पंचायत के स्वयंभू पंच, कर लो बेटा संविधान का तीया-पांचा। गोयल ना हो हर्षवर्धन हों, क्या फर्क पड़ता है, कर्मन तो सबके वही हैं, बल्कि हमें तो और भी डर है। बात ये है कि दिल्ली की यूं अराजनीतिक जनता, महंगाई से और अव्यवस्था से परेशान होकर वोट करती है, जैसे प्याज की महंगाई, बिजली-पानी की महंगाई, राशन की महंगाई, पैट्रोल की महंगाई, सड़कों का बुरा हाल, बिजली कटौती का बुरा हाल, सालों से खुदा हुआ सी पी, चौराहे पर रिश्वत मांगते ट्रैफिक पुलिस के थुल-थुल जवान......आदि, आदि। अब प्याज की महंगाई को भाजपा कोई मुद्दा नहीं बना पाई, बिजली-पानी की महंगाई का मुद्दा ”आप” ने पहले ही झटक लिया, तो भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं बचा, कि वो अपने वोटों को एकजुट कर सके, राजनीतिक समीकरण में, और इतिहास से सबक लेते हुए, इसका सीधा मतलब ये है कि उन्हे दंगों की, अव्यवस्था की जरूरत है, आप सबको बेशक कोई मुगालता हो, मुझे पूरा यकीन है कि इस बीच कुछ ना कुछ जरूर होगा। ये धमकी है, समझे, घमकी है ये, जो हमारे सिरों पर लटक रही है, कौन मरेगा, कौन बचेगा, किसका घर जलेगा......मेरी तो सोच कर ही सांस अटक रही है, हाय रे अब क्या होगा। 

एक चुनाव का ही साल होता था, जिसमें थोड़ा दुलराया हुआ महसूस करते थे, हम लोग, बाकी देश की जनता से थोड़ा कम ही सही, जहां बाकी जनता को भौतिक सामान मिलता था, हमने चमचमाते क्लबों, और बड़े-बड़े मॉलों पर वो 2 से 3 हजार वाली चीजों का मोह छोड़ दिया। लेकिन अब क्या करें, अब तो आश्वासनों की जगह भी खुलेआम या ढंके-छुपे धमकियां मिल रही हैं। क्या चुनाव आयोग इन धमकियों का कुछ नहीं कर सकता। ना दुलराएं, अगर एतराज़ है तो, कम से कम, धमकाएं तो नहीं, प्लीज़, प्लीज़ हम दिल्ली वालों की मदद की गुहार सुनिए, और चुनाव के इस मौसम में धमकियों से हमें निजात दिलवाइए।

सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

सुर - असुर


सुर - असुर




अभी जो मैं लिखने जा रहा हूं, उसे लिखने से पहले कुछ बातें साफ कर देना बेहद जरूरी है। पहला तो ये कि मैं एक नास्तिक इंसान हूं, और किसी भी तरह के धर्म, ईश्वर, ईश्वरीय प्रतीक, रीति रिवाज़, आडबंर, परंपरा या निर्देश में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। जब मेरी उम्र धर्म आदि को समझने की हुई थी, लगभग 12 से 15 साल पहले, तभी से मैने सभी तरह के त्यौहारों का बहिष्कार कर दिया था, पहले पूरी कट्टरता के साथ, कि मैं ना उनमें शामिल होता था, बल्कि उनसे संबंधित हर चीज़, यहां तक कि घर में त्यौहारों पर बनने वाले व्यंजनों और मिठाइयों का भी बहिष्कार करता था, बाद में मैने भोजन, व्यंजनों और मिठाइयों का बहिष्कार करना बंद कर दिया, लेकिन त्यौहार में अब भी किसी भी तरह सम्मिलित नहीं होता। दूसरे मैं अच्छी तरह जानता और मानता हूं कि समाज के हर वर्ग को, हर समूह को, हर समुदाय को अपनी बात कहने का हक है, सबको समान अवसर, समान अधिकार मिलने चाहिएं, और किसी भी तरह का भेदभाव मान्य नहीं है। तीसरे इतिहास का लेखन पक्षपातपूर्ण होता है, जिसमें विजेताओं का पक्षपोषण होता है और हारे हुए लोगों को या तो भुला दिया जाता है या फिर उन्हे निकृष्टतम रूप में दिखाया जाता है, यूं इतिहास हमेशा विजेताओं का इतिहास होता है, और अगर इतिहास का अध्ययन एवं विश्लेषण करना हो तो उसके बारे में सिर्फ सुनकर, या पढ़कर फैसला नहीं लिया जा सकता, बल्कि अन्य स्रोतों की सहायता लेना, व सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल भी आवश्यक होता है। अब ये बातें साफ कर लेने के बाद मुझे लगता है कि निम्नलिखित को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाएगा, और इस पर अनर्गल प्रलाप की बजाय सही मायने में विचार होगा।

हिन्दुओं के बहुत सारे त्यौहार हैं, और कमाल ये कि सारे त्यौहार किसी ना किसी तरीके से किसी ना किसी धार्मिक मूर्ति से जुड़े हैं, अगर धार्मिक ना हों तो आध्यात्मिक मूर्तियां होती हैं। लेकिन ज़रा गौर से देखिए, कहां, किसका, कौन सा त्यौहार है जो धर्म से नहीं जुड़ा है। मनाइए, मत मनाइए, ये ना कहिए कि फलां त्यौहार का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। अथवा मानिए कि जितने भी त्यौहार हैं, वो किसी ना किसी तरह लोक जीवन से जुड़े हैं, जिन्हे धार्मिक कथाओं के साथ यूं जानबूझ कर जोड़ा गया है कि वे लोक जीवन से कम और धर्म की प्रतिस्थापना करने वाले ज्यादा लगें। और यूं हर वो त्यौहार जो लोक जीवन से जुड़ा है जो मनाया जाता है, जो मनया जा रहा है। चाहे उसे 15 लोग मनाते हों, 2500 लोग मनाते हों, या 5 अरब लोग मनाते हों। लोक परंपराओं को धर्म से क्यों जोड़ गया, उसकी विवेचना करने की जरूरत मुझे नहीं लगता कि यहां है। 
अभी हिंदुओं का एक त्यौहार मना, या कुछ ऐसा है जिसमें कई त्यौहार एक साथ जोड़ दिए गए हैं, इनमें दशहरा, देवता पुजाई, दुर्गापूजा, नवरात्र और भी कुछ होंगे, जो मुझे याद नहीं हैं, इसी के साथ एक धारा और भी चली, जो इसके बिल्कुल विपरीत, इन त्यौहारों को गलियाने वाली और इन त्यौहारों की कथाओं में आने वाले विलेन को प्रतिष्ठित करने वाली रही। अब क्योंकि मैं इन स्थापित धर्मों के खिलाफ हूं, बहुत ज्यादा खिलाफ हूं, मेरा अपना मानना ये है कि मानव सभ्यता का जितना बुरा इन धर्मों ने किया है, मानवता का जितना बुरा इन धार्मिक मान्यताओं ने किया है, उतना तो प्राकृतिक आपदाओं ने, युद्धों ने भी नहीं किया। इसलिए मैं दुर्गा की, राम की, और हिंदु मिथकीय नायक-नायिकाओं को ना सिर्फ नहीं मानता बल्कि उनकी पूजा करना भी निकृष्तम कार्य मानता हूं। लेकिन इसी के साथ मैं इन मिथकीय कथाओं में नामित दुष्कर्मियों को, असुरों का प्रतिष्ठित किए जाने का भी उतना ही विरोध करता हूं। 
अब ये कहने के बाद सबसे पहले कुछ और बातों पर गौर किया जाए। जब इस तरह का कोई विचार सामने आता है, तो उस विचार को बनाने वाला, या उसे मान लेने वाले, उस विचार को फैलाने वाले, क्या पल भर रुक कर ये सोचते हैं, कि चलो एक बार, सिर्फ एक बार, कम से कम इस विचार का तथ्यात्मक ना सही, तर्कसंगत विश्लेषण तो कर लिया जाए, फिर देखा जाए कि इसे माना जा सकता है या नहीं, या इसका प्रचार किया जा सकता है या नहीं। तो बात शुरु होती है महिषासुर से। अब दुर्गा ने महिषासुर को मारा, या नहीं मारा इस बात पर बहस की जा सकती है। हो सकता है मारा हो, ज्यादा संभव है कि ना मारा हो, क्योंकि मेरे हिसाब से दुर्गा नाम को कोई रहा ही नहीं होगा, ये सिर्फ एक कहानी भर है, जिसे किसी ना किसी तरह जनमानस के जीवन को प्रभावित करने के लिए बनाया गया है। मिथक, इतिहास नहीं होते, वो कहानियां होते हैं, उनमें सामाजिक जीवन, न्याय, पुण्य, पाप आदि का मसाला डाला ही इसलिए जाता है ताकि जनमानस उसे सुरुचि से सुन सके, और हो सके तो अंत में, ”जय दुर्गे” जैसी चीजें बोल सकें। इससे किसी ना किसी को तो फायदा होता ही होगा। लेकिन ये क्या, यदि दुर्गा का असतित्व नहीं है तो ये कैसे मान लिया जाए कि महिषासुर का असतित्व रहा होगा। यानी ये प्रतिष्ठा दो तरीकों से की जा सकती है, एक तो ये मानकर की दुर्गा रही होगी, दूसरी तरफ ये मानकर कि महिषासुर रहा होगा। चाहे वो देवी रही हो, ये राक्षस रहा हो, या वो कहीं की रानी रही हो, और ये कहीं और का राजा रहा हो, बात इनके असतित्व की है। चलिए और आगे चलते हैं, यानी अगर दुर्गा रही हो, महिषासुर, यानी महिष और असुर, अब आप विद्वान लोग ज़रा सोचिए कि ऐसा हुआ होगा कि एक जनजाति रही, असुर, जिसके राजा थे महिषासुर, इनसे लड़ने वालों ने इनके विरोध में अपना नाम रखा सुर। बात कहीं से समझ में आने वाली है क्या। यानी अगर आपके दुश्मन का नाम ”अुसर” हो तो उससे विरोधी नाम के लिए आप अपना नाम ”सुर” रखें। क्या ये ज्यादा तर्कसंगत नहीं लगता कि आपका नाम ”सुर” रहा हो, और आपने अपने मनमुताबित अपने विरोधियों का नाम ”अुसर” रख दिया हो। अगर उपरोक्त तर्क जंचता हो, तो इसका मतलब ये जो ”अुसर” जनजाति है, यानी जो आज आप से हाथ जोड़ कर, भावनात्मक विनती कर रही है, महिषासुर इस जनजाति का नहीं रहा हो सकता, ये हो सकता है कि जिस जनजाति का महिषासुर रहा हो, उसके लोगों को बाद में असुर कहा गया हो, लेकिन तब उसका नाम कुछ दूसरा रहा होगा, यानी अपनी ”शहादत” से पहले। क्या नाम था, मैं उम्मीद करता हूं, वही बताएंगे जो इतने जोश-खरोश के साथ महिषासुर को असुर जनजाति का राजा घोषित और स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। 
इस देव प्रतिस्थापन अभियान में जुड़े ज्यादातर लोग बेवकूफ वकीलों की तरह तर्क कर रहे हैं। यानी वो पहले एक वक्तव्य देते हैं, जिसका कोई प्रमाण नहीं देते, और फिर अपनी सारी बहस को उस एक तर्क पर आधारित कर देते हैं, और हमसे उस वक्तव्य को ही प्रमाण मान लेने की जिद करते हैं। आर्यों का अनार्यों के साथ युद्ध। बार-बार इस बात को सामने लाया जा रहा है कि पूरा हिंदु मिथक सुर-असुर संग्राम से भरा पड़ा है जिसका अर्थ ये है कि आर्यों का यहां की मूल जनजातियों के साथ लड़ाई हुई, युद्ध हुआ, जिसमें आर्य जीत गए, और मूल निवासियों को उनके मूल अधिकार से वंचित कर दिया गया। पहले पहला सवाल, क्या यहां सिर्फ एक जाति थी, यानी ”अुसर” जिससे आर्यों का युद्ध हुआ, अगर हां, तो वो बाद में गोंड, संथाल, भील, हो, उरावं, सहरिया.........आदि जनजातियों में क्यों बंट गई, इसीके साथ इस पर भी गौर फरमाइएगा कि इनमें से हर आदिवासी जनजाति का अपना इतिहास ये कहता है कि पृथ्वी के मूल निवासी वे हैं, बाकी जनजातियां उन्ही में से निकली हैं। ”इनमें भी देवता, धर्म, आदि भरपूर है।” अगर नहीं तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि आर्यों ने सिर्फ असुरों से ही युद्ध किया, बाकी जनजातियों से या तो युद्ध नहीं किया, या फिर अपने मिथकों में उनका नाम ही नहीं लिया। हो सकता है बाकी जनजातियों के प्रति उनमें कोई सम्मान का भाव रहा हो, या फिर बाजी जनजातियों ने उनसे कहा हो, कि भाई हमें अपने मिथकों से अलग रखना, ताकि हमे हारा हुआ ना दिखाया जा सके। 
अब एक बार इस बात पर भी बात हो ही जाए, कि आखिर महिषासुर को दुष्टात्मा क्यों दिखाया गया, दुर्गा को उस पर विजय पाते हुए क्यों दिखाया गया, उसकी पूजा क्यों होती है। जरा सामाजिक विकास की उस अवस्था की कल्पना कीजिए, जब तीन ही चीजें प्रमुख होती थीं। पहला भोजन की व्यवस्था, दूसरा अन्य कबीलों से अपने कबीले की रक्षा करना, और हो सके तो दूसरे कबीलों पर आक्रमण करके अपने कबीले को ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाना, और तीसरा अपने कबीले में ज्यादा से ज्यादा प्रजनन करना। ये तीनों ही प्राथमिकताएं असल में अपने असतित्व को बचाए रखने के लिए आवश्यक थीं, आज भी हैं। तब हीरो वो नहीं होता था जो अच्छा अभिनेता होता था, या मिमिकरी कर सकता था, अच्छी चित्रकारी करता था, और किताब लिखना तो जाने ही दीजिए, तब हीरो यानी नायक और नायिका वही हो सकते थे, जिसने दुश्मनों को मारा हो, जिसने दुश्मनों पर विजय पाई हो, जो कुशल और बर्बर योद्धा हो, चाहे वो किसी का सिर काट ले, चाहे खून पिए, चाहे मांस खाए। अब हो सकता है कि पहले ये पूजा डर के मारे की जाती हो, कि अगर इसकी पूजा ना की जो ये हमें भी मारेगा, और बाद में वही परंपरा बन गई हो, या हो सकता है कि इसके पीछे ये भावना काम करती हो कि, ये इतनी कुशल योद्धा है तो यही हमारी रक्षा करने में समर्थ है। आज भी ऐसा ही होता है, और जब आप अपने गांव के गुंडे का समर्थन करते हैं, तो ये नहीं देखते ही वो बर्बर है, बल्कि ये देखते हैं कि वो आपके दुश्मनों से कैसा सलूक करते हैं। अब आप उस दौर के सामाजिक मानकों को आज के नैतिक सिद्धांतों के तराजू पर नहीं तौल सकते। अगर आप ऐसा करना चाहते हैं, तो फिर बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों को बुरा मत कहिए, क्योंकि वो भी तो यही चाहते हैं। अगर हम आज की मान्यताओं को आज के नैतिक, सामाजिक संदर्भ में देखना चाहते हैं, तो सबसे पहले तो उन घटनाओं को आज के मानकों पर तौलना बंद करना होगा, आज जो घट रहा है, उसका विरोध कीजिए, जरूर कीजिए, लेकिन सिर्फ उन घटनाओं को बुरा-भला कह देने भर से आप कुछ हासिल कर सकते हैं। आज के समाज की जरूरत ऐसे सामाजिक संघर्ष की है, जो पूरे समाज को समान अधिकार, समान अवसर, और सम्मान दिला सके। अगर आप इस तरह के संघर्ष की जगह किसी सतही संघर्ष में अपना हल तलाश कर रहे हैं तो माफ कीजिए आपको निराशा ही हाथ लगेगी। लेकिन असल में इस अभियान के पीछे कुछ ऐसे ही लोगों के हाथ होने की बात समझ आती है, क्योंकि ये पूरा अभियान इस तरह के आधारविहीन तर्कों के बल पर खड़ा किया गया है कि लगता है कि इसे शुरु करने वाले भी अच्छी तरह जानते हैं कि इस अभियान का, इसके जो कारण दिए जा रहे हैं, उनका कुछ होने-हवाने वाला नहीं है। लेकिन इससे इनकी दुकान खूब चल निकल सकती है। 
यहां एक छोटा सा उदाहरण देना अनुचित नहीं होगा। जिन अफ्रीकी गुलामों को अमेरिका ले जाया गया था, उनके मालिक, उनके प्रताड़क सभी इसाई ही थे, जबकि ये अ्रफीकी गुलाम जो प्रकृति पर आधारित अपने किसी दूसरे की धर्म को मानते थे, उनके अपने धर्म कई सारे धर्म थे, या यूं कह लीजिए, अपने धर्म को, धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने के कई रूप थे। अब इसे कैसे बदला जाए, या दबाया जाए। एक पूरा अभियान चलाया गया, जिसमें काले पादरी हुए, काली नन हुईं, काले गिरजे हुए, और तो और, अब जीसस भी काले हो गए। अब इसे यूं मानिए कि धर्म की रूढियों से लड़ने के लिए जब भी कोई रूढ़ी सामने आती है, तो वो भविष्य में वो रूढ़ी ही धर्म की एक नई शाखा का रूप ले लेती है। बुद्ध की मिसाल लीजिए, अपने भीतर अपने सत्य को तलाशने की कहने वाले बुद्ध के साथ क्या किया गया, उनकी मूर्ति बनाई गई, उनके नाम पर शलोक बनाए गए, उनके मंदिर बनाए गए, और अब तो उनके नाम पर हत्याएं तक हो रही हैं। बनाइए नऐ प्रतीक, महिषासुर, रावण और भी जो आपको जंचे, या जिसे आप बना सकें, यकीन मानिए, ये रूढ़ियां, ये धार्मिक मिथकीय प्रतीक किसी का कुछ भला करें या नहीं, समाज का बुरा ही करेंगी। धर्म से, रूढ़ियों से, परंपराओं से और अंधभक्ति से लड़ने का सिर्फ एक ही तरीका संभव है, और वो इंसानी संघर्ष को धर्म के खिलाफ खड़ा कर देना, वैज्ञानिक चेतना, और इतिहास की वैज्ञानिक व्याख्या को मिथकों के सामने खड़ा करना, और जनता को इन मिथकीय रूढ़ियों के खिलाफ खड़ा करना। 
आप कहानियां लिखिए, कहानियां बनाइए, अपनी जनजाति के इतिहास के गौरव को सुनिश्चित कीजिए, बेझिझक सभी से रूढ़ियों पर आधारित धर्म व त्यौहार ना मनाने की अपील कीजिए, लेकिन एक और धार्मिक प्रतीक मत खड़ा कीजिए। 
धार्मिक प्रतीक और व्यक्तित्वों को निर्माण इसी तरह होता है, पहले किसी व्यक्ति, योद्धा को, राजा को स्थापित किया जाता है, फिर उसकी पूजा शुरु हो जाती है, धीरे-धीरे उसके जीवन के साथ किस्से कहानियां जुड़ती हैं, फिर आश्चर्य जनक और फिर अतिश्योक्तिपूर्ण वाकये जोड़े जाते हैं, ये सब उस व्यक्तित्व को और महान दर्शाने के लिए किया जाता है, धीरे-धीरे, जब लोग उसे मानने लगते हैं, उसकी पूजा करने लगते हैं, उसकी फोटो, मूर्तियां आदि बनाने लगते हैं, तो फिर उसके साथ कमाई करने वालों की जमात आती है, और उसकी कथाएं सुनाई जाती हैं, जिनमें उसके अति-अतिश्योक्तिपूर्ण कार्यों की, अतिमानवीय कार्यों की चर्चा की जाती है, और जल्दी ही वो इंसान ना होकर, ईश्वर या ईश्वर का अवतार हो जाता है। किसी भी एतिहासिक महापुरुष को देख लीजिए, अगर वो बचपन में गरीब था, तो ये हो ही नहीं सकता कि वो बचपन में बिजली के खंभे के नीचे ना पढ़ा हो, उसने दिए कि लिए पैसे ना बचाए हों, आदि, आदि। अब भी यकीन ना हो तो भीमा नायक, खाज्या नायक के किस्सों को देख लीजिए, अंग्रेजों से लड़ने वाले ये जनाजातिय धुरंधर, हवा में उड़ते थे, एक साथ 19 जगहों पर दिखाई देते थे, एक ही वार में 12 या उससे ज्यादा दुश्मनों को मार डालते थे। क्या बिरसा को भगवान का अवतार नहीं माना जाता, जनजातिय गौरव के लिए, इतिहसा में अपने सम्मानपूर्ण स्थान के लिए संघर्ष जरूरी है। लेकिन क्या इसके लिए शोषक मिथकों के समकक्ष अपने मिथक गढ़ना जरूरी है।
और अब बात आती है मूलनिवासियों, मूलवंशजों की। ये बात मैं यहां से शुरु करना चाहता हूं कि, एक बार एक महिला से बात हो रही थी, और उन्होने कहा कि किसी एक जनजातिय व्यवस्था में बलात्कार नहीं होता, महिलाओं का शोषण नहीं होता, और अब अगर होने लगा है, तो वो बाहरी प्रभावों का दुष्परिणाम है। यही बात बार-बार सामने आ रही है। सारी बुराईयां बाहर हैं, अंदर सबकुछ भला है, अच्छा है, जिसमें किसी तरह के सुधार की जरूरत नहीं है। जरूरत बस इस बात है कि इस जनजातिय समाज को बाहरी प्रभाव से बचा लिया जाए। क्या आपको ये कुछ सुना सुनाया विश्लेषण नहीं लगता। हमारी संस्कृति बहुत अच्छी है, हमारी संस्कृति सोने की है, हमारी संस्कृति सबसे महान है, इसमें कोई बुराई नहीं है, और अगर अब कोई बुराई है तो वो इसलिए कि वो पाश्चात्य प्रभाव में आ गई है। बात वही पुरानी है, खोल नया है। शोषित, पीड़ित हर समाज में रहे हैं, हैं, सवाल ये है कि आपने उन्हे कैसे देखा है, प्रभावशाली, प्रभुत्वशाली हर समाज में होते हैं, सवाल ये है कि क्या आप उन्हे पहचान पा रहे हैं या नहीं। अब यही बात जनजातिय समाज के बारे में कही जा रही है, कि साहब जनजातिय समाज में तो बलात्कार है ही नहीं है, होता ही नहीं, और अब जो होने लगा है तो वो तो दिकुओं का प्रभाव है। जिसने हमारे युवकों, युवतियों को बिगाड़ दिया है। अब इस संदर्भ को यदि ना समझा गया, तो फिर पड़े करते रहिए गुणगान अपनी सभ्यता और संस्कृति की पवित्रता का, जो हो रहा है वो होता रहेगा। 

ज़रा इस पर गौर फरमाइए, आर्य बाहर से आए, यानी, यानी आर्य हिन्दुस्तान में बाहर से आए, मतलब, मतलब तब हिन्दुस्तान नाम की कोई चीज़ थी जिसमें आर्यों ने प्रवेश किया, अनाधिकार, ओह.....अच्छा। तो जनाब क्या आर्यों को वीज़ा पासपोर्ट लेना चाहिए था, क्या उन्हे यू एन नाम की किसी अंर्तराष्ट्रीय संस्था से अनुमति लेनी चाहिए थी, क्या उन्हे आप से अनुमति लेनी चाहिए थी। बात फिर वहीं है, आप उस दौर की घटना का मूल्याकंन आज के मानकों पर आधारित करके कर रहे हैं। मानव सभ्यता का विकास और फैलाव इसलिए हुआ क्योंकि इंसान स्वभावतः प्रवासी है, वो एक जगह से दूसरी जगह प्रवास करता है, खुद को नई जगह के हिसाब से ढालता है, और फिर वहां अपने रहने लायक जगह बनाता है, फिर उसका एक हिस्सा किसी दूसरी जगह की, किसी बेहतर जगह की तलाश में चला जाता है। यूं देखा जाए तो सारी मानव सभ्यता ही बाहरी है, जो दूसरी जगह की तलाश में जाता है, उसका मूलनिवासियों के साथ संघर्ष होता है, जिसमें किसी की जीत होती है, किसी की हार होती है, जिसकी हार होती है, वो दास, या शूद्र या उससे भी निकृष्ट श्रेणी में गिना जाता है, और जीते हुए लोग खुद को देव, या सुर या सबसे महान व्यक्तियों की श्रेणी में मानते हैं। क्योंकि इतिहास विजेता जाति का इतिहास होता है, मिथक विजेता जाति के मिथक होते हैं, विश्वास विजेता जाति का विश्वास होता है। विजेता जाति के योद्धाओं को पूजा जाता है, हारे हुए लोगों को शत्रु, और दुष्टों के रूप में चित्रित किया जाता है। अब आप एक तो ये मान सकते हैं कि शूद्रों को ब्रहम् के जननांगों या पैरों से निकला हुआ बताया जाता है, या ये मान सकते हैं कि जिन लोगों को हराया गया, जो हार गए, दास बनाए गए, उन्हे कबीले में होने वाले सबसे निकृष्टम काम दिए गए, उन्हे हर वो यातना, या उत्पीड़न झेलने के लिए विवश किया गया जो दिया जा सकता था। जैसे नगर के बाहर रहना, उनके साथ छुआछूत बरतना, उनकी हत्या कर दिए जाने पर किसी तरह का प्रायश्चित नहीं होना। अब ज़रा सोचकर बताइए, शूद्रों की उत्पत्ति का आपको मिथकीय तर्क ज्यादा वज़नदार लगता है या फिर समाज के विकास के सिद्धांत पर आधारित ये तर्क।
विजेता जाति ने विजित जाति के साथ जो किया, अब तक भी जो किया, वो व्यवहार किन मूल्यों, मानकों पर तौला जाएगा, उसका प्रतिकार किस तरह किया जाएगा, इस स्थिति को व्यवस्था को किन मूल्यों व मानकों पर बदला जाएगा। आपके पास कुछ विकल्प हैं, जिनमें से एक तो ये है कि समाज की व्यवस्था को समझने वाले, इसका विश्लेषण करने वाले, और तात्कालिक व्यवस्था के मद्देनज़र इस व्यवस्था का प्रतिकार करने के अंबेडकर, और उनके जैसे महान विचारकों द्वारा दिखाए रास्ते और समाज में इस तरह की व्यवस्था परिवर्तन के जरिए समानता के विचार की स्थापना के लिए कार्य किया जाए। अपने समाज को वैज्ञानिक चेतना से समृद्ध किया जाए, उनमे नेतृत्व की क्षमता विकसित की जाए, और फिर सत्ता पर कब्जा किया जाए, या फिर एक और विकल्प ये भी हो सकता है, कि  इस समाज को पूजने के लिए नये प्रतीक, दे दिए जाएं, और इनसे कहा जाए कि इन्हे पूजो, इन्हे मानो, बाकी कुछ करने की जरूरत नहीं है। दुश्मन के तौर पर सदियों से तुम्हारे शोषक रहे आर्य मौजूद हैं, उनसे घृणा करो, लेकिन उन्ही के देवी-देवताओं की तरह अपने देवी-देवता बना लो, उनकी परंपराओं और रूढ़ियों के सामने अपनी रूढ़ियों को खड़ा करो और फिर......बस हो गया सब कुछ।

अब आखिरी बात, फिल्म ”खुदा के लिए” का एक डायलॉग याद आ रहा है, मौलाना से जब कहा जाता है कि इस्लाम में दाढ़ी जरूरी है तो वो जवाब देते हैं, कि इस्लाम में दाढ़ी होती है, दाढ़ी में इस्लाम नहीं होता। इसलिए ये खास तुम्हारे लिए दोस्त, समुदाय बचेगा तो भाषा अपने-आप बच जाएगी, भाषा बचाने से समुदाय या जनजाति नहीं बचेगी। बल्कि समुदाय भी खत्म हो जाएगा, और भाषा भी। 

आखिरी बात। ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, और ये मेरा व्यक्तिगत मत है, कि दुर्गापूजा, और इस तरह के किसी भी त्यौहार का, खासतौर पर इसकी टीम-टाम का, इससे जुड़ी रूढ़ियों का विरोध होना चाहिए, बिल्कुल होना चाहिए, कस कर होना चाहिए। लेकिन इनके बरखिलाफ जनसंस्कृति, और जनकला का रास्ता अपनाना चाहिए, ना कि नई रूढ़ियों, और नये ईश्वरों को स्थापित करने का। आज की सबसे बड़ी जरूरत पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, और नवउदारवाद के खिलाफ एक संगठित संघर्ष की है, क्योंकि जब तक ये शक्तियां मौजूद हैं, ना तो आपकी भाषा बचेगी, ना लोकपरंपरा, ना लोक संस्कृति, लेकिन अगर आप ये जंग जीत गए, तो जो नया समाज बनेगा, वो ऐसा समाज होगा जिसमें सभी के लिए समान अधिकार, एवं समान अवसरों की जगह होगी। 


शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

कामयाबी






कामयाबी


एक जमाना था जब लंबी दूरी की यात्राओं में, ट्रेन हो या बस, आमतौर पर आपको अपने हाथ के दोनो पंजे आपस में घिसते हुए लोग दिख जाते थे। मेरे जैसे अज्ञानी लोग आश्चर्य से दोनो पंजों के नाखून घिसते लोगों को देखते थे, एक बार तो पूरी ट्रेन के लोग पंजे घिसते हुए दिखे थे। कुछ साथियों ने बताया कि ये सिर के बाल जमाए रखने का बाबा जी, यानी रामदेव का बताया हुआ नुस्खा है। हम सभी इस नुस्खे की सार्थकता पर संदेह करते हुए हंसते थे, और इसका मजाक उड़ाते थे। अब आपको इस तरह के लोग कम दिखेंगे, यानी बहुत ही कम, कभी ही कोई इक्का-दुक्का इंसान आपको इस तरह पंजों के नाखून आपस में घिसता हुआ मिलेगा। क्यों? 

वजह है कामयाबी। जी हां, दरअसल मैने ऐसा कभी नहीं किया है, मेरे साथ मामला कुछ और ही है, मेरे सिर के बाल काफी घने और मुलायम हैं, इसलिए मुझे जरूरत नहीं पड़ी, वैसे भी रामदेव पर मुझे कभी विश्वास नहीं रहा, जो बाद में सही साबित हुआ, और पंजों के नाखून घिसना मुझे बहुत ही वाहियात लगता है। लेकिन करने वालों ने मुझे बताया था कि इसका फायदा बहुत है, यानी, यानी बाल उग आते हैं। अब अगर ये तरकीब कामयाब है, तो कहां तो पूरी दुनिया को अपने हाथों के पंजे के नाखून घिसते हुए दिखना चाहिए था, और कहां अब ऐसा करता कोई दिखाई नहीं पड़ता। बल्कि जो लोग पूरा-पूरा दिन पंजों के नाखूनों को घिसते रहते थे वो अब पूछने पर नज़रें चुराने लगते हैं। 

दरअसल पंजे घिसने का नज़ारा बंद होने के पीछे का कारण, इस नुस्खे की कामयाबी है। समस्या बस ये है कि हाथ के पंजे घिसने से शरीर के किस हिस्से में बाल आ जाएंगे या बढ़ जाएंगे इस पर ना बाबा का कंट्रोल होता है, ना पंजे घिसने वाले का। नतीजा ये कि लोग कांख, पेट, पीठ, और ना जाने कहां-कहां के बाल काट-काट कर परेशान हैं, समस्या सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती, बाल उगने या बढ़ने की ये प्रक्रिया जो पंजे के नाखून घिसने से शुरु होती है तो फिर नाखून ना घिसने से खत्म नहीं होती, बल्कि बाल लगातार बढ़ते रहते हैं, और लोग काट-काट के परेशान। सुना है बाबाजी इस मुद्दे पर परेशान हैं, और इसका समाधान ढूंढने में लगे हैं। इसलिए आजकल उन्हे अपने हाथ कं पंजों को बदन के कई हिस्सों पर घिसते हुए देखा जा सकता है, जिसमें पिछवाड़ा प्रमुख है। उम्मीद है कि जल्दी ही, बाल बढ़ाने का नुस्खा कामयाब हो जाएगा और बाबाजी के चेले अपने हाथों के पंजे को शरीर के बाकी हिस्सों पर घिसते हुए नज़र आएंगे।

इधर काफी दिनों से आर्ट ऑफ लिव इन, मेरा मतलब लिविंग के प्रबंधक, प्रचारक, बाबा श्री श्री रवीशंकर दिखाई नहीं दे रहे। जहां उन्हे सबसे ज्यादा सक्रिय होना चाहिए था, वहीं से नदारद हैं। कहां तो आधुनिक इंसान को जीने के गुर सिखाते थे, कहां खुद गायब हो गए। ना मीडिया में दिखाई दे रहे हैं, ना टीवी में आर्ट ऑफ राजनीति के गुर बता रहे हैं, ना कहीं मीडिएशन कर रहे हैं, और ना ही अखबारों, टीवी में दिखाई पड़ रहे हैं। असल में उनके गायब होने के पीछे का राज़ भी कामयाबी ही है। आर्ट और लिविंग यानी जीने की कला की कामयाबी। असल में रवीशंकर को पहले से ही पता था कि अच्छे लिविंग के लिए किस चीज़ की जरूरत होती है। पैसा, शान-ओ-शौकत, ताकत, सेवक, हर शहर में घर, घूमने के लिए गाड़ियां, हवाई जहाज़, हजारों चेले-चेलियां.....आदि आदि। अब जब आपको कुछ ना आता हो, आप आलसी और अकर्मण्य हों, तब भी ऐश-ओ-आराम का चस्का हो, तो सबसे बेहतर काम है, बाबा बन जाओ। शुरु में थोड़ी इन्वेस्टमेंट होती है, मीडिया मैनेजमेंट ठीक-ठाक हो जाए, तो पहले के दो-तीन बैच ऑफ चेला-चेली बन जाते हैं, उसके बाद तो फिर ऐश ही ऐश है। 

तो इस तरह मिलती है सफलता, आर्ट ऑफ लिविंग यानी जीने की कला के प्रचारक, ने जीने की सभी सुविधाएं हासिल कीं, और अब इसी कला का प्रचार भी कर रहे हैं, तो जीने की कला यानी बिना कुछ किए ऐश करना। तो वो इसमें सफल रहे और अब ऐश काट रहे हैं। बीच मंें सुना था कि राजनीति में उतरने की सोच रहे हैं, लेकिन राजनीति थोड़ा टेड़ी चीज़ है, उसमें काम भी करना पड़ता है, जैसे अब केजरीवाल को करना पड़ रहा है। तो आलसी लोगों को, आंय, बांय, शांय बकने वाले लोगों को राजनीति करना भारी पड़ सकता है, अब चेला चेलिया ंतो आप कुछ भी बोलिए, सहमति में सिर हिलाते हैं, लेकिन राजनीति में आलोचना भी होती है। शायद इसलिए श्री श्री ने राजनीति के अखाड़े में अपनी इतिश्री कर ली और अब आर्ट ऑफ लिविंग की सफलता से कमाई हुई लिविंग भोग रहे हैं।

खैर बाबाओं में बाबा, आसाराम की सफलता के किस्से तो अब किस्से कहानियों की बातें बन चुके हैं। क्या ना किया बाबा ने, भोगा और भोगा और भोगा, और भागने की बारी आई तो पकड़ा गया। लेकिन उसकी सफलता की हद ये है कि अपने पूरे जीवन, जोबन काल में, और बुढ़ापे में भी, उसने जितनी महिलाओं का खाना खराब किया उसमें से बहुत ही कम सामने आईं। इसे कहते हैं, ऐश की ऐश, रखने को कैश। अब बाबा जेल में हैं, लेकिन इससे उनकी सफलता को कम करके नहीं आंका जा सकता। वो जब तक था, सफल था, 



गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

बाथे और बथानी




बाथे और बथानी

ईश्वर के अनेक रूप, आकार-प्रकार और रंग हैं, उसकी लीला अपरंपार है। वो जिसको चाहे जिलाता है, जिसे चाहे मार देता है, किसी-किसी को अपंग अशक्त भी करता है, और कुछ को किन्ही और तरीकों से सज़ा देता है। अब अगर आप ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था में यकीन रखते हैं तो आप इस सज़ा को कबूल कर लीजिए और चुप बैठिए, और अगर कहीं आपका यकीन ईश्वर में ना हो, तो धरती पर मौजूद उसके एजेंटों की जिम्मेदारी बन जाती है कि वो आपको समय-समय पर याद दिलाते रहें कि ईश्वर है।

बाथे में क्या हुआ, कौन जानता है। या तो ईश्वर या उसके एजेंट, आप कैसे कह सकते हैं कि आप जानते हैं। इस देश में लोकतंत्र है, न्याय की व्यवस्था है और कोर्ट हर सबूत देखकर, पूरे यकीन के साथ फैसला सुनाते हैं। कोर्ट को जब लगता है कि किसी जगह कोई जनसंहार ईश्वर का कृत्य है तो वो फिर किसी इंसान को सज़ा नहीं दे सकता। आखिर कोर्ट ईश्वर के यकीन से आगे बढ़कर फैसला कैसे दे सकता है। आखिर ये कोर्ट ही तो था जिसने एक मुकद्में में राम लला को एक पार्टी करार दिया था, तो वही कोर्ट अगर ये मान ले कि बाथे-बथानी जैसे जनसंहार ईश्वरीय कृत्य हैं जिनके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सज़ा नहीं दी जा सकती तो आश्चर्य कैसा? 

आज की इस दुनिया में पाप बहुत बढ़ गया है, दलित, निचली जाति के लोग, गरीब-गुरबा, अपने हाल पर खुश नहीं हैं, वो अपने हक-अधिकारों की बात करने लगे हैं। ऐसे में कैसे चलेगा ईश्वर का राज। जो व्यवस्था ईश्वर ने बनाई है, उसमें सवर्ण होते हैं, जिनकी सेवा करना नीची जात का काम होता है, और अगर कोई दलित अपने ईश्वर प्रदत्त काम से मुहं मोड़ता है, अपने अधिकार की बात करता है तो उसे सबक सिखाना ईश्वर के एजेंटो का परम कर्तव्य बन जाता है। कोर्ट ने बाथे जनसंहार के सभी अभियुक्तों को रिहा करके ये जतलाया है, और सही जतलाया है कि, वे सभी दलित-दमित लोग अपने किए की सज़ा पाए हैं, उन पर कोई अन्याय जैसी चीज़ नहीं हुई है। 11 नवंबर 1998 में जब उन सबको मारा गया था, तो ये काम किसी इंसान का नहीं हो सकता, और अगर किन्ही इंसानों ने ये काम किया भी हो तो उन्हे दोषी ठहराना, सज़ा देना, ईश्वर प्रदत्त व्यवस्था में सीधा हस्तक्षेप होगा। 

निचली अदालतें अक्सर जनता के दबाव में आकर लोकतंत्र के गलत भावार्थ के ज़रिए दलितों-दमितों के पक्ष में फैसले दे देती हैं, लेकिन उच्च न्यायालय ज्ञानवान है, समृद्ध है, विचारशील है, वो निचली अदालतों में होने वाली गलतियों को सुधारता है, और उन्हे ईश्वर द्वारा बताए रास्ते पर लाता है। इसीलिए सभी अभियुक्तों को रिहा कर दिया गया। यकीन मानिए बाथे जनसंहार किसी मनुष्य का काम नहीं था। वो हो गया, जैसे उसके बाद के जनसंहार हुए, अभी हो रहे हैं, और होंगे। 

ये लड़ाई दो वर्गों के बीच की लड़ाई नहीं है, बल्कि पाप और पुण्य के बीच की लड़ाई है। एक तरफ पापी, यानी दलित, दमित, अल्पसंख्यक हैं और दूसरी तरफ ईश्वर, उसके सारे सामंत सरदार, न्यायपालिका, कार्यपालिका, और उनके अधिकारक्षेत्र में जिनती ताकतें हो सकती हैं, वो सब हैं। अब समझिए आप, क्या आप ईश्वर से जीत पाएंगे। कहता रहे राष्ट्रपति इसे राष्ट्रीय शर्म, अरे ये तो राष्ट्रीय गौरव की बात है। अमीरदास आयोग जैसी चीजें इन्ही ईश्वर प्रदत्त व्यवस्थाओं में खामी ढूंढती हैं, आप कहिए क्या हक है इन्हें उसकी न्याय व्यवस्था में खामी ढूंढने का, इसलिए उस आयोग को भंग कर दिया गया, सोचिए अगर उस आयोग ने ये साबित कर दिया होता कि, इन जनसंहारों के पीछे रणवीर सेना का हाथ है, और इसके चलते किसी को सज़ा हो जाती, हे ईश्वर, मान लीजिए मुखिया को ही सज़ा हो जाती, तब कौन उठाता धर्म की ध्वजा, बिना संदेह के, कौन करता ये जरूरी काम। 

कुछ लोग बाथे-बथानी जनसंहारों को इस देश में होने वाली अन्य घटनाओं से अलग करके देख रहे हैं, उनकी जानकारी के लिए, ये सब घटनाएं उसी एक व्यवस्था को कायम रखने के अलग-अलग किस्से हैं, जो धर्म की आस्था के ज़रिए स्थापित होती है। चाहे वो छत्तीसगढ़ में हो, या गुजरात में, कश्मीर में हो, या फिर मारुति जैसे औद्योगिक मजदूरों की बात हो। कोर्ट लगातार धर्म की ध्वजा उठाए चल रहा है, और लगातार मजदूरों, दलितों, दमितों को ये सबक सिखाने की कोशिश कर रहा है, कि मान जाओ, चुप्पे बैठ जाओ, नहीं तो मारे जाओगे, जिंदा जला दिए जाओगे, और बच गए तो तुम्हारे उपर ही हिंसा फैलाने का आरोप लगा कर तुम्हे जेल में बंद कर दिया जाएगा, तुम्हारी औरतों का बलात्कार किया जाएगा, तुम्हारे बच्चों को तलवारों की नोंक पर उछाला जाएगा, आग में फेंका जाएगा।

दुख बस यही है कि ये लोग अब भी नहीं मान रहे हैं, सदियों से स्थापित इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं। आक्रोश रैलियां, और खबरदार रैलियां निकाल रहे हैं, राजमार्गों को जाम कर दे रहे हैं, इनकी मुठ्ठियां भिंची हुई हैं, गर्दन की नसें फूली हुई हैं, और ये इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। इन लोगों की आंखों में आक्रोश है, नारों में गुस्सा है, और दिलों में इंकलाब है। ये लोग बाथे-बथानी के जनसंहारों से नहीं मानने वाले, ये लोग रणवीर सेना, सलवा जुडुम से नहीं मानने वाले, ये लोग पुलिस, सेना, कोर्ट से नहीं मानने वाले, ये लोग सुशासन और समाजवाद के झूठे नारों से नहीं मानने वाले। ये लोग ईश्वर द्वारा स्थापित, सामंती सोच और शासकीय अहं द्वारा पोषित, पुलिस, फौज, कोर्ट द्वारा संरक्षित व्यवस्था को उलट देने की बातें करने लगे हैं। इन्हे दबाने के लिए लगातार बनने वाले कानून, उल्टे-सीधे फैसले, पूंजीवादी आकार-प्रकार की साजिशों के बावजूद ये लोग बढ़े आ रहे हैं। अब आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी। अब इस धरती पर या तो ईश्वर की सत्ता रहेगी, या शोषितों, दलितों, दमितों का परचम फहराएगा। 

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्बुद्धि हो, की जगह ये लोग हर जगह इंकलाब हो, इंकलाब हो, इंकलाब हो का नारा लगा रहे हैं। अगर इस युद्ध में ईश्वर की सत्ता उलट गई और ये लोग कल के शासक हो गए, तो उस समय के लिए, हे ईश्वर इन्हे कभी माफ ना करना, क्योंकि ये दलित, शोषित सर्वहारा सब जान समझ गए हैं, और सबकुछ जान समझ कर, तुम्हारी, धरती पर तुम्हारे एजेंटों की सत्ता को चुनौती दे रहे हैं, और ये जो कर रहे हैं पूरी समझ के साथ, पूरी निष्ठा के साथ इंकलाब लाने के लिए कर रहे हैं।  

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

सुशासन और पिटाई


सुशासन और पिटाई



भारत के लोग कब समझेंगे, इस देश का कुछ नहीं हो सकता। जब भी कोई भला आदमी कुछ बेहतर करने की कोशिश करता है, इस देश के लोग उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। जब भी कोई इस देश का विकास करने की, इसे दुनिया में आगे ले जाने की, इसे विकास के रास्ते पर ले जाने की बातें करता है, लोग उसकी आलोचना करना शुरु कर देते हैं। उसके कामों में मीन-मेख निकालना शुरु कर देते हैं। आप ये नहीं समझते कि हर काम अपने समय पर होता है, हर काम का एक तरीका होता है, एक व्यवस्था होती है। नहीं, आप तो अव्यवस्था चाहते हैं।

अब यही देखिए, बिहार में पुलिस ने प्रवीण कुमार गुंजन की पिटाई की, उसे रात भर हाजत में रखा, और सुबह उससे ये लिखवा लिया कि उसे ससम्मान छोड़ा गया है। अब इस खबर का बाहर निकलना था कि संस्कृतिकर्मियों का हल्ला शुरु, इन लोगों को सुशासन की प्रक्रिया का पता ही नहीं है। मुख्यमंत्री का काम है, सुशासन की घोषणा करना, भारत जैसी व्यवस्था में, या बिहार जैसे राज्य में सुशासन को इम्प्लीमंेट यानी लागू करना, असल में पुलिस प्रशासन का काम होता है। अब मान लीजिए किसी नौंटकी वाले को मुख्यमंत्री ने दया दिखला कर कुछ सम्मान-अम्मान दे दिया तो इसका ये मतलब नहीं है कि पुलिस उसे नहीं पीटेगी, माने पुलिस उसे पीटेगी, तो सुशासन हो जाएगा। 

आप अब भी नहीं समझे, देखिए सुशासन का क्या मतलब होता है, अच्छी शिक्षा, रोजगार, सम्मान के साथ आजीविका, भूमिहीनो को जमीन, स्वास्थय सेवा, और भी ना जाने क्या-क्या, अब इत्ता सब मांगिएगा तो कइसे होगा भाई। नहीं है ना संभव। लेकिन सुशासन का एक दूसरा तरीका भी है, दूसरा तरीका है कि लोग-बाग ये सब मांगना ही बंद कर दें। ना लोग मांगेगे, ना सरकार की देने की जिम्मेदारी बचेगी। हर जगह शांति, चहुं ओर सन्नाटा, हींग लगे ना फिटकरी, मौज मनाए टाटा। बोलिए हो गया ना सुशासन। तो सुशासन की घोषणा मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी थी, लेकिन सुशासन को लागू करना तो पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है, जिसे पुलिस ने बखूबी अपने हाथ में ले लिया है। 

ये रंगकर्मी जाति जो है ना, ये ना सिर्फ खुद बहुत चिल्लाने वाली जाति-प्रजाति है, बल्कि दूसरों को भी उकसाती है। इसलिए पुलिस ने एक सबक के तौर पर ”गुंजन” की ये हालत की है, ताकि जनता को सबक मिले और वो इनके करीब भी ना फटकें। बस हो गया सुशासन। इस घटना का अपना संदर्भ है, इसके ज़रिए मुख्यमंत्री असल में जनता को ये संदेश भेजना चाहते हैं, कि ”देखो बे जनता, मान जाओ, वरना धर सड़की पुलिस पीटेगी, तो बनो सुशासन सारे”। औ’ बाबू साहेब अब भी ना समझे तो तुम्हारा भी यही हश्र होगा। 

लेकिन कोई गलतफहमी ना रहे, मुख्यमंत्री का सुशासन का ये गुर असल में प्रधानमंत्री का मौलिक चिंतन है। देश को विकास के रास्ते पर ले जाने के लिए प्रधानमंत्री ने यही रास्ता अपनाया है। जो आपकी नीतियों के विरोध में बोले, उसे पकड़ लो, मार दो, देश के लिए सबसे बड़ा खतरा डिक्लेयर कर दो, अगर फिर भी ना माने, तो उसे विदेशी हस्तक्षेप बता दो। ख्ुाद चुप रहो, दूसरों को बोलने ना दो। और इसमें तो कोई दो राय नहीं है, कि आखिर वो ये सब देश के विकास के लिए कर रहे हैं। हम यहां खुदाई क्यों करें, उसके लिए विदेशी कम्पनियां आएं, यहां से लोहा-लंगड़ ले जाएं, और बढ़िया चमचमाती विदेशी कारें, हमारी सड़कों पर दौड़ें, क्या आप ऐसा नहीं चाहते। आप समझिए, आप सड़क पर जा रहे हैं, पास में से सर्रर्र से एक विदेशी कार निकल गई, और आपका मुहं खुला रह गया। भारत की तरक्की ऐसे ही होगी, जान लीजिए। 

गरीबी के बारे में मत सोचिए, आपकी आदत खराब है। हम आपको देश के अमीरी के बारे में बता रहे हैं, और आप हैं कि अपनी गरीबी की बात सोच रहे हैं। इसीलिए युवा राजकुमार, ”अब युवराज” ने कहा कि गरीबी असल में सोच की बात है। अब मान लीजिए कि आपके पास खाना नहीं है, भूख के बारे में सोचना बंद कर दीजिए, भूख खत्म हो जाएगी, अगर पुलिस मार रही है, तो देश की तरक्की के बारे में पॉज़ीटिव सोचना शुरु कीजिए, मार का दर्द और अपमान दोनो हवा हो जाएंगे। 

प्रवीण कुमार गुंजन की पुलिस द्वारा पिटाई असल में राज्य के सुशासन के हित में और देश के विकास के हित में है, आप व्यर्थ की इसके बारे में निगेटिव सोच रहे हैं। यहां तो दाढ़ी, शेरवानी के चलते लोगों को फांसी दे दी जाती है, उसकी तो सिर्फ पिटाई हुई है। लेकिन इसके निहितार्थ को समझ लीजिएगा, अब जनता का कुशासन नहीं चलेगा, अब मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों का पुलिस प्रशासन द्वारा सुशासन चलेगा, और अगर आपको इस सुशासन से कोई एतराज है तो आपको भी ऐसे ही समझाया जाएगा, जैसे प्रवीण को समझाया गया है, औरों को समझाया जा रहा है। 

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

गंगाराम कुंवारा रह गया!



गंगाराम कुंवारा रह गया!



शहर के नये बने मॉल की चौथी मंजिल पर खाली पड़ी गैलरी में एक बंद दरवाजा है, उस बंद दरवाजे के पीछे जो सीढ़ियां हैं वो मॉल की छत पर जाती हैं। दरवाजे के पीछे बैठा गंगाराम सोच रहा था कि आज ये किस्सा खत्म कर ही दिया जाए। बहुत हुआ। बहुत तमाशा देख लिया दुनिया ने, बहुत मजे ले लिए उसके। पहले घर में लोग हंसते थे, फिर रिश्तेदारी और महल्ले में हंसी उड़ने लगी, और अब तो जैसे पूरा शहर जान गया है कि.....। लेकिन गलती तो उसकी भी है। उसे जरूरत क्या थी, ये सब आडंबर रचाने की, अपने घरवालों की बात मानने की। जो जो घरवाले कहते गए, वो करता गया, और आज हाल ये है कि.....उसने दोनो उंगलियों के बीच दबी सिगरेट का आखिरी कश लिया, यूं जैसे, अपनी ख्वाहिशों को आखिरी बार सांस में भर कर महसूस कर रहा हो, सिगरेट खत्म थी, उसका टोटा भी पूरा निचुड़ सा गया था। होता था ऐसा, जब वो कुछ सोचते हुए, टेंशन में सिगरेट पीता था, तो सिगरेट पीता नहीं था, चूसता था जैसे। पिछले दिनों में तो जाने कितनी ही सिगरेट चूस डाले उसने, गिनती भी याद नहीं है। ये सातवीं बार थी जब किसी लड़की ने उसके घर ”ना” का संदेस भिजवाया था, नहीं, ये कहना गलत होगा। पहली तीन बार तो ”ना” का संदेस उसीके के घर से गया था, बाकी आखिरी चार बार, लड़की वालों ने ”ना” कहलवा दिया। कुल सात बार, सात बार उसने पूरी तैयारियां की, सपने संजोए, और.....

इस बार तो कमाल ही हो गया था, शादी की बात हो चुकी थी, लड़के वाले लड़की देख आए थे, रोकना-रुकाना हो गया था। लड़की की मां ने गंगाराम की बलैयां लेकर उसे एक लॉकेट और सोने की अंगूठी पहनाई थी, और उसे आसीस दिया था। आज है 13......18 की सगाई थी, और वो सब तैयारियों में लगा था, नये जूते खरीद लाया था, दो जोड़ी.....कोट तो पहले किसी शादी की तैयारी में बन चुका था, लेकिन जूते नये खरीदने पड़े थे। यार-दोस्तों को पक्का कर दिया था, अब्दुल ने अपनी कार देने का वादा कर दिया था, सगाई में जाने के लिए वो बस में नहीं बैठना चाहता था। सबसे हफ्ता पहले ही उस दिन उसके साथ जाने का वादा ले लिया था। लेकिन 12 की शाम को ही लड़की वालों के घर से फोन आया कि......कि कुछ प्राब्लम है......प्राब्लम क्या है, ये बाद में पता चला। गंगाराम के ही एक दोस्त ने बताया कि वो लड़की, किसी लड़के के चक्कर में थी, और लड़का उस लड़की के चक्कर में था। उसके घरवालों को भी ये बात पता थी, क्योंकि कॉलेज के जमाने से ही चक्कर चल रहा था। लेकिन जब लड़का नौकरी के चक्कर में दिल्ली चला गया, तो घरवालों ने सोचा कि चक्कर खत्म हुआ। लेकिन चक्कर खत्म नहीं हुआ था, उस लड़के ने लड़की को चोरी-चुपके फ्लाइट का टिकट भेज कर दिल्ली बुला लिया और आनन-फानन शादी कर ली। अब लड़की के मां-बाप जो ये नहीं चाहते थे कि लोग कहें कि लड़की भाग गई, उस लड़के के साथ समझौता करके अपने रिश्तेदारों को दिल्ली ही ले जा रहे हैं ताकि बिरादरी के सामने शादी हो सके, और उनकी जगहंसाई ना हो, ”उनकी जगहंसाई ना हो” और मेरी......सोचा गंगाराम ने। अरे अगर तुम्हारी लड़की का किसी से चक्कर है तो पहले पूछ तो लो उससे, कि वो चाहती क्या है। और लड़की.......जब वो लड़की देखने गया था तो पूरे एक घंटा वो उसके साथ एक कमरे में बैठा रहा था, हां उनके साथ लड़की का छोटा भाई भी था। लेकिन लड़की कम से कम उसे इशारा तो कर ही सकती थी, कि वो उससे शादी नहीं कर सकती। इस तरह उसकी भद् तो नहीं ही पिटती। 

अब वो क्या करे, क्या चौथी मंजिल से कूद जाए। खत्म करे ये किस्सा। सात बार, सात बार ऐसा हुआ कि उसकी शादी पक्की हुई और फिर होने से पहले टूट गई। ये साले रिश्तेदार इसे शादी पक्का होना क्यों कहते हैं, कच्ची शादी क्यों नहीं कहते, ताकि टूट जाए तो कम से कम ये तो कहा जा सके कि यार कच्ची शादी थी इसलिए टूट गई। पकी-पकाई शादी टूटने से तो कम ही मलाल होगा तब। पक्की शादी, हुहं। उसका दिल किया कि वो दीवार पर जोर-जोर से घूंसा मारे, कुछ कर दे। उसे गुस्सा आ रहा था, उस लड़की पर, लड़की के घरवालों पर, अपने घरवालों और रिश्तेदारों पर, और बनवारी मामा पर......ये रिश्ता वहीं लाए थे। अरे अगर रिश्ता लाने से पहले, लड़की की जांच-पड़ताल का सउर नहीं है तो क्यों दूसरों के साथ मजाक करते फिरते हैं। रिश्ता लाएंगे, अपनी तो कर नहीं पाए आज तक, हमारे लिए कोशिश कर रहे हैं। क्या जरूरत थी उन्हे उस गोरी, सुंदर और पढ़ी-लिखी लड़की का रिश्ता लाने की, जो पहले से किसी और से प्रेम करती है। कम से कम आस-पास से पता तो किया होता, किसी से तो पता किया होता। लेकिन उन्हे तो अपना रिश्ते लगाने का स्कोर बढ़ाने से मतलब है। इससे पिछली बार भी उन्होने यही किया था। 

इससे पिछली बार, यानी छठी बार जब उसकी शादी पक्की हुई थी तो यही बनवारी मामा उसके लिए रिश्ता लेकर आए थे। ”अरे लड़की वाले तो तैयार बैठे हैं, बस तुम्हारी हां की देर है...” उसके पिताजी से बात करते हुए कहा था बनवारी मामा ने। ”लेकिन लड़की देखने तो जाना ही होगा....” ” हां हां तो जाएंगे ना लड़की देखने.....अगले इतवार को चल दो।” पक्का हो गया कि इतवार को पिताजी और मां, मामा जी के साथ लड़की देखने जाएंगे। उसे नहीं जाना था, क्योंकि उसे किसी ने कहा ही नहीं था। क्या करना है लड़की देखकर, शादी हो गई तो जीवन भर उसे ही तो देखना होगा। यही सोच कर वो चुप रहा। मां पिताजी लड़की देख आए और अपनी तरफ से शगुन का सवा रुपया भी लड़की की झोली में डाल आए। लड़की वालों की तरफ से भी उसके लिए चांदी का कलदार आया था। मामा जी ने अपनी भूमिका निभाते हुए लेन-देन की बात भी पक्की कर ली थी। और उसने.....उसने अपने दोस्तों को बता दिया था कि इस बार तो हुई की हुई.....शादी की तारीख भी तय हो गई। बात ये हुई कि शादी का साया एक ही बचा था और उससे पहले सगाई होने की संभावना नहीं थी, इसलिए ये तय पाया गया कि शादी वाले दिन की सगाई हो जाएगी और उसी रात का भांवरे पड़ जाएंगे। पूरी तैयारियों के लिए सिर्फ एक हफ्ते का समय था। 

वो अपने ऑफिस में एक हफ्ते की छुट्टी की अर्जी देकर निकल रहा था जब एक आदमी ने उसके पास स्कूटर रोका। ”गंगाराम जी?” ” जी” उसके मुहं से निकला। ठीक-ठाक आदमी था। ”मैं सेवानगर....उसका जीजा हूं” ओ तेरी की.....सेवानगर से..उसने सोचा। फिर नमस्ते किया, भई अगर उसकी होने वाली बीवी का जीजा है तो इसे तो खुश करना होगा। वो खुद भी खुश था। वो दोनो जाकर सामने वाली अगरवाल की मिठाई वाले की दुकान पर बैठ गए। भला आदमी था जीजा। उसके साथ कुछ आधा ही घंटा बैठा। लेकिन जाने वापस जाकर अपनी सुसराल में उसने क्या कहा कि अगले ही दिन लड़की वालों ने सवा रुपया वापस भेज दिया और अपना कलदार वापस मांग लिया। वजह पूछी तो किसी ने बताई नहीं। तब भी उसका कोई दोस्त ही खबर लाया था। उसके मामा ने लड़की वालों को ये नहीं बताया था कि उसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं। 

छः उंगलियां, छः उंगलियां होने के चलते कोई पक्की बातचीत थोड़े ही तोड़ता है। अरे भई विकलांग इंसान तब होता है जब उसके शरीर में सामान्य से कम अंग हों, या फिर कोई अंग विकल हो, ऐसा थोड़े ही था कि उसके हाथों में पांच की जगह चार उंगलियां थी, अरे भई एक उंगली ज्यादा ही तो थी, और ज्यादा तो सबको चाहिए। उसे विकलांगता का कोई सरकारी सर्टिफिकेट भी नहीं मिला था। सरकार छंगुले इंसान को विकलांग थोड़े ही मानती है, सरकार क्या कोई भी नहीं मानता। उसे तो भूल भी गया था कि उसके हाथों में छः उंगलियां हैं, छः उंगलियां देखकर कोई पक्का रिश्ता तोड़ लेगा, ये बात तो उसने आज तक सोची ही नहीं थी। इससे पहले भी वो पांच रिश्ते देख चुका था, हालांकि उन पांचो मंे से कोई भी सिरे नहीं चढ़ा था। लेकिन उन पांचों रिश्तों में उसकी छंगुली की बात को किसी को ध्यान भी नहीं आया था। या शायद हो सकता है ध्यान आया हो, लेकिन किसी ने इसके बारे में कोई बात नहीं की थी। लेकिन इस रिश्ते में उसकी छंगुली ही कयामत बनकर आयी थी। और मामा.....मामा को पहले ही बता देना चाहिए था कि लड़के की छः उंगलियां थीं, लेकिन मामा क्यों बताता....उसे तो अपने रिश्ते लगाने का स्कोर बढ़ाना था। चाहे जो भी हो, कहां तो वो सातवें दिन पति बनने वाला था, नई नवेली दुल्हन का खाविंद बनने वाला था, कहां उसकी छः उंगलियों ने उसे कुछ ना बनने दिया। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी कि उसकी छः उंगलियों की वजह से उसका रिश्ता टूटा था, ये छठी बार थी कि उसका पका-पकाया रिश्ता टूटा था, जबकि उसके दोस्त हरिया, यानी हरेन्द्र की पहली ही बार में शादी लगी, और हो गई। जिस दिन हरेन्द्र उसे अपनी शादी का कार्ड देने आया था, उसके मुहं से बोल तक नहीं फूटा था। हरेन्द्र उम्र में भी उससे कुछ 5-6 साल छोटा ही था, और नौकरी भी उससे कम ओहदे वाली करता था, फिर भी....। फिर उसे हरेन्द्र की शादी में जाना पड़ा....और उसकी तकलीफ दोबाला हो गई। हरेन्द्र की हो गई, और उसकी छठी बार भी टूट गई। गिनती क्या गिने..... क्योंकि गिनती तो उसने पांचवी बार के बाद से ही छोड़ दी थी। पांच बार किसी की शादी टूट जाए, तो क्या कोई गिनती कर सकता है। पांचवी बार शादी टूटी थी तो वो जैसे कभी शादी ना करने की कसम खाते-खाते रह गया था। इतना बुरा लगा था उसे कि क्या बताए। कमाल ये है कि इस लड़की का रिश्ता लेकर उसका बाप खुद उसके घर आया था। 

हुआ यूं था कि लखनउ वाली बुआ के भतीजे की शादी थी। उसके घर से अक्सर इस तरह की शादियों में उसके पिता ही जाते थे, लेकिन उस समय मामला कुछ ऐसा हुआ था कि उन्हे, एक दूर के रिश्तेदार की तेहरवीं के लिए गांव जाना पड़ गया था। अब बुआ के घर तो जाना ही हुआ, इसलिए ऑफिस से दो दिनों की छुट्टी लेकर वो अपनी बुआ के भतीजे की शादी में गया था। आमतौर पर वो शादियों में जाने से बचता था, रिश्तेदारों की सवाल पूछती निगाहों से बचने के लिए वो ऐसे किसी जमावड़े में नहीं जाता था, लेकिन कभी-कभी मजबूरी भी तो हो जाती है। वो तो खैर किसी तरह शादी निपटा कर वापस आ गया था, लेकिन अगले ही दिन, एक आदमी उसके घर आ गया था। वो आदमी असल में उसकी बुआ से उसके घर का पता पूछ कर उसके घर आया था, ताकि उसके पिताजी से उसके लिए अपनी लड़की का रिश्ता तय कर सके। 

पहली बार उसे लगा कि रिश्तेदारों की शादी में जाने का कोई फायदा भी हो सकता है। लड़की के पिता ने उसे जी भर के देख लिया था, जब वो घर के अंदर आए थे तो वो अपने बाथरूम से नहाकर निकला था, कमर में तौलिया लपेट कर वो बाल्टी उठाए घर के अंदर जा रहा था और वो आंगन में आ रहे थे। उन्होने उसे देखा और फिर दीवार के पास रखी खटिया पर बैठाए गए, जहां उसके पिताजी अखबार पढ़ रहे थे। जब तक वो तैयार होकर निकला तब तक वो उसके पिताजी से पूरी बातचीत कर चुके थे। चाय के कप खाली रखे थे और नाश्ते की प्लेट में से भी कुछ ना कुछ खाया ही गया था। उन्होने पिताजी को देखकर हाथ जोड़े तो, उसने झुक कर उनके पैर छू लिए। उन्होने उसे सिर पर हाथ रखकर आर्शिवाद दिया, और चले गए। ”चलो भई, शनीवार को लड़की देखने की बात तय हुई है, जरा अपनी मां को बता दो कि शनीवार के लिए कोई और कार्यक्रम ना बना लें।” 
शनीवार को मां-पिताजी और वो लड़की देखने के लिए गए, लड़की ठीक थी, उसके मुकाबले कद में थोड़ी लम्बी थी, लेकिन कद की क्या बात थी, उसने कई ऐसे जोड़े देखे थे जिनमें कद का फर्क था, भई फर्क अगर आदमी की तरफ ज्यादा वाला हो तो ठीक रहता है। लेकिन उसे इसमें भी कोई बुराई नहीं लगी। हो जाता है ऐसा, बल्कि अच्छा ही था। उसकी तरफ तो कद छोटा ही था, अगर उसकी बीवी का कद बड़ा होगा तो बच्चों का कद भी बड़ा ही होगा, जो कि अच्छी ही बात थी। उसकी मां ने उसकी तरफ देखा तो उसने आंखों ही आंखों में हामी भर दी थी। और मां ने, जैसा कि तय हुआ था, अपने पर्स में निकाल कर हल्दी लगे सवा रुपये लड़की के हाथ में रख दिए थे, और वो खुशी-खुशी घर वापस आ गए। 

मां ने आते ही अपनी तरफ से सभी रिश्तेदारों को फोन करके इस बात की सूचना दी, पिताजी इस मामले में चुप ही रहते थे। लेकिन खबर को दोस्तों तक भी पहुंचना था सो पहुंची। और उसने अपने दोस्तों को राजदारी में लेकर ये बात बता दी थी, हालांकि राजदारी की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि जल्दी ही बात खुल जानी थी। जल्दी ही सबको ये बात पता चल गई कि उसकी शादी तय हो गई है और जल्दी ही होने वाली है। उसके बाद वो इंतजार करने लगे कि लड़की वालों की तरफ से कोई संदेस आए तो वो शादी की तारीख पक्की करें। लेकिन लड़की वालों की तरफ से कोई संदेश नहीं आया। आखिर उसके पिता ने ही फोन करके पूछा कि बात क्या है। वहां से जो जवाब मिला उसने उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया। लड़की के पिता ने बताया कि लड़की को उसके कद पर एतराज़ है, लड़की को लगता है कि लड़के का कद कम से कम उससे तो ज्यादा होना चाहिए। 

जब उसके पिता उसे देखने आए थे तब उन्होने उसका कद नहीं देखा था, उसका सवाल था। लेकिन जवाब कौन देता। रिश्ता खत्म हो गया, ये पांचवी बार थी जब उसका दिल टूटा था, उसका रिश्ता टूटा था, उसका सपना टूटा था, और उसने अपने दोस्तों में बैठे हुए, भरे मन से कहा कि वो कसम खाता है कि वो.....हरिया ने उसका हाथ पकड़ लिया। ना गंगाराम, ऐसी कोई कसम मत खा, कि पछताना पड़े। अरे शादी का क्या है, यहां टूटी है कहीं और जुड़ जाएगी। किस्मत उस लड़की की खराब है जो कद के चक्कर में उसने इतना अच्छा पति गंवा दिया। ये रिश्ते तो जन्मों के होते हैं, और फिर शायद इसमें कोई अच्छाई ही छुपी हो कि ये रिश्ता ना हुआ हो। उसने कसम नहीं खाई.......

जब उसे पहली बार किसी लड़की की ”ना” सुनने को मिली थी, यानी जब चौथी बार उसके रिश्ते की बात चलाई गई थी। तब उसे लड़की पर थोड़ा बहुत गुस्सा आया था, उसने सोचा, भुगतेगी अपने आप उसे क्या, क्योंकि दहेज की मांग तो उसने कुछ खास नहीं की थी, एक अच्छे घर का, खाता-कमाता लड़का, पढ़ा-लिखा, और फिर उसे कोई ऐब भी नहीं था। ऐसा लड़का कोई रोज़-रोज़ तो मिलता नहीं। तो ये लड़की अगर उसे सिर्फ इसलिए मना कर रही है कि वो उससे कम पढ़ा-लिखा है तो ये लड़की की गलती है। लड़की ने एम. फिल किया हुआ था और वो सिर्फ बी ए पास था। फिर उन्हे कोई नौकरी तो करवानी नहीं थी। एम फिल करे या पी एच डी, रहना तो उसे घर में ही था। खाना बनाना था, चौका बर्तन करना था, इसमें अगर उसकी एम फिल को आड़े आना था, तो इससे भला यही था कि वो शादी टूट ही जाती। हालांकि एक बार को उसे ये भी लगा कि उसे और पढ़ाई करनी चाहिए थी, लेकिन ना तो आगे पढ़ने की उसकी इच्छा थी और ना ही उसमें उसे कोई फायदा नज़र आता था। बी एक के बाद सरकारी नौकरी मिल गई थी, रोज़ दफ्तर जाना, और वापस आना। जीवन ऐसे ही चलता है, ऐसे ही अच्छा लगता है। उसके पिता ने जीवन भर यही किया, और अब वो भी ठीक ठिकाने लग गया था। बल्कि थोड़ा सोचने के बाद उसे ये लगा कि अच्छा ही हुआ कि ये रिश्ता टूट गया, वरना वो लड़की घर आती और अपनी एम फिल की धौंस देती।  और वो संतुष्ट हो गया....

...वो फिर से सपने संजोने लगा, आखिर उसके घरवालों ने भी तो रिश्ते तोड़े थे। पहला रिश्ता उसकी मां की ज़िद की वजह से तोड़ा गया, कि उसकी मां के सभी रिश्तेदारों को सूट और साड़ियां मिलनी चाहिएं, हर एक बाराती के हाथ में सवा सौ रुपया मिलनी और सवा सौ रुपया विदाई देनी चाहिए, और खुद लड़के को मोटरसाइकिल मिलनी चाहिए। बाकी घर का सामान, और नगद की बात अलग से तय होनी चाहिए। लड़की का पिता इतना नहीं कर सकता था। बिचौलियों ने जितना कोशिश हो सकती थी की, लेकिन ना मां झुकीं ना ही लड़की का पिता कुछ कर पाया। खुद उसने भी सोचा कि आखिर उसने सैकिंड डिविजन से बी. ए. पास किया है। इतना हक तो उसका बनता ही है। वो चुप रह गया। दूसरे रिश्ते मंे उसके पिता को आपत्ति रही, लड़की का गोत्र उनके गोत्र के करीब भी कहीं नहीं था। उसके पिता इन संस्कारों में बहुत मानते थे, और मानना भी चाहिए। आखिर सदियों पुरानी रीत थी, उसे ऐसे ही तो छोड़ा नहीं जा सकता। उन्होने रिश्ता खत्म कर दिया। 

पहले और दूसरे रिश्ते के बीच में ज्यादा देर नहीं थी, कुछ एक ही महीने के अंतराल में दोनो रिश्ते आ गए थे। तीसरा रिश्ता चार महीने बाद दिसंबर में आया। गंगाराम, उसकी मां और पिताजी तीनो ही लड़की देखने के लिए गए थे। लड़की वालों का घर मुहल्ले के आखिरी सिरे पर था, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जिस गली से होकर वो गुजरे और जिस तरह का माहौल उन्होने देखा, उसमें कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी। तीनो ने वहीं लड़की के घर पर ही आंखों ही आंखों में फैसला कर लिया था, लड़की हालांकि बहुत अच्छी थी, सुंदर, सुशील और......जैसी वो चाहता था। दहेज के बारे में भी उसके पिता ने कहा कि वो दे ही देंगे, क्योंकि वो उनकी इकलौती लड़की थी। पिताजी की गोत्र वाली समस्या भी यहां नहीं थी। लेकिन मां को इस बात पर एतराज था कि बारात में जब उसके रिश्तेदार आएंगे तो क्या इस कचरे में आएंगे, और पिताजी अपने रिश्तेदारों को लेकर हिचकिचा रहे थे। खैर उन्होने ये रिश्ता भी मना कर दिया। 

इसके बाद रिश्ते आने बंद से हो गए थे। वो तो लड़की के लिए पूछने जा नहीं सकते थे, कैसे जाते, इज्जत की बात थी। लड़के वाले रिश्ते के लिए नहीं जाते, लड़की वाले आते हैं। चौथा रिश्ता तीसरे रिश्ते के एक साल बाद आया, जब उसकी आगरे वाली मौसी उसके घर आई थीं। उसकी मां के रिश्तेदारों में एक यही मौसी थी, जिसकी उसके पिता से अच्छी-खासी पटती थी। उन्होने ही बताया कि उनके मुहल्ले में एक सज्जन हैं जिनकी तीन लड़कियां हैं, अच्छे, खाते-पीते लोग हैं, और लड़का कोई है नहीं, इसलिए लड़कियों की शादी में अच्छा खासा खर्च करेंगे। बाकी सब चीजें ठीक-ठाक थीं, और रिश्ता पक्का हो गया था, दोनो तरफ से तैयारियां पूरी हो गईं थीं, सगाई वाले दिन जब वो लोग आगरे पहुंचे तो उनका काफी शानदार स्वागत किया गया। सब रस्में निपटीं और उसे यकीन हो गया, कि अब तो उसकी शादी हुई कि हुई, लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था। सगाई के बाद उसके ससुर उसे और उसके पिता को एक तरफ ले गए और जेब से निकाल कर कुछ कागज़ात दिखाए। ये कागज़ात आगरे में एक घर के थे, ”वाह चुपड़ी और तीन-तीन, अच्छी लड़की, अच्छा दहेज और साथ में एक घर, अच्छा हुआ कि उसने इससे पहले शादी नहीं की।” लेकिन ऐसा नहीं था। वो चाहते थे कि शादी के बाद लड़का उनके यहां रहे, यानी!

यानी घर जमाई! घर जमाई, बस बात वहीं टूट गई। इस बार तो सभी रिश्तेदारों ने एक सुर में ना कर दिया था। आगरे वाली मौसी के साथ मां का खूब झगड़ा हुआ, जब पिताजी बीच में बोलने लगे तो, आगरे वाली मौसी से पिताजी का भी बहुत झगड़ा हुआ। फिर जो सामान दिया जा चुका था, उसके बारे में किट-किट हुई। लेकिन कुल मिलाकर ये हुआ कि रिश्ता खत्म हो गया, पकी-पकाई शादी टूट गई, और वो कुंआरा रह गया। 

और उसके बाद जितने भी रिश्ते आए, उसमें उसने हरचंद कोशिश की कि उसकी तरफ से रिश्ता ना टूटे, उसकी तरफ से कोई गड़बड़ ना हो, लेकिन अबकी तो जैसे सारी दुनिया की लड़कियां उससे बदला लेने की फिराक में थीं। पांचवी, छठी, और सातवीं लड़की ने पूरी बेदर्दी के साथ बात पक्की होने के बाद, उससे शादी के लिए मना कर दिया था। पहली शादी टूटने के बाद, दोस्तों ने गाना गाया, ”गंगाराम कुंआरा रह गया......” और वो मुस्कुरा दिया था। आज इस मॉल की चौथी मंजिल पर उसे यही गाना याद आ रहा था, और वो रो रहा था। 

वो मुंडेर के करीब पंहुचा, और नीचे झांका। नीचे लोग आ जा रहे थे, छज्जू कचौड़ी वाला एक हाथ से अपनी तोंद खुजाते हुए दूसरे हाथ से पकौड़ियां तल रहा था, सामने खड़े कुछ लोग पकौड़ी खा रहे थे, एक कुत्ता बड़ी हसरत से पकौड़ियां खाते लोगों को देख रहा था, कि किसी की कोई पकौड़ी गिरे तो वो खाएं। लोग बाग मॉल में जा रहे थे, मॉल से निकल रहे थे। किसी को पता नहीं था कि वो चौथी मंजिल की छत पर सातवीं बार अपनी शादी टूटने के गम में अपनी जान देने की बात सोच रहा है। दुनिया को उसकी फिक्र नहीं है, क्योंकि वो किसी की नज़र में नहीं है, लेकिन अगर उसे देख लें, तो पक्का गाएंगे, ”गंगाराम कुंआरा रह गया....” ये फिल्म वालों को और कोई नाम नहीं मिला था क्या, क्यों उसी के नाम को कुंआरा बनाया गया, क्या इसलिए कि फिल्म वालों को पता था कि वो कुंआरा रह जाएगा......सात बार.....क्या उन्हे पता था कि वो सात बार कुंआरा रह जाएगा।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

लालू और बारगेनिंग




लालू और बारगेनिंग

चलिए साहब, आपकी मन की मुराद पूरी हुई, लालू को चारा घोटाले में सज़ा सुनाई गई और सुनते हैं कि उन्हे जेल भी भेज दिया गया। यूं घोटाले और नेता का चोली-दामन का साथ होता है। वो नेता ही क्या जिसने कोई घोटाला ना किया हो, वो घोटाला ही कैसा किसमें किसी नेता का हाथ नो हो। अजी साहब ये लोकतंत्र चल ही इसलिए रहा है क्योंकि इसमे घोटाले होते हैं, अगर घोटाले ना हों तो लोकतंत्र ना चले एक दिन भी। भारतीय जनता के लिए किसी भी घोटाले की खबर कोई बड़ी या आश्चर्यजनक खबर नहीं होती, हमारे लिए तो आश्चर्यजनक खबर वो बनती है जिसमें कोई नेता, या राजनीतिक शख्सियत ईमानदार निकल आए, कोई ऐसा हो जिस पर किसी घोटाले का आरोप ना लगा हो। लेकिन मानने वाली बात ये है कि 17 साल तक आप उसका बाल भी बांका नहीं कर पाए। तो अब लालू का सज़ा क्यों हुई, क्या किसी गाय-भैंस ने जाकर अर्जी लगाई थी कि उनके खिलाफ हुए अन्याय की सज़ा किसी को दी जाए और यूं उनके साथ न्याय किया जाए। 

मैं बताउं आपको, लालू को सज़ा इसलिए नहीं हुई कि उन्होने घोटाला किया, उन्हे सज़ा इसलिए हुई कि उनके पास बारगेन करने के लिए कुछ बचा नहीं रहा होगा। बारगेन किया होता, या कुछ बचा रहा होता तो इत्ती सब फजीहत नहीं हुई होती, आखिर मुलायम भी तो क्लीन-चिट के साथ ठसक से बैठे हैं, जयललिता, माया, कनीमोझी, राजा, रानी, सिपहसालारों तक को क्लीन चिट देने को उत्सुक बैठे सी बी आई के आला अफसरों ने लालू को ठीक फैसले से पहले दिन क्लीन चिट नहीं दी तो इसका सीधा सा मतलब ये, कि लालू के पास बारगेन करने को कुछ नहीं है। बारगेन में बड़ी पॉवर होती है साहब, लालू को रेल मिली तो बारगेन से, और अब जेल मिली तो यूं कि बारगेन नहीं हुआ। कुछ था ही नहीं। 

लालू बहुत चतुर राजनेता हैं, क्यों, लालू बहुत घाघ रहे, अपने जमाने में, अब शायद बुढ़ौती आ गई, हारने-हूरने के बावजूद, कुछ माल अलग से बांधकर रखना था, ताकि ऐसे आड़े वक्त काम आ सके। अगर टेबल के नीचे से कांग्रेस को कुछ सरका पाते, तो शायद ये फजीहत नहीं झेलनी पड़ती। कोर्ट के फैसले का क्या है, यार लोगों, अगर फैसला आ भी जाए, तो अपने लोगों को बचाने के लिए उसके खिलाफ, अध्यादेश, कानून-फानून बनाया जा सकता है, कोर्ट है किस खेत की मूली हमारे आगे। हम तो संविधान की ऐसी-तैसी फेरने को तैयार बैठे हैं। 

एक साल में 7 करोड़ की धनराशी 700 करोड़ में बदल जाए, देश के हर शहर में और विदेश के हर देश में अपने नाम की संपत्ति हो जाए, कौन देखता है, और देखता है तो पड़ा देखता रहे सुसरा। जब तक बारगेनिंग पावर है, कोई कुछ नहीं कर सकता। जयललिता ने अपने बेटे की शादी की, और ऐसी की कि इस शहाना शादी को गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉडर्स में जगह मिल गई, जब पूछा कि भाई इतना पैसा कहां से आया, तो मासूमियत से कह दिया, कि जनता ने दिया, अबे जनता ने दिया, या खुदा ने छप्पर फाड़ कर दिया, हिसाब तो रखा होगा। लेकिन बात सिर्फ यही है, हिसाब रखो, ना रखो, बारगेनिंग के लिए कुछ ना कुछ जरूर रखो।

अब लालू के लिए, हमारा तो यही मानना है कि अब भी, यानी कि अब भी अगर बारगेनिंग के लिए कुछ ना कुछ पेश करें, तो हो सकता है, कि सी बी आई क्लीन चिट दे दे, या केस क्लोज़ करने की अर्जी लगा दे, या फिर हो सकता है कि चारा घोटाले की फाइलें ही गायब हो जाएं, फिर लगे सारी ढूंढने, कागज़ का पुर्जा तक नहीं मिलेगा। यहां तो भैया लोगों गवाह गायब हो जाते हैं, कागज़ की फाइलें क्या चीज़ हैं। 

चुनाव आने ही वाले हैं, अगर लालू अब भी कोई कमाल दिखा दें, बढ़िया वाला माल बारगेनिंग के लिए पेश कर दें तो अब भी उनके ग्रहों की दशा-दिशा सुधर सकती है। बाकी आसाराम, निर्मल बाबा, और बाकी बाबाओं की चरण रज भी ले लें, शायद कोई काम बन जाए।




महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...