शनिवार, 27 अप्रैल 2013

पत्थरों के खेल न्यारें





पत्थरों के खेल न्यारें

एक उपर एक चढ़ते
अनगढ़ी दीवार गढ़ते
दो बनाते पार दुनिया
कुछ छुपाते, सब दिखाते
पत्थरों के खेल न्यारें

चमकते हैं, दमकते हैं
हर बदन पर महकते हैं
खून आलूदा कभी हैं
आग में भी दहकते हैं
पत्थरों के खेल न्यारें

कभी दिल के संग मिलते
फूल के साये मे पलते
तोड़ते हैं कभी शीशा
बर्तनों में कभी ढ़लते
पत्थरों के खेल न्यारें


मन्दिरों में, मस्जिदों में
और सभी पूजाघरों में
पत्थरों पर सिर टिका है
चाहे पूजा हो या सिजदा
पत्थरों के खेल न्यारे

हर सड़क पर लगे हैं ये
हर महल में सजे हैं ये
हाथ में इतिहास के ये
हर कदम पर जमे हैं ये
पत्थरों के खेल न्यारे

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

कोई पूछे तो बता देना


कोई पूछे तो बता देना



कोई पूछे तो बता देना

कि मै फिर लौटुंगा........

मैं फिर लौटुंगा


कि जब सूरज

अपनी बेपनाह उदासी को छोड़ कर

....मेरे संग चल देने को 

तैयार होगा.....


कि जब सभी दरख्त

अपनी हवाओं के साथ 

मेरे गीतों को

उड़ा ले चलेंगे.....

कि जब सारी दुनिया की अवाम

सिर उठा कर चलेगी.


जब इस दुनिया के लोग

किसी और दुनिया के सुखों का

ख्वाब देखना

बंद कर देंगे.....

जब हर इक दाने पर 

अस्ल में खाने वालों के

नाम लिखे होंगे

जब इस दुनिया के हर जर्रे पर 

इसी दुनिया के बेनाम

बाशिदंों की मिल्कीयत होगी.....


तब मैं लौटुंगा....

....तब मैं लौटुंगा जरूर.....

क्योंकि मुझे लौटना ही होगा.....

क्योंकि मुझे इस दुनिया से बहुत प्यार है।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

महाधिवेशन





महाधिवेशन

जबसे रांची से वापस आया हूं, लगभग तभी से सोच रहा हूं कि रांची में पार्टी महाधिवेशन की अपनी एक रिपोर्ट लिखूं, ये लिखूं कि वहां मैने क्या महसूस किया, वहां मुझे कैसा लगा। हलांकि पार्टी स्तर पर पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट आ चुकी है, और जितनी जरूरी बातें पार्टी कांग्रेस की होनी चाहिएं, और सबके सामने आनी चाहिएं वे आ ही चुकी हैं, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि अपने तईं मुझे तभी संतोष मिलेगा जब मैं अपनी रिपोर्ट लिख लूंगा। मैने अपने कुछ दोस्तों ;कामरेडोंद्ध से इस बारे में बात किया तो उन्होने यही कहा कि अगर ऐसी कोई रिपोर्ट लिखना चाहो तो ठीेक ही है। बल्कि एक दो लोगों ने तो ये कहकर बहुत प्रोत्साहित किया कि वो इस तरह की रिपोर्ट का इंतजार करेंगे। 

असल में पार्टी कांग्रेस का आयोजन, पार्टी कामकाज, पार्टी लाइन, विभिन्न विषयों और मुद्दों पर पार्टी की सोच आदि पर बहस और फिर भविष्य के लिए पार्टी के कामकाज और नीति निर्धारण के लिए होता है। जाहिर है सभी ने इस बहस में भागीदारी की, करनी ही चाहिए, और इसके बाद सदन ने इन बहसों को पार्टी दस्तावेजों में बदला, ये भी होना ही चाहिए। मैं इस पूरी कार्यवाही में मौजूद रहा, मैने सभी कुछ देखा, समझा, उसमें हिस्सेदारी की, और इसके अलावा भी बहुत कुछ किया, अब पार्टी महाधिवेशन के बाद मुझे लगता है कि इस सारी कार्यवाही के अलावा जो कुछ रांची में हुआ, जो मैने महसूस किया, सुना, देखा, समझा उसे भी सबके सामने आना चाहिए। हो सकता है कि मेरा ये प्रयास कुछ लोगों को अच्छा ना लगे, लेकिन मुझे लगता है कि मुझे वो कहना ही चाहिए जो मैं कहना चाहता हूं, फिर चाहे किसी को कुछ भी लगे।

मैं पार्टी कांग्रेस में जाने के लिए बहुत उत्साहित था, जबसे मैं पहली बार पार्टी महाधिवेशन में गया था, मेरा मतलब कलकत्ता, मैं वहां के पूरे माहौल से इतना अभिभूत हो गया था और वो इतने समय तक मेरे जेहन पर छाया रहा था कि मैं किसी भी हालत में पार्टी माहिधवेशन में जाना चाहता था, और यकीन जानिए कि अगर मैं डेलीगेट नहीं होता, तो भी मैं पार्टी महाधिवेशन में जाता, अगर मुझे ऑर्ब्जवर नहीं बनाया जाता, वालंटियर नहीं बनाया जाता तो भी मैं पार्टी महाधिवेशन में जरूर जाता, गर्जें़ कि कुछ भी होता मैं रांची जरूर गया होता, और चाहे कुछ भी होता, किसी भी हैसियत से मैने पार्टी महाधिवेशन में हिस्सेदारी की होती। लेकिन मैं डेलीगेट था, तो मैने जल्दी ही अपनी टिकट बुक की और महाधिवेशन शुरु होने से दो दिन पहले यानी 31 तारीख को ही मैं रंाची पहुंच गया था। पार्टी महाधिवेशन 2 को शुरु होना था। 

ट्रेन में ही मुझे अपने तीन पसंदीदा शख्स मिल गए जिनके साथ जाना और बढ़िया लगा, कभी उनके साथ बातचीत करता तो कभी अकेला पढ़ता हुआ मैं रांची पहुंचा। रांची पहुंच कर स्टेशन पर तो ऐसा नहीं लगा कि यहां पार्टी महाधिवेशन की तैयारी है लेकिन जैसे ही हम शहर में पहुंचे, हमें तैयारियों के लक्षण दिखाई देने लगे थे। सड़कों पर लाल झंडे, कुछ झंडों पर पार्टी का नाम, और कुछ चौक-चौराहों पर खास सजावटें, ओह, अभी तो पूरा एक दिन पड़ा था शहर सजाने के लिए, शायद इसलिए जब हम पहुंचे थे, यानी दो दिन पहले, तो सजावट शायद सिर्फ शुरु ही हुई थी। लेकिन जो भी थी, जितनी भी, रोमांचित करने वाली थी, मेरे साथी शायद कम रोमांचित हुए हों, क्योंकि बहुत अनुभवी साथी थे, लेकिन सच कहूं तो मैं इतना उत्साहित था कि मुझसे तो शब्द तक नहीं सम्हल रहे थे, बस अपनी उम्र, और अनुभव को दिखाने के चलते कुछ ऐसा सा ही दिखा रहा था। लिखते हुए सोच रहा हूं कि जब लोग पढ़ेंगे तो कैसा हसेंगे......लेकिन सच कहूं तो अब मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। 


हम लोग सबसे पहले स्टेट ऑफिस पहुंचे, अब पहली बार लगा कि, हां, तैयारियां हो रही हैं, वो जो एक खास किस्म को माहौल होता है, जिसमें सभी लोग बिना कुछ कहे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हैं, जिसमें हर इंसान काम में लगा होता है, चाहे वो बौद्धिक काम हो या शारीरिक काम हो, सभी बस लगे थे, और इतना सब भी बिना किसी तनाव के हो रहा था, हो सकता है कि मुख्य जिम्मदारियों में लगे लोगों को कोई तनाव हो, लेकिन पूरे माहौल से ऐसा नहीं दिख रहा था, बल्कि दिल और हल्का और खुश लगने लगा था, फिर पता किया कि हमें यानी दिल्ली वालों के ठहरने का इंतजाम कहां है। तो हमें बड़ा ताल के पास वाली धर्मशाला में ले जाया गया, वहां पहुंचे तो पता चला कि उससे कुछ ही कदमों की दूरी पर जो ग्राउंड है असल में माहाधिवेशन की तैयारी वहीं की गई है। 


अब ऐसे में कुछ बातें हवा में जरूर थीं, जैसे पहली बार महाधिवेशन खुले में हो रहा था, जैसे जो इंतजाम किया गया था वो काफी महंगा था, जैसे माओवादियों के बंद की वजह से रैली पर असर पड़ने की शंका थी और जैसे जो चुनाव घोषित किए गए थे वो भी माहाधिवेशन पर बहुत व्यवधान डालने वाले थे। लेकिन हम लोग अपने कमरों में गए और अपना सामान रख कर निश्चिंत होकर बैठ गए थे। फिर चाय की खोज होने लगी। कभी कहीं किसी समारोह में निश्चित दिन से दो दिन पहले पहुंच कर देखिए आपको रूकने की जगह छोड़िए, स्टेशन पर मिलने वाला तक कोई नहीं मिलेगा, यहां चाय कहां मिलती, फिर हम इतनी सुबह पहंुचे थे कि रांची जैसे शहर में किसी तरह की दुकान खुलने का कोई चांस ही नहीं था। लेकिन नीचे सड़क के पास एक गुमटी वाला अपनी सिगड़ी सुलगा चुका था, उसे चाय बनाने के लिए कहा गया और हमारे साथ जो और साथी आ चुके थे उन्होने भी चाय पी, मैं सिगरेट का शैदाई हूं तो सिगरेट की खोज में एक-डेढ़ किलोमीटर का एक चक्कर लगाया और अपने और एक दूसरे कामरेड के लिए सिगरेट लेकर आया। आया तो पता चला कि एक राउंड चाय हो चुकी है तो दूसरे राउंड की चाय पी, और फिर अपने लिए एक एक्स्ट्रा चाय पी। यहां एक बात बता देना जरूरी है कि रांची जाएं तो इस बात के लिए तैयार होकर जाइएगा कि चाय सिर्फ दो घूंट ही मिलती है और अगर ज्यादा पीनी हो तो दो या तीन खरीदिए ताकि आपकी चाय की तलब को संतुष्ट किया जा सके। 

मैं तो चाय पीकर उपर जाकर सो गया और बाकी लोग जाने किस-किस तरह की बातों में मशगूल हो गए, बीच-बीच में जब भी आंख खुलती थी मैं भी बातचीत में अपनी हाजिरी लगवा देता था।

जैसे-जैसे और लोग आते गए नई धर्मशालाएं, उनके पते, लोगों का एडजस्टमेंट होने लगा। मेरे लोग आते गए और मैं अपने लोगों से मिलता रहा, सभी लोग आते गए और मैं सभी लोगों से मिलता रहा, मुस्कुराता रहा, ठहाके लगाता रहा, जोर-जोर से बहस करता रहा, चिल्लाता रहा, मुस्कुराता रहा। 






आयोजन वाले दिन यानी 2 तारीख को सारे डेलीगेट्स, पर्यवेक्षक, मेहमान और वालंटियर बिरसा कारागार में जमा हुए, सुबह-सुबह इतने सारे लोग, बिरसा मुंडा कारागार में जमा हुए, और वहां पहली बार ऐसा लगा कि जैसे एक परिवार एक जगह जमा हुआ है और अपने ही बीच के किसी शख्स को याद कर रहा है, ये श्रृद्धांजली ऐसी नहीं थी जैसी रस्मी श्रृद्धांजलियां हुआ करती हैं, बल्कि जब लोग नारे लगा रहे थे, माला पहना रहे थे, फोटो खींच रहे थे, तब मैं अपने लोगों को ध्यान से देख रहा था, अगर आप वहां होते तो आप भी देखते कि वहां मौजूद हर शख्स की आंखों में ऐसा भाव था कि जैसे वो अपने ही परिवार के किसी सदस्य को याद कर रहा है, उसके लिए नारे लगा रहा है, पार्टी की अपनी स्थापना की बात छोड़ दीजिए और ना ही इस बहस की जरूरत है कि बिरसा कितने दशक पहले पैदा हुए थे, लड़े थे, ये अपने भीतर की बात है, वहां मौजूद होते तो आपको लगता कि बिरसा हमारे थे, हमारे हैं, उन्होने जो लड़ाई छेड़ी थी वो खत्म नहीं हुई है और हमें अभी उसके बहुत सारे पड़ाव पार करने हैं। ये किताबी बात नहीं है, मैने ये महसूस किया, मैने ये महसूस किया। 



वहां से जो हमारी रैली चली, तो आहा, क्या तो रांची वालों ने ऐसी रैली देखी होगी, सबसे आगे नौ लाल झंडे, उंचे, और उंचे, उनके साथ एक पंक्ति में नगाड़ा बजाते कामरेड, और उनके पीछे लाल कपड़ों में सजे हुए कामरेड, और उनके पीछे ये 3 किलोमीटर लंबी दो अनुशासनबद्ध पंक्तियां, कमाल था भई कमाल था, सड़क पर सारे लोग मुहं बाये इस रैली को देख रहे थे, मुझे यकीन है कि उन्होने इस तरह की कोई रैली पहले नहीं देखी होगी। इतने लोग, इतनी तरह के लोग, इतने अनुशासनबद्ध तरीके से एक साथ चल रहे थे, दो लाइनों मे बीच में जगह खाली थी लेकिन रैली की अनुशासनबद्धता का कमाल था कि बिना किसी पुलिस की मौजूदगी के, बिना किसी सुरक्षा पंक्ति के, ना कोई बीच में आया, ना किसी ने रास्ता काटा, ना रुके हुए ट्रैफिक ने जल्दी मचाई, और ना ही कोई और व्यवधान पैदा हुआ। धड़धड़ाती हुई ये रैली बिरसा स्मृति स्थल पहंुची, और वहां बिरसा मुंडा को पुष्पांजली भेंट करके महाधिवेशन मैदान की तरफ चल दी। 


वापस जाते हुए मैं, जो इस बीच रैली की व्यवस्था में भी हाथ बंटाने लगा था, एक साइकिल वाले को रोकने लगा, वो साइकिल वाला बोला, ”भैया मजदूरी करता हूं, लेट हुआ तो मालिक आधे दिन की पगार काट लेगा”, और मेरे पीछे वाले कामरेड फौरन रुक गए, बोले, ”तुम जाओ” और उसे बीच में से निकाल दिया। वो साइकिल वाला रैली के बीच से निकला, पीछे मुड़ा एक बार अपनी मुठ्ठी बांध कर उसने हाथ उठाया, कामरेड को सलाम किया और फिर चला गया। मेरी छाती भर गई, मैं और उत्साहित हो गया, मुझे रैली और प्यारी लगने लगी, लेकिन ये तो बस शुरुआत थी, इसके बाद वाले दिनों में जाने कितने ही ऐसे मौके आए कि मैं फिर फिर अभिभूत होता रहा, अपने दिल को, अपने फेंफड़ों को अपने दिमाग को महाधिवेशन की ऐसी घटनाओं से अभिभूत होकर देखता रहा, जो इतनी छोटी थीं कि महाधिवेशन की विशालता में शायद दिखाई ना दें, लेकिन मेरे लिए इतनी महत्वपूर्ण थीं कि उनकी वजह से महाधिवेशन मेरे लिए और अहम हो गया था।





महाधिवेशन स्थल को इस तरह सजाया गया था कि वो एक तरह से पार्टी को ही व्याख्यायित कर रहा था, विशाल पंडाल चारों तरफ से घिरा हुआ, अंदर शानदार मंच, बाहर हर तरफ हमारे शहीदों और दुनिया भर की संघर्षरत जनता के चित्र, फिर एक अस्थाई चारदिवारी जिसमें आने जाने के लिए दो गेट जिन पर हर वक्त तीर कमान ले वालंटियर साथी तैनात, तीन-चार बार तो मुझे ही टोका गया कि पहले बैज दिखाएं फिर अंदर जाएं, और कोई भी हो, चाहे जान-पहचान वाले ही हों, बिना बैज दिखाए कोई अंदर नहीं जा सकता था। मेरे ही सामने रांची के ही एक सज्जन बिना बैज दिखाए अंदर जाने की ज़िद कर रहे थे, और वालंटियर साथियों ने साफ कह दिया उनसे, ”देखिए हम जानते हैं कि आप कौन हैं, लेकिन जब तक आपके पास बैज नहीं है आपको अंदर नहीं जाने दिया जाएगा।” वालंटियर साथियों की इस प्रतिबद्धता पर मेरे वो मित्र थोड़ा भड़क गए, हालांकि उन्हे उसके बाद बाहर नहीं निकाला गया लेकिन वो ठीक से समझ ही गए होंगे कि उन्हे बिना बैज के अंदर नहीं जाने दिया जाएगा। उस अस्थाई चार-दिवारी के बाहर सच में ऐसा लगता था जैसे हम अधिवेशन स्थल के बाहर खड़े हैं, एक तरफ संघर्ष की दीवार थी जिस पर अनुपम और अन्य कलाकार साथियों की शानदार पेंटिग्स् प्रदर्शित थीं, उसके आगे कलाकार कामरेडों ने एक गिरे हुए पेड़ पर ही अपनी कलाकारी उकेर कर उसे संघर्षरत जनता की अदमनीय श्क्ति का मूर्त्य रूप दे दिया था। क्या शानदार कलाकारी थी, हर तरफ उठे हुए हाथ, अपने हकों के लिए नारे लगाते उठे हुए हाथ, हाथों में पारंपरिक हथियार जो शायद ये कह रहे थे कि क्रांति के लिए हमें तुम्हारे हथियारों का डर नहीं, उनकी जरूरत नहीं, जब क्रांति का बिगुल बजेगा तो हर कोने से उठने वाले हाथ ही बहुत होंगे।

महाधिवेशन का हर दिन, हर क्षण मेरी स्मृति पर अंकित है, हो सकता है कि इतना विस्तार से ये यादें हमेशा जीवित ना रहें, लेकिन महाधिवेशन हमेशा मेरे साथ रहेगा, जैसे कलकत्ता महाधिवेशन की यादें आज तक जीवित हैं। महाधिवेशन मेरे साथ हमेशा छोटी-छोटी यादों से जीवित रहता है, एक साथी के साथ अंडा करी खाने की याद, एक दूसरे साथी द्वारा दही-चावल खाने की न्यौता देने की याद, एक और साथी कामरेड के साथ चाय पीने के दौरान उसकी एक आंख दबा कर बात करने की याद, पंजाब की एक कामरेड से दोबारा मुलाकात की याद, उससे मैं रांची में ही हुए जसम सम्मेलन में मिला था, तब वो शायद सिर्फ 8 साल की थी इस बार वो डेलीगेट के तौर पर महाधिवेशन में आई थी, शानदार फोटोग्राफर थी, उसकी एक-एक फोटो कमाल थी। मुझे याद है दक्षिण भारत के दो कामरेडों को रांची ना जानने के बावजूद मैं उनके लिए नियत धर्मशाला लेकर गया, वहां से वापस महाधिवेशन स्थल आया। एक और चीज़ याद आ रही है, मेरे रांची के ही एक दोस्त ने शिकायत की, कि ”देखो पार्टी रांची में महाधिवेशन का आयोजन कर रही है लेकिन किसी आदिवासी शख्सियत को तरजीह नहीं दी गई, ऐसा क्यों।” मैने कहा, ”साथी, महाधिवेशन के लिए तो हमने रांची का नाम ही बिरसा नगर रखा है, क्या आप बिरसा को आदिवासी शहीद नहीं मानते”, वो चौंक गए, ”अरे, मुझे तो पता ही नहीं था।” मैने कहा, ”देखिए आलोचना जरूर कीजिए, उससे आपको कोई नहीं रोकता, लेकिन आलोचना करने से पहले तथ्यों पर गौर तो कर लीजिए।” 

बहसें तो बहुत हुई, एक-एक नुक्ते पर, एक-एक शब्द पर, एक-एक लाइन पर, पंडाल के अंदर, पंडाल के बाहर, धर्मशाला में, चाय की दुकानों पर, खाने की लाइनों में, इधर-उधर, हर जगह, इतनी बहस, इतनी बहस, हर साथी की अपनी धारण, हर साथी का अपना नज़रिया, हर कोई अपनी बात को तरजीह देता हुआ, लेकिन इस सबके बावजूद हर नजरिए को जगह मिली, हर बात को सुना गया, हर कान ने सुना, हर दिल में रखा गया, और जब एकमत की बात आई तो हर कंठ ने नारा लगाया, हर हाथ ने ताली बजाई। जब भी तालियां बजती थीं, दिल एक बिलांद उपर उठ जाता था, जब नारा लगता था तो ऐसा लगता था कि कदम जमीन से चार इंच उपर उठे हुए हैं। आप वहां होते, हशमीत के आइडियाज़ सुनते, दीपांकर जी के चुटकुले सुनते, ईशू की बातें सुनते, वर्धराजन जी की बातें सुनते, संतोष के गाने सुनते, असलम की चुहल सुनते, अनिल के कटाक्ष सुनते, अपने कामरेडों की चहल-पहल, उनका उत्साह देखते, वालंटियर साथियों ने इतनी मेहनत की, इतनी मेहनत की, कि क्या कहूं, हर किसी को पानी देना, चाय देना, नाश्ता देना, हर जगह  की हिफाज़त करना, आपकी विशेष जरूरतों का ध्यान रखना, और इस सबके बावजूद हमेशा मुस्कुराते रहना, एक दो घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो उनकी मेहनत और उनकी निष्ठा का जोड़ नहीं था। कुछ लोग ये भी कहेंगे कि मुझे तो हर जगह अच्छा ही अच्छा दीखा, लेकिन मैं क्या करूं, मैं ऐसे माहौल में था कि मुझे हर तरफ, हर चीज़ अच्छी नज़र आ रही थी, हर चीज़ अपनी थी, और अपनी चीज़ तो साथी सबको अच्छी ही लगती है ना। 

महाधिवेशन में मैने भी एक गाना गया, गाना गाते हुए मेरे पास ढपली नहीं थी जो आमतौर पर मेरे पास होती है, इसलिए मैने डायस पर ही दोनो हाथों से ताल दी और गाना गाया, मुण्डारी गाना था, दीपांकर जी ने पूछा, क्यों भई ये मुण्डारी गाना कहां से सीख लिया, तुम तो अनिल को टक्कर दे रहे हो। मैं हंस दिया, मेरे कामरेडों की हर चीज़ पर नज़र रहती है, एक कामरेड ने पूछा, क्यों कपिल जी, तीन-चार दिनों से इसी गाने की तैयारी चल रही थी क्या, मै हंस दिया, कामरेड मैने संथाली, मुण्डारी, छत्तीसगढ़ी और अन्य भाषाओं के गाने भी सीखे हैं, ऐसे गाने जिनमें प्रतिरोध की आवाज़ है, और संघर्ष की ताल है। मुझे तो गाना, गाना बहुत अच्छा लगा, मुझे यकीन है, सुनने वालों को भी अच्छा ही लगा होगा, हालांकि इतने टाइट शेड्यूल के बावजूद इतने शानदार गीत प्रस्तुत किए गए, कि मज़ा आ गया, भगतसिंह, बंगाली में, मैने तो खैर पहले भी सुना था, जिन्होने नहीं सुना था, उन्होने भी दिल खोल कर सुना। अनिल ने शानदार ग्रुप सांग किए, उसकी तो खैर हर परफॉर्मेंस कमाल होती है, संतोष थोड़ा अपसेट था, उसने तैयारी बहुत की थी, लेकिन उसे समय कम मिला, लेकिन मेरा कहना है कि इतने कम समय में इतनी बढ़िया परफॉर्मेंस, अगर समय ज्यादा मिल गया होता तो वो तो टैंट ही उखाड़ मानता। अनिल को मैं कहना चाहता था, कह नहीं पाया कि, इंटरनेशनल एक बार सुन ले, तो बेहतर होगा। बल्कि मै तो अपने हर कामरेड से गुजारिश करूंगा कि कम से कम इंटरनेशनल सुन लें, धुन तो जरूर ही सुन लें, याद कर लें, और जब भी इंटरनेशनल गाया जाए तो उसे साथ में गाएं, शब्द ना पता हों तो धुन से साथ दें, इंटरनेशनल का यही तो मजा है कि सब कामरेड एक साथ गातें हैं तो आकाश तक गूंजता है। हमें तो अपने हर कार्यक्रम के अंत में इंटरनेशनल गाना चाहिए ताकि हर कामरेड को याद हो। 

उठो जागो भूखे बंदी
अब खीचों लाल तलवार
कब तक सहेंगे भाई
जालिम के अत्याचार
हमारे रक्त से रंजित क्रंदन
अब दसों दिशा लाल रंग
सौ-सौ बरस का बंधन
एक साथ करेंगे भंग
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान

ऐसे में, जब इतना बड़ा आयोजन हो तो कुछ चीजें ऐसी हो ही जाती हैं, जो नहीं होनी चाहिए थीं, जिनके बारे में किसी ने सोचा नहीं होता, जिनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। महाधिवेशन के दौरान ही सिवान के एक वरिष्ठ कामरेड का असामयिक निधन हो गया, ऐसे में उनके शरीर को पहले महाधिवेशन स्थल पर लाया गया जहां मौजूद सभी डेलीगेट साथियों ने उन्हे अंतिम सलाम पेश किया और उन्हे विदा किया गया। किन्ही साथी ने बताया कि हालंाकि ज्यादातर साथियों ने उनके स्वास्थय को देखते हुए उनसे महाधिवेशन में आने से मना किया था, लेकिन वो नहीं माने और महाधिवेशन में आए। इस रिपोर्ट में भी मैं उन्हे अपना अंतिम सलाम पेश करना चाहता हूं।

अरे हां, अगर चुनाव की बात ना करूं तो समझो कोई बात नहीं की, पिछले महाधिवेशन में पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन चुनाव नहीं हुआ था, इस बार चुनाव भी देखा, और समझा भी। विदाई कमेटी ने नई कमेटी के कुछ नाम प्रस्तावित किए दो कामरेडों ने कहा, कि भई हमें लगता है कि अगर हम केन्द्रिय कमेटी में होंगे तो हम ज्यादा बेहतर काम कर पाएंगे, तो केन्द्रिय कमेटी की तरफ से दीपांकर जी ने अपना पक्ष रखा और बाकी दो कामरेडों ने अपना पक्ष रखा, उसके बाद कामरेड उम्मीदवारों को कुछ समय दिया गया कि वो अपने पक्ष में प्रचार कर सकें। इसके बाद मतदान हुआ, टी वी की भाषा में कहें तो, ”मतदान शांतिपूर्ण रहा” कमाल था, 1026 प्रतिनिधियों ने मत दिया। सदन ने विदाई कमेटी द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को ही चुना था। लेकिन चुनाव देखना और समझना भी अपने आप में अद्वितीय अनुभव था। कैसे, तो मैं नहीं बता सकता, आपको वहां होना चाहिए था। 

खैर, इसी तरह बीता मेरा दूसरा और पार्टी का नौंवां महाधिवेशन, बिरसा नगर में। ये पांच दिन जो मैने बिरसा नगर में बिताए, ये मेरे जीवन से इतर कुछ दिन थे जिन्हे मैने ऐसे ही सहेजा है। ये था मेरा पार्टी महाधिवेशन।




मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

अगला पी एम्




अगला पी एम् 

मै मोदी को पी एम बनाने के सख्त खिलाफ हूँ, असल में मै तो उसके नाम पर विचार करने के ही खिलाफ हूँ। वजह ये है की मै एक आदमी को जानता हूँ । उसका नाम है रामचंद बुरबकिया, मुझे लगता है की वो प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे योग्य उमीदवार है। क्यूँ ? देखिये ये जो सारी बहस चल रही है, की इस बार पी एम कौन होना चाहिए, उसमे जितने नाम हैं, वो सारे के सारे जिन कामो के लिए मशहूर हैं, या उनके जो गुण हैं, रामचंद बुरबकिया उन सबसे बीस ही बैठेगा। 
पहले में आपको इस शख्स के बारे में कुछ बता देता हूँ। दिल्ली के हर कोर्ट में ये शख्स झूठी गवाहियाँ देने वाले के नाम से जाना जाता है। मामला कोई भी हो, ये शख्स पैसे लेकर आपके पक्ष में या आपके खिलाफ झूठी गवाही देने को तैयार है। सिर्फ सौदा इसके मन का होना चाहिए। कमीना इतना है कि, अपने बाप की जायदाद के लिए इसने अपनी बहिन को पागल करार देकर उसे घर से निकाल दिया, वो जामा मस्जिद पर भीख मांग कर अपना गुज़ारा करती है। इस बात को वो अपनी उपलब्धि बताता है। और खूब हंस हंस कर सबको इस बारे में बताता है। हरामजादा इस कदर की अपनी बीवी को गाँव छोड़ आया है, फिर सबके सामने खुद को कुंवारा बताता है। नीच इतना की आजकल लड़कियों ने इसके घर के आस पास से निकलना तक छोड़ रखा है, बल्कि लोग उस मोहल्ले को छोड़ कर जा रहे हैं जहाँ वो रहता है, रोज़ रात को दारु पीकर हंगामा करता है, पुलिस वाले इसके दोस्त हैं, उन्हें भी पैसा देता है इसलिए कोई इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं करता, बल्कि कुछ एक लोगों ने जब इसके खिलाफ शिकायत की तो पुलिस उन्हें ही उठा कर ले गयी और उसके बाद वो वापस उस मोहल्ले में रहने नहीं आये, पता नहीं मारे गए या जेल में हैं। 

 चरित्र इसका ऐसा है कि मोहल्ले की एक औरत से इसका सम्बन्ध है, उसकी बेटी पर इसकी बुरी निगाह है, माँ कुछ कहती है तो उसे बेतरह मारता है, बेटी कुछ कहती है तो उसे बेतरह मारता है। 

पैसा कमाने के लिए ये कुछ ख़ास किस्म के धंधे करता है। जिनमे सबसे लाभकारी धंधा है, जमीन जायदाद हडपना, ये लोगों को दुगने-तीन गुना पैसे का लालच देकर उनकी ज़मीन हड़प लेता है और फिर उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकता है। इसने कई गुंडे पाले हुए हैं जो लोगों को मारते हैं, हडकाते हैं, डराते हैं। लोकल पुलिस थाने से लेकर मंत्रियों तक इसकी जान पहचान है, लोग इसका नाम तक लेने से डरते हैं। इसलिए इसके सताए लोग पुलिस के पास नहीं जाते बल्कि मोहल्ला छोड़ कर ही चले जाते हैं। मोहल्ले के अलावा दिल्ली के ख़ास ख़ास इलाकों में इसने फ्लैट्स ख़रीदे हुए हैं। कुछ किराये पर हैं, और कुछ में जुआ, नकली शराब और जितने धंधे हो सकते हैं होते हैं। 

इसके पास्ट के बारे में भी जान लें। इसके पिता सरकारी स्कूल में मास्टर थे, पढ़ा लिखा नहीं है, पहले चाय की दूकान लगात था वहीँ कुछ गुंडे किस्म के लोगों से इसकी मुलाक़ात हो गयी, उनका कोई संगठन था जिसका काम दंगे कराना, हत्या, बलात्कार करना, और लूटपाट करना था। पहले तो ये उसी संगठन में छोटा मोटा गुर्गा बन गया, फिर इसने उन्ही के पैंतरे सीख कर ऐसे बड़े बड़े काम किये की आज वो संगठन भी इसी के इशारे पर चलता है। बाद में इसने अपने बाप के दो कमरों के छोटे से मकान को भी धोखे से अपने नाम करवा कर अपने भाई को धक्के देकर बहार कर दिया था। 

ये तो मै ऊपर ही बता चूका हूँ की ये कोर्ट में झूठी गवाहियाँ देता है, कमाल ये है की कोई इसे झूठा साबित नहीं कर पाता, जुगाडू इतना है कि जरूरत पड़े तो विरोधी पार्टी के वकील को ही रिश्वत दे कर अपने पक्ष में कर लेता है और वो इसकी बात मान लेते हैं। अब इसके पास बड़े बड़े लोग आते हैं, कोई अपना काम निकलवाने आता है, तो कोई अपने दुश्मन का काम बिगाड़ने, ये उसी तठस्थ भाव से सबके काम आता है, और अपने नेटवर्क को मज़बूत करता है। 

अब आप सब जानना चाहेंगे की में इसके पक्ष में क्यूँ लिख रहा हूँ। बात ये है की ये कल मेरे पास आया था और इसके साथ दो गुंडे भी थे। इसने कहीं मेरा नाम देखा था, इसे लगा की मै इसकी तरफ से फेसबुक पर इसके पि एम् पद का दावा खड़ा कर सकता हूँ। इसका कहना है कि मई एक बार काम शुरू कौन तो बाद में इसके संगठन के लोग ही सीख जायेंगे और फिर फेसबुक पर इसके पक्ष में प्रचार शुरू कर देंगे। इन लोगों को जो इसके साथ में हैं, इसके संगठन में हैं, देशभक्ति के नाम पर मासूम बच्चो की हत्या, बच्चियों के बलात्कार और हत्या, या किसी को जिंदा जल देने से भी कोई ऐतराज़ नहीं है, देश भक्ति के नाम पर ये लोग, हजारों इंसानों का खून बहाने से भी गुरेज़ नहीं करने वाले। ये मेरा नहीं खुद इसका यानि रामचंद बुर्बकिया का कहना है। और इसका प्रचार भी वो आजकल घूम घूम कर कर रहा है। इसका ये भी कहना है की अगर देश का पी एम्, नालायक, नीच, अधम, झूठा, हत्यारा, भ्रष्टाचारी, लुटेरा, बलात्कारी आदि आदि ही होना है, तो देश में इससे बेहतर इंसान नहीं मिलेगा। और इसके लिए वो अपने इन सब कामो के सबूत तक देने को तैयार है, बल्कि वो तो कहता है की सबूत सबके सामने है, मै बस इशारा कर दूंगा, तो आप सबसे अनुरोध है की मोदी के नाम पर बहस बंद कीजिये, राहुल का नाम लेना छोड़िये, क्यूंकि अब आपके पास इनसे ज्यादा कमीना विकल्प है। 

अगला पी एम् रामचंद बुर्बकिया 

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

नई भाषा



चित्र गूगल साभार
अब बोलेंगे हम नई भाषा

नफरत, युद्धों और मार-काट
के शब्द नहीं होंगे जिसमे
बहसें तो होंगी उसमें पर
झगड़े-रगड़े ना हों जिसमें
जो बात करे अपने मन की
जिससे अपनापन लगता हो
अब बोलेंगे हम नई भाषा

जो व्याकरणों के द्वंदजाल में
भावों की ना काट करे
जो दमित भावना भरी खाल में
मानव की ना बांट करे
जो अपनी, अपने जैसी हो
जिससे मन मिल जाएं सबके
अब बोलेंगे हम नई भाषा

जो प्रश्न सुझाए कम, उत्तर हों
जिसके हर इक शब्द छुपे
जो बांधे ना रूढ़ी में, खुलते हों
जिसमें ये बंध सभी
जो प्रेम प्यार की बात करे
जो इंकलाब की बात करे
अब बोलेंगे हम नई भाषा

ना गाली हो, ना नीच शब्द
सम्मान भी हो, अभिमान भी हो
ना बड़ा कोई, ना छोटा हो
तफरीह भी हो, इमकान भी हो
सपनों को जो साकार करे
श्रम से मानव से प्यार करे
अब बोलेंगे हम वो भाषा

बेखौफ़ आज़ादी: Women’s Right is Human’s Right


मर्दवाद से छुटकारा पाना एक बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है: वीर भारत तलवार

By वीर भारत तलवार
बेखौफ़ आज़ादी:  Women’s Right is Human’s Right
16 दिसंबर के बलात्कार के बाद देश में और खासकर दिल्ली में व्यापक पैमाने पर जिस जनआंदोलन का उभार हुआ, और उसमें जिस तरह जेएनयू के विद्यार्थियों ने भाग लिया और यहाँ के छात्रसंघ ने जैसी भूमिका निभाई, सबसे पहले मैं उसको सलाम करता हूँ। जेएनयू की इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए उसको हमेशा याद किया जाएगा।
यह आंदोलन जो आज हुआ है, और लगातार आगे बढ़ रहा है, इसके महत्व को हम एक दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं। 1970 के दशक में जो मथुरा रेप केस का फैसला हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि लड़की चरित्रहीन थी और उसका बलात्कार नहीं हुआ। इस फैसले के विरोध में 18 जनवरी 1980 को बंबई के कई संगठन सड़कों पर आए और उन्होंने मिल कर ‘फोरम अगेन्स्ट रेप’ नामक एक फोरम बनाया और उसके माध्यम से धीरे-धीरे पूरे देश में आंदोलन फैल गया। 8 मार्च को दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास सभी जगह रेप के खिलाफ आंदोलन हुए। इसके साथ ही उसका एक कल्चरल विंग भी था जिसमें स्टडी-ग्रुप वगैरह भी थे और ये रेप के खिलाफ जो फोरम बना, जो इनके सदस्य थे, वे पीड़ित महिलाओं, जिनके साथ रेप हुआ था, उनके पास जाकर उनकी काउन्सलिन्ग करते थे। इस प्रकार उसे एक जन-अभियान का रूप दिया गया था।
आज जो जन-आंदोलन चल रहा है उसमें एक बड़ा और महत्वपूर्ण फर्क है। 1980 में जो आंदोलन बंबई से शुरू हुआ वह मुख्य रूप से महिला-संगठन का आंदोलन था। कुल मिलकर लगभग 150 सक्रिय महिलाएं सामने आई थीं और उन्होंने इस आंदोलन को चलाया था। लेकिन इस बार जो आंदोलन हुआ है यह सिर्फ महिला संगठनों द्वारा संचालित नहीं है, बल्कि महिला संगठन बहुत कम हैं इसमें। यह आंदोलन जिस बड़े पैमाने पर फैला उसका एक बहुत बड़ा कारण हिंदुस्तान की एक बड़ी वामपंथी राजनीतिक पार्टी, उसका एक बड़ा स्त्री संगठन एपवा (APWA) और उसका एक बड़ा विद्यार्थी संगठन आइसा (AISA) है। ये संगठन अगर नहीं होते तो यह आंदोलन आज देशव्यापी रूप नहीं ले पाता। जनाक्रोश को एक संगठित और व्यापक रूप देने के लिए एक राजनीतिक संगठन कितना जरूरी है, यह आज बहुत महत्वपूर्ण है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि आज देश में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो इस तरह के आंदोलन को फैलाना चाहता हो, सिवाय इसको भुनाने के। यह एकमात्र संगठन था (AIPWA और AISA), जिसने जनाक्रोश को देखते हुए उसके मूल्यों के लिए इस लड़ाई को फैलाया।DSC_0071
दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि भारत में बदलाव लाने के लिए जो आंदोलन हैं, वह कहाँ से शुरू हो सकते हैं? हिंदुस्तान की सारी राजनीतिक व्यवस्था, जो political class है, जो सिर्फ चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं, उनकी सीमाएं आज बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट हो चुकी हैं। अन्ना हज़ारे का आंदोलन, एक ऐसा आंदोलन था जो बड़ी संभावनाओं के लिए हुआ था, हालांकि उसकी कई सीमाएं भी थीं। वह सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ था इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने उसका समर्थन नहीं किया। मैं समझता हूँ कि वामपंथियों को उस आंदोलन को उसकी सीमाओं से मुक्त करके, उसकी अंतर्निहित संभावनाओं का अपने ढंग से विकास करना चाहिए था क्योंकि एक पूरा जनांदोलन बनने की असीम शक्ति उस आंदोलन में थी। दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का वामपंथी आंदोलन इस काम से चूक गया। वे भी चूक गए जो आज इस आंदोलन को उठा रहे है, लेकिन यह अच्छी बात है कि आज जो आंदोलन हुआ, वामपंथी संगठन इस काम से नहीं चुके और उसने इस सवाल को उठाया।
एक महत्वपूर्ण दृष्टि से यह सांस्कृतिक आंदोलन है। किसी देश में बदलाव का आंदोलन कहाँ से शुरू होगा यह कहा नहीं जा सकता है। आप सब जानते हैं कि चीनी क्रान्ति का आंदोलन भी 4 मई के एक सांस्कृतिक आंदोलन से ही शुरू हुआ था और संयोग से वहाँ के विद्यार्थियों ने ही 1919 ई. में किया था। मैं वर्तमान आंदोलन के एक सांस्कृतिक रूप को ज्यादा देख पा रहा हूँ। यह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आंदोलन है जिसने हमारे देश में जेंडर (Gender) के सवाल को व्यापक पैमाने पर उठाया है। इस सांस्कृतिक आंदोलन के उभरने के साथ-साथ दुश्मन भी तैयार गया है। दो खेमें इस आंदोलन के बाद उभर कर आए हैं। इस आंदोलन के विरोधी खेमों के प्रतिनिधियों ने, चाहे वो शंकरचार्य हों, मोहन भागवत हों या राजनीतिक दलों के नेता भी हों, उन लोगों ने भी अपनी बातें कही हैं। स्त्रियों की लक्ष्मण रेखा खींची है और बताया है कि स्त्रियाँ भी दोषी हैं। महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा कहे जाने के बाद भी इस विरोधी खेमे की आवाज़ कमजोर सी लगी है। पर मैं आपसे कहना चाहूँगा कि दुश्मन को आप कमजोर न समझिएगा। उसके पीछे बहुत बड़ी ताकत है जनता की पिछड़ी हुई चेतना, जनता की सोयी सोई हुई चेतना, जिन सवालों पर जनता को कभी सचेत नहीं किया गया है। वह पिछड़ी हुई चेतना ही इन लोगों की सबसे बड़ी ताकत है, उसी के बल पर ये लोग खड़े हैं। ये जो हमारी संस्कृति की प्रथाएँ हैं, हमारी धार्मिक मान-मर्यादाएं हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं, ये सब इनकी ताकत हैं। अगर आप इनके खिलाफ लड़ने की हिम्मत रखते हैं तो आपको ये समझकर चलना चाहिए कि दुश्मन बहुत शक्तिशाली है। सामाजिक रूढ़िवाद उसका मुख्य आधार है और इस लड़ाई को अगर हम आगे ले जाएँगे तो निश्चित रूप से समाज में एक ध्रुवीकरण पैदा होगा- इन मूल्यों के खिलाफ और इन मूल्यों के पक्ष में। और, इस तरह इस सांस्कृतिक लड़ाई के दो मुख्य ध्रुव होंगे। एक ओर हिंदुस्तान का युवा-वर्ग होगा और दूसरी ओर हिंदुस्तान की सामंती शक्तियाँ, पुरोहितवाद, सांप्रदायिक और फ़ासिस्ट ताक़तें होंगी और उस लड़ाई के लिए मैं समझता हूँ कि मानसिक रूप से उन लोगों को तैयार होना चाहिए जो इस जनांदोलन में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।DSC_0058
आज इस देश में सांस्कृतिक लड़ाई बहुत महत्वपूर्ण हो गई है, खासकर मौजूदा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण। ये जो पिछले 10-15 सालों में रेप की संख्या इतनी बढ़ी है उसका एक बहुत बड़ा कारण भूमंडलीकरण और बाजारवाद का माहौल है और उसे उदारीकरण की नीतियों से बढ़ावा मिला है। आज देश में लुटेरी और भ्रष्ट जितनी ताकते हैं, सबको खुली छूट मिली हुई है। आप कुछ भी कर लीजिये कुछ नहीं होगा। कानून की भूमिका सिमटकर लुटेरों की रक्षा करने और उनके खिलाफ जनसंघर्ष उठाने वालों का दमन करने तक ही सीमित रह गई है। इसके अलावा आज देश में कानून की कोई व्यवस्था और भूमिका नहीं रह गई है। लेकिन सांस्कृतिक लड़ाई लड़ने के लिए उसके बदलने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए। यह जो एक मार्क्सवादी बहस चलती रहती है कि आधार के ऊपर ही ये चीजें खड़ी हैं और आधार बदलेगा तभी ये बदलेंगी, यह एक बीती हुई बात है। बुनियादी आधार बदलने तक कोई सांस्कृतिक लड़ाई रुकती नहीं है। माओत्से तुंग से किसी ने पूछा था कि चीन में समाजवाद तो आ गया, स्त्री-पुरुष समानता कब कायम होगी? माओत्से तुंग ने कहा था- तीन-चार सौ साल लगेंगे। यह समाजवादी क्रांति के उस सबसे बड़े नेता का कहना था। उन्होंने कोई झूठा आश्वासन नहीं दिया, कोई सब्जबाग नहीं दिखाया, कोई झूठा सपना नहीं दिखाया। समाजवाद आ जाने के बाद भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में बदलाव आने में 3-4 सौ साल लगेंगे चीन में, क्योंकि बदलना इतना आसान नहीं होता है कि बुनियादी आधार बदला तो संस्कृति भी बदल गई। इसलिए संस्कृति की लड़ाई हमेशा चलनी चाहिए, बुनियादी आधार बदलने का इंतजार नहीं किया जा सकता है। ये जो सांस्कृतिक लड़ाई का सवाल है, स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में भी ये सवाल उठे थे देश में। रानाडे वैगरह का यही मुख्य विरोध था कि समाज सुधार होने चाहिए, स्त्रियों की दशा में सुधार होना चाहिए, तो तिलक ने कहा- नहीं, पहले अंग्रेजों को भगाओ, पहले हमारा देश आज़ाद हो। हम अंग्रेज़ी क़ानूनों से स्त्रियों की दशा में सुधार नहीं चाहते। हम आज़ाद होंगे तो हम सारी चीजों का सुधार करेंगे। हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई से बाहर हुआ किसानों का आंदोलन, जमींदारी प्रथा के खिलाफ आंदोलन, स्त्रियों का आंदोलन। इसलिए बाहर हुआ क्योंकि आज़ादी की लड़ाई इन सवालों को नहीं उठा रही थी। ये सवाल आज़ादी की लड़ाई दौरान भी रहे कि सांस्कृतिक बदलाव की लड़ाई भी साथ-साथ शुरू होनी चाहिए या नहीं? समाजवाद के बारे में भी यह बात सही है। आधार और बुनियादी बदलाव की बहुत बात की जाती है पर लेनिन के इस कथन पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि- बहुत सारे सुधार हैं जिनके लिए हमें क्रांति से पहले संघर्ष करने होंगे, कई सुधार क्रांति के बाद भी जारी रखने होंगे, कुछ ही सुधार हैं जो सिर्फ क्रान्ति के बाद शुरू किए जा सकते हैं। उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से देखा कि बहुत से सुधार आंदोलनों के लिए क्रान्ति तक रुकने की जरूरत नहीं है।DSC_0068सौभाग्य से 1980 के आस-पास जब हम जेएनयू आए तो देश में स्त्री-आंदोलन का माहौल था, स्त्रीवादी साहित्य पढ़ा जाता था। आज कितने लोग स्त्रीवादी साहित्य पढ़ते हैं, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन 1980 के दशक में एक बहुत महत्वपूर्ण किताब आई थी।  Sheila Rowbotham की किताब थी- Beyond The Fragments. Sheila Rowbotham एक ब्रिटिश वामपंथी नारीवादी थीं और उन्होंने एक बड़ी बात महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि ‘स्त्री-पुरुष संबंध कैसे होंगे समाजवाद के बाद, अगर हमारी इस बारे में कोई अवधारणा है तो उस अवधारणा को साकार करने का प्रयत्त्न समाजवाद आने के बाद ही नहीं होगा, आज से होना चाहिए। समाजवाद को लाने के लिए जो संगठन हैं, जो कम्यूनिस्ट पार्टी है या और भी जो संगठन हैं, उन संगठनों के भीतर सबसे पहले उस स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को साकार करो जो तुम समाजवाद के बाद कायम करना चाहते हो। अगर ये नहीं करते हो तो तुम्हारी उन अवधारणाओं की बात झूठी है।’ जो रूप आप कायम करना चाहते हैं उसका प्रारूप हमें पहले दिखाओ। उसे पहले अपने संगठन के अंदर प्रयोग करके दिखाओ जहां तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है। यह Prefigurative Movement यूरोपियन वामपंथी नारीवाद की एक बड़ी महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगती है कि आज उस पारिभाषिक नाम का इस्तेमाल किए बिना, लोग इस अवधारणा की बहुत सी बातों के प्रति सचेत हो रहे हैं। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
आज इस आंदोलन ने जिन सांस्कृतिक सवालों को जन्म दिया है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, स्त्री के प्रति हमारे नजरिए का। इसी प्रकार ये दो खेमे बने हैं इस सांस्कृतिक लड़ाई में, जहां एक तरफ सारी सांप्रदायिकतावादी, फ़ासिस्ट, पुरोहित, सामंतवादी, ब्राह्मणवादी ताक़तें खड़ी हैं और दूसरी तरफ जनवादी आंदोलन से जुड़े हुए वामपंथी, स्त्रीवादी लोग खड़े हैं, तो इन दोनों ताकतों की लड़ाई के बीच जो एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा हुआ है वो है स्त्री के प्रति नजरिए का। पुरोहितपंथी, ब्राह्मणवादी ताक़तें कहती हैं कि स्त्रियों को संरक्षण देने की जरूरत है। वो ये तो नहीं कह सकते कि बलात्कार उचित है, वो कहते हैं कि स्त्रियों को संरक्षण, सुरक्षा देने की जरूरत है। इसीलिए वो अपील करते हैं कि ‘स्त्रियों बाहर मत जाओ। घर में रहो। हम पुरुष लोग हैं, घर में तुम्हें सुरक्षा मिलेगी। तुम बाहर जाकर अपनी सुरक्षा को खतरे में डालती हो?’ यह हमारी संस्कृति का एक बुनियादी सवाल है जो आज उठके खड़ा हुआ है- स्त्री को संरक्षण चाहिए, सुरक्षा चाहिए या आज़ादी चाहिए। स्त्री कहाँ सुरक्षित है, घर में या बाहर में? वे कहते हैं, हमारी सरकार कहती है कि बाहर स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। हम पुलिस वगैरह का इंतजाम कर रहे हैं तब तक आप बाहर कम निकलिए और रात को तो बिलकुल मत निकलिए। ये जो एक सवाल खड़ा है- क्या वाकई स्त्रियाँ घर में सुरक्षित हैं? बहू के पेट में यदि बच्चा आया है तो उसकी जांच कराई जाती है। और अगर भ्रूण में लड़की है तो उसकी हत्या कर दी जाती है। लड़की को आप घर में पैदा नहीं होने देते और आप कहते हैं कि घर में लड़कियां सुरक्षित हैं। अगर वह पैदा हो गई तो पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, खाना-पीना सब में लड़कों के साथ उससे भेदभाव किया जाता है। घरेलू हिंसा के खिलाफ वो कहीं जाकर कुछ बोल नहीं सकती है। उसी परिवार में पति बलात्कार करता है, उस बलात्कार की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, उसको बलात्कार माना ही नहीं जाता है। घर में बाहर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा हिंसा होती है स्त्रियों पर, यह एक सच्चाई है। बाहर के मुक़ाबले घर में स्त्री ज्यादा असहाय है। बाहर उस पर हिंसा हो तो कुछ लोगों को मालूम हो, पुलिस-थाना हो, कुछ आवाज़ उठे। घर में? घर में तो आप सवाल ही नहीं कर सकते है। पति-पत्नी के बीच की बात है, आप कौन हैं बीच में आने वाले? ये एक बंधा हुआ जवाब है। घर में स्त्री बहुत असहाय है अपने ऊपर होने वाली हिंसा के खिलाफ। समाज के सामने हमें इस बात को बार-बार दोहराना पड़ेगा कि स्त्रियाँ घर में और भी ज्यादा असुरक्षित हैं।DSC_0061
यह जो घर है वह एक प्रकार से पुरुष का उपनिवेश है जिसमें वह बाहरी हस्तक्षेप बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करता है और यह उपनिवेश आज से नहीं है, ब्रिटिश भारत में भी यही था। आप 19वीं सदी को याद कीजिये जिसमें स्त्री सुधार के आंदोलन चले थे और सुधारकों ने ब्रिटिश सरकार से कानून बनाने के लिए कहा था। बचपन में ही शादी हो जाती थी तो सुधारकों ने कहा कि 12 वर्ष तक लड़की के साथ intercourse नहीं होना चाहिए। अतः सरकार से कहकर यह कानून बनवाया गया। इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन हुआ था। क्यों? इसीलिए कि स्त्री का मामला पुरुषों का अपना उपनिवेश है। उनके घर में सरकार दखल नहीं दे सकती है। राष्ट्रवादियों ने कहा- अंग्रेज़ सरकार और चाहे जो कानून बनाए, लेकिन हमारे घर की अंदर की चीजों में दखल नहीं दे सकती है। उनके बारे में कानून नहीं बना सकती है। ये अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ लड़ने वाले बहुतों ने कहा। घर हमारा उपनिवेश है। तुम भारत पर कानून चलाओ लेकिन हमारे घर के बाहर। हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक प्रताप नारायण मिश्र वैगरह सब इसके खिलाफ थे। किसी ने इसका समर्थन नहीं किया। घर के बारे में जो नजरिया रहा है इसको चुनौती देना, इसको बदल डालना हमारी संस्कृति का एक बड़ा सवाल है। स्त्री की आज़ादी की सुरक्षा, सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। झूठे सवालों से छुटकारा पाना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध ने कहा था कि-
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिरकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय
समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे?”
सही सवाल को सामने रखिए और झूठे सवाल को खारिज कीजिए। स्त्री की सुरक्षा एक झूठा सवाल है। सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। और इसी पर विचार किया जाना चाहिए।
मित्रो! इस आंदोलन को आप इसी रूप में हमेशा नहीं चला सकते। आप रोज-रोज जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर जाकर रैलियाँ नहीं कर सकते। तो आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस आंदोलन को हम कैसे जिंदा रखें? एक आंदोलन को लंबे समय तक जिंदा रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है- विचारधारा। विचारधारात्मक संघर्ष ही इस आंदोलन को लंबे समय तक जीवित रख सकता है। इस विचारधारात्मक संघर्ष को आज हमें चलाने की जरूरत है। उन मूल्यों के लिए हमें यह संघर्ष चलाने की जरूरत है जिन्हें हम इस समाज में लाना चाहते हैं, जो हमारे लक्ष्य हैं और ये संघर्ष बहुत सारे रूपों में बहुत सारे मंचों से चलता है। ये संघर्ष साहित्य के मंच से चलेगा। ये संघर्ष वैचारिक गोष्ठियों, सेमीनारों, व्याख्यानों, कला, चित्रों, फिल्मों, गीत, संगीत, नाटक आदि के माध्यम से चलेगा। ये सारे सृजनात्मक रूप हैं विचारधारात्मक संघर्ष को चलाने के लिए। अगर हम इस आंदोलन से पैदा हुए सवालों को और इस आंदोलन को जिंदा रखना चाहते हैं तो हमें विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में, विभिन्न सृजनात्मक रूपों में उन मूल्यों की लड़ाई को लड़ना होगा। जहां तक हिन्दी साहित्य की बात है तो उसके उपन्यास, कविता, कहानी आदि में जो स्त्री की नई छवि उभर रही है वह महत्वपूर्ण है। एक ताकतवर स्त्री की छवि। लेकिन हिन्दी साहित्य में जो स्त्री-विमर्श नाम का एक विमर्श चलता है, वह बड़ा ही दरिद्रतापूर्ण विमर्श है। इन सवालों पर हमें उनसे आगे जाने की जरूरत है। मैं आपको एक दूसरा उदाहरण देता हूँ। महाराष्ट्र को आप देखिए कि किस प्रकार सृजनात्मक रूप से वो हमेशा विचारधारात्मक लड़ाई को चलाते रहते हैं। एक और उदाहरण दूँ आपको। सावित्री बाई फुले। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले इस देश में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का पहला आधुनिक उदाहरण हैं। उनके बारे में आपको और भी जानना चाहिए। सावित्री बाई फुले के अंदर जिस प्रकार की चेतना थी, उस चेतना को झेलम परांजपे ने ओडिसी नृत्य के कार्यक्रमों द्वारा अभिव्यक्ति दी। सावित्री बाई फुले की स्त्रीवादी कविताओं को आधार बनाकर नृत्य की कई प्रस्तुतियाँ दीं। महाराष्ट्र में एक संगठन है MAVA (Men against violence against women)। स्त्रियों पर होने वाली हिंसा के विरोधी पुरुषों का संगठन। यह पुरुषों का संगठन है। फोरम अगेन्स्ट रेप में जैसे महिलाएं महिलाओं की counseling करती थीं, उसी प्रकार MAVA के सदस्य उन पुरुषों की counseling करते हैं, जो महिलाओं पर किसी भी प्रकार की हिंसा करते हैं, उनमें चेतना जागते हैं। मुझे नहीं लगता ऐसा कोई दूसरा संगठन होगा। इस प्रकार के सृजनात्मक प्रयासों का हिन्दी क्षेत्र में नितांत अभाव है।DSC_0105
जेएनयू में एक प्रतिध्वनि नाम का संगठन हुआ करता था जो क्रांतिकारी गाने गाया करता था। आज स्त्रियों के सवाल पर गाने वालों का कोई ग्रुप क्यों नहीं बन रहा है? क्यों नहीं स्त्रियों के सवाल पर हमारे इतने प्रतिभाशाली विद्यार्थी गीत लिख रहे हैं? इतनी अच्छी आवाज़ वाले क्यों नहीं गीत गा रहे हैं? इस तरह की सभाओं में हम क्यों नहीं स्त्रीवादी गीत गा सकते हैं? जो लोग चित्र बनाते हैं, स्त्रियों के सवाल पर चित्र बना सकते हैं, जो कवितायें करते हैं, कविता लिख सकते हैं, जो लोग फिल्म बनाते हैं, वो स्त्रियों के सवाल पर फिल्म बना सकते हैं। पचासों सृजनात्मक रूप हैं, जिनके माध्यम से हमें इन मूल्यों के लिए विचारधारात्मक संघर्ष को जारी रखना है। आज हम सबके सामने एक बड़ा सवाल है संस्कृति का, युवा वर्ग के सामने और खासकर युवकों के सामने। स्त्री विमर्श बहुत हुआ अब पुरुष विमर्श की जरूरत है। ज़्यादातर पुरुषों को ही समझने-समझाने की जरूरत है। स्त्री विमर्श का भी अपना महत्व है, उसे खारिज नहीं करना है लेकिन अगर व्यंग्य में भी कहें तो पुरुष विमर्श क्या है, इसे समझ लेना चाहिए। एक बहुत बड़ा सवाल है कि हम अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को कैसे बदलें? ये युवा वर्ग के सामने, लड़कियों के सामने और लड़कों के सामने भी बड़ा सवाल है। मैं बिलकुल व्यावहारिक और सृजनात्मक रूप से आपके सामने ये प्रश्न कर रहा हूँ। आप सोचकर देखिए अपने व्यवहार में, अपने दृष्टिकोण में, अपने परिवार और दूसरे लोगों के रवैये में पितृसत्तात्मक मानसिकता जो हमें बचपन से अपने घर-परिवार से मिली है, समाज से मिली है, और अपने राज्य से मिलती है लगातार, इसे हम कैसे बदलेंगे?
हर युवती-युवक के सामने ये सवाल है कि जिन जीवन-मूल्यों के लिए हम लड़ रहे हैं, जेंडर-इक्यूलिटी के मूल्यों के लिए हम अपने जीवन में उसको कैसे उतारें? इसका जवाब मुझे नहीं देना है, आप लोगों को देना है। और, जवाब नहीं देना है, इसको साकार जीना है। यहाँ साहित्य के विद्यार्थी बैठे हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है कि कहना पड़ता है कि कमियाँ मुझमें भी हैं। मैं कई बार आदमी शब्द का प्रयोग मनुष्य के लिए करता हूँ। आदमीनामा लिखा नज़ीर अकबराबादी ने, वह पुरुषों के लिए है। हम गलत कहते हैं जब हम सबको आदमी कहते हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है, इसके बारे में हमें सोचना चाहिए। साहित्य के विद्यार्थियों को इस पर सोचना चाहिए कि हम किस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं, स्त्रियों के बारे में कितने अपशब्द हम कहते हैं। माँ-बहन की गालियों का ही सवाल नहीं है साली, ससुरा, ससुरी। मुझे क्लास में पढ़ाते हुए याद आया कि ये ससुरा, ये साला-साली इसीलिए गाली है। ये सब अत्यंत फूहड़ शब्द ही नहीं अच्छे समझे जाने वाले मुहावरेदार शब्दों में भी ये जेंडर-बायस्ड भाषा काम करती है। जैसा कि बहुत सी स्त्रियों ने कहना शुरू भी किया है यह एक प्रकार का Language Rape है। ये भाषाई बलात्कार है। हम इस प्रकार की भाषा से, इस मानसिकता से कैसे मुक्त होंगे यह महत्वपूर्ण सवाल है।
और अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इस आंदोलन को चलाने के लिए, किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए उसके जो मूल्य होते हैं वे मूल्य, उसके आदर्श, उसकी जो मांगें हैं, ये किसी न किसी नारे में कॉन्संट्रेट होनी चाहिए। नारे प्रतिनिधित्व करते हैं उन समस्त मांगों का, उन समस्त मूल्यों का, उस सारी चेतना का जिसके लिए हम लड़ रहे हैं। हमें कुछ ऐसे नारे विकसित करने चाहिए जो कि इस विचारधारात्मक संघर्ष को आगे भी ले जाने में बने रहें। वो एक क्रेटेरिया बन जाएँगे लोगों को जाँचने का कि आप इस नारे के साथ हैं अथवा नहीं। आप इस सारे मामले में विश्वास करते हैं या नहीं। तो समस्त चेतना, मूल्यों और संघर्ष को नापने और साथ होने का एक क्रेटेरिया बन जाता है। तो एक नारा जो जेएनयू के छात्रों ने पहले से ही दे रखा है। मुझे बहुत सही लगता है, और वो है- ‘बेखौफ़ आज़ादी’। इस सांस्कृतिक लड़ाई का सबसे प्रमुख नारा ‘बेखौफ़ आज़ादी’ होना चाहिए। ये नारा बहुत महत्वपूर्ण है। इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस सांस्कृतिक लड़ाई के जो तार राजनीति, प्रशासन, कानून, राज्य आदि से जुड़े हुए हैं, उस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को ये नारा समेटता है। बेखौफ़ आज़ादी सिर्फ संस्कृति का सवाल नहीं है, बेखौफ़ राजनीति, लोकतन्त्र का, राज्य का, कानून का, पुलिस का, प्रशासन का हरेक से जुड़ा सवाल है। इसीलिए बेखौफ़ आज़ादी एक सही नारा है इस सांस्कृतिक लड़ाई का। इसके अलावा मैंने और भी नारे खोजने की कोशिश की, आप भी प्रयत्न करें। एक नारा जो मुझे ज्यादा व्यापक लगा और सही भी। मैं कहूँगा कि इस सांस्कृतिक लड़ाई से इस नारे को भी जोड़ा जाए और वो नारा है- Women’s Right is Human Right. स्त्री के अधिकारों का सवाल मानव अधिकारों का सवाल है। ये बात जो कभी दलितों के लिए अंबेडकर ने नहीं की। आज स्त्रियों के साथ होने वाले हर व्यवहार के लिए ये बात लागू है कि स्त्री अधिकार असल में मानव अधिकार हैं। इस नारे का महत्व यह है कि ये जो स्त्री-पुरुष वाला विभाजन है, एक तो प्राकृतिक विभाजन है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है।  लेकिन इस सवाल का मतलब शारीरिक रूप से नहीं है। इसके ऊपर जो हमारी सामाजिक निर्मिति है, ये स्त्री है और ये स्त्रीत्व होता है, ये पुरुष है और ये पुरुषत्व है। इस विभाजन को जड़-मूल से उखाड फेंकने की जरूरत है। ये स्त्री और पुरुष का विभाजन झूठा विभाजन है। बंग्ला में एक गीत है, गीत की पंक्तिया है ‘तुमी देखो नारी-पुरुष, आमी देखी शुद्धई मानुष’। तुम स्त्री और पुरुष मानकर देखते हो, मैं तो सब जगह मनुष्य को देखता हूँ। अतः ये स्त्री के अधिकार नहीं, स्त्री का सवाल है, मानवता का अधिकार है वो, मानवता का सवाल है वो। हमें पूरी मानवता के रूप में उनको उठाने की जरूरत है। आश्चर्य की बात है कि बड़े-बड़े लोग जिन्होंने मर्दवाद को चुनौती दी है। मर्दवाद से जब तक आप छुटकारा नहीं पायेंगे, आप इसी सड़ी-गली संस्कृति से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। मर्द होना अलग बात है, मर्दवाद दूसरी बात है। ये मर्दवाद, ये पुरुषत्व, क्या चीज है ये पुरुषत्व ? ‘Boys don’t cry’ लड़के रोते नहीं,  हममें से कोई ऐसा नहीं होगा जिसने बचपन से ये बात न सुनी हो, अपने मां-बाप से, भाई-बहनों से, दोस्तों से- अए लड़का होके रोता है? छिः लड़के नहीं रोते। लड़कियों की तरह रोने बैठ गया। ये क्या बात है? ये कितनी घृणित चेतना है। हमें घृणा होनी चाहिए ऐसे सवालों से, ऐसे वाक्यों से और ऐसे मूल्यों से। मनुष्य रोता है। लड़का और लड़की नहीं रोते हैं। ऐसे सारे मुहावरे, ऐसी सारी भाषा, ऐसे सारे मूल्य जिसमें स्त्री और पुरुष का विभाजन किया गया है, फेंक देने लायक है। वो झूठे हैं, उनको खारिज कर देना चाहिए, ऐसी तमाम चीजों को। हजारी प्रसाद द्विवेदी मर्दवाद के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने ESCAPE में मर्दवाद को दिखाया। उन्होंने दिखाया कि ये जो लोग संन्यास ले लेते हैं ये मर्दवादी धारणा है। ये जो वैराग्य है और ये जो ऐशो-आराम, भोग-विलास है ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ये जो सेनाएं खड़ी की जाती हैं, बड़े-बड़े मठ खड़े किए जाते हैं, और बड़ा राज्य का काम-धाम चलता है। ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में उनकी इन मान्यताओं को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी जो इन बातों में मर्दवाद देख सके, वो आज भी हम नहीं देख पाते हैं। द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘स्त्री की सफलता पुरुष को बांधने में है लेकिन उसकी सार्थकता पुरुष को मुक्त करने में है‘। ये सफलता और सार्थकता अपनी जगह पे है, लेकिन ये क्या चीज है?  क्यों स्त्री की सफलता ? अगर सफलता और सार्थकता है भी तो सिर्फ स्त्री की क्यों? पुरुष की क्यों नहीं ? हम अगर सफलता और सार्थकताओं में विश्वास करते है तो हमें कहना चाहिए कि मनुष्य की सफलता दूसरे को बांधने में है, लेकिन उसकी सार्थकता दूसरे को मुक्त करने मे हैं। ये मनुष्य का सवाल है। स्त्री ओर पुरुष का जहां भी सवाल उठाया जाएगा आप समझिए कि वो एक झूठा सवाल है और हमें उसका विरोध करना चाहिए। मर्दवाद पुरुषों और लड़कों के लिए एक बड़ा मूल्य बना हुआ है। जिसको Macho Man के द्वारा दिखाया जाता है. इसका असर बच्चों पर, खासकर बहुत साधारण लड़कियों पर, जिनकी चेतना सोई है, वो ऐसे मर्दवादी पुरुषों और लड़कों को बड़ा हीरो मानती हैं। ये मर्दवाद जो आदर्श बना हुआ है समाज में, हमारी सांस्कृतिक लड़ाई के लिए जरूरी है कि हम इस आदर्श को एक गर्हित मूल्य में बदल दें। मर्दवाद एक गर्हित मूल्य है। हर मर्द को इससे छुटकारा पाना चाहिए। हर स्त्री को भी इससे छुटकारा पाना चाहिए। मर्दवाद कोई वांछनीय चीज नहीं है, नितांत अवांछनीय चीज है। सावरकर जो मोहन भागवत वगैरह के पितामह हैं, जिनका उत्तराधिकार इन्हें मिला है, उस वीर सावरकर ने Six Glorious Epochs of Indian History (भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम अध्याय) किताब लिखी उसमें एक जगह उन्होंने शिवाजी के बारे में लिखा है कि ‘शिवाजी ने मुसलमानों पर आक्रमण करके उन्हें मार भगाया और उनकी स्त्रियों को बंदी बना लिया तो शिवाजी ने उन स्त्रियों को बिना बलात्कार किए छोड़ दिया, ये बहुत बड़ी गलती की शिवाजी ने। शिवाजी अपने पुरुषत्व का परिचय नहीं दे पाए।‘ आपने पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ देखी होगी उसमें वो एक लड़की से शादी करता है और उसे लाहौर से रेगिस्तान के किसी इलाके में ले जाता है। लड़का पढ़ा-लिखा है और वो लड़की तो और भी विदेशों में रह चुकी है। वो लड़की की इच्छा का ख्याल रखते हुए उससे शारीरिक संबंध नहीं बनाता है। तब मौलवी लोग कहते हैं कि ‘अरे मर्द बन मर्द, जा उसके साथ सो के आ’। इन्हीं कामों के लिए मर्दानगी रह गई है? यही मर्दानगी है? अखबार (जनसत्ता) मे मैंने एक विज्ञापन देखा, दिल्ली पुलिस का- ‘औरतों को छेड़ना कोई मर्दानगी की बात नहीं हैं’। सही लिखा। लेकिन इसके बाद नीचे और एक चीज लिखी है- ‘उनकी रक्षा करना ही मर्दानगी है‘। मै कहता हूँ इस मर्दवाद पर लानत भेजनी चाहिए। यह एक गर्हित मूल्य है और इससे छुटकारा पाना हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है और इस चेतना को विभिन्न सृजनात्मक रूपों, विभिन्न कलात्मक रूपों में अभिव्यक्त करना चाहिए। तो ये दो नारे- Women’s Right is Human’s Right और ‘बेखौफ़ आज़ादी’,  ये दो ऐसे नारे हैं जो इस आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं।DSC_0106
एक और बहुत बड़ी चुनौती जो इस आंदोलन के विकास में है जो मैं आपसे कहना चाहूंगा कि इस आंदोलन को छोटे शहरों में ले जाने की जरूरत है, कस्बों में और देहाती इलाकों में ले जाने की जरूरत है। आप जेएनयू में कुछ कर सकते हैं, दिल्ली में भी कर सकते है, लेकिन खुरजा में जाकर करना, भोपाल में जाकर करना, भागलपुर में जाकर करना या जौनपुर में, वहां जाकर करना जहां इनके सांमती संस्कार चलते हैं, जहां स्त्रियां कुछ नहीं कर पाती हैं, लडकियों को बुरी तरह से छेड़ दिया जाता है और तब भी नज़र नीची करके चली जाएंगी, वरना घरवाले भी लड़की की ही पिटाई करेंगे कि तू इधर-उधर क्यों देख रही थी, वहां इन आंदोलनों को, इस चेतना को, इन मूल्यों को ले जाने की ज्यादा जरूरत है. अगर सिर्फ चुनाव जीतना हमारा मकसद नहीं है तो इस आंदोलनों को छोटे शहरों में, कालेजों में, गांवों में वहां के लड़के-लड़कियों के बीच हम कैसे ले जाएं,  अगर हम इसको जिंदा रखना चाहते हैं तो यह भी एक महत्वपूर्ण काम है।
(जेएनयू छात्रसंघ द्वारा आयोजित एक सभा में 23 जनवरी 2013 को दिया गया व्याख्यान )

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

शहीद



शहीद

अभी कुछ ही दिन पहले कुंभ खत्म हुआ है। कुंभ ऐसा मौका होता है जिसमें माना जाता है कि यदि आप संगम में नहा लिए तो अमर हो जाते हैं, और अगर शरीर अमर ना भी हुआ तो कम से कम आत्मा अमर हो जाती है, यूं गीता में कहा गया है कि आत्मा यूं भी अमर ही है, चाहे कुंभ के दौरान नहाए या ना नहाए, और अगर गहराई के साथ सोचा जाए तो गीता में ही कहा गया है कि आत्मा ना गीली होती है ना सूखती है, ना जलती है ना गलती है, इसी को आगे बढ़ाते हुए गीता के इसी श्लोक का सबटेकस्ट है कि शरीर तो मिट्टी हो जाना है, और आत्मा को कुछ हो नहीं सकता, तो हे अर्जुन, जी भर के पाप कर, पुण्य मूर्खों, गरीबों और दलितों के लिए छोड़ दे लेकिन हमारी बातचीत का मुख्य बिंदु कुछ और है। बात ये है कि महाकुंभ के कथित पावन अवसर पर जब सारी हिंदु कूढ़ मानसिकता गंगा में डुबकी लगाने के चक्कर में होती है, तब इन्ही की एक प्रजाती जिसे नगा कहते हैं, सिर्फ पैर का अंगूठा गंगा के पानी में डाल कर पूर्ण स्नान का फल भोगते हैं। यूं साधू एक पावन जानवर होता है, वो ना भी नहाए तो पवित्र ही रहता है, गंधाए तो भी पवित्र रहता है और तमाम तरह के कुकर्म करे तो भी साक्षात ईश्वर उसे स्वर्ग ले जाता है, तब साधु क्यों गंगा नहाता है ये रिसर्च का विषय है। इन नगा साधुओं की याद मुझे क्यों आई? इसलिए कि कल ही अखबार में पढ़ा कि इसी तरह पादांगुष्ठ स्नान करके अमर होने की तरह अंगूठा कटा कर शहीद होने वालों की सूची में एक महान नाम और जुड़ गया है।

जिन महानुभावों को अब तक पता ना चला हो कि मैं किनकी बात कर रहा हूं, वो जड़ामूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंग की सी एम का नाम उचार सकते हैं, ममता बनर्जी। कुछ लोग होते हैं कि लगती कम है हल्ला ज्यादा मचाते हैं, ममता उसकी एक जिंदा यानी जीवित मिसाल हैं, पुलिस वालों ने कहा कि हे ममते, यहां छात्र लोग अपने एक साथी की तुम्हारे सिपाहियों द्वारा की गई हत्या के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं, तुम गाड़ी से मत उतरो, तुम उस गेट से भवन के अंदर जाओ, जिससे सभी वी आई पी यानी सी एम जाते हैं लेकिन ममता नहीं मानी, वो जानबूझ कर पैदल उस रास्ते से गईं जिस पर छात्र लोग प्रदर्शन कर रहे थे, उनके साथ एक और मंत्री भी थे, अब ऐसे में छात्र लोगों में किसी ने धक्का दे दिया, तो ममता लगी गुहार लगाने कि, मुझे मारने की कोशिश, मेरे मंत्री को मारने की साजिश, हाय रे मैं तो शहीद हुई, हाय रे मेरा नाम रखो शहीदों में...... और यही ममता थीं ना जिन्होने सुदीप्तो की शहादत पर कहा था कि ये तो मामूली घटना थी। हे राज्यपाल महामूर्ति ज़रा न्याय कीजिए, कौन लोकतांत्रिक मुख्यमंत्री अपने शरीर पर किसी गरीब छात्र की छुअन को हत्या की साजिश बताता है और अपने राज्य में मरने वाले किसी छात्र की हत्या को आम घटना बताता है।

भारत का लोकतंत्र कितना महान हो गया है। अब जड़ामूल कांग्रेस की ममता दीदी की फोटो को कोई माला तो पहनाओ रे......दीदी के अंगूठे से खून निकला, दीदी शहीद हो गई रे......असल में इन सभी अतिवादियों की तस्वीरों को एक साथ माला पहनानी चाहिए। रक्त पिपासु, फासीवादी मोदी और ममता, दोनो ही के प्रति छात्रों का विरोध और दोनो ही की छात्रों, गरीबों, पर अतियां, खुद को महान, अतिमहान बताने की प्रवृतियां और खुद ही खुद को माला पहनाने का चाव, दोनो को ही शहीद मान लिया जाए और दोनो को एक दूसरे से माला पहनवा दी जाए। दोनो धन्य हों। अभी खुद को शहीद बताना पड़ रहा है तब एक दूसरे को शहीद कह-कहा लिया जाएगा।

जैसे ही ममता ने शहादत का हल्ला मचाया मोदी ने उनकी प्रशंसा कर दी। और महामहिम राज्यपाल ने भी कह दिया कि भाई ये प्रदर्शन तो अशोभनीय ही था, लोकतंत्र पर धब्बा था, अफसोस कि महामहिम को सुदीप्तो की हत्या लोकतंत्र पर धब्बा ना लगी। क्या कहा.....संविधान का समानता का अधिकार, अजी क्या बात करते हैं आप, समानता होती है समान लोगों में, ज़रा सोचिए ममता के नाजुक कानों में छात्रों के नारों का घोष, ममता की तानाशाही पर छात्रों का आक्रोश, कितनी आहत हुई होंगी ममता दी...दी, ओफफफ्, अगर इसे भी शहादत ना कहा तो अमां क्या बच्चे की जान लोगे।

और सुदीप्तो जैसे छात्रों का क्या है, मरते ही रहते हैं सुसरे, गया क्यों था विरोध करने, घर बैठता आराम से, या बहुत राजनीति करने का शौक चर्राया था तो जड़ामूल की राजनीति करता। खैर सुदीप्तो की बात ज्यादा नहीं करनी चाहिए, इससे दीदी की शहादत पर धब्बा लगने का खतरा है, पर शहीद तो वो हैं ना......अब देखिए, मान लीजिए, न मानेंगे तो पश्चिम बंगाल में बैन कर दिए जाएंगे, जेल में डाल दिए जाएंगे, तो कहिए जिंदा शहीद जड़ामूल की ममता दीदी की.......अजी साहब न बोलिए पता लगेगा जब दीदी पुलिस से लाठीचार्ज करवाएगी। हमारा काम था समझााना हमने समझा दिया। 

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

अर्धसत्य




अर्धसत्य

काफी देर से आंखे खोले बिस्तर पर पड़े रहने से आंखों के गिर्द काले घेरे पड़ जाते हैं, बिस्तर से उठते हुए उसने सोचा। परछत्ती पर बने झोपड़ेनुमा कमरे में लोहे की जंगआलूदा चारपाई पर से उठते हुए उसने पास पड़े हुए अंगोछे को कमर में बांध लिया। अकेले रहने का ये भी एक सुख है कि कम से कम निरवस्त्र रहा जा सकता है, कोई किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं करता। उठ कर वो खिड़कीनुमा झरोखे के पास पहुंचा और मटके में से आधा गिलास पानी निकाल कर गटक गया। पानी के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, इस शहरी कॉलोनी में दो तरह के पानी आते हैं, एक पीने के लिए और एक बाकी कामों के लिए। बाकी काम जैसे कपड़े धोना, नहाना, पोंछा लगाना या ऐसे ही काम, इन गैरजरूरी कामों के लिए पानी वो छत के कोने में रखी तीन टंकियों में से किसी का भी ढक्कन उठा कर ले लेता था, लेकिन पीने के पानी के लिए उसे एक नियत समय पर नीचे जाकर पानी भरना पड़ता था और फिर बाल्टी को चार मंजिल उपर लाना पड़ता था। इसलिए पीने का पानी वो हफ्ते में सिर्फ एक ही बार भरता था और उसे बहुत सावधानी से बरतता था। जैसे प्यास लगने पर सिर्फ आधा गिलास पानी पीना, या चाय जब बहुत जरूरी हो या नीचे जाने का कतई मन ना हो तो ही बनाना। यूं कई बार ये भी हुआ कि वो टंकियों के पानी को ही पीने या चाय बनाने के काम ले आता था। फिर एक दिन उसने देखा कि टंकी का ढक्कन उठाकर बंदर उसमें नहा रहे हैं। तबसे उसने उस पानी को पीना छोड़ दिया था। 

मालिक मकान से उसका एक अलिखित समझौता था, मालिक मकान जो मकान की सबसे निचली मंजिल पर रहता था, हालांकि मकान बनवाते समय ही ठेकेदार से हुए एग्रीमेंट में तीसरी मंजिल के दो फ्लैट बिक गए थे, फिर दूसरी और चौथी मंजिल के चारों फ्लैट भी बिक गए थे और इस तरह जमीन के मालिक के पास निचली और पहली मंजिल के चार फ्लैट और ये छत बची थी जिस पर ये झोपड़ी पड़ी हुई थी। मालिक मकान यानी चौहान साहब ने अपनी पूरी जिंदगी में कोई काम नहीं किया था, वैसे वो पॉर्पटी डीलर थे, और उनकी काफी शोहरत भी थी। लेकिन अपने धंधे में उन्होने कोई पैसा बनाया हो, इसकी उसे खबर नहीं थी, पहली मंजिल के एक फ्लैट और ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैटों के किराए से ही उनका घरबार चलता था। उसके और चौहान साहब के बीच मुआहदा ये था कि वो उनकी दो लड़कियों को पढ़ाएगा और इसके बदले उससे उस झोपड़ी का किराया नहीं वसूला जाएगा, हालांकि जब वो यहां आया था तब ऐसा नहीं था। वो चौहान साहब को 1400 रुपये किराया देता था, लेकिन फिर जब एक बार उसे फैलोशिप का पैसा मिलने में देर हुई और तीन महीने तक किराया नहीं दे पाया तो चौहान साहब ने ही प्रस्ताव रखा कि अगर वो उनकी दोनो लड़कियों को ट्यूशन पढ़ा दिया करे तो चौहान साहब उससे किराया नहीं मांगेगे। इसमें उसे वैसे भी कोई एतराज नहीं था, किसी को ट्यूशन पढ़ाना कोई हत्तक का काम तो था नहीं, और अगर महाना मिलने वाले 4000 रुपयों में से कुछ बच ही जाए तो उसका क्या जाता है। 

इस ट्यूशन से उसे जो सबसे बड़ी परेशानी थी वो चौहान साहब की बड़ी बेटी से थीं जो जाने किस मुगालते में उसे तरह-तरह से इशारे करती थी, और अब तो चिठ्ठियां तक देने लगी थी। लड़की जवान थी, और वो भी कोई साधु तो नहीं ही था लेकिन चौहान साहब को पता चल जाने और झोंपड़ी छूट जाने के डर से ही वो किसी भी तरह की हरकत से बाज़ आ रहा था। हालांकि अपनी झोंपड़ी के एकांत में उसने कई बार, उसके सपने लिए थे। 

अपना सदाबहार सतरंगी कुरता और जींस पहन कर वो झोंपड़ी से बाहर निकला और दरवाज़ा भिड़का दिया। पहले वो इसमें ताला लगाया करता था, लेकिन किसी ऐसे दरवाजे़ को ताला लगाने का मतलब ही क्या जो हाथ के जोर के धक्के से ही सामने वाले के आगे अपने आप को पूर्णतः प्रस्तुत कर दे। इसलिए वो कुंडा तक नहीं लगाता था, पहले तो कोई छत पर आ ही नहीं सकता, दूसरे ये झोंपड़ी दूर से देखने पर ऐसी नहीं लगती थी कि कोई भिखारीनुमा चोर भी इस पर हाथ डाले, तीसरे अगर मान लीजिए कोई बहुत ही डेस्परेट आदमी आ ही जाए, और झोंपड़ी में चोरी करने के लिए अंदर घुस ही जाए तो उसे कुछ मिलेगा ही नहीं। गरीबी का ये आश्वासन ताला-चाबी के झंझट से उसे दूर रखे हुए था। वो नीचे चल दिया।

चाय की दुकान पर पहुंच कर उसने बंेच पर पड़ा अखबार उठा लिया, चाय वाले के लिए वो रोज़ का गाहक था इसलिए उसे बिना कहे एक गिलास चाय मिल गई, चाय पीकर वो फिर से अपनी उसी झोंपड़ी में जाएगा और उसके पीछे बने हुए टॉयलेट में नित्यक्रम से निवृत होगा और फिर यूनीवर्सिटी जाएगा, वहां कुछ एक दोस्तों के साथ कुछ गप-शप होगी, कुछ एक टीचरों के साथ बातचीत होगी, कुछ एक कार्यक्रम बनेंगे, कुछ एक पर बहस होगी, और शाम को ठीक चार बजे वो वहां से चल देगा, यूनिवर्सिर्टी बहुत पास ही थी जहां वो पैदल भी जा सकता था और बस से भी जा सकता था। अधिकतर वो पैदल ही जाता था, ताकि सोचने का वक्त निकल सके। उसने कई बार अपने कमरे के एकांत में सोचने की कोशिश की थी लेकिन एकांत में सोचने की आदत नहीं होने के चलते वो अपनी झोंपड़ी में सोच नहीं पाता था, और इसी तरह पैदल चलते चलते सोचता था, झोंपड़ी में उसके बौद्धिक सोच के सवालों पर, चौहान साहब की बड़ी लड़की हावी हो जाती थी, या कभी-कभी ऐसा लगता था जैसे दिमाग पर कोई धुंध जम गई हो जो किसी तरह भी हट ना सके। इसीलिए अपने तमाम बौद्धिक सवालांे पर वो युनिवर्सिटी तक पैदल जाते हुए सोचता था जब गाड़ियों की रफ्तार उसके कानों में गूंजे, जब लोगों के शोर के कतरे उसके जेहन से टकराएं, जब वो बिना सोचे गाड़ी में जुते हुए बैल की तरह बिना रास्ता देखे चलता रहे और सोचता रहे।

चाय पीकर वो वापस अपनी झोंपड़ी में वापस आ गया, अब उसे नहाना था और फिर यूनिवर्सिटी के लिए निकलना था। उसने झोंपड़ी के बाहर बंधे तार पर से अपना तौलिया उतारा और अंदर आया। बाल्टी कहीं नहीं दिख रही थी, वो बाथरूम में गया लेकिन बाल्टी वहां नहीं थी, वो कंधे पर तौलिया डाले टंकी के पास गया तो देखा कि बाल्टी वहां टेढ़ी पड़ी हुई थी, उसने बाल्टी को उठाया और टंकियों के चबूतरे पर चढ़कर पहली टंकी का ढक्कन खोला, टंकी आधी भरी हुई थी, उसका ढक्कन बंद करके वो दूसरी टंकी के पास गया और उसका ढक्कन खोला ये टंकी तीन-चौथाई भरी हुई थी, उसने इसमें अपनी बाल्टी डाल दी, आधी टंकी भरी हो तो पानी के लिए बहुत नीचे तक झुकना पड़ता है, इसीलिए वो ज्यादा भरी टंकी से ही पानी लेता था। पानी भरके वो टॉयलेट चला गया, वहां बाल्टी रख कर कुछ देर सोचता रहा और फिर मग्गा उठाकर फिर से टंकी के पास गया, इस बार उसने तीसरी टंकी खोली जो पूरी भरी हुई थी। उसमें से मग भरकर वो वापिस टॉयलेट आ गया, चौहान साहब ने झोंपड़ी में भी इंग्लिश टॉयलेट लगवा रखा था जिस पर वो कुर्सी की तरह बैठकर पाखाना कर सकता था, हालांकि ये कोई ज्यादा बड़ा आराम नहीं था, लेकिन अब उसे यही खुड्डी अच्छी लगने लगी थी। थोड़ी देर तक वो ऐसे ही बैठा रहा फिर नीचे झुक कर देखा, फिर चेहरा उपर उठाकर कल अपने खाए खाने का हिसाब लगाने लगा, उसे लगा कि खाने के हिसाब से पूरा हो गया है, तो वो इत्मिनान से उठ गया। 

नहाने के बाद वो तौलिया लपेटे बाहर निकला और अपने बिस्तर पर लेट कर उसने तौलिया उतार दिया, बाहर की गर्म हवा भी शरीर पर ठंडी लग रही थी। थोड़ी देर ऐसे ही लेटा रहकर वो उठ खड़ा हुआ और जल्दी-जल्दी कपड़े पहन लिए, वही सतरंगी कुर्ता और वहीं पुरानी जीन्स, अण्डरवियर पहनना वो कबका छोड़ चुका था, फायदा कोई था नहीं और झंझट कई सारे थे। उसने बिस्तर के पास पड़े टेबल पर से दो किताबें उठाईं और बाहर जाकर फिर से दरवाज़ा भिड़का दिया। आज उसे अपने गाइड से मिलना था, पिछले तीन महीनों से उसकी थीसिस में कोई हलचल नहीं हुई थी, और कल उसके गाइड ने उसे पकड़ लिया था और फिर आज उसे अपने ऑफिस में आने को कहा था। वो थीसिस पूरी करना चाहता था, आखिर क्यों नहीं करता, उसके पास करने के लिए इसके अलावा कुछ और नहीं था। लेकिन गाइड-मिलन, वार्ता की हर घटना के बाद थीसिस कुछ घट जाती थी और उसमें बढ़ाने के लिए कुछ बढ़ जाता था। वो ऐसा कोई ब्रिलिएंट छात्र था ना उसका विषय ही ऐसा कोई क्रांतिकारी था जिस पर उसके गाइड को कोई विशेष ध्यान देने की फुर्सत होनी चाहिए थी, लेकिन जाने क्यों उसका गाइड इसकी थीसिस पर इतना ध्यान देता था। फील्ड वर्क वो तीन महीना पहले ही पूरा कर चुका था और अब उसे अंदेशा था कि अगर इस साल के अंत तक वो अपनी थीसिस नहीं जमा करवाता तो कहीं उसका गाइड उसे दोबारा फील्ड वर्क के लिए ना कह दे। थीसिस में उसे अब सिर्फ आखिरी चैप्टर और कन्क्लूज़न लिखना था और गाइड ने आज ही मिलने के लिए बुलाया था। 

यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर घुसने के बाद उसने थीसिस के बारे में सोचना बंद कर दिया और ये सोचने लगा कि सबसे पहले कहां जाना चाहिए, लाइब्रेरी, कैंटीन, या किसी दोस्त के कमरे में, सारे ही दोस्त हॉस्टल में रहते थे और वो किसी के भी कमरे में जा सकता था, सप्तऋषि चला जाए, वहां ज्योत्सना और उर्वशी मिल जाएंगी, या फिर कैंटीन चला जाए वहां गार्गी के मिलने की गारंटी थी, लड़के ठीक हैं, अगर हों तो लेकिन उनके साथ ज्यादा देर बात नहीं की जा सकती, हां लड़कियां हों तो बातें आधी रात तक भी चल सकती हैं। थोड़ी देर उन्ही के साथ बैठकर बतियाया जाएगा और फिर कहीं और जाया जाएगा। गाइड तीन बजे से पहले अपने रूम में नहीं होंगे ये उसे पता था, तब तक का समय तो काटना ही था। वो लाइब्रेरी कैंटीन की तरफ बढ़ चला। कैंटीन में बहुत सारे काम हो जाते थे, लोगों से मिलना, मुफ्त की चाय, हो सके तो खाने का जुगाड़, नई खबरों की जानकारी, और इस सबके अलावा इसका पता चल जाता था कि कौन प्रोफेसर कहां है, कहां जॉब आदि की संभावना है और कहां नहीं।

काफी देर तक कैंटीन में बैठा हुआ वो आते-जाते दोस्तों से बातें करता रहा, तरह-तरह की बातें, बेवजह की बातें, ऐसी बातें जिनका कोई सिर-पैर नहीं था, कुछ राजनीतिक, कुछ अराजनीतिक, कुछ निजी कुछ सार्वजनिक, कुछ दोस्तों का मज़ाक उड़ाया, कुछ से रश्क जताया, और इसी तरह बातों-बातों में साढ़े तीन बज गए। उसे अपने गाइड से मिलने जाना था, वो उठ खड़ा हुआ, चारों तरफ एक आखिरी नज़र डाली और अपनी किताबें लेकर गाइड के ऑफिस की तरफ चल दिया। गाइड के ऑफिस की तरफ जाते हुए भी उसके दिमाग में कुछ खास नहीं चल रहा था इसके अलावा कि आज चौहान साहब की बेटियों को मैथ्स के कुछ सवाल करने को दे देगा, मैथ्स ठीक-ठाक सब्जेक्ट होता है, एक बार फार्मुला बताकर बच्चों को सवाल हल करने के लिए दिए जा सकते हैं और फिर अपने ख्यालों में डूबा रहा जा सकता है। ऐसे में सवाल हल करती चौहान साहब की बेटी कुछ इशारे करने या बहाने से उसे इधर-उधर छूने या अपना बदन उसके बदन के साथ लगाने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। 

गाइड का कमरा वैसा ही था जैसा पिछले महीने था, गाइड की कुर्सी के ठीक उपर एक घड़ी लगी हुई थी, दांयी तरफ एक पुराना सा पोस्टर लगा हुआ था, जिसे देखते ही उसका मन करता था कि उसे दीवार से उखाड़ दे, लेकिन इसमें पोस्टर के कन्टेंट का कोई लेना-देना नहीं था बस पोस्टर को दीवार पर चिपके-चिपके इतना अर्सा हो चुका था कि उसे लगता था कि उसे अब उखड़ जाना चाहिए था। सिर्फ इसलिए वो उस पोस्टर को उखाड़ देना चाहता था। गाइड ने फिर वही सब बातें कहीं जो किसी गाइड के लिए कहना जरूरी होता है और उसने भी उसी अनासक्त भाव से वे सब बातें सुनी और जहां-जहां उसे टिप्पणी की अपेक्षा थी वहंा अपनी टिप्पणी दी, गाइड के सद्वचनों को सुना, सिर हिलाया और उसे अगले हफ्ते एक ड्राफ्ट देने का वादा करके वो उठा। बाहर आया तो देखा कि आसमान में बादल घिर आए हैं, वो झोंपड़ी के लिए वापस चल पड़ा, उसे काफी कुछ सोचना था। अगर वो सचमुच अपनी थीसिस पूरी करना चाहता था तो उसे थोड़ी मेहनत करनी होगी, लाइब्रेरी के चक्कर लगाकर इस बार लास्ट चैप्टर पूरा कर लेना चाहिए। गाइड सपोर्ट करने के मूड में है, मौके का फायदा उठाना चाहिए। अब ये आखिरी चैप्टर था, तो वो पहले वाले चैप्टर्स का हिसाब लगाता हुआ अपनी झोंपड़ी की छत वाली कोठी के सामने आ गया। 

चौहान साहब दरवाज़ा बंद कर रहे थे। उन्होने बताया कि आज अपने किसी रिश्तेदार की शादी में शादीपुर जा रहे हैं, हो सकता है कल भी वहीं रहें, इसलिए पढ़ाई परसों........नहीं परसों तो इतवार था तो, मंडे से। उसने मन ही मन चैन की सांस ली, नज़र भरके उनकी बड़ी लड़की को देखा जो सलवार सूट में और बड़ी लग रही थी, दिल से थोड़ा गिल्ट और कम हो गया, वो छत की तरफ चला गया। हल्की बूंदा-बंादी शुरु हो चुकी थी। उसने झोंपड़ी का दरवाज़ा खोला और जीन्स उतार कर रख दी, फिर कुर्ता सहेजा और तौलिया लपेट का बाहर आ गया। बारिश थोड़ा तेज़ हो गई थी, वो गर्म छत के फर्श पर बैठ गया, और हाथों को पीछे टिका कर चेहरा उपर करके आंखें बंद कर लीं।

समाप्त 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...