रविवार, 7 अप्रैल 2013

अजनबी




अजनबी

सुबह अभी हुई नहीं थी जब वो बस से रामपुर उतरा। रात का 9 बजे दिल्ली के आई एस बी टी से चढ़ कर वो रामनगर पहुंचा था। उसे उम्मीद थी कि उसकी इस खस्ता हालत में उसका दोस्त मुस्तकीम उसकी मदद जरूर करेगा। आखिर जब मुस्तकीम की अपनी तबीयत खराब हुई थी और दिल्ली में उसका कोई होता-सोता नहीं था तो उसने ना सिर्फ पैसे से मदद की थी बल्कि अस्पताल में दोनो वक्त खाना पहुंचाना, खून की जरूरत पूरी करना, दवाइयों की दौड़भाग करके उसने मुस्तकीम की भरपूर मदद की थी।

वो दिन बहुत अच्छे थे, चौक पर उसकी चाय-नाश्ते की दुकान थी और खासी अच्छी चलती थी। हर दिन करीब-करीब 5 से 7 हजार तक बना ही लेता था। बैंक में अच्छा खासा पैसा जमा था और उसने दिल्ली जैसी जगह में भी दो घर खरीदे हुए थे।

मुस्तकीम उसकी दुकान पर नाश्ता करने के लिए आया था, पहले पहल तो वो सिर्फ ग्राहक था, फिर वो रेगुलर हो गया तो वो दोनो एक दूसरे को नाम से जानने लगे, धीरे-धीरे, जैसा होता है, दुकान पर मुस्तकीम का खाता चलने लगा, जिसे चुकाने में मुस्तकीम हमेशा ही देर करता था, लेकिन उसे कोई एतराज़ नहीं था।

मुस्तकीम बातें बहुत अच्छी करता था, दुनिया जहान की कोई भी बात हो मुस्तकीम के पास हर चीज़ के बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां थीं कि उसकी कहानी सुनता हुआ हर आदमी बस सुनता ही रहता था। उसकी इन्ही बातों के चलते तो वो भी मुस्तकीम से कभी पैसों के लिए नहीं कहता था, बल्कि कभी वक्त-बेवक्त वो रुपये पैसे से मुस्तकीम की मदद भी कर देता था। हालांकि पैसा हाथ आते ही मुस्तकीम उसका सारा हिसाब चुकता कर देता था लेकिन एक तरह से वो दोस्त ही हो गए थे।

बातें ही नहीं मुस्तकीम की शख्सीयत में कुछ ऐसी खास बात थी कि वो जिस भी इंसान से मिलता था वो एकदम उसे पसंद करने लगता था। लंबा-चौड़ा मुस्तकीम, हरदम हंसता रहता था। कभी शानदार कपड़े पहन कर आता था तो कभी कुर्ता झोलझाल, बिखरे बाल, आंखे लाल, लेकिन जब आता था तो वही कहानियों का भंडार और, कहकहों की भरमार, उसकी कही बातें लोगों की जुबान पर चढ़ गई थीं, जब उसके पास पैसा नहीं होता था तो वो कहता था, ”बहादुरशाह ज़फर जब कैद हुआ तो भी बादशाह ही था”, या ”चिड़िया फुर्र जाएगी, खुशी उड़ जाएगी, ज्यादा ना उड़ो”, या ”तीन चीजों का कोई भरोसा नहीं है, बारिश, पाद और कड़की” ऐसी ही ना जाने कितनी ही बातें थी जो मुस्तकीम ने कहीं थीं और लोग ले उड़े थे और फिर वो लोगों के रोज़-ब-रोज़ के मुहावरे बन गए थे।

वही मुस्तकीम जब चार दिनों तक लगातार दुकान पर नहीं आया तो उसे चिंता हुई, यूं मुस्तकीम पहले भी कई-कई दिनों तक गायब रहा था, लेकिन इससे पहले जब भी वो कहीं जाता था तो कई दिन पहले से घोषणा सी करने लगता था कि वो कहां जा रहा है, कितने दिनों के लिए जा रहा है और जब आएगा तो उसकी जेब में कितना माल होगा। लेकिन इस बार तो मुस्तकीम ने ऐसा कुछ नहीं कहा था, बल्कि बातें कुछ इस तरह हुई थीं कि जैसे मुस्तकीम कुछ दिनों तक दिल्ली में ही रहने वाला था। इसलिए वो ज्यादा चिंतित हुआ। फिर चौथे दिन वो दुकान खोल कर लड़कों को काम पर लगा कर मुस्तकीम के घर की तरफ चल पड़ा, घर क्या, जग्गन जाट का हाता था जिसमें उसने दड़बे जैसे किराए के कमरे बना दिए थे, जिनमें बिहार, यू पी से मजदूरी करने वाले मजदूर किराए पर लेते थे, इन दड़बे नुमा कमरों का किराया, 1500 रुपये तक होता था जो दिल्ली के उस इलाके के हिसाब से बहुत सस्ता था, और 8 से 10 मजदूर वहां रहते थे, कुछ दिन की पाली में काम करते थे कुछ रात की पाली में, और इस कमरे को सिर्फ सोने, नहाने और खाना खाने के लिए इस्तेमाल करते थे। ऐसे ही एक दड़बे में रहता था मुस्तकीम, हालांकि अकेला रहता था, तो जब वो मुस्तकीम के दड़बे में पहुचा तो पहले तो उसे लगा कि जैसे दरवाज़ा अंदर से बंद हो फिर थोड़ा ठकठकाया तो पता चला कि दरवाज़ा तो खुला पड़ा है। वो दरवाज़ा खोल कर अंदर पहुंचा तो देखा कि मुस्तकीम बिस्तर से नीचे पड़ा है और बहुत बुरी हालत है। उसने बहुत ही ध्यान से मुस्तकीम को उठाकर बिस्तर पर डाला और उसे होश में लाने की कोशिश की, लेकिन वो सिर्फ इतना कर पाया कि एक बार मुस्तकीम ने आंखे मिचमिचाई और उसे पहचान का मुस्कुराया, उसके लिए बस उतना ही काफी था। उसने आनन-फानन ऑटो बुलवाया और उसमें लाद कर मुस्तकीम को अस्पताल ले गया, वहां पहले उसे इमरजेंसी में डाला गया और फिर उसे भर्ती कर लिया गया।

जब तक मुस्तकीम को होश नहीं आ गया और उसकी हालत इतनी नहीं सुधर गई कि वो ठीक से बातें करने लगा तब तक उसने दुकान की तरफ ध्यान तक नहीं दिया। वो सुबह अस्पताल जाता था, और वहां से दुकान जाता था, दोपहर को खाना लेकर फिर अस्पताल जाता था और फिर शाम को खाना लेकर जाता था और मुस्तकीम को सारी दवाईयां, फल देकर जाता था। उस दौरान वो लगातार मुस्तकीम से कहता रहा कि अगर उसके कोई परिवार वाले थे तो उन्हे इत्तिला जरूर करनी चाहिए ताकि वो आकर उसे देख जाएं। लेकिन मुस्तकीम हर बार उसे टालता रहा, आखिर एक दिन मुस्तकीम ने उसे अपने घर का नंबर दे ही दिया, उसने उसी शाम अपने दुकान की बगल वाले एस टी डी बूथ से मुस्तकीम के घर का नंबर मिला दिया।

मुस्तकीम के घर से उसकी मां, बहन और मामा आए थे, इत्तेफाक से उसी समय उसका ओखला वाला घर खाली हुआ था, तो उसने वो घर उन्हे रहने के लिए दे दिया, अब वो दिन में सिर्फ एक बार मुस्तकीम को देखने अस्पताल जाता था। बाकी समय उसका मामा और बहन अस्पताल में रहते थे। मुस्तकीम की मां ने उसे बताया कि असल में मुस्तकीम के पिता रामपुर के बड़े जमींदार थे, जिनका गांव और शहर दोनों में ही काफी रसूख था, मुस्तकीम पढ़ने में काफी होशियार था और पिता के रसूख के चलते उसे अच्छी नौकरी भी मिल गई थी, लेकिन बाप-बेटे में सिर्फ इस बात पर झगड़ा हो गया था कि मुस्तकीम को कॉलेज के दिनों से ही एक लड़की से प्यार हो गया था। हालांकि लड़की भी काफी पैसे वाले खानदान से थी लेकिन शिया थी, मुस्तकीम के पिता सुन्नी थे, अब भला वो कैसे एक शिया लड़की को अपने इकलौते लड़के की बहू बना कर घर ले आते। मुस्तकीम ने उन्हे समझाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन वो ना समझे, ना समझे, इस बीच उस लड़की की शादी किसी और से तय हो गई और वो अपने घर विदा हो गई। इसी के चलते पहले तो मुस्तकीम उदास रहने लगा, उसने अपनी नौकरी छोड़ दी और आखिरकार अपना घर-बार छोड़ कर वो दिल्ली आ गया। हालांकि ना तो उसकी अपने बाप के साथ कोई तकरार हुई और ना ही उसने अपने बाप से कोई झगड़ा किया, बस एक दिन उसने कहा कि वो कहीं जाना चाहता है और सुबह उठ कर वो चल दिया।

बस इत्ती सी बात, सोच कर वो हंस दिया, आखिर ऐसी छोटी-छोटी बातों पर किस बाप-बेटे में तकरार नहीं होती, मुस्तकीम को उससे मिले हुए तीन साल हो चुके थे और उससे भी दो साल पहले से वो दिल्ली में था। अब पांच सालों में तो बाप-बेटे के बीच सुलह हो जानी चाहिए थी, कि भई वो दुनिया की कोई आखिरी लड़की तो थी नहीं और ना ही उसके बाप को मुस्तकीम के प्यार पर कोई ऐतराज था, वो तो सिर्फ लड़की के शिया होने पर ऐतराज था और ऐतराज जायज़ भी था। आखिर कैसे कोई सुन्नी मुसलमान अपने घर में शिया मुसलमान की लड़की को बहू बना कर ले आता।

आखिर मुस्तकीम पूरी तरह भला-चंगा हो गया, और फिर वो दिन भी आया जब वो अपने मां, मामा और बहन के साथ रामपुर वापस चला गया। उसे मुस्तकीम के जाने का कोई दुख नहीं हुआ, बल्कि उसे तो खुशी ही हुई थी कि आखिरकार एक भला आदमी अपने घर वापस लौट गया था। जाने के बाद पहले कुछ महीने तो मुस्तकीम ने मुतवातर फोन पर बातचीत की, लेकिन धीरे-धीरे ये सिलसिला कम होते होते बंद हो गया।

आज इस बात को दस साल होने को आए, और अब तो दुनिया ही बदल गई है, वो अपनी दुकान में मस्त था लेकिन जाने किसी आंख लगी कि उसकी दुनिया बरबाद हो गई। पहले तो दिल्ली में सीलिंग का भंयकर चक्कर चला, जिसमें उसकी दुकान सील हो गई, फिर उसकी बेटी का दामाद बीमार पड़ गया, जिसमें सारी जमा-पूंजी लग गई, उधर छोटी बेटी की शादी में उसे अपने दूसरे घर को बेचना पड़ा। अगर सिर्फ खर्चा ही खर्चा हो और आमद की कोई सूरत ना हो तो कारूं तक का खजाना खाली हो जाए, वो तो एक छोटा सा चाय-नाश्ते वाला था जिसकी दुकान तक बंद हो चुकी थी। अब किसी तरह उम्मीद की एक किरण नज़र आई थी कि अगर वो किसी तरफ दो-ढाई लाख का इंतजाम कर ले तो उसकी दुकान की सील खुल सकती है। उसे पता था कि एक बार सिर्फ सील खुल जाए तो वो फिर से अपनी वही हैसियत हासिल कर सकता है। लेकिन मुसीबत ये थी कि उसके पास ढाई लाख रुपये नहीं थे।

तभी उसे मुस्तकीम का ख्याल आया, कई दिनो तक तो वो इसी उहा-पोह में रहा कि मुस्तकीम से बात करे या ना करे, फिर सोचा कि चलें देख ही लें, शायद......तो पहले तो उसने मुस्तकीम के रामनगर वाले नंबर पर फोन लगाया, मुस्तकीम को उसने करीब-करीब 4 साल पहले फोन किया था। जब उसने फोन किया तो पता चला कि वो फोन अब काम नहीं कर रहा था। उसकी पत्नि का कहना था कि कौन मुस्तकीम, कैसा मुस्तकीम, मुसीबत में कोई काम नहीं आता, अरे जब अपने ही मुहं मोड़ लें तो किसी ऐसे अजनबी से क्या उम्मीद रखी जाए जो किसी जमाने में आपका दोस्त था। लेकिन उसकी पत्नि के ऐसा कहने की कोई और ही वजह थी, असल में उसे बहुत गुमान था कि उसके भाई उसकी मदद करेंगे, लेकिन मदद  करना तो दूर, उसके भाइयों ने तो अब उन्हे अपने फंक्शनस् में भी बुलाना बंद कर दिया था, और ना ही वो उनके किसी काज-कारज में आते थे। बल्कि जब वो मदद की आशा से उनके घर गई तो भाइयों ने साफ-साफ तो नहीं पर इशारों में ये जता दिया था कि वो किसी भी तरह उसकी मदद करने को तैयार नहीं हैं।

लेकिन हारे हुए आदमी को तो छोटा सहारा भी बहुत होता है उसके पास मुस्तकीम का कोई फोन नंबर तो अब नहीं था लेकिन उसके पास मुस्तकीम का रामनगर वाला पता था, तो हल्की सी आशा के सहारे ही वो रामनगर पहुंचा था। उसने इससे पहले कभी रामनगर का सफर नहीं किया था, और जब वो बस कंडक्टर के टहोकने पर जागा तो अभी रात के तीन ही बजे थे।

बस से नीचे उतर कर पहले तो उसने सोचा कि कोई रिक्शा वगैरह कर लिया जाए और सीधा मुस्तकीम के घर चला जाए। लेकिन फिर घड़ी पर एक निगाह मार कर रुक गया, आखिर वो पहली बार मुस्तकीम के घर जा रहा था, वो मुस्तकीम जिससे उसने पिछले चार साल से कोई बात नहीं की थी, वो मुस्तकीम जिसके पिता ने उसकी शादी शिया मुसलमान लड़की तक से नहीं होने दी थी। क्या वो उस हिन्दु को घर में घुसने देंगे। और उसे तो ये तक नहीं पता था कि आखिर शिया और सुन्नी मुसलमान में भी फर्क होता है, जब मुस्तकीम की मां ने बताया था तो उसे ये सूझा ही नहीं था कि वो उनसे ये पूछे कि अगर दोनो ही मुसलमान थे तो आखिर उनमें फर्क क्या था, लेकिन अब अंधेरी रात में चलते हुए हाइवे पर सड़क के एक किनारे खड़े उसे यही फर्क असमंजस में डाल रहा था।

ऐसे ही चलते-चलते वो एक ठेले के पास पहंुच गया, उसने एक कप चाय पी, और सोचने लगा, मान लो मुस्तकीम ने उसे नहीं पहचाना, कितना अजीब लगेगा, कि वो अचानक ही मुस्तकीम से ढाई लाख रुपये मांगने पहुंचा है। उसने सोचा कहीं ऐसा ना हो कि मुस्तकीम ये सोचने लगे कि वो उससे अपने अहसानों का बदला मांगने पहुंचा है। उसने चाय खत्म की और अपने पैसे दिए, उसने चायवाले को पैसे देते हुए उससे मुस्तकीम के घर का पता पूछा। चायवाले ने उसे बताया कि सबसे बड़े वाली मस्जिद के सामने वाली गली में उसका घर था। बल्कि चाय वाले ने मुस्तकीम के घर का रास्ता भी समझा दिया। लेकिन अभी तो सिर्फ 15 मिनट ही हुए थे, थोड़ा बैठ लिया जाए, थोड़ा रौशनी होगी तो वो वहां से चलेगा। यही सोच कर उसने एक चाय और मांग ली। चाय पीते हुए वो फिर सोचने लगा, अगर मुस्तकीन ने भी उसकी मदद करने से मना कर दिया, नहीं वो मुस्तकीम से मदद नहीं मांगेगा, वो बस उसके हाल-चाल लेगा और बस.......लेकिन फिर दिल्ली से रामपुर आने का क्या मतलब....?उसकी दूसरी चाय भी खत्म हो गयी, लेकिन ऐसा लगता था जैसे समय चींटी की चाल से चल रहा है।

अभी सिर्फ तीन चालीस ही हुए थे। अब वो क्या करे, वो थोड़ी देर माथा पकड़ कर बैठ गया, लेकिन सड़क के एक किनारे पर, चाय के ठेले के पास कोई ऐसे कैसे बैठ सकता था, वो उठा और थोड़ी लंबाई में सड़क पर चलने लगा, फिर कुछ देर चक्कर काटने के बाद, थोड़ी दूर पर एक पीपल के पेड़ पर टेक लगा कर खड़ा हो गया, पेड़ पर धागे बंधे हुए थे जैसे उस पर पूजा होती हो। वो थोड़ा अलग हट कर खड़ा हो गया, फिर थोड़ी देर बाद वापस चाय के ठेले के पास चला आया। वो एक बार फिर पत्थर पर बैठ गया। दिल में किसी तरह चैन नहीं था, क्या होगा, कैसे होगा, क्या मुस्तकीम मुझे पैसा दे देगा, आखिर ढाई लाख रुपये बड़ी रकम होती है। उसने फिर से घड़ी देखी 4 बजकर 3 मिनट, ये घड़ी इतना धीरे क्यों चल रही है। उसने एक चाय और मांग ली और इस बार चाय को बहुत धीरे-धीरे पिया, शायद इसी तरह थोड़ा समय कट जाए।

चार बजकर बीस मिनट, उसने आंखे मूंद लीं, फिर घड़ी देखी तो पांच बज चुके थे, लेकिन नींद नहीं थी, वो पत्थर से उठकर फिर चलने लगा। उसके पैरों में दर्द होने लगा तो फिर से चाय के ठेले के पास जाकर पत्थर पर बैठ गया। एक चाय और, पांच-पैंतालिस, क्या किसी ऐसे आदमी के घर जाने का ये सही समय था जिससे आप कभी चार-पांच साल पहले मिले हों, उसने थोड़ी देर और बैठने का फैसला किया। चाय वाले से पूछा कि मुस्तकीम के घर जाने में कितनी देर लगती है। ”रिक्शा कल्लीजिएगा तो 15 मिन्ट में पौंचा देगा” चायवाले ने कहा, तो इसका मतलब अगर वो साढ़े पांच बजे चले तो पौने छः बजे पहुंचेगा, लेकिन अगर वो पौने छः बजे चले तो ठीक छः बजे पहंुच जाएगा। हां, लेकिन अगर रिक्शे वाला थोड़ा जल्दी चला कर ले गया तो, या उसके घर कोई जागा ना हुआ तो, या अगर वो घर पर ही ना हो.....तो? ये तो उसने सोचा ही नहीं था, अगर मुस्तकीम घर पर नहीं हुआ तो क्या होगा......उसके लिए बैठना दुश्वार हो गया लेकिन अभी वो मुस्तकीम के घर के लिए नहीं जाना चाहता था, आसमान अब भी अंधेरा था। लेकिन वो वहां बैठा भी नहीं रहना चाहता था, आखिर वो क्या करे, घड़ी पांच बीस बजा रही थी, आखिर वो अपना झोला उठा कर वहां से चल पड़ा, पैदल चलेगा तो कम से कम रिक्शे से दोगुना वक्त लगेगा और इसके अलावा उसे कोई ख्याल नहीं आएगा।

सामने से जाती गली से निकल कर वो एक मस्जिद के सामने पहुंचा, काफी बड़ी और सजी हुई मस्जिद थी, क्या यही मस्जिद थी जिसके बारे में चाय वाले ने बताया था, वो थोड़ी देर असमंजस में खड़ा रहा, लेकिन चाय वाले ने तो कहा था कि इस गली के आखिर में दांयी तरफ जाने पर जो बड़ी सड़क आएगी उस पर बांये जाने पर जो मस्जिद आएगी वो ही बड़ी मस्जिद है। आखिर लोग इतनी सारी मस्जिदें बनवाते ही क्यों हैं।  वो थोड़ा आगे बढ़ा और उस गली से दांयी तरफ मुड़ गया, सामने एक किले जैसी मस्जिद खड़ी थी, शायद यही मस्जिद थी, लेकिन हो सकता है ये मस्जिद ना हो, सामने से एक रिक्शा आ रहा था, उसने रिक्शे वाले से पूछा कि बड़ी मस्जिद कौन सी थी, ”कौन मज्जिद पूछ रहे हैं, खलीलुल्लाह या आलिया” भई सबसे बड़ी मस्जिद तो यही है आपके सामने जो है” आपको जाना कहां है” अच्छा मुस्तकीम भाई के यहां जाना है, तो यूं कहिए ना, ये सामने वाली गली में चले जाइए, आखिरी मकान उन्हीं का है” रिक्शे वाला ये कहकर आगे बढ़ गया।

सामने गली में मुस्तकीम का मकान था। लेकिन अब उसकी हिम्मत अंदर जाने की नहीं हो रही थी, लेकिन आखिर कब तक वो उस गली के सामने खड़ा रहता, इसलिए वो गली में घुस गया, गली बस गली थी जिसमें आखिर तक कोई मकान नहीं था। थोड़ी दूर जाने पर गली बंद थी और उसमें एक लोहे का दरवाज़ा दिखाई दे रहा था। वो थोड़ी दे ठिठका, घड़ी पर नज़र डाली तो छः बजने में अभी 3 मिनट थे, क्या ये किसी के घर जाने का सही समय था? उसने थोड़ी देर रुक कर हौले से दरवाज़ा खटखटाया, कहीं कोई आहट नहीं थी, वो थोड़ी देर रुका रहा और उसने फिर हौले से दरवाज़ा खटखटाया, ”कोई है” कोई आहट नहीं.......वो ठिठका खडा रहा। फिर बहुत हिचकिचाते हुए उसने फिर दरवाज़ा खटखटाया, ”कोई है” वो उंचा बोलना चाहता था लेकिन उसके गले से ठीेक से आवाज़ ही नहीं निकली।

”कौन है” अंदर से आवाज़ आई, अब वो क्या जवाब दे, वो थोड़ा सकपकाया और फिर हिम्मत बटोर कर बोला, ”मै.......जी वो मुस्तकीम भाई से मिलना था” दरवाज़ा खुला तो अंदर शॉल लपेटे एक बुर्जुगवार नमुदार हुए। ”आप.....?” ”जी मैं.......मैं दिल्ली से आया हूं....” तब तक बुर्जुगवार भीतर की तरफ मुड़ चुके थे, ”हां.....तभी मैं कहूं कि भई, रामपुर में सुबह-सुबह कौन इतना तमीज़दार ढंग से दरवाजा खटखटा रहा है.......वरना यहां तो लोग गली के मोड़ से ही हलक फाड़ने लगते हैं, और अगर दरवाज़ा ना खुले तो ऐसा पीटते हैं कि टूट ही जाए तो तौबा भली.....आइए” ......बुर्जुगवार सामने पड़े दीवान पर अधलेटे हो गए और अखबार उठा लिया, और उसमें ऐसे मशगूल हो गए जैसे उन्हे पता ही ना हो कि वो वहां मौजूद है। वो कुछ एक पल तो खड़ा रहा, फिर कुछ सोच कर सामने पड़े एक मूढ़े पर बैठ गया। कुछ देर बाद एक छोटा सा लड़का बिना कुछ कहे सुने दो चाय के कप ले आया, तो वो चाय पीने लगा। चाय पीते-पीते ही बुर्जुगवार बोले, ”आप वही साहबान हैं ना जिसके यहां मुस्तकीम दिल्ली में रहा था....” ”.....ज्....जी” उसने जवाब दिया।

तभी अंदर से एक तनोमंद आदमी निकल कर बाहर आया......”जी.....” ”ये देखो दिल्ली से तुम्हारे मिलने वाले आए हैं” ”जी....अरे.....” मुस्तकीम ने उसे पहचान लिया था, वो बहुत ही खुश होकर उससे बगलगीर होकर मिला, और फिर उसे अंदर ले गया। अंदर जाकर उसे थोड़ी तसल्ली हुई, उसे आराम से बैठाया गया और एक और चाय के साथ शानदार नाश्ता परोसा गया। उसने अनमने ढंग से नाश्ता खाया और फिर सोफे पर आराम से बैठ गया। मुस्तकीम घर में ही कहीं चला गया था और उसे कोफ्त हो रही थी। आखिर मुस्तकीम उसके पास क्यों नहीं बैठा, वो क्या समझ गया  था कि वो अपनी गर्ज़ के चलते उसके यहां आया है, क्या उसके चेहरे पर लिखा है कि वो एक लुटा-पिटा, जरूरतमंद शख्स है। अब उसे लगने लगा कि उसका काम यहां नहीं होगा। आखिर वो किन लफ्जों में मुस्तकीम से कहेगा कि उसे......तभी मुस्तकीम फिर वहां आ गया। ”माफ करना......ऑफिस में खबर भिजवाने गया था कि आज और कल नहीं आ पाउंगा.......” अच्छा तो इसलिए वो बाहर गया था। फिर कुछ देर बातें हुईं, ”तो आप नहा तो लीजिए.....अरे बुन्दू.....ज़रा तौलिया ले आना और देख बाथरूम में गीज़र ऑन कर दे......आप ऐसा कीजिए कि आप नहा-धो कर थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर करेंगे बातें......” वो मुस्तकीम से कहना चाहता था कि वो नहाना-धोना नहीं चाहता, वो चाहता है कि मुस्तकीम उसकी बात सुन ले, उसका मसला समझ ले और बिना उसके मांगे उसे उसकी जरूरत की रकम मुहैया कर दे। लेकिन वो ऐसा कुछ इशारा तक नहीं कर पाया। बस बुन्दू के लाए तौलिए को लेकर गुसलखाने चला गया।

शाम को मुस्तकीम उसे रामपुर दिखाने ले गया, उसने उसे अपने कई दोस्तों से मिलवाया, कई मस्जिदें दिखलाईं, एक पार्क में भी लेकर गया, ये मुस्तकीम वही मुस्तकीम था जो उसकी दुकान पर आता था, उसकी बातें वैसी ही दिलचस्प थीं हालांकि उसकी ज़बान में एक खास किस्म की शाइस्तगी और ठहराव आ गया था। लेकिन आदमी वही था, ऐसा लगता था जैसे पूरा रामपुर ही उसका दोस्त था। अंधेरा होने से पहले ही वो घर वापस आ गए और घर में तो जैसे कई लोगों की दावत का इंतजाम था, वो खाने पर बैठे तो उसके सामने कई तरह के पकवान और मिठाइयां थीं, लेकिन कुछ भी मांसाहारी नहीं था, ऐसा लगता था जैसे मुस्तकीम ने घर में हिदायत दी थी। उसने खाना खाया और फिर वो मुस्तकीम के साथ बैठक में जा बैठा। फिर मुस्तकीम ने उसे अपना पूरा हाल सुनाया, रामपुर वापस आकर मुस्तकीम ने अपना खुद का बिजनेस खोल लिया था और बहुत अच्छा कमा रहा था। उसका निकाह हो चुका था और वो एक बेटी का बाप था, बेटी अपनी मां के साथ अपने नाना के यहां गई हुई थी, तब उसकी बारी आई तो उसने मौका देखकर अपने सारे हाल बयान कर दिए। बस ये नहीं कहा कि वो रामपुर ये सोच कर आया है कि मुस्तकीम उसकी मदद कर देगा। वो ये बात कह ही नहीं पाया, जाने मुस्तकीम उसके बारे में क्या सोचेगा, क्या पता जो इज्जत मुस्तकीम उसे दे रहा था वो भी खत्म हो जाए और मुस्तकीम उसे मायूस कर दे। क्या पता वो उसकी मदद करने से ही मना कर दे। रात बहुत हुई तो मुस्तकीम ने उसे सोने के कमरे में पहुंचा दिया।

वो दिन भर की मानसिक और शारीरिक थकान थी या गिज़ां की अलसाहट की उसे अच्छी नींद आई और जब आंख खुली तो धूप आ चुकी थी, वो उठकर बाथरूम गया, जब वापस आया तो उसके बेड के सिरहाने पर चाय और ताज़ा अखबार रखा था। उसने चाय पी और फिर नहा-धो लिया। वो ऐसे तैयार हुआ कि मुस्तकीम से कहेगा कि वो जा रहा है, अगर कल की बात-चीत से मुस्तकीम ने कुछ इशारा लिया होगा तो मुस्तकीम ही बात शुरु करेगा, और अगर कुछ ना हुआ तो......उसने सिर झटक कर ख्याल को अपने जेहन से बाहर किया। थोड़ी देर बार बुन्दू नाश्ता ले आया, और उसके पीछे ही पीछे मुस्तकीम चला आया।

”अरे आप तो तैयार हो गए हैं....” ”हां वो.....मुझे लगता है कि अब मुझे चलना चाहिए, बस तुमसे मिल लिया हो गया, तुम आओ कभी दिल्ली......” ”हां हां जरूर, क्यों नहीं, लेकिन.....अच्छा अगर आपका जल्दी जाना जरूरी है तो.....मैं तो सोच रहा था कि एक दो दिन रुककर जाएंगे।” उसकी आशाओं पर तुषारापात हो गया, अगर मुस्तकीम उसके जाने की बात इतनी जल्दी मान गया था तो इसका मतलब अब उससे कोई बात करना बेकार था। ”......तो ठीक है, आप तैयार होकर बाहर आ जाइए, मैं वहीं मिलता हूं आपको......नाश्ता करके आइएगा” ये कहकर मुस्तकीम बाहर निकल गया। अब नाश्ता तो उससे क्या ही होता, बस कुछ ऐसे ही मुंह चुभला कर और चाय पीकर वो निकला, बैठक में वही बुर्जुगवार मिले तो उसने उनसे दुआ-सलाम की और दरवाज़ा खोल कर निकल पड़ा, अगर मुस्तकीम उसे छोड़ने तक नहीं आ रहा तो.......

सामने कार में मुस्तकीम बैठा था। ओह तो ये मुझे बस स्टैंड तक कार में छोड़कर आएगा, उसने सोचा और उसका मन वितृष्ण से भर गया। वो कार मैं बैठ गया, ”दिल्ली से रामपुर बस में 6 घंटे लगते हैं, हम पांच में पहुंच जाएंगे। हम.....यानी.....क्या वो उसके साथ दिल्ली जा रहा था। ”अरे हां भई, तो आप क्या समझे, इतने दिनो बाद आप मुझसे मिलने रामपुर आ सकते हैं तो मैं क्या दिल्ली तक नहीं जा सकता......और दिल्ली है ही कितनी दूर, मुझे तो बहुत पहले आपसे मिलने आना चाहिए था, वो तो बिजनेस ऐसा है कि वक्त ही नहीं मिलता, अब तो आपकी दुकान पर चाय नाश्ता करके ही वापस आउंगा” लेकिन दुकान तो सील हो चुकी है, उसने रात ही मुस्तकीम को ये बात बताई थी, ”हां.....दिल्ली में मेरे बहुत जानकार हैं, अगर उनसे बात ना बनी तो रिश्वत तो है ही......खिड़की का शीशा नीचे कर लीजिए, हवा बहुत अच्छी चल रही है, जाती हुई गाड़ी और जाती हुई हवा को रोकना नहीं चाहिए” और वो ज़ोर से हंस दिया। वो भी उसके साथ हंस दिए, ये कोई अजनबी नहीं था, ये वही मुस्तकीम था।

समाप्त

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