सोमवार, 1 अप्रैल 2013

रात जो आई नहीं




आखिरी पन्ना 

गाड़ी किसी ऐसे स्टेशन पर पहुंची थी जहाँ उसे शायद इंजन बदलना था. करुआ तब तक किसी कदर अपने होश हवास दुरुस्त कर चुका था. लेकिन फिर भी उसका दिल जोर जोर से धडक रहा था. क्या किसी ने उसे इस ट्रेन में बैठते हुए देखा था, क्या कोई उसके पीछे लगा था. वो उस डिब्बे से नीचे उतरने से पहले ये पक्का कर लेना चाहता था की कोई बाहर उसकी ताक में तो नहीं है, काफी देर तांक झाँक करने के बाद जब उसे ये यकीन हो गया कि कोई उसे नहीं ढूँढ रहा है तो वो नीचे उतर गया। 

पहले तो नीचे उतर कर भी वो इसी उधेड़ बुन में रहा की कहीं कोई उसे पकड़ न ले, लेकिन आखिर कब तक ऐसे ही बेमकसद स्टेशन पर खड़ा रहता, इसलिए वो उसी ट्रेन में पीछे की तरफ गया और जनरल डिब्बे के पास जाकर रुका, इधर उधर देखा और फिर पूरे विश्वास के साथ उस डिब्बे में चढ़ गया, ऊपर चढ़ कर वो बाथरूम के उसी हिस्से में जाकर खड़ा हो गया जहाँ पिछली ट्रेन में उसके साथ हादसा हुआ था, लेकिन उसके पीछे कोई नहीं था, इसलिए वो किसी कदर आश्वस्त था. वो बाथरूम की दीवार के साथ टेक लगा कर खड़ा हो गया. डिब्बे में ख़ामोशी थी रात का वो समय था, जब सब सोये होते हैं, सिर्फ कुछ लोग इधर उधर कर रहे थे, लेकिन किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया था, और ऊपर से ये डिब्बा दुसरे डिब्बों से किसी कदर खली भी था, कम से कम उसे खड़े होने और फिर वहीँ नीचे सरक जाने की भी जगह थी। वो परेशान तो था, लेकिन नींद से आँखें मुंदी जा रही थीं, और फिर उसे पता भी नहीं चला की कब वो नींद के आगोश में चला गया।

अचानक तेज़ आवाज़ के साथ उसकी नींद टूटी तो उसने देखा की दिबा लगभग पूरा खली हो चूका था, वो झटके से उठा और सबसे पहले तो उसने अपनी जेब पर हाथ मार, उसके पैसे सही सलामत थे, फिर वो दरवाज़े की तरफ आया तो उसकी नज़र प्लेटफार्म पर लगे हुए एक बोर्ड पर पड़ी। 'मुंबई सेंट्रल' यानी वो मुंबई यानि बम्बई में था. वो नीचे उतर आया, अरे बाप रे, इतनी भीड़, इत्ता लोग तो उसने अपने जीवन भर में नहीं देखा था, जीतता एक टाइम में यहाँ पर था, वो कदरन  धीमे कदमो से गेट की तरफ बढ़ा  ही चार दरवाजों से टिकेट चेकर लोगों से टिकट ले रहे थे, ये देख कर वो पीछे की तरफ हो गया, पीछे जाते जाते उसे स्टेशन का अंत दिखाई दिया, लेकिन यहाँ तो दूर तक लोहे के सींखचे लगे थे, उसने एक आदमी को इन्ही में से एक जगह से अन्दर आते देखा, करुआ तेज़ी से उस तरफ गया और वहीँ से बहार निकल गया. 

वो बम्बई में था, उसे इस बारे में कुछ ज्यादा पता नहीं था. सिवाए इसके की ये वो जगह है जहाँ फिल्मे बनती हैं। स्टेशन से  निकला तो  पहली बार  मुलाकात शहर से हुई, अजीब शहर था, घिच पिच, बंद सा, संकरा सा, हर तरफ एक शोर सा था, एकबारगी तो वो उस शोर में खो सा गया, उसे पता ही नहीं चला की कब वो एक तरफ को चलने लगा, जब होश में आया तो देखा की एक दूकान के सामने खड़ा है, जिस पर हिंदी  इंग्लिश में लिखा था ईरानी स्टोर। अन्दर उसने कुछ लोगों को बन खाते देखा तो वो भी अन्दर चला गया, उसे भूख लग रही थी। 

जब वो दुकान में घुसा तो उसे महसूस हुआ कि उसे बहुत जर्बदसत भूख लगी थी, उसके ठीक पहले एक और आदमी अंदर गया थ उसने दुकानदार से एक बन मस्का और एक लस्सी मांगी, दुकान वाले ने उसे मक्खन लगाकर बन दिया और एक लस्सी का बड़ा गिलास दिया, वो आदमी अपना मस्का बन और लस्सी लेकर दुकान में एक तरफ को हो गया, दुकानदार के सामने आकर करुआ ने भी मस्का बन और लस्सी का गिलास ही मांगा। दुकान वाले ने उसे अच्छी तरह देखा और फिर उससे 45 रुपये मांगे, करुआ ने जेब से 100 का नोट निकाल कर दिया, दुकानवाले ने नोट को अच्छी तरह देखा, जांचा और फिर एक बन निकाल कर उसे सेक करे उसपर मक्खन लगाना शुरु कर दिया। पास ही जो फ्रिज रखा था उसमें से लस्सी का एक गिलास निकाल कर उसे दिया और बन को एक प्लेट में रखकर उसे पकड़ा दिया, वो अपना बन मस्का लेकर एक तरफ को हुआ और भूख की जल्दी में उसने बन चबाना शुरु किया, जल्दी-जल्दी उसने बन मस्का भी खत्म किया और लस्सी भी, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं हुई थी। पहले तो उसने सोचा कि वो एक और बन मस्का और लस्सी लेकर खाए लेकिन फिर उसने देखा कि बन मस्का खाने वाले किसी भी आदमी ने दोबारा बन मस्के की मांग नहीं की है। ये देख कर उसने भी दोबारा बन मस्का नहीं मांगा, बस पास पड़ी टेबल पर अपनी प्लेट रखकर वहां से बाहर निकल गया। 

अब फिर वही बात उसके सामने थी, अब क्या? यानी अब वो क्या करे, कहां जाए। वापिस स्टेशन जाकर गाड़ी पकड़ कर गांव चलता हूं, उसने सोचा, लेकिन कहीं वो फौजी मेरे गांव तक ना पहुंच जाए, उसे मैने अपने गांव का नाम तो बताया ही नहीं था, लेकिन फौजी तो फौजी होते हैं, अगर उसे किसी तरह पता चल गया होगा तो... इस तो ने उसके गांव जाने के रास्ते को बंद कर दिया, या कम से कम उस समय के लिए तो भिड़का दिया, सड़क के साथ पैदल चलने के लिए कोई फुटपाथ नहीं था, जिस सड़क पर अपनी रफ्तार से गाड़ियां चल रही थीं उसी सड़क पर अपनी रफ्तार से लोग भी चल रहे थे। वो बहुत बचते बचते सड़क पर चल रहा था, चलते-चलते उसकी नज़र एक पुरानी सी बिल्डिंग पर पड़ी, ये शायद कोई सिनेमा हॉल था, क्योंकि उसकी दीवारें पोस्टरों से अटी पड़ी थीं, और लोहे की जाली वाले गेट के अंदर एक छोटे से दड़बेनुमा कमरे से में दो कोटर जैसी खिड़कियां थीं, जिसपर लाइन लगा कर लोग टिकट ले रहे थे, उसने एक पल को रुक कर सोचा और फिर कमीज़ की उपर की जेब में से वो 55 रुपये निकाल लिए जो ईरानी स्टोर वाले ने उसे दिए थे। 

सबसे महंगा टिकट खरीद कर वो हॉल के अंदर पहुंचा जहां खासी ठंडक थी, और टॉर्च वाले इधर-उधर टॉर्च घुमा रहे थे। उसने एक टॉर्च वाले को अपनी टिकट दिखाई तो उसने पहले टॉर्च टिकट पर मारी फिर टॉर्च से ही एक सीट की तरफ इशारा कर दिया। वो उस सीट पर जाकर बैठ गया, हालांकि ट्रेन में भी वो सोया ही था लेकिन इस सीट पर बैठते ही उसे सोने की इच्छा करने लगी और वो बिना कुछ और सोचे सो गया। इस बार उसकी आंख तब खुली जब उसी टॉर्च वाले ने उसे टहोका मार कर जगाया।
”चल भई.....चल पिक्चर खतम....”
वो उठा तो उसने देखा कि लगभग पूरा हॉल खाली हो चुका था और कुछ आखिरी लोग बाहर जा रहे हैं, वो भी उठा और बाहर की तरफ चल दिया। करने के लिए कुछ नहीं था, कहाँ रहेगा, क्या करेगा उसने नहीं सोचा था। जेब में पैसे थे और जब तक पैसे थे तब तक कुछ ना कुछ हो ही जाएगा जैसी कुछ चीज़ उसके दिमाग में थी। 
उसे याद आया कि बंबई में तो समन्दर भी है, उसने अपने इस्कूल की किताबों में पढ़ा था कि बम्बई में समन्दर है, जहां लोग घूमने जाते हैं। लेकिन दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने पर भी उसे उन जगहों के नाम याद नहीं आए जहां लोग घूमने जाते थे, च....चपाती, चपाती, उसके दिमाग में सिर्फ चपाती ही घूम रहा था, खैर उसने सोचा कि जब कुछ करने के लिए है ही नही ंतो क्यू ंना चपाती ही चला जाए, फिर देखेंगे कि कहां जाना होगा। लेकिन वहाँ जाएं कैसे......और फिर कैसे का जवाब भी उसे सामने ही दिख गया। सड़क पर धुआंधार टैक्सियों की भरमार थी, उसने आव देखा ना ताव, एक अतिरिक्त उत्साह के साथ दूसरे लोगों की देखा देखी जोर से पुकारा, 
”टैक्सी.....”
फौरन ही एक टैक्सी रुकी तो उसने कहा.....
”चपाती समन्दर......”
”नवा आयेला है क्या.....”
”तुझे क्या.....चलना है तो बोल......”
”चलूंगा.....जेब में नावां है क्या.....भैया.....”
”हैं......”
”अरे पैसा है क्या......तुम भैया लोग को भी येही मिलता है क्या.....”
उसने झटक कर पैसा निकाल कर दिखाया......
”तो चल बेठ ना......” वो एक तरफ होकर मीटर ठीक करता हुआ बोला। करुआ टैक्सी में अंदर बैठ गया...। पैसा हो तो जिंदगी कितनी आसान हो जाती है, वो सोच रहा था। टैक्सी में बैठे बैठे बाहर के नज़ारों का लुत्फ उठाने लगा, उंची-उंची बिल्डिंगे, शानदार चमचमाते मॉल, कहीं-कहीं बीच में पतले-पतले पुल और पुराने से बाज़ार भी आ जाते थे, टैक्सी कभी बहुत रुक रुक कर चलती थी तो कभी फर्राटा भी लगाती थी, फिर अचानक ही ड्राइवर ने ब्रेक लगा दी और बोला, 
”ले भैया, आ गिया चौपाटी.....चल 80 रुपिया निकाल......”
टैक्सी ड्राइवर को 100 का नोट देकर और उससे बीस रुपये लेकर वो टैक्सी से बाहर आ गया, पहले तो उसे कुछ दिखाई नहीं दिया, फिर अचानक उसने देखा कि सड़क के एक तरफ को बहुत सारे खोमचे लगे हुए हैं, वो उसी तरफ को चल पड़ा, खोमचों के बाद उसे दिखाई दिया समन्दर, लेकिन नीचे की रेत पर इतनी गंदगी थी कि वो समन्दर का किनारा कम, खत्ता ज्यादा लग रहा था, उसका दिल हुआ कि वो समन्दर के साफ पानी में चला जाए, लेकिन जब वो किनारे के पास पहुंचा तो उसने देखा कि किनारे पर पानी में काला-काला तेल तैर रहा है। रेत पर मौजूद कोई भी समन्दर में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था। वो कुछ देर ऐसे ही समन्दर के किनारे से दूर-दूर घूमता रहा, अब उसके मन पर किसी किस्म की चिंता का बोझ नहीं था, ना ही कोई फिकर थी, उसे मां की और सूअर के अचार की याद भी नहीं आ रही थी। यूं ही घूमते-घूमते वो फिर से खोमचे वालों के करीब आ गया, तो उसने एक खोमचे पर जाकर उसने पाव-भाजी खाई, खाते-खाते उसने ऐसे ही बातों-बातों में खोमचे वाले से बात करते हुए उसे पता चला कि समन्दर के उस किनारे को बीच कहते हैं, उसी खोमचे वाले ने उसे बताया कि यहां का बीच तो बहुत खराब है और अगर उसे अच्छा बीच देखना है तो उसे मालाबार हिल्स जाना चाहिए। मालाबार हिल्स, उसने मन ही मन दोहराया, फिर पाव-भाजी के पैसे देकर वो वहां से निकल पड़ा, शाम होने को थी लेकिन उसे किसी चीज़ की चिंता नहीं थी, इसलिए वो बाहर निकल कर टैक्सी खोजने लगा, और फिर एक आती हुई टैक्सी को देखकर बहुत विश्वास के साथ उसने टैक्सी रोकने के लिए आवाज़ लगाई, पाव-भाजी ने बहुत असर दिखाया था, टैक्सी के रुकते ही उसने उसी विश्वास के साथ कहा, 
”मालाबार हिल्स˚ 
और पीछे का दरवाज़ा खोलकर टैक्सी में बैठ गया। टैक्सी ड्राइवर ने उसे पैसे दिखाने को नहीं कहा, बस टैक्सी आगे बढ़ा दी। टैक्सी मालाबार हिल्स पहुंची तब तक शाम का झुटपुटा आसमान पर फैल चुका था। वो मालाबार के पत्थरों पर चढ़ा तो उसे बहुत अच्छा लगा, समन्दर की लहरें लगातार पत्थरों पर सिर टकरा रहीं थीं। वो समन्दर के बहुत पास जाकर एक पत्थर पर जाकर बैठ गया और वहीं से समन्दर को निहारने लगा, फिर देखा कि इतने बड़े पत्थर पर बैठने से उसका पैर पानी में नहीं जा सकता तो वो वहां से हटा और किसी छोटे पत्थर की तलाश में थोड़ा साइड में गया, वहां एक जगह नीचे की तरफ एक छोटे पत्थर के इर्द-गिर्द पानी जमा था और उसके चारों तरफ बड़े बड़े पत्थर थे, वो बैठ कर नीचे की तरफ सरका और फिर अपने पैर उस पानी में जमाकर बैठ गया, चारों तरफ अंधेरा घिर आया था। लेकिन उसे कोई चिंता नहीं थी, ना कोई पूछने वाला था ना कोई उसे कहने वाला था। 

पैरों पर बार-बार पड़ती पानी की लहरें बहुत भली लग रहीं थीं, उसने मन भर कर आंखें बंद कर लीं। पिछले दो दिनों में उसके साथ जो भी घटा था उसकी थकन बहुत ज्यादा थी। लेकिन उसने आंख बंद नहीं की, बस एक लंबी सांस भर के बदन को ढीला छोड़ दिया। थोड़ी देर वो ऐसे ही बैठा रहा तभी अचानक आवाज़ आई.....
”भैया है बे......”
उसने नज़रें उठाकर देखा, तीन चार लड़के, उपर खड़े हुए उसकी तरफ देख रहे थे। 
”ज्वाब नई ऐ क्या......क्यूं बे.....भैया है क्या....”
उसने आंखे मिचमिचाई......इन लोगों के इरादे अच्छे नज़र नहीं आ रहे थे, वो उठा और उसने व्याकुल भाव से इधर-उधर देखा, चारों तरफ सुनसान था, शायद वो बहुत देर से यहां बैठा था, कहीं दूर रौशनियां नज़र आ रही थीं। तब तक एक लड़का पत्थरों पर कूदता कूदता उसके पास तक पहुंच गया। उस लड़के ने करुआ की गुद्दी पर एक हाथ जमाया, 
”बहरा है काय....बे हरामी.....”
”गूं गा गूं...ली....”
”अबे ठीक से तो बोल साले...भैया साला”
दूसरा लड़का भी उसके पास पहुंच चुका था, उसने भी उसे एक हाथ से पकड़ा और दूसरे हाथ से उसकी गुद्दी थाम ली, फिर उसके सिर को दो चार जोर के झटके देकर धक्का से देकर छोड़ दिया। 
करुआ अब बुरी तरह घबरा गया था, आखिर इन लोगों का इरादा क्या था.....
”देखो साले को.......क्या गोबिंदा माफिक कपड़ा पहना है बे.....”
करुआ ने आव देखा ना ताव वहां से भाग निकला, उसके सामने दूर तक बड़े-बड़े पत्थर फैले हुए थे, वो किसी तरह कुलांचे भरकर उन पर भाग रहा था और उसके पीछे वो लड़के गालियां बकते हुए भाग रहे थे। 
अचानक एक बड़े पत्थर पर कूदने की कोशिश में उसका पैर फिसला और वो सिर के बल नीचे पत्थर पर जा गिरा, उसका सिर फट गया। उसे अचानक ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके सारे दुख-दर्द-तकलीफ को खत्म कर दिया है, उसके अहसास धीरे-धीरे कुंद होने लगे, उसकी आंखों में रात के आसमान में फैले तारे चमक रहे थे। लेकिन उन तारों की रौशनी मंद पड़ती जा रही थी। फिर तारों की रौशनी मंद पड़ गई, फिर वो रात भी जैसे कहीं गायब होने लगी और धीरे-धीरे रात भी खत्म हो गई। पत्थर पर पानी की लहरें लगातार टक्कर मार रही थीं और कतरा-कतरा करुआ के खून को समन्दर में ले जा रही थीं।

समाप्त

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