गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

उबेर - सबेर

 

उबेर - सबेर


दिसम्बर का महीना दिल्ली के लिए बहुत ही बुरा महीना होता है, पिछले साल भी एक बलात्कार हुआ, इस साल फिर हो गया। यूं दिल्ली में क्या, देश-भर में पूरे साल, लगभग हर रोज़ बलात्कार होते रहे, होते रहे। लेकिन साल के आखिर में दिल्ली में हुए बलात्कार ने पूरे देश में बलात्कारों पर होने वाली बहस को एक बार फिर तीखा कर दिया। उबेर एक टैक्सी सर्विस है, अनलाइसेंस्ड है, गैरकानूनी है, लेकिन है। इस देश में कई चीजे़ं हैं जो अनलाइसेंस्ड हैं, गैर कानूनी हैं, लेकिन हैं और चल रही हैं। लेकिन इस दिसम्बर को उबेर के टैक्सी ड्राइवर की हरकत ने बहस का केन्द्रबिन्दु टैक्सी सर्विस, उसके लाइसेंस, उसके ड्राइवर की पुलिस वेरिफिकेशन को बना दिया, और बलात्कार का मुद्दा फिर कहीं पीछे छूट गया। सवाल ये नहीं है कि बलात्कार टैक्सी में हुआ या टैक्सी वाले ने किया, सवाल ये है कि बलात्कार हुआ। पंजे झाड़ कर पड़ जाओ टैक्सी सर्विस के पीछे, क्या हासिल होगा, मेरा मतलब इसके अलावा कि बलात्कार पर बात करने से बच जाओगे। आंकड़े उठाकर देखो तो पता चलता है कि टैक्सियों से ज्यादा बलात्कार तो घरों में होते हैं, ड्राइवरों से ज्यादा बलात्कार तो रिश्तेदार करते हैं, तो अब क्या रिश्तेदारों के पुलिस वेरिफिकेशन की बात करनी होगी, या कि पुलिस वेरिफिकेशन से बलात्कार रुक जाएंगे। 
ये देश महिलाओ के लिए इतना असुरक्षित है कि उबेर-सबेर किसी ना किसी महिला का बलात्कार होता ही होता है। लड़कियों को ये बताना कि बलात्कार से बचने के लिए उन्हे क्या खाना चाहिए, क्या पहनना-ओढ़ना चाहिए, कहां और कब जाना चाहिए और कहां और कब नहीं, बहुत आसान है, मुश्किल है ये समझना कि बलात्कार लोगों की पुलिस वेरिफिकेशन से नहीं रुकते, टैक्सी के लाइसेंस से नहीं रुकते, बलात्कार रोकने के लिए इस पूरी व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा, जब तक महिलाओं को सामाजिक सत्ता हासिल नहीं होती, राजनीतिक और आर्थिक सत्ता हासिल नहीं होती, बलात्कार होते रहेंगे। 
ट्रेन में बेगुसराय जाते हुए दो अधेड़बय महिलाओं की बात सुन रहा था, एक कह रही थीं, ”अरे जब तक लड़कियां ना चाहें, कोई कुछ कर ही नहीं सकता....” दूसरी, ” हां....हां......बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप.....” मुझे गुस्सा आ रहा था इसलिए वहां से हट गया। यहां भी यही सिद्धांत काम करता है कि अगर आप लड़की नहीं हैं तो दो महिलाओं की बातचीत में अपनी बात नहीं रख सकते, खासतौर पर ट्रेन में, जब वे आपको जानती ना हों, लड़कों की इस तरह की बातचीत में मैं कई बार अपनी  टांग अड़ा चुका हूं, कि बलात्कार बलत्कृत के चाहने से नहीं होता, और उसके ना चाहने से नहीं रुकता। 
अब इसके लिए उबेर का कच्चा चिठ्ठा निकालने से तो कुछ नहीं होगा, महिलाओं को हर अधिकार के लिए लड़ना पड़ा है, वोट का अधिकार हो या समान काम का समान वेतन, महिलाओं ने हर अधिकार लंबी और यातनापूर्ण लड़ाई के बाद अपना हक हासिल किया है, राज्य हो या सामंती ताकतें, सभी ने महिलाओं को कभी भावनात्मक, तो कभी परंपरा का वास्ता देकर, पीछे हटने की ही सलाह दी है। प्रेम करने, शादी करने की आज़ादी के लिए भी महिलाओं के पास संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता। अपनी आज़ादी के लिए, बलात्कार, छेड़छाड़, यौन शोषण के खिलाफ भी कानूनी प्रावधानों से, बलात्कारी को फांसी देने की मांग से कुछ नहीं होने वाला, अगर कुछ होगा तो महिलाओं की अपनी ताकत से होगा, महिलाओं के अपने संघर्ष से होगा। 
महिलाओं के हक-अधिकार के लिए काम करने वाली एन जी ओ, जहां शायद महिलाओं का सबसे ज्यादा शोषण होता है, इस मामले में सिर्फ दिखावटी बातें करके चुप हो जाती हैं, उन्हे ज्यादा बड़ी चिन्ता इस बात की होती है कि वो अपनी रिपोर्ट में इसे जगह दे सकती हैं या नहीं। पिछले दिसंबर में जब पूरी दिल्ली, पूरा देश, बलात्कार के खिलाफ प्रतिरोध में उतरा हुआ था, इन एन जी ओ के कितने प्रतिनिधि प्रतिरोध-प्रदर्शन में शामिल थे। पूछेंगे तो जवाब बहुत शानदार मिलेंगे जनाब, ”हम तो गए थे, वहां.....एक दिन.....” कब पूछने पर जवाब थोड़ा असमंजस वाला हो सकता है। होता ये है कि ये एन जी ओ, अपने ड्यूटी आवर्स में, ऑफिस के खर्च पर टैक्सी करके वहां पहुंचते हैं, कोई ”सेफ” जगह तलाशते हैं, और वहां कुछ देर अपने बैनर के साथ फोटो खिंचवा कर, गोलगप्पे खाने चले जाते हैं। वहां गोलगप्पे अच्छे ना मिलते हों तो ये छोले-भठूरे या कोई विदेशी व्यंजन खाने भी जा सकते हैं। खैर बाद में ये 13 पेज की एक शानदार रिपोर्ट बनाते हैं कि किस तरह इन्होने उस बलात्कार के विरोध में हुए प्रदर्शन में हिस्सा लिया और कहर ढ़ा दिया, साथ में तस्वीरें भी लगाते हैं। लेकिन अगर महिलाओं के राजनीतिक हकों को लेकर, उनके वेतन, सुरक्षा आदि को लेकर अगर कोई विरोध-प्रदर्शन हो तो इनका एक ही नारा होता है, हम राजनीतिक नहीं हैं। भाड़ में जाएं ये एन जी ओ। 
हमारा आपका काम आज के दौर में महिला संघर्षों को बल देना, समर्थन देना और उनके साथ मिल कर अपनी आवाज़ उठाना है। हमारा काम महिलाओं को ये महसूस करवाना है कि उनके इस संघर्ष में वो अकेली नहीं हैं, चाहे वो पानीपत की घटना हो या कहीं और, हमें हर कदम पर उनके साथ रहना है, हमें इस लड़ाई को अपनी लड़ाई की तरह लड़ना है, और बलात्कार ही नहीं, महिलाओं के प्रति होने वाले हर अन्याय, हर शोषण, हर उत्पीड़न को खत्म करना है।


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Kapil

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

झाडू और मोदी

झाडू और मोदी
झाड़ू से मोदी 

इस बार इस देश में झाडू लगी.....मोदी ने लगाई, दो अक्तूबर को लगाई, और बहुत सारे लोगों ने इसकी खूब आलोचना की, ग़लत बात है, बहुत ग़लत बात है। आप कह रहे हैं कि यूं सफाई नहीं होती, मोदी को सफाई के लिए गटर में कूद जाना चाहिए था। आप लोग इस झाडू का मतलब नहीं समझे शायद, मोदी के हाथ में प्रतीकात्मक झाडू थी और सफाई का मतलब था इस पूरे देश की प्रतीकात्मक सफाई......जो हुई और हो रही है, और होती रहेगी, अपना कलेजा भून कर खाओ तुम लोग। यूं इस देश में कई बार झाडृएं फिर चुकी हैं, कहावत के तौर पर देखा जाए तो, देश की प्राकृतिक संपदा पर अंग्रेजों ने जी भर के झाडू फेरी, खनिज संपदा पर जो उन्होने झाडू फेरना शुरु किया तो आज तक झाडू ही फेरी जा रही है, पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक नागरिक अधिकारों पर जर्बदस्त झाडृ फिरी, महिला अधिकार तो खैर कभी थे नहीं, जो थे उन पर झाडृ फिरी, और फिर लोगों के दिमाग पर जो झाडृ फिरी तो मोदी ने ”माफ कीजिएगा” पी एम मोदी ने इसे नया रूप दे दिया। अब ये प्रतीकात्मक झाडू फेरी जाएगी, रोज़ फेरी जाएगी, और तो और पीएम खुद इसका जायज़ा लेंगे कि मंत्रियों और प्रशासनिक अधिकारियों ने कितने जनतांत्रिक अधिकारों पर कितनी झाडू फेरी, अगर नहीं फेरी होगी तो वो खुद उसपर झाडू फेर देंगे। 
ये झाडू इस देश में सदियों से फेरी जा रही है, और सबसे बड़ा कमाल है कि आमतौर पर झाडू फिरने के बाद आपको पता चलता है कि झाडू फिर गई, या कोई झाडू फेर गया, यहां बाकायदा घोषणा करके, झाडू फेरी जा रही है, सारे देश में झाडू फेरी जा रही है, और आप चुप्पे-चाप इस फिरती हुई झाडू को देख रहे हैं। पैट्रोल महंगा हुआ, रेल किराया बढ़ गया, नागरिक अधिकारों का ये हाल है कि राज्यपालों की ऐसी-तैसी फिरी हुई है, तुम्हारी-हमारी बात ही क्या है। जजों को राज्यपाल बनाया जा रहा है, राज्यपालों को पालतू बनाया जा रहा है, हालांकि फालतुओं के पालतु बनने में कोई एतराज़ भी नहीं है, इधर संविधान पर भी बढ़िया झाडू फिरने की शुरुआत हो गई है। छत्तीसगढ़ में कई ग्राम पंचायतों ने इस आशय के कानून पास किए हैं कि उनके गांव में हिन्दु धर्म को छोड़ कर किसी और धर्म का प्रचार नहीं किया जा सकता, बल्कि अन्य धर्मों को किसी भी किस्म के नागरिक अधिकारों से बाकायदा विशेष ग्राम सभा की बैठकों में कानून पास करके वंचित कर दिया गया है। धर्म के आधार पर सामाजिक निषेध, आर्थिक निषेध लागू हो गया है, गया संविधान भाड़ में, मघ्य प्रदेश में पुलिस, शादियों को धर्म के आधार पर अवैध घोषित कर रही है, और कोई भी बिना सरकार से इजाज़त लिए धर्म नहीं बदल सकता। गया संविधान तेल लेने। दंगाईयों का सामाजिक सम्मान किया जा रहा है, दंगा करवाने वालों का दूरदर्शन पर सीधे भाषण आ रहा है और दंगा पीड़ितों को, और उनके हिमायतियों के खिलाफ लगातार केस पर केस लगाए जा रहे हैं। फिर गई झाडू, हो गया सब साफ। अभी तो आगे-आगे देखिए क्या होता है, बत्रा अपने पोथी-पतरा के साथ आपके बच्चों के दिमाग पर झाडू फरे रहा है, कुछ दिनों में आपके दिमाग पर झाडू फेरी जाएगी, शुरुआत हो चुकी है। 
अब आप मुझे चाहे जितना मर्ज़ी गरिया लें लेकिन इस बात से आप इन्कार नहीं कर पाएंगे कि झाडू से राजनीति का आरंभ शायद गांधी ने किया था, गांधी ने इस झाडू का बहुत बढ़िया इस्तेमाल किया, तो अब मोदी क्यों ना करे। पुराना चॉकलेट, नया रैपर। फिर झाडू की अपनी रोमानियत है, और जब जर्बदस्ती लगाई और लगवाई जाए तो ये रोमांस बढ़ जाता है। फिर झाडू दिखा कर लगाई जाए, या बिना दिखाए लगाई जाए, उसका नतीजा सबकुछ बयान कर देता है। जितनी भी कोयला खदानें थीं, वो सब उस झाडू का नतीज़ा थीं जो बिना दिखाए लगाई गई, और अब जो आनन-फानन अडानी और अंबानी के साथ डीलें हो रही हैं, वो सब  दिखती हुई झाडू की सफाई है, कुल मिलाकर झाडू लगातार चल रही है, और सफाई भी लगातार हो रही है। ज़रा एक मिनट के लिए आंखे बंद कीजिए और कल्पना कीजिए कि एक बड़ा सा झाडू है जिसे पूरे देश पर लगाया जा रहा है, और एक-एक करके इस देश की संपदा साफ ”गायब” होती जा रही है, अब ज़रा उपर देखिए, अब बताइए कि इस झाडू का डंडा किसने पकड़ा हुआ है, बस अब आंखे खोल लीजिए.....अब पहले तो अपने माथे का पसीना पोंछिए और फिर जिन लोगों को आपने झाडू लगाते देखा उन्हे पहचानिए। 
अब सवाल ये है कि हम अपने गली, मुहल्ले, गांव देश में झाडू फिरने देंगे या उसे रोकेंगे....। देखना ये है दोस्तों की इस झाडू लगाउ राजनीति में कौन-कौन शामिल है और वो कहां-कहां झाडू लगा रहा है, कुछ लोग हैं जिनके हाथों में झाडू है, कुछ लोग झाडू हाथों में आने का इंतजार कर रहे हैं, और कुछ लोग झाडू हाथ में लेने को आतुर तमाम तरह की हरकतें कर रहे हैं।  हमें इन झाडू वालों की शिनाख्त करनी है और इनसे इस झाडू को छीन लेना है, अगर अब हम चूक गए तो ये इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा। जो लोग झाडू लगा रहे हैं, याद रहे इतिहास जब भी इन लोगों से सवाल करेगा कि उस वक्त जब ये सब हो रहा था तो तुम कहां थे, क्या कर रहे थे, तो ये लोग कहेंगे कि ”झाडू लगा रहे थे.....”

विशेष टिप्पणी ”इसका लेख से कोई संबंध नहीं है”ः मोदी बिल्कुल हिमेश रेशमियां की आवाज़ में भाषण देते हैं, जब भी भाषण देते हैं तो लगता है कि बस अब ”तेरां तेरां तेरां सरूरं.......” की आवाज़ आएगी। फिर नहीं आती तो बहुत निराशा होती है।

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

भक्तों की तकरार!

भक्तों की तकरार!





जमाना बड़ा खराब है दोस्तों.....सच बड़ा ही खराब है......भक्त लोग हैं जय जयकार में लिप्त हैं, भक्त हैं धिक्कार में लिप्त हैं, कुल मिलाकर भक्त तकरार में लिप्त हैं। एक तरफ के अंधभक्त नवरात्र पर देवी की पूजा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ के अंधभक्त देवता की पूजा करने की बात कर रहे हैं, इन्होने अपनी कूढमगजता से देवी बना दी, तुम देवता बना लो....ये कोई मत सोचना कि आखिर इस सबसे होगा क्या....। इसे यूं समझिए कि जैसे लड़कियों की भ्रूण हत्या के विरोध में आप लड़कों की भ्रूण हत्या शुरु कर दें। मेरे जैसे लोगों को दोनो ही तरह के देवी-देवताओं से चिढ़ रही है, फिर वो चाहे इसलिए मनाए जा रहे हों कि वो आपकी जीवन-पद्धति से जुड़े हैं या फिर उनके साथ कोई देवी-देवता का संबंध जोड़ दिया जाता रहा हो। ईश्वर को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता.....ना करूंगा, चाहे वो किसी भी जाति, समुदाय, या समाज के हों। अक्सर लोग यही करते हैं, शोषक ईश्वर से भागने के लिए किसी ऐसे ईश्वर की तलाश करो जो शोषक नहीं है, अरे भले लोगों, ईश्वर का बेसिक फंडा ही शोषण का है, चाहे मानो या ना मानो। 
सारे धर्म, और सारे धार्मिक उत्सव, किसी ना किसी रूप में किसी ना किसी दैवी शक्ति से जुड़े हुए हैं....चाहे आदि होें या अनादि हों....सभ्यता के विकास के साथ-साथ धर्म और समाज के नियम, कायदे, जटिल होते जाते हैं और उसी के साथ इंसान का बनाया ईश्वर भी जटिल होता जाता है, उसे मानने, मनाने के तरीके भी जटिल होते जाते हैं, इसीलिए जो समाज आधुनिकता से जितना दूर है उसके धर्म में उतनी सादगी दिखाई देगी, उसके देवी-देवता उतने इंसानों के करीब दिखाई देंगे, बाकी इसमें अगर किसी को समाज, समुदाय के प्रकृति प्रेम और सादगी ढूंढ कर आंखे गीली करनी हो तो, भैया तुम्हारी आंखें हैं, तुम्हारे आंसू हैं, खूब गीले करो। 
अब होली और दिवाली का त्यौहार लो, दोनो ही त्यौहार हैं असल में किसानों के त्यौहार, जब नई फसल के घर में आने का समय हो, सब साफ करना है, पकवान बनने हैं, नये कपड़े पहनने हैं, और खूब खुश होना है, यहां तक तो हुआ प्रकृति से अपनी आजीविका का मामला, अब इसमें जुड़ा सामंती तत्वों का, ब्राहम्णों का भोग, तो ये बातें हो गई गौण और प्रमुख हो गया, दुर्गा की पूजा, राम की पूजा, अलां की पूजा और फलां की पूजा, अब मान लो किसी आदिवासी समाज में, जिसे लोग मूल निवासी भी कहते हैं, किसी तरह का उत्सव मनाया जाता है, वो उत्सव किसी ना किसी तौर पर प्रकृति और समाज के बीच बने संबंध पर ही मनाया जाता होगा, जैसे नई खेती, या शिकार के लिए जाने का मौसम, या ऐसा ही कोई और मौका जिसमें मानव समुदाय, प्रकृति से अपने जीवनयापन के लिए कोई कार्य शुरु कर रहा हो, अब यकीन मानो, पहले ये ऐसा नहीं था, जैसा अब दिखाई देता है, और समय दो, आगे ये ऐसा नहीं रहेगा, जैसा अब है। समाज में चलने वाले द्वंद्व समाज का स्वरूप बदलते हैं। समाज उत्तरोत्तर जटिल होता जाता है और उसी के साथ उससे जुडे़ रीति-रिवाज़, मूल्य, व्यवहार और सिद्धांत भी बदलते रहते हैं। यकीन मानिए, जो धर्म जितना पुराना होगा, उतना ही जटिल होगा। धर्म शोषण पर ही टिका है, धर्म शोषण पर ही टिका है, धर्म शोषण पर ही टिका है, तीन बार कह लिया....अब तो मान जाओ। चाहे कोई भी हो, चाहे प्रकृति की गोद में, पहाड़ों की तलहटी में, जंगलों के बीच में, समुद्र की लहरों में हो, या राजमहलों में हो, अट्टालिकाओं में हो, या किसी मंगल ग्रह पर हो, धर्म जहां भी होगा उसकी नींव शोषण पर आधारित होगी, ईश्वर जैसा भी होगा, शोषण और अन्याय का वाहक होगा। अब समझने वाली बात ये है कि शोषण पर प्रहार करें तो वर्ग मानना होगा, मने, और चाहे आप जो माने या ना माने, ये तो मानना होगा कि शोषकों का कोई धर्म नहीं होता, और शोषितों का कोई धर्म नहीं होता, और हर तरह के शोषक से, शोषक व्यवस्था से निर्ममता के साथ लड़ाई करनी पड़ती है। लेकिन ये होता है मुश्किल काम। आसान काम है, इस रोटी वाली समस्या को भूल जाइए और धर्म आदि पर बात शुरु कर दीजिए और कहिए कि आदिवासियों का शोषण इसलिए हुआ क्योंकि वो आदिवासी हैं, दलितों का शोषण यूं हुआ कि वो दलित हैं, आदि, आदि......इससे दो चीजें होती हैं, एक तो जर्मनी, फ्रांस इग्लैंड जाने का मौका मिल सकता है, या कम से कम हवाई जहाज में बैठने और फाइव स्टार में ठहरने का जुगाड़ तो हो ही सकता है, दूसरे जिन्दगी भर की कमाई आदि का जुगाड़ भी हो सकता है। बाकी धर्म तो सारी दुनिया के एक ही जैसे बनते हैं, विकास करते हैं और उनका पतन भी एक ही ढर्रे पर होता है।


बौद्ध धर्म को ले लीजिए, कब बुद्ध ने कहा कि भाई हीनयान होंगे और महायान होंगे, और दोनो ही सम्प्रदायों से पूछ लीजिए, दूसरें में दोष ही गिनाएंगे, जैनियों से पूछिए कि श्वेतांबर और दिगंबर कहां से आए हैं, इस्लाम की इतनी सारी शाखाएं जो बनी हैं, ईसाइयों ने जो क्लिष्ट उच्चारणों वाले सम्प्रदाय बना रखे हैं.....खुद आदिवासियों में दिखाई देता है, मुण्डा कहें, संथाल हमारे छोटे भाई, संथाल कहें मुंडा हमसे निकलें, सहरिया कहें, हम सबसे पहले हुए, और बैगा कहें हम सबसे पहले आए.....अब किसें कहें भई मूल निवासी.....कोई ना कोई तो किसी ना किसी के पेट से निकला ही होगा.....अब इस सबमें हिंदू रह गए....तो भैया इसलिए छोड़ दिए कि काजल की कोठरी में काला ही काला होगा....बाकी कहने को कुछ बचा नहीं।
तो भाई एक बार फिर, दुर्गा जैसी देवियों का त्यौहार मत मनाइए, लेकिन महिषासुर जैसे देवता भी मत खड़े कीजिए, कल को यही दंगों का कारण बन जाएंगे और आप खड़े होकर तमाशा देखेंगे। यूं मैं कितनी भी अपील कर लूं....जिन लोगों की रोटी ही इस काम से चल रही हो, वो इस बात को नहीं मानेंगे.....उप्टोन सिन्क्लेयर ने कहा कि भाई जिस इंसान की आजीविका उसके "ना समझने" पर चल रही हो, उसे समझाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। तो जिन्हे नहीं समझना वो नहीं समझेंगे, जिन्हे समझना होगा वो समझ जाएंगे। बाकी हम ना दशहरा मनाते हैं, ना होली, और ना ही दिवाली, और उसके पीछे कारण भी यही देते हैं कि भैया, पौराणिक कथाओं में हमें यकीन है नहीं, और ये त्यौहार हैं किसानों के, और हम किसान हैं नहीं....तो ये त्यौहार हमारे नहीं हैं। 

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

एक थीं.....जयललिता!!

एक थीं.....जयललिता!!


चित्र गूगल साभार 
पता नहीं क्यूं, जबसे ये खबर सुनी है, मन में एक फिल्म का अंतिम डॉयलॉग घूम रहा है। ”एक था......ज्यूलथीफ” ये कतई आकस्मिक था, बस खबर सुनी और मन में डायलॉग आ गया। जब मैं जयललिता को नहीं जानता था, तो सोचता था कि आम दक्षिणी भारतीय परंपरा के चलते वो भी फिल्मो से राजनीति में आ गईं और फिर जो भी हो, मने, तिकड़म करके मुख्यमंत्री बन बैठीं। जयललिता के बारे में बहुत बाद में विस्तार से पढ़ा कि कितनी मेधावी छात्रा थीं, और कितनी कुशल अभिनत्री थीं, आज के दौर के राजनीतिज्ञों की तुलना में काफी कुशल, रणनीतिकार और राजनीतिबाज़ भी साबित हुईं, और अंततः अच्छी भ्रष्टाचारी भी साबित हुईं। घोषित स्रोतों से अधिक आय का वो मामला जो अठ्ठारह सालों से चल रहा था, और जिस पर किसी की नज़र नहीं थी, उसका अंततः पटाक्षेप हुआ। जब जज ने जयललिता को सज़ा सुनाई तो उनके लिए ये वैसा ही आश्चर्य का क्षण था जैसा मोदी को पूर्ण बहुमत की सरकार का समाचार मिलने पर हुआ था। ना जयललिता को इसकी आशा थी ना मोदी को, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, भाजपा को सत्ता मिलने की घटना ”या दुर्घटना जैसा आप पढ़ना चाहें” में होनी का बहुत बड़ा हाथ है, वैसे ही जयललिता को, या जयललिता जैसे किसी भी राजनीतिज्ञ को सजा दिलवाना धरती के किसी प्राणीमात्र के साहस का काम नहीं हो सकता। ऐसे ही क्षणों में कभी-कभी ईश्वर के होने पर विश्वास हो उठता है, इसलिए नहीं कि इन्हे सजा मिल जाती है, इसलिए कि भारत जैसे देश में, इन्हे भी सजा मिल सकती है, ये आखिर कैसे संभव हो सकता है। राजीव गांधी से लेकर गडकरी तक सब पर अच्छे खासे सबूतों के साथ भ्रष्टाचार के मामले पड़े हैं, मजाल है कि किसी को सजा हो जाए, यहां तो हाल ये है कि कोई कैमरे में सरेआम रिश्वत लेता पकड़ा जाए, तो सजा नहीं होती, और रही घोषित स्रोतों से अधिक आय का मामला तो भैया ज़रा लिस्ट उठा कर देख लो, जितने एम एल ए, एम पी हैं, उन्होने अपने कार्यकाल में अपनी सम्पत्तियों में तीन-तीन सौ गुना का इजाफा किया है, अब कौन से घोषित स्रोतों से सम्पत्ति में इतना इजाफा हो सकता है, ये सबको पता है....लेकिन किया क्या जाए। और सज़ा.....अमां भूल जाओ मियां.....सज़ा....हुंह....
मज़ेदार बात ये है कि तामिलनाडू के नये मुख्यमंत्री, जो जयललिता के वफादार कहे जा रहे हैं, शपथ ग्रहण पर रो रहे थे। है ना कमाल, जयललिता को अठ्ठारह साल बाद किसी अदालत ने दोषी करार देते हुए सज़ा सुनाई, और एक राज्य का मुख्यमंत्री इसलिए रो रहा है कि किसी अपराधी का सज़ा हो गई। यानी....यानी कानून को अपना काम नहीं करना चाहिए, यानी अदालत को जयललिता को दोषी नहीं ठहराना चाहिए था, क्यों......क्योंकि वो मुख्यमंत्री थीं, क्योंकि वो आपकी अम्मा थीं, क्योंकि वो.....छोड़िए साहब....यहां किसी की आंख इसपर नहीं उठती.....शशिकला रोएं....और भी वो लोग रोएं जिनका जयललिता से निजी संबंध था और मुनाफे का रिश्ता था.....किसी राज्य का मुख्यमंत्री न्यायालय के आदेश पर कैसे रो सकता है। पर आजकल कौन-कहां संसदीय पवित्रता और मार्यादा जैसी दकियानूसी बातों का ख्याल रखता है। इसके अलावा जयललिता के भक्तों ने सुब्रमन्यम स्वामी के घर पर पत्थर फेंके.....कि क्यों उसने शिकायत दाखिल की....अबे शिकायत ही दाखिल करनी थी तो किसी गरीब-गुरबे की करते, 18 दिन में वो आदमी ऐसा अंदर होता कि कुछ कहने की हद नहीं.....और किसी को कुछ फर्क भी नहीं पड़ता। जैसे सोनी सोरी निर्दोष बंद रहीं, पुलिसिया जुल्म सहतीं रहीं, किसी ने आंसू नहीं बहाए, जीतन मरांडी बिचारा अब तक भुगतता रहा किसी को कोई परवाह नहीं......यहां तो लोगों को निर्दोष मार दिया जाता है, बाद में पता चलता है कि एनकांउटर झूठा था, तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता....पर मामला अगर अमित शाह जैसे इन्सान का हो तो यकीन मानिए कानून की बांहे छोटी पड़ जाती हैं.....और न्याय की देवी तो वैसे भी अंधी है, उपर से कहावत है चिराग तले अंधेरा....जो खुद चिराग के नीचे बैठा हो, उसे कौन कानून पकड़ने की हिम्मत करेगा भाई....
खैर यहां बात जयललिता की हो रही है.....जयललिता के लिए मेरे मन में थोड़ी बहुत हमदर्दी है.....वो इसलिए कि अगर बचपन से ही आपको किसी चीज़ की आदत लगा दी जाए तो वो स्वाद आपकी जुबान पर रहता है....हम भारतीयों को आदत सी हो गई है, ये नेता लोग रोज ही खबरों में रहते हैं कि फलां के पास इतने सौ करोड़ है, ढिमकां के पास इतने सौ करोड़ हैं......अदालत में मामले भी चलते हैं, लेकिन सज़ा किसी को नहीं होती....बल्कि पकड़े जाने के बाद, कुछ समय तक वो गायब रहते हैं फिर अचानक अमिताभ बच्चन मार्का एंट्री लेते हैं और वही आय से अधिक संपत्ति जोड़ने का पुनीत कार्य करने लगते हैं, लेकिन जयललिता को हो गई.....बस इसी बात से मुझे उससे हमदर्दी है....जो इंसान इतनी मेहनत करके मुख्यमंत्री बना, जिसने इतनी तिकड़म की, इतनी फंदेबाज़ी की....”बिना तिकड़म और फंदेबाज़ी के आज के दौर में कोेई मंत्री नहीं बना रह सकता, मुख्यमंत्री तो और बड़ी चीज़ है” उसे इतनी छूट तो मिलनी चाहिए थी कि वो कुछ सौ करोड़ का भ्रष्टचार कर ले....आप ज्यादा से ज्यादा इतना कर लेते कि मुकद्मा चला लेते.....लेकिन अंततः या तो सबूतों को गायब करके, या किसी तकनीकी पाइंट को आधार बनाकर उसे छोड़ देते.....ये क्या कि आपने उसे आम आदमी की तरह सज़ा दे दी। ये बहुत ही खतरनाक मिसाल आप ने खड़ी की है, अगर आप भ्रष्टाचारी मंत्रियों और नेताओं को सज़ा देने लगे तो ये समझ लीजिए कि संसद और विधानसभाओं में बैठे ज्यादातर लोग जेल में होंगे.....
इसीलिए संसद और विधानसभाओं की भविष्य की चिंता में डूबा हुआ मैं ये निवेदन करता हूं कि जयललिता को ना सिर्फ छोड़ दिया जाए, बल्कि उनके खिलाफ मुकद्मे को इस बिना पर खारिज़ कर दिया जाए कि ये बहुत देर तक चला है....

मंगलवार, 27 मई 2014

ताजपोशी 


लीजिए साहब, ताजपोशी हो गई। अब ताजपोशी तो बनती ही थी। मोदी पहली बार संसद पहुंचे तो उनकी आंखे, गला, और शरीर के कई और हिस्से भर आए। लोगों ने कहा ”घड़ियाली आसूं हैं” हमने कहा, ”ये घड़ियाली आंसू नहीं हैं, ये धांसू आंसू हैं, अरे भई, रोना तो किसी को भी आ सकता है, कोई छाती पीट-पीट कर रोता है, कोई जेब से रेशमी रूमाल निकालता है और हल्के से आंख पोंछ लेता है, कोई आंसू बहने देता है ताकि खबर बन सके। खैर खबर की चिंता वो करें, जो लाठी-गोली खाएं, नारे लगाते-लगाते गला खराब कर लें, लेकिन खबर ना बन सकें, यहां तो छींक भी मार दें, तो एन डी टी वी और आज तक खबर यूं बनाएं, ”परसाई के शब्दों में, ”दर्शकों को याद दिला दें कि जब बुद्ध ने गृहत्याग किया था तो उन्होने ऐसे ही छींका था”। वैसे मेरी मानिए तो रोने-रवाने को छोड़िए, कई देखें हैं, दर्जनों लोगों की हत्या में जेल काट रहे हैं लेकिन बेल का ऑर्डर मिला तो आंखों में आंसू आ गए, एक साहब तो कोर्ट में रेप करना स्वीकार कर रहे थे, और रो पड़े, तो आंसू तो किसी को भी आ सकते हैं साहब, इनकी बातें मत करो। लेकिन यहां बात आंसुओं की नहीं होने वाली क्योंकि वो कल की खबर थी, बासी। आज की ताजी खबर यूं है कि भव्य ताजपोशी हुई, भव्यता में और फूहड़ता में कोई खास फर्क आमतौर पर नहीं देखा जाता, और यूं भी भव्यता और फूहड़ता में सामंतवाद का कोई सानी नहीं है। तो ताजपोशी में जो भव्यता थी वो भयावह थी, और फूहड़ता का आलम ये था कि सुना किसी नवे-नवे मंत्री का बेटा प्यास के मारे गिर पड़ा लेकिन पीने को पानी की एक बंूद नहीं थी।

ताजपोश्ी हुई और भव्य हुई, टीवी चैनल्स की माने तो भव्यतम हुई, इसमें तम् शब्द का अनर्थ कृप्या ना करें। ये किसी अंधेरे भविष्य की तरफ इशारा नहीं है। मोदी ने अपनी ताजपोशी बिल्कुल ऐसे की जैसे किसी राजा की ताजपोशी हो रही हो, सात देशों के राजाओं को न्यौता दिया गया, जब वे आए तो उनके चरणों पर फूल बरसाए गए, गुलाबजल भी छिड़का ही गया होगा, फिर सुना कि किन्ही साहब चारण ने विशुद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम भी दिया, और भोज भी हुआ। यानी कि लगभग वो सभी काम हुए जो इस तरह के भव्य सामंती समारोह में हो सकते हैं। भव्यता का आलम ये कि इससे महत्वपूर्ण कोई और खबर थी ही नहीं, गोरखधाम एक्सप्रेस का एक्सीडेंट हुआ, सिफर, दंगे हुए, सिफर, लोग मरें, सुसरे मरते ही रहते हैं, उसकी क्या खबर बनानी, खबर भव्यता की हो, तो खुद भव्य हो जाती है, इसलिए सारे चैनल इस भव्यता के भव्य में डूबे रहे।

जो नहीं हुआ, जिसका मुझे भव्य दुख है, वो ये कि सभी सामंती संस्कार पूरे नहीं हुए। यानी? यानी कुछ चीजें हैं जो होनी चाहिए थीं, जो राजाओं की ताजपोशी पर अक्सर होती हैं। जैसे रात को रंगारंग कार्यक्रम होने चाहिए थे, अब भी हो सकते हैं, इंडिया गेट के लॉन में रंगीन बत्तियां लगा कर खूब रंगीन नाच होना चाहिए था, गरीबों को कम्बल, खाना, और बाकी चीजें बांटनी चाहिए थीं, और शुभेच्छा के तौर पर कुछ कैदियों को छोड़ देना चाहिए था। अब ये नहीं हुआ इसलिए मुझे ये ठीक नहीं लगा। मोदी को शपथ ग्रहण के बाद ये करना चाहिए था कि कुछ तीन-चार सौ कैदियों की रिहाई की घोषणा कर देनी चाहिए थी, पुराने जमाने में राजा लोग यही करते थे, जो हत्या, लूट आदि अपराधों में बंद हों, उनकी रिहाई हो जाए, मुझे उम्मीद है कि ये होगा, हो सकता है कि इसमें कुछ देर हो रही हो, लेकिन उम्मीदन वो सभी लोग छूट जाएंगे जो काफी अर्से से हत्याओं के सिलसिले में जेल में बंद हैं।

कुछ लोगों ने आस-पड़ोस से ताजपोशी के इस भव्य समारोह में बुलाए गए राजाओं पर आपत्ति की है, लेकिन ये गलत है, अपने देश में हजारों, लाखों तमिलों का जनसंहार करने वाले राजपक्षे, के चरणों में सुंदरियां गुलाब की पंखुड़ियां डालें, और फिर उनके कपड़ों पर गुलाबजल छिड़कें, बताइए, ऐसी तस्वीर कहां मिलेगी आपको। कुछ अराजकों का कहना है कि भई चीन को क्यों नहीं बुलाया, अरे बेवकूफों, एक तो सात का अंक शुभ होता है, जो सार्क देशों के साथ पूरा हो गया, फिर चीन अमेरिका विरोधी है, किसी अमेरिका विरोधी को बुलाकर मरना है क्या, और अभी तो सम्राट ”चक्रवर्ती” नहीं हुए हैं, अभी से अमेरिका से बैर क्यों मोल लें भला।

पुराने जमाने के राजा लोग ये भी करते थे कि ताजपोशी के फौरन बाद इधर-उधर शादी के लिए राजकुमारियों की तलाश में खोजी दौड़ा देते थे, अब ये हो सकता है या नहीं, इस पर बात हो सकती है।

बाकी रही चारण-भाटों की बात, तो अभी के सभी मीडिया चैनल इस कमी को बखूबी पूरा कर रहे हैं। इस भव्य ताजपोशी का सीधा प्रसारण रहा, फिर उसका पुर्नप्रसारण रहा, फिर पुर्नप्रसराण को कई संर्दभों में गर्दभ राग की तरह दिखाया जाता रहा, और उम्मीद है कि आगे भी दिखाया जाता रहेगा। मेरी इन सलाहों की तरफ ध्यान देकर अगर इस तरह के कार्यक्रम हों तो दिल अति प्रसन्न होगा और ताजपोशी के सभी सामंती संस्कार पूरे होंगे ऐसी कामना है।

शनिवार, 17 मई 2014

2014 में



2014 में मोदी को अप्रत्याशित सीटें मिली, वो जीत गया। टी वी पर देखा, कुछ लोगों ने उसी वक्त बीच सड़क पर हवन करना शुरु कर दिया था। सुना भाजपा कार्यालय में 2500 किलो लड्डू बने, बंटे का पता नहीं। सवाल ये है कि मोदी जीत गया, तो क्या? कुछ लोगों ने सिर पकड़ लिया, कुछ लोगों ने खाना छोड़ दिया, कुछ लोग ऐसे उदास हुए कि फोन ही बंद कर दिया। अरे भाई लोगों तुमने क्या सोचा था, ये तो सभी कह रहे थे कि इस बार सरकार भाजपा की बनेगी, हां ये जरूर है कि इतनी सारी सीटें जो मोदी को मिली हैं उसका अंदाजा हमारे इर्द-गिर्द के बहुत कम लोगों को था। लेकिन इससे भी क्या, चाहे जो हो जाए, हमारी जबान से तो ”अनलहक” ही निकलेगा। गम की अंधेरी सुबह को यारों के साथ बिताने के लिए ”ताकी जी हल्का हो जाए” अभी वक्त नहीं आया है, मोदी जीत गया है, उसे जीतना ही था। सब जानते हैं कि इस लोकतंत्र में वोट और जीत पैसे की होती है, जिस तरह फासिस्ट हों, पूंजीपति हों, मीडिया हो, उसे तो जीतना ही था। हमें संघर्ष करना था, हमने किया। ये बात दिल-दिमाग से निकाल दो कि संघर्ष की राजनीति को सुविधाजनक सड़क मिलती है, वो तो उबड़-खाबड़ रास्ते पर ही चलती है, और उसमें कभी-कभी खड्डे और खाइयां भी पार करनी पड़ती हैं। तो गम किस बात का, समझ नहीं आता कि भइया कौन सी सरकार थी जिसने तुम्हे, संघर्ष करने के लिए सुविधाएं मुहैया करवाई थीं, तुमने हर दौर में संघर्ष किया है, आज भी करना है और कल भी करना है। भूल गए क्या, हम लडेंगे साथी, उदास मौसम के खिलाफ, कि लड़ने की उम्मीद बाकी ना रहे, लड़ने की जरूरत तो रहेगी। तो हम लड़ेंगे हर उस तहरीर के खिलाफ जो अम्नो-चैन के खिलाफ हो, प्यार और दोस्ती के खिलाफ हो, इंसानियत के खिलाफ हो, गो कि अगर सारी दुनिया भी फासीवादी हो जाए, तो भी हम लडेंगे, और इसलिए कि अब तो लड़ने की और ज्यादा जरूरत है। तो साथी, ये उदास होने का नहीं, अपने हथियारों को पैना और धारदार करने का वक्त है। थकावट को जिस्म से अलग करके फिर से खड़े होने का वक्त है।

सुबह-सुबह एक मित्र ने कहा, कि मोदी डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म कर देगा। मेरा मानना है कि डेमोक्रेटिक स्पेस कोई राजा, या तानाशाह खत्म नहीं कर सकता, वो तब खत्म होता है, जब जन-संघर्ष नहीं होता, बल्कि तानाशाह जितना दमन करता है उसके खिलाफ खड़े होने के उतने ही मौके आपके पास होते हैं, और बात सिर्फ इतनी है कि आप डर गए हैं, भागना चाहते हैं, समझौता करना चाहते हैं, या फिर धूल-गर्द झाड़ कर फिर से लड़ना चाहते हैं, क्योंकि लड़ने के लिए जज्बा और हौंसला चाहिए, स्पेस खुद-ब-खुद बन जाता है। एक बात जान लीजिए, मोदी के खिलाफ लड़ने को आ आ पा नहीं होगी, आप ही होंगे, मोदी से लड़ने के लिए कांग्रेस नहीं होगी, आप ही होंगे, मोदी से लड़ने के लिए कोई लालू, मायावती, नितीश नहीं होगा, आप ही होंगे और होगी आपके लड़ने की जरूरत। अंधेरी सुबह, धुंधुआता सूरज अभी नहीं उगा है, उतावले होने की जरूरत नहीं है, अंधेरी सुबह तब होगी, जब लड़ने को कोई नहीं बचेगा, जब आप हिम्मत हार जाएंगे। आजादी के इतने सालों बाद भी, बार-बार खड़े होने और दमन झेलने के बाद भी, ”मोदी डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म कर देगा” की बात कुछ बचकानी सी लगती है। एक भी उदाहरण दीजिए, भारत का नहीं, पूरे विश्व का, किसने दिया डेमोक्रेटिक स्पेस, कहां मिला डेमोक्रेटिक स्पेस, और फिर जब जन-सैलाब उठा, तो उसने तानाशाही का ही स्पेस खत्म कर दिया। असल में सुविधा के साथ क्रांति के किनारे पर धूप सेंकने वालों को चिंता ये है कि अब उन्हे या तो खुल कर सामने आना पड़ेगा, या फिर सुविधाएं छोड़नी पडेंगी, और उन्हे चिंता ये हो रही है, कि पहले तो बहाने से ही पैसा भी कमाते थे और क्रांति भी ओढ़ी हुई थी, अब क्या करेंगे। कल ही कल में मैने कुछ ऐसे सीन देख भी लिए, कुछ दोस्तों ने कहना शुरु कर दिया, कि भैया अपन का क्या है, कभी विरोध में थोड़े ही थे, हां आप को इसलिए समर्थन कर दिया था कि वो भ्रष्टाचार के खिलाफ थी, दूसरे कुछ मित्रों ने अपने सगे संबंधियों को चेताना शुरु कर दिया कि, ऐसा-वैसा कुछ ना करें कि शासक सत्ता को वो विरोधी दिखाई दें, थोड़ा संभल कर रहें, घर पर रहें, चर्चा ना करें, करें तो अपने विचार ना बताएं, चुप रहें। यानी मोदी ने कुछ ना किया, आपने डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म करने का काम शुरु कर भी दिया। 

लोगों ने कहा कि आपने तो केजरीवाल का प्रचार किया था, जी हां, जरूर किया था, वो एक रणनीतिक कदम था, और अगर दोबारा होगा तो भी हम वही करेंगे, कारण कि हम मोदी का विरोध करते हैं, और करते रहेंगे, उसके लिए हर संभव मंच और मोर्चे का इस्तेमाल करेंगे, संघर्ष का हर संभव तरीका इस्तेमाल करेंगे। जीत हार तो बाद की बात है, संघर्ष करना मूल बात है। सवाल ये है कि आपने क्या किया, जब संघर्ष अपने चरम पर था, तब आप कहां थे, आपने उस संघर्ष पर भी सवाल उठाया, और अब मोदी का चारण बनने की तैयारी कर रहे हैं, ध्यान रखिएगा, हम उन चारणों के खिलाफ भी संघर्ष करेंगे।

ये तो कहो, कि कांग्रेस क्या कम फासिस्ट है, आफस्पा, बेवजह मुस्लिम नौजवानों को आतंकवादी बताकर मार देना, या जेल में डाल देना, आपके अपने साथियों की सरेआम हत्याएं, किसी को भी नक्सली बता कर जेल में डाल देना, क्या फासिस्ट नहीं है, क्या हमने इसके खिलाफ संघर्ष नहीं किया, अपने कितने ही साथियों की शहादत हमने झेली है, क्या वो सब भाजपा के ही राज में हुआ? चुनाव के समय ही सांईबाबा की गिरफ्तारी क्या मोदी के इशारे पर हुई थी? चाहे कंाग्रेस हो या भाजपा हो, या कोई अन्य नवजनवादी ताकत हो, जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी तब तक ऐसे ही होगा, और आपके पास संघर्ष के अलावा और कोई चारा भी नहीं रहेगा। तब फैसला आपके हाथ में है, लड़ेंगे, लड़ते रहेंगे, या डर जाएंगे, बहाने ढूंढेंगे, चले जाएंगे, या खुद को बचाने की जुगत लगाएंगे। 

मेरा अपना मानना ये है कि अब तक दुश्मन छुप कर, मुखौटा लगा कर आता था, सामने होते हुए भी एक धुंध का बादल रखता था, ताकि किसी को उसका असली चेहरा दिखाई ना दे, लेकिन अब वो खुल कर सामने आया है, और अब बिना किसी दबाव-छुपाव के वो अपना काम करेगा, और हम, हम अपना काम करेंगे। जिन्हे कैरियर का डर है, वो जाएं उसकी शरण में, जो थक गए हैं, वो आराम करें, जो घबरा गए हैं, वो कोई और विकल्प तलाश कर लें। लेकिन जो इसे अपने काम के लिए एक मौके के तौर पर देख रहे हैं, जो जानते हैं कि बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता, वो लड़ें, क्योंकि दोस्तों, लड़ाई धारदार होने वाली है, संघर्ष तेज़ होने वाला है, आर या पार का मौका आने वाला है। ये वो समय है जो ये फैसला करता है कि कौन आपके साथ है और कौन आपके साथ नहीं है। ये मौका है, जो प्रतिबद्धताओं को उजागर कर देता है, जब आपके ही बीच के काफी सारे क्रांति का जाप करने वाले लोगों के चेहरों से मुखौटा उतरेगा, खुद को प्रगतिशील कहलवाने के सुख में मुब्तिला कई लोग, अब पाला बदलेंगे। अब आपके पार्टनर की असली पॉलिटिक्स दिखाई देगी। 
मैं नहीं चाहता था कि मोदी जीते, वो जीत गया तब भी मैं नहीं चाहता कि वो जीते, और वो ना जीते इसके लिए मैं पूरी जान लगा दूंगा। क्योंकि मोदी एक इंसान नहीं है, वो कारपोरेट, फासिज़्म और बर्बर दमन की विचारधारा का प्रतिनिधि है, इसलिए मैं उसे जीतने नहीं दूंगा, मनमोहनसिंह दस साल तक प्रधानमंत्री रहा, लेकिन मैंने उसे जीतने नहीं दिया, मैं मोदी को भी नहीं जीतने दूंगा। मैं उदास नहीं हूं, तैश में या उत्तेजित भी नहीं हूं, मैं व्यवहारिक हो रहा हूं, और ठोस बात करना चाहता हूं, इसलिए कह रहा हूं कि उठ खड़े हो और मोदी को दिखा दो कि कारपोरेट पंूजी की ताकत उसे प्रधानमंत्री की कुर्सी भले ही दिला सकती हो, लेकिन वो अपनी पूरी ताकत से भी उसे हमसे नहीं जिता सकती। इंकलाब जिंदाबाद। 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

चुनाव आ गया



लो चुनाव आ गया

तरह-तरह के रंग सजे
नए बने गाने
आकाश ताक रहा
जाने अनजाने
रेडुआ पर, टीवी पर
प्रचार की बहार है
लोक-लुभाने नारों की 
बयार है

खाने के पैकेट हैं
पूड़ी है सब्जी है
एक मिठाई है
गजब का मौसम है
सारे मेरे भाई हैं
सबको मुझसे प्यार है
गले लगे दोस्तों की तरह
पीठ थपथपाते हैं
मुस्कुराते हैं
हाथ जोड़ते हैं
कान में फुसफुसाते हैं

सब अच्छे हैं
सब सच्चे हैं
सब पवित्र हैं
सब सेवक हैं
सबकी निगाह में प्रेम है
सबकी बांहे खुली हुई हैं

मुद्दतों भूखा रहा हूं मैं
कभी अधपेट
कभी पानी पीकर गुजारा किया है
अभी कुछ दिनों से खुश हूं
क्योंकि
कई महीनो बाद
आज पेटभर खाया है

चुनाव आया है।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

पोल्स की पोल

पोल्स की पोल




माफ कीजिएगा मेरी अंगरेजी कुछ कमजोर है, इसलिए अगर मैं पोल की जगह जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो नाराज़ मत होइएगा। पोल शब्द में वैसे भी वो मजा नहीं है जो जनमत में है, जनमत शब्द बोलते ही पता चल जाता है कि हम जनता के मत की, उसकी इच्छा की बात कर रहे हैं। पोल से थोड़ा चिंता होती है, हम पोल यानी खम्बे की बात कर रहे हैं, या पोल यानी मत की बात कर रहे हैं। आपको शायद ना होती हो, क्योंकि अंगरेजी भी बाकी भाषाओं की तरह काफी कुछ उच्चारण पर टिकी होती है, कुछ लोग एडुकेशन बोलते हैं तो कुछ लोग एजुकेशन बोलते हैं। खैर यहां मैं भाषा के बारे में बहस करने नहीं आया, मैं सिर्फ ये कहना चाहता था कि बात पोल की है, लेकिन पोल की जगह अगर मैं जनमत शब्द का इस्तेमाल करूं तो आप बुरा ना मानिएगा।
अब मैं ये कहना चाहता हूं कि जाने क्यूं जनमत सर्वेक्षण पर इतना हल्ला मचा हुआ है, सुना किसी ने स्टिंग कर दिया, यानी पोल खोल दी, इन जनमत सर्वेक्षण वालों की, इससे पहले भी हल्ला हुआ था, जब आ आ पा का जनमत सर्वेक्षण पूरी दिल्ली में छपवा दिया गया था कि दिल्ली की 46 प्रतिशत जनता, अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनते हुए देखना चाहती है, खैर उतने वोट तो नहीं मिले उन्हे लेकिन वो फिर भी मुख्यमंत्री तो बनी ही गए, चाहे 49 दिनों के लिए क्यों ना बने हों। मेरी मुसीबत ये है कि मेरा आज तक हुए किसी भी तरह के जनमत सर्वेक्षण में कोई योगदान नहीं है। मैं यूं सोचता था कि हो सकता है कि कुछ लोगों को खास करके बुलाया जाता रहा हो, फिर उन्हे कहीं किसी बड़े होटल में ठहराया जाता रहा हो, और फिर खिला-पिला कर, उनका मनोरंजन करके, उनका मत लिया जाता रहा हो। ऐसा मैं इसलिए सोचता था कि मै जानता हूं कि टीवी के शोज़ में, चाहे वो कॉमेडी नाइट विद कपिल हो, या सत्यमेव जयते, या न्यूज़ चैनलों के चर्चा वाले शो, भीड़ को बाकायदा बुलाया जाता है, अरेंज किया जाता है और फिर यूं दिखाया जाता है जैसे वो सब बहुत समझदारी से अपने सवाल पूछ रहे हैं, हंस रहे हैं, मनोरंजन कर रहे हैं, या नाच रहे हैं। यूं ये सब होती है एक्टिंग लेकिन दर्शक को लगता है सच में हो रहा है। तो इस सबसे मैं वाकिफ हूं और मेरे से आज तक किसी जनमत सर्वेक्षण के लिए मत लेने कोई नहीं आया तो मुझे लगा पक्का ऐसा ही होता होगा, वरना इस देश में रोज़ इनते सर्वेक्षण होते हैं, कोई ना कोई, कभी ना कभी, कहीं ना कहीं तो, इत्तेफाकन या गैर इत्तेफाकन मुझसे टकराया होता, मेरी राय उसने ली होती।
पर ऐसा कभी ना हुआ। इसका मुझे कभी मलाल हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। मुझे कभी इन रायशुमारियों, जनमत सर्वेक्षणों पर भरोसा नहीं रहा, चाहे वो आ आ पा ने करवाया हो, भा ज पा ने करवाया हो, या कांग्रेस ने करवाया हो। वजह साफ है, अगर कोई व्यक्ति या पार्टी, किसी पार्टी या व्यक्ति को पैसा देकर कहती है कि भैया मेरे, एक जनमत सर्वेक्षण करवा दो, तो वो व्यक्ति या पार्टी पागल है क्या, कि पैसा देने वाले के खिलाफ नतीजा निकाल कर दिखाएगा। तो मान लीजिए कि कांग्रेस, भाजपा या आआपा, जनमत सर्वेक्षण करवाते हैं तो यकीन मानिए तीनों का नतीजा एक जैसा ही निकलेगा। एक जैसा से मेरा मतलब हर पार्टी का जनमत सर्वेक्षण ये कहेगा कि वो ही जीत रही है, और इसमें किसी का कोई दोष भी नहीं है। पैसा मैं दूंगा तो नतीजा भी तो मेरे मनमुताबिक ही निकालेगा मेरे लिए काम करने वाला। आप क्या चाहते हैं कि पैसा तो दे, राहुल, मोदी या अरविंद केजरीवाल और नतीजा निकले जनता के मुताबिक, अरे मेरे भोले बलम, तुम भूख से मरो तो वो कह देते हैं कि तुमने जानबूझ कर खाना नहीं खाया, तुम दंगों में मर जाओ तो वो तुम्हारी लाशों पर राजनीति करते हैं, तुम्हारा बलात्कार करके इकठ्ठा जमीन में गाड़ देते हैं, और इतना सब सहने के बावजूद तुम हो कि लगातार यही सोचते रहते हो कि वो जनमत सर्वेक्षण करवाकर तुम्हारे हिसाब से नतीजे निकालेंगे। अगर नतीजे तुम्हारे ही हिसाब से निकलने हैं तो पैसा वो क्यों दें? तुम दो। 
मेरे भाई इस पूंजीवादी लोकतंत्र में ईमानदारी का नगाड़ा पीटा जाता है ताकि बस आवाज़ पैदा हो, नाच तो किसी और ही धुन पर किया जाता है, ये वही धुन है जो मनमोहन, मोदी और केजरीवाल सबमें एक जैसी पाई जाती है। अगर आपको झूठे जनमत सर्वेक्षण पर ऐतराज है तो पूछो अरविंद केजरीवाल से कि, भाई, सर्वेक्षण जो तुमने करवाया उसमें 45 प्रतिशत जनता तुम्हे मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी तो फिर तुम्हे वोट इतने कम क्यों मिले, इसका मतलब सर्वेक्षण झूठा था, अब अगर कांग्रेस या भाजपा ऐसा ही सर्वेक्षण करवा दे जिसमें जनता को मोदी या राहुल पसंद हों तो वो सच्चा क्यों होगा। जनता जिसे मर्जी चाहे, सर्वेक्षण करने वाले तो उसी को जनता की पसंद बताएंगे जिसने पैसा दिया है। कर लो जो करना है। ना सर्वेक्षण करवाने वालों की कोई नैतिक जिम्मेदारी है, ना सर्वेक्षण करने वालों की, जनता के प्रति इनकी नैतिक जिम्मेदारी तब शुरु होती है जब ये चुन लिए जाते हैं, इसलिए विश्वास कुमार कह रहे हैं कि भाई मैने जो पहले कहा उसे भूल जाइए, क्योंकि पहले मैं किसी राजनीतिक पार्टी का नेता नहीं था, अब हूं इसलिए अब संभल कर बोलूंगा। तो नैतिकता का बोझा वो उठाए सिर पर जो चुना जाए, जो ना चुना जाए उस पर नैतिकता आदि बेकार चीजों की जिम्मेदारी ना डाली जाए, कृपा करके। और उपर से सर्वेक्षण करने वाली निजी कम्पनियां, भाई लोगों ये सर्वेक्षण करती किसके लिए हैं, किसके हित में सर्वेक्षण करती हैं ये। ये कम्पनियां उसके प्रति नैतिक रूप से जवाबदेह और जिम्मेदार होती हैं जो इन्हे पैसा देता है। मान लीजिए कि साबुन बनाने वाली किसी कम्पनी ने इन्हे पैसा दिया, कि एक सर्वेक्षण कर दो तो, छोटा सा, कि जनता हमारा साबुन ज्यादा पसंद करती है, तो ये ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे कि जनता अमुक-अमुक साबुन ज्यादा पसंद करती है, बिल्कुल इसी तरह अगर कोई इनसे कहेगा कि जरा एक सर्वेक्षण कर दो कि जनता को ”मैं” या ”हम” ज्यादा पसंद हैं तो ऐसा सर्वेक्षण कर देंगे। जनता ना इन्हे पैसा देती है, ना सर्वेक्षण करवाती है। 
इसके अलावा जनमत सर्वेक्षण या मत सर्वेक्षण करवाती हैं, एन जी ओ, हिन्दी में गैर सरकारी संस्थाएं, ये वो संस्थाएं होती हैं, जो अपने दानदाताओं से चंदा हासिल करने के लिए किसी भी तरह की रिपोर्ट बना सकती हैं, बनाती हैं, किसी भी तरह का काम कर सकती हैं, करती हैं। तो चंदा हासिल करने के लिए ये इस तरह के सर्वेक्षण करवाती हैं कि नतीजा ऐसा निकले जिससे इन्हे ज्यादा से ज्यादा चंदा हासिल हो सके। बच्चों के लिए काम करने वाली हजारों राष्ट्रीय अंर्तराष्ट्रीय संस्थाओं के कई सालों तक भारत में काम करने का नतीजा क्या निकला, खुद इनके सर्वेक्षण बताते हैं कि बाल मजदूरी, कुपोषण, शोषण खतरनाक दर से बढ़ रहा है, तो इसका सीधा सा मतलब क्या हुआ किया तो ये सर्वेक्षण गलत है या ये संस्थाएं काम ही नहीं कर रही। 
मुझे याद है बचपन में चुनाव के नतीजे मैं बड़ी उत्सुकता से देखा करता था, और आश्चर्य करता था कि राजनीति के बड़े-बड़े पंडितों को आखिर कैसे पता चल जाता है कि कौन कहां कितने मतों से जीत रहा है, और आखिर जब चुनाव का नतीजा आता था तो उन्हीं के मुहं से ये विश्लेषण सुनता था कि जो उन्होने भविष्यवाणी की थी वो आखिर गलत कैसे साबित हो गई। इन पर लेकिन किसी ने आरोप ना लगाया कि साहब आप गलत कर रहे हैं, झूठ बोल रहे हैं, और जनता की नब्ज आपके हाथ में नहीं है।
इस देश में जो सबसे बड़ा जनमत सर्वेक्षण होता है, वो होता है चुनाव। अब मुझे ये बताइए कि आपमें से कितने लोग ये मानते हैं कि इस देश में चुनावों में धांधली नहीं होती, अगर धांधली नहीं होती, तो इस देश के 70 प्रतिशत से ज्यादा नेता इस लायक नहीं हैं कि वो पंचायत चुनाव जीत सकें, और वो राज्य सभा या लोक सभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। तो जब चुनाव तक रिग्ड होता है, तो भाई लोगों जनमत सर्वेक्षण किस खेत की मूली है।
मुझे मलाल सिर्फ इस बात का है कि ये लोग सही लोगों की सही वकत नहीं पहचानते......जनमत सर्वेक्षण एजेंसियों को ऐसे नतीजे निकालने के इतने पैसे देने की आखिर जरूरत ही क्या है। किसी गरीब पढ़े-लिखे को पकड़ लो उसे कुछ पैसा दे दो, आप जो भी कहोगे वो वही नतीजा आपको बिना किसी जनमत सर्वेक्षण के पाखंड के दे देगा। और इसका एक बड़ा फायदा ये होगा कि और किसी को वोट मिले ना मिले, वो आपको वोट जरूर दे देगा। 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

चाय, चर्चा और मोदी

चाय, चर्चा और मोदी


जनता बावली है! ऐसा मैं नहीं सोचता, वो लोग सोचते हैं जो चाय के बहाने जनता को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। चाय के साथ चर्चा की चर्चा तो यूं हो रही है जैसे ये लोग चर्चा में यकीन रखते हों, पर यकीन मानिए, चाय पिलाने के बहाने ये लोग चर्चा को खत्म कर देने के मूड में हैं। बताइए तो, कोई ऐसा गिरोह जो प्रेस कॉन्फ्रेसों में जाकर खुली चर्चा में हुड़दंग मचाता हो, जो किसी भी तरह की कलात्मक अभिव्यक्ति के खिलाफ हो, जो हर उस शख्स के खिलाफ फतवे देने में यकीन रखता हो, जो इनके अपने विश्वास के खिलाफ बोले, वो लोग चाय पर चर्चा करने की बात कर रहे हैं। और इससे भी बड़ी हास्यास्पद बात ये है कि आखिर इनके पास चर्चा करने के लिए है ही क्या, जो ये चाय पर चर्चा कर रहे हैं। 
अब चाय तो समझ में आती है, इसका कारण बताया जाता है कि इनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार, किसी जमाने में चाय बेचा करते थे, लेकिन चर्चा का कोई मतलब समझ नहीं आता, क्योंकि किसी भी जमाने में इनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार या किसी भी पद के उम्मीदवार ने किसी भी चीज़ पर चर्चा कभी नहीं की.....हालत ये है कि ये जिनके नाम की चाय पर चर्चा हो रही है, वो मतिभ्रम के शिकारी मालूम पड़ते हैं, कभी भूगोल को उलट-पलट देते हैं और की इतिहास की शामत बुलाते हैं। ज़रा सोचिए तो क्या बात होती होंगी चाय पर......
एक: हां भई.....
दूसरा: हां भई.....
एक: और कहो.....
दूसरा: हा हा हा हा हा ......
एक: हा हा हा हा....
दूसरा: और कहो.....
एक: चाय पियो....
दूसरा: हा हा हा हा......
भई इसके अलावा हमें तो कुछ समझ में आता नहीं कि ये लोग चाय पर क्या बातें करते होंगे, क्योंकि ये हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि इनके पास कहने-सुनने के लिए कुछ खास होता ही नहीं है। फिर अब तक हमने जितनी रैलियां देखी-सुनी हैं, जिनके बारे में खबरों में पढ़ा है उनमें भी ऐसा कुछ नहीं है कि जैसे किसी बात पर चर्चा की जा सके, या कोई ऐसा मुद्दा इन्होने उठाया हो जिस पर लगता है कि देश के लोग कुछ बात कर सकें। ले देकर वही घिसी-पिटी बातें हैं जो लोग-बाग तब करते हैं जब वो या तो अफीम के नशे में होते हैं या सत्ता के नशे में होते हैं। 
पर चाय की बात कुछ खास होती है, तो पहले चाय के बारे में ही कुछ ”विचित्र किंतु सत्य” टाइप तथ्य जान लें तो बेहतर होगा। भारत कुछ साल पहले तक दुनिया का सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश था, अब नहीं है। खुद भारत के लोगों को चाय इतनी महंगी पड़ती है कि आजकल चाय का एक कप 7 से 10 रु. तक का पड़ता है। भारत में चाय वो बिकती है जो विदेश भेजने से बच जाती है, जो अमीर लोग नहीं पीते वो मध्यवर्ग पीता है, जो मध्यवर्ग हीन समझता है उसे गरीब आदमी पी लेता है। उस चाय को पीने से देश नहीं जागता, जैसा कि चाय के विज्ञापन में दिखाया जाता है। गरीब जो नहीं सोता है वो इस चिंता में, कि कल क्या होगा.....। चाय के प्लांट में मजदूरों को 17वीं-18वीं सदी के गुलामों जैसा व्यवहार मिलता है, वो जीते हैं तो प्लांट के मैनेजर की मर्जी से और मर जाते हैं तो कोई पूछता तक नहीं है, और अगर उनके हक में कोई आवाज़ उठाता है तो उसे सरेआम दिनदहाड़े मार दिया जाता है, असम में गंगाराम कौल जी इसके हालिया उदाहरण हैं। 
लेकिन हमें मोदी का आभार मानना चाहिए....कि उन्होने चाय पर चर्चा को अभियान बनाया, क्योंकि उन्होने अपनी जवानी में बहुत से ऐसे काम किए हैं कि अगर वो उन पर चर्चा करने का अभियान चला देते तो सचुमच आफत आ जाती.....जैसे वो बचपन में घर छोड़ कर भाग गए थे, फिर उन्होने अपनी बीवी को छोड़ दिया, अब सोचिए घर छोड़कर भागते हुए चर्चा या बीवी को छोड़कर भागते हुए चर्चा करने का अभियान चलता तो क्या हालत होती। ये ठीक भी है कि मोदी चाय वाले दिनों तक ही सीमित रहें, क्योंकि अगर दंगों या महिलाओं का पीछा करवाने, या नकली एनकाउंटर वाले दौर की बातों को अभियानों में तब्दील करने पर आ गए तो देश का क्या होगा। जरा कल्पना कीजिए सारे देश की महिलाओं के पीछे जासूस लगे हैं और साहब को हर महिला की पल-पल की खबर दी जा रही है। इसलिए चाय पर चर्चा ठीक है, और इसके लिए हमें मोदी का आभार मानना चाहिए। 
हमें चाय पर चर्चा की तारीफ करनी चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि भाजपा के हर नेता को चाय पर चर्चा में शरीक किया जा सके। ये बात मैं स्वार्थवश कह रहा हूं, बात कुछ यूं है कि मुझे लगता है और ये मेरा व्यक्तिगत मत है कि बन्दरों और बेशर्म गुण्डों को अगर कहीं उलझा दिया जाए तो वो हुड़दंग कम करते हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर उम्मीद करता हूं कि मोदी समर्थक चाय पर चर्चा के दौरान चाय पीते रहेंगे तो देश में कुछ वक्त के लिए अमन शांति रहेगी और बाकी शरीफ लोग बिना चाय भी कुछ ठीक-ठाक किस्म की चर्चा कर पाएंगे, क्योंकि हुड़दंग मचाने वाले तो कहीं और चाय पर चर्चा कर रहे होंगे, हालांकि वो चर्चा करेंगे इसमें संदेह है, पर उससे फर्क भी क्या पड़ता है।
बस मोदी से मेरी एक दरख्वास्त है। साधारण सी, चिन्नी-मिन्नी सी मेरी दरख्वास्त ये है कि मोदी व्यक्तिगत तौर पर पक्का करें कि चाय पर चर्चा के दौरान उनके समर्थक चाय ही पिएं, कपों में कुछ ”और ” ना ढाल लें। अभी हाल में दिल्ली पुस्तक मेले के दौरान एक स्वस्थ चर्चा के दौरान जो हुआ, उससे मुझे संदेह है कि ये लोग चाय की जगह कुछ ”और” पी पिला रहे हैं। बाकी तो आपकी चाय है आपकी चर्चा है, जो मर्जी कीजिए हमें क्या।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

”आप” मंत्रियों की सीधी कार्यवाही...... आम आदमी का इंतजार

”आप” मंत्रियों की सीधी कार्यवाही...... आम आदमी का इंतजार

पहली बात पहले, ”आप” की कार्यवाही से, चाहे वो सोमनाथ भारती का अश्वेत महिलाओं पर हमला हो, या राखी बिरला का पुलिस को किसी के घर का ताला तोड़ने को विवश करना हो, और फिर मुख्यमंत्री का पुलिस अधिकारियों के निलंबन की जिद करने के लिए सड़क पर उतरना हो, और कोई सहमत हो ना हो, मैं सहमत हूं......सहमति के कारण हैं। हम तो भाई लोगों सालों से ऐसी सीधी-कार्यवाही के पक्ष में इंतजार करते आए हैं। हम लोग, जो खुद को जनता मानते हैं, बहुत सारी चीजों से बहुत थके हुए हैं, पुलिस काम नहीं करती, करती है तो पहले रिश्वत मांगती है, रिश्वत मांग कर भी हमारी मर्जी का काम नहीं करती, सरकार हमारी इच्छा का काम नहीं करती, सरकार या नेता-मंत्रियों की जेब लायक रिश्वत तो हमारे खीसे में होती भी नहीं है। इसलिए अगर कानून मंत्री किसी के घर में घुसकर जबरन उसे वेश्या या नशाखोर बताते हुए मेडिकल जांच की मांग करे, तो जनता को उसका साथ देना ही चाहिए। मेरे कुछ मित्रों ने इस बात पर भी काफी होहल्ला मचाया है, मुझे नहीं लगता कि इस पर सोमनाथ भारती की आलोचना की जानी चाहिए, जनता चाहेगी तो हम महिलाओं को नंगा करके सड़क पर दौड़ा लेंगे, और इसमें किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। अब घटनाएं कैसे घटीं, यानी पहले शिकायत आई, फिर मंत्री गए, या फिर पहले जनता वहां जमा हो गई, और फिर मंत्री पहुंचे, या घटनाक्रम जो भी रहा हो, उन अश्वेत महिलाओं को कोई अधिकार नहीं था कि जब कानून मंत्री वहां मौजूद हैं, तो वो अपनी इज्जत बचाने के लिए कुछ करती, आखिर वो ”आम आदमी पार्टी” के मंत्री हैं, और आम आदमी पार्टी का मंत्री कुछ भी गलत नहीं कर सकता। 
दूसरी घटना राखी बिरला की है, राखी बिरला ने जब पुलिस से कहा कि उन्हे विश्वस्त सूत्रों ने कहा है कि दहेज-हत्या से संबंधित नातेदार घर में ही छुपे हुए हैं, तो पुलिस को क्या अधिकार था ये सोचने का कि किसी के घर का ताला तोड़ने के लिए किसी वारंट नाम की चीज़ की जरूरत है। जहां ”आम आदमी पार्टी” का मंत्री स्वयं मौजूद हो, वहां कानून की किसी धारा, वारंट, या किसी और चीज़ की जरूरत नहीं होती। सबसे बड़ी बात ये है कि पुलिस बुरी है, भ्रष्टाचारी है, बुरे लोगों का साथ देती है, गरीब आदमी को, आम आदमी को परेशान करती है, और अगर पुलिस ये सब करती है, तो ये सब काम उसे आम आदमी पार्टी के नेताओं और समर्थकों के इशारे पर करना चाहिए, क्योंकि अब ”आम आदमी पार्टी” का राज है, ना कि अपनी मर्जी से।
अब ”आम आदमी पार्टी” का राज आया है, इसलिए अब किसी जांच आदि की जरूरत नहीं है, ”आप” के मंत्री का शिकायत कीजिए और समस्या का तुरंत निदान पाइए, आम आदमी वैसे भी पुलिस, जांच, गवाह, सबूत, न्याय, न्यायालय के चक्करों में बहुत बुरी तरह फंसा हुआ है, होना यही चाहिए जैसा कि आम आदमी के मुख्यमंत्री कह रहे हैं, तुरंत न्याय मिलना चाहिए, अब मान लीजिए कि आपको लगता है कि किसी महिला का चरित्र खराब है, तो आपको बस इतना करना है कि पुलिस थाने में किसी मंदिर या धार्मिक-सांस्कृतिक संस्था के लेटरहेड पर एक शिकायत लिख कर दे दें, कानून मंत्री खुद पहुंच जाएंगे और उस महिला को चुटिया पकड़ कर घसीट लेंगे, उनके समर्थक उनकी इस बहादुराना कार्यवाही पर हल्ला मचाएंगे, और महिला को घेर-घार कर हिसाब पक्का कर देंगे। 
सावधान दुष्टों, राखी बिरला आ गई हैं, अब किसी को कोई छूट नहीं मिलेगी, घरों के ताले तोड़ दिए जाएंगे, किसी तरह की जांच-फांच की, कानून-फानून की जरूरत नहीं है, जो होगा हमारे जोर से होगा, हम वो करेंगे जो चाहेंगे, तुमसे जो बन पड़े वो कर लो। कुछ लोगों का कहना है कि अगर कानूनों में कोई कमी नज़र आती है, तो उनके संशोधन की बात होनी चाहिए, लेकिन ऐसे आरजक काम नहीं होने चाहिएं, मैं इन मित्रों पर लानत भेजता हूं, कुछ मित्रों ने ये भी कहा कि पुलिस बल कानून में संशोधन होना चाहिए, मैं इन मित्रों पर भी लानत भेजता हूं, कानून में संशोधन वो लोग चाहते हैं, जो ”आम आदमी पार्टी” को बदनाम करना चाहते हैं, वरना हमें कानून से मतलब ही क्या है, हम व्यवस्था परिवर्तन नहीं चाहते, हम तो बस ये चाहते हैं कि जो भी हो हमारी मर्जी से हो, और हमारी मर्जी के बिना कुछ ना हो। 
अब मुझे इंतजार इस बात का है कि कब सोमनाथ भारती, राखी बिरला और अरविंद केजरीवाल, बमय विश्वास कुमार, अंबानी आवास पर धावा बोलते हैं, क्योंकि 1. दिल्ली को बिजली सप्लाई करने वाली निजी कम्पनियों में तीन-चौथाई रिलायंस की हैं, और 2. उनके खिलाफ जनता की शिकायत अरविंद केजरीवाल तक चुनाव से पहले पहुंच चुकी थी। भई अब आपने एक उदाहरण सामने रखा है, खिड़की एक्सटेंशन से हमें समझ आया है कि ”आम आदमी पार्टी” की सरकार है, इसलिए जनता की शिकायत पर भीड़ जमा करके मंत्री लोग वहीं और तुरंत फैसला करेंगे तो अब अंबानी की खैर नहीं, बहुत घपला किया उसने दिल्ली की बिजली सप्लाई में, जैसा सोमनाथ भारती ने अश्वेत जनता के साथ किया वैसा ही अंबानी बंधुओं के साथ किया जाएगा। और अगर वो घर में ना मिले तो राखी बिरला की तरह उनके घरों और दफ्तरों के ताले तोड़ दिए जाएंगे। 
अब ये ना कहिएगा कि जांच चल रही है, देखिए किसी शिकायत पर जांच होगी, और किसी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही होगी, तो ये तो असमानता वाली बात होगी। भई खिड़की एक्सटेंशन वाली घटना पर सीधी कार्यवाही होगी, क्यों? और अंबानी वाली शिकायत पर पहले ऑडिट होगा, फिर जांच होगी, फिर कार्यवाही होगी? ऐसा क्यों? क्या इसलिए कि अंबानी आम आदमी नहीं है, और आम आदमी की सीधी कार्यवाही भी सिर्फ आम आदमी पर होती है। खास आदमियों के लिए ”आम आदमी पार्टी” खास तरीके से काम करती है। 
अगर शिकायत की कमी है, तो इसे मेरी तरफ से शिकायत ही समझ लिया जाए, मैं दिल्ली के मुख्य मंत्री से शिकायत करता हूं कि 
खैर मुझे पूरी उम्मीद है कि ऐसा नहीं होगा, अंबानी और टाटा थर-थर कांप रहे होंगे और भारती-बिरला अंबानी आवास, जो मुझे यकीन है खुद किसी बस्ती से कम नहीं होगा, पर हमले की तैयारी के लिए कमर कस रहे होंगे, आम मुख्यमंत्री केजरीवाल, अंबानी आवास पर इस हमले के बाद गृहमंत्री या हो सकता है सीधे राष्ट्रपति कार्यालय पर धरने की तैयारी करें, लेकिन जो भी हो, अगर ”आप” के इन आम मंत्रियों का ये सीधी कार्यवाही से प्रेरित हमला ऐसे घपलों घोटालों पर होगा तो हमारा समर्थन ”आप” को होगा ही होगा। क्यांेकि आम आदमी अब अंबानी आवास पर इन मंत्रियों के हमले का इंतजार कर रहा है।

शनिवार, 11 जनवरी 2014

सूरज के घोड़े - पहला घोड़ा

सूरज के घोड़े 

पहला घोड़ा


शाम हुई नहीं कि इनका रिरियाना चालू, काहे कि दवा-दारू का टैम हो गया है। बिस्तर से उठा नहीं जाता, हगना-मूतना तक खटिया पर ही होता है, लेकिन दवा दारू के लिए हाय-हाय किए जाएंगे। उर्मिला भी दिए जाती है, किए जाती है। लोगों के यहां काम करने जाती है, तो खाने को मिलता है, वही बांध-बूंध के ले आती है, रोटी चबाना तो इनके बस का है नहीं, इसलिए पानी में घोल के सत्तू जैसा बना के पिला देती है, कभी कोई मोटा निवाला अटक जाए गले में तो आफत हो जाती है, उंगली हलक में डाल कर निकालना पड़ता है। 
पता नहीं भगवान किन करमों की सजा दे रहा है, सजा क्या अभी दे रहा है, जबसे पैदा हुई है सजा ही तो भुगत रही है। किस्मत की ऐसी धनी है कि जब पैदा हुई उसके एक ही साल बाद अपने इकलौते बड़े भाई को खा गई, और जब तीन की हुई तो पिताजी को खा गई। ये इसकी समझ में अब तक नहीं आया कि ये ही कैसे खा गई, किसी और के माथे भाई और पिता की हत्या का आरोप क्यों नहीं आया। ......पर सब करमों का परताप है, जो लड़की बनके पैदा हो वो तो वैसे ही अभागा होता है, फिर अभागे पर ही बुरे करमों के आरोप लगते हैं। इंसान जब अच्छे करम करता होगा तो अगले जनम में लड़का बनता होगा, बुरे करम करता होगा तो कुत्ता, सूअर की जगह भगवान उसे लड़की बना देते होंगे, हां, उन जानवरों की जिन्नगी लड़कियों से तो अच्छी ही होती होगी। 
बच्ची रही तो भूखी रही, कि लड़के को मिलेगा, जब लड़का गया तो इसलिए भूखी रखी गई कि पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित करे, लेकिन पाप ज्यादा थे, इसलिए बाप मर गया तो भूखी रही कि खाने को घर में कुछ था ही नहीं, अब अपना पति है, अपने बच्चे हैं इसलिए खाने को पूर नहीं पड़ती। लोग झूठ ही कहते हैं कि जिसने मुहं दिया है वो दाना भी देगा, कहना ये चाहिए कि अगर पेट भर नहीं दे सकता तो पेट दिया ही क्यों था। नहीं.....भगवान के बारे में ऐसा नहीं बोलना चाहिए। भगवान से वो बहुत डरती है, वो छोटी सी थी, जब भगवान नाम के पड़ोसी दुकानदार ने दुकान के अंदर ना जाने उसके साथ क्या-क्या किया था, उससे वो इतना डरती थी कि रात को उसे नींद तक नहीं आती थी, कि अगर बंद आंखों में उसका सपना आ गया तो क्या होगा, और मां थी कि उधार लेने के लिए उसे ही भेजती थी, ना जाओ तो मां पीटती थी ओर जाती थी तो.........भगवान......। 
उसका पति बचपन में घर से भाग गया था, साधू बनने, मां बाप का इकलौता था, इसलिए सबने खूब ढंूढ़ा, कई सालों तक गायब रहा, फिर जैसे गया था, वैसे ही एक दिन वापस आ गया, मां-बाप ने अच्छा सोचा, लेकिन डरते तो थे ही कि कहीं फिर ना भाग जाए, और कोई अपनी लड़की भी देने को तैयार नहीं था, कि कहीं शादी करके भाग जाए तो......तो लड़की का क्या होगा, और उसकी मां तो जैसे इसी इंतजार में थी कि कोई इस तरह का लड़का-विड़का मिल जाए तो उसका ब्याह कर दे......मां के अच्छे करम और उसके बुरे करमों के बदौलत वो लड़का उसका पति हो गया.....। जिसने अपनी आधी जिंदगी बेकार घूमने और मांग कर खाने में गुजारी हो, वो किसी हालत में मेहनक करके खाने का हामी नहीं हो सकता, लड़के ने ना तो शादी से पहले कभी काम किया था, ना ही शादी के बाद काम किया, साधुओं की संगत में उसे दो चीजों की घनघोर लत लग गई थी, एक गांजा और दूसरा .......कहा नहीं जाता, यूं कह देना चाहिए, फिर भी उसके साथ दो बच्चे पैदा कर दिए ये क्या कम चमत्कार है। 
चमत्कार तो ये भी है कि ऐसे बुरे करमों के बावजूद उसके दोनो बच्चे लड़के पैदा हुए, और दोनो ही अब तक जीते हैं, लेकिन लोग कहते हैं कि उसके बुरे करमों का नहीं, ये उसके पति के अच्छे करमों का फल है, जिसने अपनी आधी जिंदगी साधू बनके ईश्वर की सेवा में लगा दी। लड़के अच्छे करमों का फल होते हैं और लड़कियां बुरे करमों का फल होती हैं। उसकी मां, उसकी सास, और जमाने भर की सब बड़ी-बूढ़ियां उसे यही समझाती रहीं कि उसे अपनी पति की जी जान से सेवा करनी चाहिए, कि उसके बुरे करम तभी कटेंगे जब वो अपने पति की सेवा करेगी। और वो करती रही......
पहले मां मरी, फिर सास, ससुर.....घर में खाने को कुछ नही हो तो इंसान क्या कुछ नहीं करता। उसके पति को तो कोई ना कोई खाने को दे ही देता था, अपने गांजे का जुगाड़ भी पति कहीं ना कहीं से कर ही लेता था, और अपनी सधुक्कड़ी में इतना मस्त रहता था कि उसे कोई फरक नहीं पड़ता था कि उसे बीवी-बच्चों ने खाया या नहीं, लेकिन उसके अच्छे करमों के सदके जो बच्चे पैदा हुए थे, उनका पेट भरने की जिम्मेदारी, ईश्वर की नहीं उसकी थी, और वो उसे किसी ना किसी हीले से पूरा करती थी। कभी मांग कर, कभी चुरा कर.......वो जानती थी कि इस जनम में उसका मांगना और चुराना उसे अगले जनम के लिए भी अभिशप्त कर रहा है, लेकिन ये जनम किसी तरह कटे.....सोच कर वो जो बन पड़ता था वो करती थी। 
फिर किसी की मेहरबानी से उसे झाडू-बुहारू का काम मिल गया। साफ-सफाई करो, और इतना मिल जाता है कि भूखे नहीं मरना होता, हालांकि खाने को अब भी आधे पेट ही मिलता है, लेकिन कम से कम कुछ दाने तो पेट में पड़ते हैं। अगर एक घर और मिल जाए तो शायद पेट पूरा भर जाए। तब से लेकर अब तक वो एक घर के काम से पांच घरों के काम तक बढ़ गई है लेकिन......उसका पेट अब भी नहीं भरता।
पति को लकवा मार गया, फिर बेटे का पैर कट गया, एक बेटा बीमार पड़ गया। उसके खराब करमों की छाया उसे पूरे परिवार पर पड़ रही थी, और पति के अच्छे करम मांदे पड़ रहे थे। फिर अपनी जान को काट-काट कर उसने जितना हो सकता पति का इलाज करवाया, बेटों का इलाज करवाया और.....और....इसी तरह दिन कट रहे हैं, सूरज रोज निकलता है, रोज छुपता है, रोज दिन कटते हैं, उसके करम भी कटते हैं, शायद किसी दिन उसके पिछले जनमों के करम कट जाएंगे सारे, वो भी लड़का हो जाएगी, या शायद उसके दिन फिर जाएं, जैसे अक्सर ईश्वरीय कथाओं में लोगों के फिरते हैं, कहते हैं, घूरे के दिन भी फिरते हैं, 12 साल में, क्या उमर हो गई उसकी, कई 12 गुजर गए, उसके दिन नहीं फिरेंगे, उसके पुराने जनम के करम बहुत ज्यादा बुरे हैं, उसके दिन नहीं फिरेंगे। 
रात हो गई है, कल जब सबेरा होगा तो वो फिर अपने पुराने जनम के करमों को काटने निकलेगी, और सूरज के ढलते ना ढलते अपनी पूरी ताकत भर इस कटान में लगी रहेगी......शायद उसके करम कट जाएं और वो अगले जनम में लड़का पैदा हो......

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...