बुधवार, 18 नवंबर 2015

बीच वाली दराज़


तस्वीरें पुरानी यादों की खिडकियां होती हैं। तस्वीरें अच्छी-बुरी नहीं होती, उनके साथ जुड़ी यादें होती हैं जो आपको या तो अच्छी लगती हैं, या फिर बुरी लगती हैं। तस्वीरें तो बहुत ही तटस्थता से आपको याद दिलाती हैं कि उस समय क्या हुआ था, कई बार ऐसा लगता है जैसे तस्वीरें बोल रही हों, हंस रही हों, या चल रही हों, या हो सकता है कि ऐसा सिर्फ मुझे लगता हो। ऐसा लगने पर मैं किसी को बताता भी नहीं हूं, जाने सामने वाला मुझे पागल ही ना समझने लगे। यूं मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। कम से कम दुनिया वाले तो यही कहते हैं, अपनी तमाम उम्र में अब तक मैने अगर कोई कॉम्पलीमेंट या ताना सबसे ज्यादा सुना है तो वो यही है कि मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। पहले लगता था कि ये लोग शायद पै्रक्टिकल का मतलब ही नहीं जानते, फिर इतने लोगों ने ऐसा कहा कि मुझे लगने लगा कि ये लोग ठीक ही कहते होंगे, इतने लोग झूठ थोड़े ही बोलेंगे जी। तो मैं भी खुद को प्रैक्टिकल मानने लगा, जबकि सच कहूं तो मुझे जैसा सपनों में जीने वाला, कल्पनाओं में मजे लेने वाला इंसान बहुत ही मुश्किल मिलेगा आपको। लेकिन अब अगर दुनिया कहती है कि आप प्रैक्टिकल हैं, तो हैं। 
सुबह-सुबह कमरे की हल्की-फुल्की सफाई में वो फोटो मिली थी, जिसे हाथ में पकड़े हुए मैं ये सब सोच रहा था, और शायद अभी और भी सोचता जबकि दीदी चाय लेकर आ गई थीं। दीदी का भी बढ़िया है, साढ़े आठ तक आ जाती हैं, लेकिन चाय बनाने में कम से कम 45 मिनट लगता है। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब मैं चाय मांगता हूं तो मुझे पांच मिनट में ही चाय कैसे मिल जाती है, जबकि पहली चाय वो आने के 45 मिनट बाद देती है। मुझे हमेशा लगता है कि वो आने के बाद अपना कोई धार्मिक रिचुअल पूरा करती है, जैसे लोगबाग रोज़मर्रा के काम शुरु करने के बाद करते हैं। जैसे कोई ड्राइवर स्टीयरिंग को हाथ लगाकर अपने कान छूता है, या कोई बारबर कंघी-कैंची को हाथ लगाकर अपने कान छूता है। 
तो दीदी चाय ले आई और मैं फोटो को टेबल पर रखकर फिर से कम्प्यूटर में घुस गया। ये कम्प्यूटर भी कमाल चीज़ बनाई है बनाने वाले ने, एक पल को आप अंदर गए तो कई सदियों बाद ही निकलते हो, बिल्कुल ऐसा है जैसे आप बाज़ार जाते हो, दाल लेने के लिए और दाल छोड़ कर आपकी निगाहें हर चीज़ पर पड़ती हैं, और आप बाज़ार में गुम से हो जाते हो। अरे याद आया आज बाज़ार भी तो जाना है, काफी दिनो से सोच रहा हूं कि नया हेल्मेट ले लूं, ये हेल्मेट तो खत्म हो गया है। एक तरफ का स्ट्रैप टूट गया है, और गाड़ी चलाते हुए यूं सिर से खिसकता है कि बार-बार एक हाथ हैंडल से हटाकर हेल्मेट को ठीक करना पड़ता है। इस तरह गाड़ी चलाना, बहुत खतरनाक होता है। अभी उस दिन जब मैं घर वापस आ रहा था तो अचानक गाड़ी स्लिप हो गई, वो हेल्मेट ही था जिसकी वजह से मेरा सिर बच गया था। हेल्मेट तो ले ही लेना चाहिए, लीजिए मैं तो कम्प्यूटर पर ई-मार्केट में हेल्मेट ही देख रहा हूं। बहुत महंगे हेल्मेट हैं ये तो, इससे अच्छा तो दुकान पर जाकर ही ले लेना चाहिए। कम से कम बार्गेनिंग करने का सुख तो साथ मिलेगा। यहां तो एक ही कीमत होती है, लेना है तो लो नही तो टा टा, बाई बाई। 
ये फोटो नज़रों के सामने से नहीं हट रही है, बहुत पुरानी फोटो है, मैं बहुत कम उम्र का हूं, साइकिल रिक्शा चला रहा हूं। यहां की नहीं है, भरतपुर की फोटो हैं, भरतपुर जैसा पहले था, अब वैसा नहीं बचा, कतई नहीं। अब तो बहुत भीड़-भड़क्का हो गया है वहां। उन दिनों बहुत शांत था भरतपुर, हम दोनो गए थे, बस से....। मौसम खूबसूरत था, उम्र शानदार थी और दिल बहुत हसीन था, और हम दोनो गए थे। फोटो कुछ-कुछ पुरानी हो गई है, मुझे उस दौर में लगता था कि मैं बहुत उम्दा फोटोग्राफर हूं। बहुत देर में समझ में आया कि मुझे फोटोग्राफी नहीं आती, अब तो खैर करना भी छोड़ दिया। उस जमाने में जब रोल वाली रील होती थी, मेरे पास चार या पांच कैमरे थे। कहीं जाता था तो कम से कम तीन कैमरे तो हमेशा लेकर जाता था। बहुत सारी फोटो खीचीं, मैं हैप्पी क्लिकर था, बस बिना कुछ सोचे जो सामने आया कैमरा में कैद कर लिया। बहुत बाद में समझ में आया कि फोटो खींचना असल में बहुत ही सब्र और सन्नीयत का काम है। इतना सब्र मुझमें तब कहां था, और देखा जाए तो अब भी सब्र कहां है मेरी शख्सियत में। 
मैं अपने गुज़रे जमाने को देखता हूं तो सच में ये लगता है कि समय के साथ सबकुछ बदल जाता है। मेरे ही घर के पास, कल तक जहां भैंसे बंधती थीं, आज वहां रेलवे के फ्लैट है, जिनमें एक पूरी दुनिया बसती है, कभी पूरे इलाके में कीकर के पेड़ होते थे, आज देखने को भी नहीं मिलते। पता नहीं किसने कहा था कि खूब मजबूत होते हैं, समय के साथ हवा हो गए, कीकर के पेड़। सारी खूबसूरती चौकोर कंक्रीट के डिब्बों में कैद हो गई है, अब उसमें ही हरा भी ढूंढिए और बाकी कायनात के रंग उसी में मिलते हैं, जमीन वो निगल गए, आसमान को उन्होेने ढांप लिया, पेड़ों को उन्होने इस्तेमाल कर लिया और उन पर रहने वाले परिंदे जाने कहां चले गए। कोई नया पता भी ना दिया उन्होने कि कभी याद आए तो एक दो हरूफ लिख के हाल-चाल ही ले लिया जाए उनका। वो जमाने और थे साहब जब जमीन की थाह नहीं मिलती थी, आज तो जाइए कोरपोरेशन के ऑफिस में और पटवारी आपको हर जमीन की सही-सही हद बता देता है, उसका नंबर दे देता है। उसके पास यहां से वहां तक सब जमीन का साइज़ नापा हुआ रहता है। वो जमाने गए जब आसमान सबकुछ ढांपता था, आज तो हालत ये है कि मुंह छुपाता रहता है, दिखाई ही नहीं देता, जमाना हो गया, सही चेहरा देखे हुए आसमान का, धुुंधुआता सा, काला-काला सा दिखता है, पता नहीं दिखता नहीं कि लज्जित है। 
ये तस्वीर जिसकी मैं बात कर रहा हूं उस जमाने की है जिसमें ये सब चीजें जिनका मैने जिक्र किया अभी उतनी खराब नहीं हुई थी, कि बच्चों के फेफडे़ गुलाबी ही होते थे। तब मैं उसके साथ भरतपुर गया था। उस समय कुछ खास पता नहीं था, बस डिपो से बस पकड़ी और दूसरे दिन सुबह-सुबह भरतपुर बस स्टैंड पर उतर गए थे। वहीं पास में देखा एक ढाबा, जिसपे चाय पी, उसीने पूछा, ”कमरा चाहिए?” सोचा यहीं ले लिया जाए, पैसा कम लगेगा, ”हां” मैने कहा, उसने दिखाया उसी ढाबे के उपर चार कमरे थे, जिनमे चारपाई थी, गंदे गद्दे और दरवाज़े पर चिटकनी नहीं थी, बाथरूम बाहर था। मैं बिना कुछ बोले नीचे उतर आया और उसे इशारा कर दिया था। हमारा बहुत सारा काम इशारों में ही चल जाता था। 
कई बार होता है ऐसा, कि हमें किसी से बात करने की जरूरत ही ना हो, आंखों ही आंखों में बात हो जाए। तुम सब कुछ कह दो, और मैं सबकुछ समझ जाउं। ऐसा होता है कई बार, कई-कई घंटे तक हम बोलते ही नहीं हैं और हजारों किस्म की बातें हमारे बीच हो जाती है। ऐसा होता है कई बार, कि हम सबकुछ समझ जाते हैं, सबकुछ समझा देते हैं, और बोलते नहीं हैं। सिर्फ छूने भर से तसल्ली मिल जाती है, भरोसा हो जाता है, सबकुछ वहीं होता है, वहीं होता है, ऐसा होता है कई बार। जब सारी दुनिया सिर्फ उस एक पल में सिमट जाती है, जब सबकुछ होता है और कुछ नहीं होता। कभी-कभी इंतजार भी होता है, लेकिन वो इंतजार खलने वाला, चुभने वाला नहीं होता। मीठा होता है, अच्छा लगता है, इंतजार करना। थोड़ा खुमारी वाला होता है, ऐसा मौका, ऐसा......।
जब वो समय था, तो ऐसा था, ऐसा ही था। मैने कुछ नहीं कहा, उसने समझ लिया और बैग उठा लिया। उसके बाद हमने कई होटलों के चक्कर काटे, अपनी जेब के बाहर के कुछ होटल थे, तो कुछ बहुत ही नालायक से होटल थे। आखिर एक होटल मिला। वो बस स्टैंड और महल वाले होटल के बीच का होटल था। उसने मेरी तरफ देखा और मैं समझ या कि अब यही होटल लेना है। हमने वो होटल ले लिया, सर्दियों के दिन थे, नर्म धूप के और कड़क रातों के दिन थे। कुछ ना कहने के और कुछ ना सुनने के दिन थे। फिर भी उन दो दिनों में वहां बहुत कुछ कहा-सुना गया। 
ये तस्वीर उसी कहे-सुने का पंचनामा तो है। दिन अब भी वही हैं, नर्म धूप वाले, लेकिन धूप अब वैसी नहीं लगती। कहीं-कहीं से इसका पलस्तर उधड़ गया लगता है, समय ज्यादा हो गया, धूप चटक गई है, कहीं-कहीं से। तस्वीर भी यही कह रही है। समय हो गया। 
लीजिए चाय ठंडी  हो गई। मै अक्सर गुनगुनी चाय पीता हूं, बहुत पीता हूं, लेकिन गुनगुनी पीता हूं। जब तक मुहं भर चाय ना हो, स्वाद नहीं आता। इसीलिए मेरे घर में चाय के कप बहुत बड़े-बड़े हैं। सुड़क कर पीने वाली चाय में मुझे आज तक मजा नहीं आया, चाय का मज़ा घूंट भर कर पीने में है, ज़बान पे दर्ज हो, मुहर लगे दिल पे कि चाय पी है। वो लोग जो चाय को बिना किसी जज़्बे के पीते हैं, मुझे समझ नहीं आते। जो भी संपर्क में आया, उसे पहचाने बिना उसे कैसे दर्ज कर लेंगे, कैसे स्वीकार करेंगे या अस्वीकार करेंगे। कुछ तो होगा, जो चलेगा, बहेगा, रुकेगा। मुझसे नहीं होता। जैसे ये तस्वीर, उस रोज़ भी इसने बहुत कुछ कहा, किया था। आज भी ये बहुत कुछ कह, कर रही है। तस्वीर सिर्फ तस्वीर नहीं होती, यादों की खिड़की होती है। इसलिए मैं तस्वीरों को अपनी मेज़ की उस दराज़ में बंद करके रखता हूं जिसका कोई हैंडल नहीं है। जब तक बहुत शिद्दत से ना चाहो, नहीं खोल सकते। यादों को बेमुरव्वती से बरतना मुझे पसंद नहीं है। मैं इन यादों को भी जिंदगी जैसी गंभीरता से बरतता हूं, उसी खूबसूरती के साथ उन्हे हाथ में लेता हूं जिससे उन्हे बनाया था। वैसा ही अहसास होता है, जैसा याद बनते वक्त था। यादों के साथ जिस तरह का रिश्ता आप रखते हैं, अक्सर लोगों के साथ भी आपके वैसे ही रिश्ते होते हैं। ऐसा मेरा मानना है, हो सकता है कि आप कुछ अलग सोचते हों। 
मुझे बहुत कुछ करना है, सिर्फ तस्वीर हाथ में लिए बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। इस घर की, खासतौर से इस कमरे की सफाई हमेशा बहुत सारा समय खा जाती है। थोड़ा समय लगता है सफाई में, मैं ज्यादा सफाई पसंद नहीं हूं ना, उतने से काम चला लेता हूं, जितने से काम चल जाता है। ज्यादा समय लगता है यादों को सहेजने, समेटने, बटोरने और फिर करीने से किनारे करने में.....अब यही लीजिए। इसीलिए मैं इस बीच वाली दराज़ को नहीं खोलता, इसमें इस तरह की बहुत सारी यादें जमा हैं, अगर खोला तो कई दिन बीत जाएंगे। फिर भी खोलनी तो होगी ये दराज़, आज किसी याद को निकालने के लिए नहीं, इस याद को फिर से सहेज कर रखने के लिए, इसी तरह बाहर रहेगी तो कहीं खो जाएगी। यादें ऐसी ही होती हैं, नहीं सहेजेंगे तो खो जाएंगी। बच्चों की तरह चंचल होती हैं, खेलते हुए कही दूर चली जाएंगी और फिर पुकारेंगे तो भी नहीं आएंगी। इसलिए इन यादों को सहेज कर रखने में समझदारी है। 
बहुत मुश्किल से वो बीच वाली दराज़ खोलकर मैने ये फोटो उसमें रख दी है, समय की चौखट पर यादों की एक खिड़की खुल गई थी। बंद कर दिया उसे दिल पर हाथ रखकर। फिर कभी सही....यादों की ये खिड़कियां वहीं रहेंगी, जहां रख दी जाएंगी। फिर कभी......

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

भा ज पा, पाकिस्तान और गंगा मैया.....या....या....



ये भाजपा ने क्या कर दिया। मैं सोच रहा था कि मोदी की प्रचंड रैलियों की वजह से बिहार में होने वाली प्रचंड जीत से, विराधियों, अधम-पापियों के नर-मुंड लुढ़क जाएंगे, और अपनी प्रचंडता की ज्चाला में विजयी मोदी के प्रचंड विजय रथ की गति और तीव्र हो जाएगी जो, प्रचंडतम होती जाएगी और आर्यावर्त को विकास की प्रचंडतम-प्रचंडता से प्रचंडित पथ पर ले जाएगी। 
पर....ये क्या हो गया। प्रगतिशील सब खुश हैं, उन्हे पता नहीं है कि ये बिहार के लिए अंधेरे युग का आरंभ है। नितीश कुमार और लालू प्रसाद बिहार को पुनः अंधकार की गर्त में ढ़केल देंगे, मेरा मतलब बीच में कुछ समय जो सुशील मोदी की वजह से बिहार विकास के पथ पर रथ में बैठा हुआ आगे चला था, वही अब फिर से पतित हो जाएगा। बताइए तो पूरा देश विकास के रास्ते पर फर्र-फर्र दौड़ रहा है और बिहार.....बिहार बैठ गया है। मोदी को वोट दे ही देते तो क्या हो जाता बे....बिहारी रहेगा बिहारी.....इतना कहा मोदी ने कि मुझे वोट दो तो इतने हजार करोड़ का विशेष आर्थिक पैकेज दूंगा, बिहारियों ने नकार दिया, नितीश और लालू के सारे काले चिठ्ठे खोल दिए, बिहारियों ने उसे भी नकार दिया, गाय की रक्षा की गुहार की, बिहारियों ने गाय को कोई भाव नहीं दिया, और अंततः ये भी बताया कि पाकिस्तान की आंखें बिहार की हार-जीत पर ही लगी हैं और अगर मोदी नहीं जीते तो पाकिस्तानी कितने खुश होंगे, लेकिन बिहारियों ने इस पर भी कोई ध्यान नही दिया। चुनाव से पहले से ही गैया के नाम पर माहौल बनाया गया था। लोगों ने इसका विरोध भी किया। लेकिन आपको पता नई है, हमारे यहां तो गाय की पूंछ पकड़ कर लोग वैतरणी तक पार करने की बात करते हैं, मोदी गाय की पूंछ पकड़ कर चुनाव की वैतरणी पार करने की सोच रहे थे, तो आपको क्या दिक्कत है। दिक्कत वही है कि भारतीय परंपराओं, हिन्दु संस्कृति से आपका विश्वास उठ गया है, और अब मोदी जो करता है, जो भी करता है, या नहीं करता है, वो सब आपको बुरा लगता है। 
ये लोग मोदी से इतना जलते क्यों है भई। मैने पहले भी लिखा था, अब फिर लिखना पड़ रहा है। आपको पता नहीं है, असल में अभी पिछले से पिछले साल इन सब लेखकों-फेककों की, ये जो अरुनधति राय जैसे जो देशद्रोही, पाकिस्तानी हैं, इनकी एक बैठक हुई थी, जिसमें बाहर का पैसा लगा था, इन सबने वहां, उस बैठक में ये कसम खाई थी कि ये मोदी से जलेंगे, तबसे ये लोग लगे हुए हैं, मोदी से जलने के लिए। अभी इनका पूरा इतिहास खंगाला गजाएगा या बनाया जाएगा, और उसमें इन्हे मुसलमान या पाकिस्तानी करार दिया जाएगा। जैसे ये बात कि अरुंधति राय के अब से छठी पीढ़ी के पुरखे ने मस्जिद का पानी पिया था। ये बात किसी को नहीं पता, लेकिन आप स्वामी से पूछिए, अरे सुब्रमणियम स्वामी से, उसे पता है। जैसे कि गुलज़ार, असल में तो मुसलमान है, इसीलिए वो जो भी गाना लिखता है उसमें मुसलमानी भाषा उर्दू के शब्द डाल देता है। ये सब पता लगा कर देशभक्त नौजवानों को उससे अवगत कराया जाएगा। मोदी ने जितने अच्छे काम किए उन्हे देखते नहीं हैं ये देशद्रोही, बल्कि जो अच्छे काम हैं, उन्हे भी बुरा करके दिखाते हैं। बस इसी का परिणाम है कि बिहार में मोदी हार गया, मेरा मतलब है कि बिहार की हार के लिए मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, हालांकि उन्होने तो अपनी पूरी कोशिश की, नहीं हार के लिए अमित शाह को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, हालांकि उन्होने भी पूरी कोशिश की थी। 
अभी हार-जीत छोड़ दीजिए, ये देखिए कि अमित भाई शाह ने कितना सही कहा था। जैसे ही बिहार में भा ज पा की हार की खबर आम हुई, भारत में बैठे पाकिस्तान के चहेतों ने, जैसे राजद, जदयू वालों ने पटाखे फोड़े, उन्हे अपनी जीत का नहीं, मोदी की हार की ज्यादा खुशी थी, वामपंथियों ने, देशद्रोहियों ने तक पटाखो फोड़े, अरे देशभक्त होते तो मोदी की हार के गम में दिवाली तक नहीं मनानी चाहिए थी। गडकरी जी को देखिए, ना पिछले 5 दिनों से एक लड्डू तक मुहं में डाला है, और ना ही पानी की एक बूंद गले से उतारी है। घर के पौधे बेचारे पेशाब की एक-एक बंूद के लिए तरसते हुए सूखे जा रहे हैं। लेकिन हार का गम इतना बड़ा है कि पौधों की फिक्र का समय नहीं है उनके पास। 
असल में मोदी जी का ये आकलन की देश की अधिकांश जनता, उनके प्रधानमंत्री बनते ही हिंदु रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों और कर्म-कांडों की भाजपाई परिभाषा को स्वीकार कर लेगी, सफल नहीं रहा। जनता आखिर जनता होती है, धोखेबाज़ और हरजाई, उसने ना गाय का लिहाज किया ना गंगा मैया का, अपना फायदा देखती रही। छिः, जनता का पतन हो गया है। पहले जनता अपना नहीं राजा का भाला सोचती थी, और राजा के छोटे से छोटे सुख के लिए जीवन तक त्याग देती थी। जैसे राजा पड़ोस के राज्य की राजकुमारी को अपनी तीसरी रानी बनाना चाहता है, बस जनता उसके लिए अपना तन-मन-धन झोंक देती थी और उस लड़की को ले आया जाता था। अब ऐसा नहीं है, मोदी जी आखिर क्या चाहते थे, बिहार में छोटी सी जीत.....लेकिन इन बिहारियों को ये बर्दाश्त नहीं हुआ, और सिर्फ 53 सीटों में मोदी जी का निपटा दिया। 
आपको चाहे हो ना हो, मुझे इस बात का बड़ा दुख है। मोदी जी ने इतनी रैलियां की, इतना पैसा पानी की तरह बहाया, इतना गाय-गोरु का नाम लिया, आपको अपना धर्म याद दिलाया, धर्म की आन-बान-शान की कसमें दिलाईं, लेकिन बिहार की जनता ने मोदी को वोट ना देकर लालू का वोट दिया, नितीश को वोट दिया, और तो और तीन सीटों पर तो लाल रंग के झंडे यानी राष्ट्रवाद के सबसे बड़े दुश्मन वामपंथियों को तक जिता दिया। 
लेकिन एक बात की खुशी भी है, कम से कम, एक बार, चाहे वो किसी भी वजह से हो, पाकिस्तान का नाम भारत में पॉजिटिव सेंस में लिया जा रहा है। जो कोई भी लोकतांत्रिक अधिकारों का पैरोकार है, थोड़ा बहुत समझदार है, खुल कर बोलना चाहता है, मतलब जम्हूरियत पसंद अवाम के लिए पाकिस्तान नाम के देश का नाम तज़्वीज किया जा रहा है कि भई आप हिन्दुस्तान में मत रहिए, बल्कि पाकिस्तान चले जाइए। इधर यहां की अवाम भी यही कह रही है कि हिन्दुस्तान में तो असहिष्णुता बहुत ज्यादा है, इतनी ज्यादा कि आपके लिखे से, कहे से असहमत होने पर आपकी जान तक ली जा सकती है। सरकार के नुमाइंदे कह रहे हैं कि अगर ऐसा है तो आप पाकिस्तान जाकर रहिए। इसका कुल जमा-जोड़ मतलब यही हुआ ना जी कि जो भी तरक्कीपसंद है, जिसका कला, साहित्य, फिल्म, लेखन, गायन आदि से कोई भी लेना-देना है वो जाकर पाकिस्तान रहे, भारत में उसके लिए कोई जगह नहीं है, बाकि पाकिस्तान वाले इस बात से हो सकता है कि खुश हो रहे हों, भई भारत के सारे बुद्धिजीवी, लेखक, गायक, फिल्म बनाने वाले, कलाकार, सब पाकिस्तान जाकर रहेंगे तो पाकिस्तान की तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी। 
तब फिर भारत में कौन रहेगा? ये एक ऐसा सवाल है जो भविष्य की ओर इशारा करता है। कौन रहेगा भारत में, या सही सवाल होगा कि भारत में या हिन्दुस्तान रहने की इजाज़त किसे दी जाएगी। भारत जैसी पवित्र भूमि में वही रहे जो इसकी पवित्रता में यकीन रखता हो, और इसकी पवित्रता की रक्षा करने के लिए दूसरों के तन-मन-धन का न्यौछावर करने में तनिक भी ना हिचके। जो हिन्दु संस्कृति के लिए किसी भी बच्चे को ज़िंदा जलाने में ना हिचके, जो हिन्दु धर्म के लिए औरतों का बलात्कार करने से और फिर उन्हे भी मार देने से ना झिझके, जो रात के खाने में गाय का गोबर और पीने में गाय के पेशाब का इस्तेमाल करने में गर्व महसूस करे। और सही भी है, इस पवित्र भूमि पर रहने, चलने, खाने और हगने का अधिकार उन्ही को मिल सकता है और किसी को नहीं। 
इसके अलावा खुशी इस बात की भी है कि मोदी को और उनके सहयोगियों को पाकिस्तान पर इतना भरोसा है। हर बात में पाकिस्तान को आगे कर देने वाला भरोसा तो अमरीका-इस्राइल में भी नहीं है। मतलब जो भी हो, सब पाकिस्तान पर डाल देने वाला भरोसा.....कमाल है। यहां तक कि बिहार में मोदी के चुनाव हारने पर पाकिस्तान में पटाखे फोड़ने वाली स्टेटमेंट कमाल है जी। 
लेकिन....लेकिन.....लेकिन.....ये बिहारियों ने मोदी के इस प्लान की राह में रोड़े अटका दिए। गैया के पोस्टर पर पोस्टर निकाले गए, लगातार लोगों को बताया गया कि मोदी और सिर्फ मोदी ही है जो गाय को बचा सकता है, करके दिखाया गया, पहले दादरी में एक आदमी को मारा गया, जिसके लिए कहा गया कि उसने गाय खाई थी, फिर गाय के नाम पर पूरा माहौल बनाया गया, ऐसा महौल बनाने की कोशिश की गई कि लोग चिकन भी खाएं तो गाय के नाम से डरें। पूरी कोशिश की गई कि लोग घास खाएं तो भी दाल से डरें। लेकिन इन बिहारियों के कान पर जूं ना रेंगी। इन्होने गाय की रक्षा के नाम पर बट्टा लगा दिया है। 
मेरा सिर्फ ये कहना है कि इतना सब होने के बावजूद भाजपा को मोदी जी पर, अमित शाह पर, गाय पर, पाकिस्तान पर से अपना भरोसा नहीं खोना चाहिए। किसी ने सही ही कहा है, भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं है, वैसे ही गाय के गोबर में देर है, अंधेर नहीं है। गाय के नाम पर लगे रहो, आज ना सही, 20 साल और देर सही, एक दिन ये मूढ़ बिहारी समझेंगे कि मोदी को जिताना ही सही में राष्ट्रवाद है, वही सच्ची देशभक्ति है, वही धर्म है और वही सच्चाई की जीत है। अभी आपको समझ नहीं आ रहा, कोई बात नहीं। आपको पाकिस्तान भेज दिया जा रहा है, जहां आपको सही बातें समझ में आ जाएंगी, फिर आप मोदी को पुकारेंगे, उन्हे वोट देंगे और आपकी आत्मा अमर हो जाएगी, जैसा कि गीता में कहा गया है, कि जो मोदी को, भाजपा को वोट देता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है, वो आवन-जावन के बंधन से छूट जाता है। इस सोच को ना मानने वाले व्यक्तियों को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा और फिर आप पूछेंगे कि भारत में कौन रहेगा। भारत में रहेंगे, रामदेव और पतंजलि बिस्कुट खाने वाले, आसाराम और उनके प्रेम ’छिछोरा-बलात्कार पढ़ें ’ झेल कर उसे भक्ति कहने वाले, श्री-श्री के पाद को खुशबू बताने वाले, इसके अलावा रहेंगे, तोगड़िया, प्रज्ञा ठाकुर, गडकरी, और सिंधिया और इन सबके भक्त....अगर आपको कोई एतराज़ है तो आप भी पाकिस्तान जा सकते हैं। 
आगे आने वाले चुनावों के लिए अभी से सबको ये सोच लेना चाहिए कि, वोट भा ज पा, गैया माता के नाम पर देना है, और मोदी को जिता कर पाकिस्तान को सबक सिखाना है, तो बोलो गंगा मैया की......ज्ज्ज्जै।

सोमवार, 2 नवंबर 2015

इतिहासकार और चेतन भगत और बहुत कुछ


जाने क्यूं भाई लोग अचानक चेतन भगत पर बिगड़ पड़े हैं। लीजिए....अब आपको ये भी बताना पड़ेगा कि चेतन भगत कौन हैं, लिखाड़ी हैं भौत बड़े, कई तो किताबें लिख मारीं, ऐसी-ऐसी लिखी हैं कि किसी ने पढ़ी भी नीं होंगी जैसी इन्होने लिख दी हैं। दुनिया जहान् की अकल को घुटने के नीचे दबाए रहते हैं, जब जो भी मसला दुनिया के सामने दरपेश आया, झट घुटना थोड़ा सा उंचा करते हैं और एक ज्ञान की बात दुनिया के मत्थे पर मार देते हैं। अभी मार दी एक बात, बोले ये इतिहासकारों का काम क्या होता है, मेरी समझ में नहीं आता। ”हालांकि समझ इनके सबकुछ आता है, ये अंदर की बात है” कहने लगे कि इतिहासकार यूं करते हैं कि अंदाजा लगाते हैं, पहले ये हुआ होगा, फिर ये हुआ होगा, और बस इसी तरह दिन खत्म हो जाता होगा। कहने का मतलब ये इतिहासकार जो हैं, झक मारते हैं, और क्या करते हैं। बस भाई लोगों ने शोर मचा दिया, लोग-बाग जिन्हे इतिहास पसंद है, इतिहास, समाजशास्त्र, साहित्य आदि-आदि फालतू की चीजें पसंद हैं, उन्होने शोर मचा दिया। लेकिन सच कहूं तो चेतन भगत ने कुछ गलत नहीं कहा है। ये इतिहासकार आखिर करते क्या हैं, किसी को पता चला है कभी? हुंह, बनते हैं अपने को पता नहीं क्या....वैसे देखा जाए तो ये सभी लोग जो अपने को कवि, साहित्यकार, विचारक, चिंतक आदि-आदि कहते हैं, ये करते ही क्या हैं? पता नहीं क्यूं सब लोग इन्हे इतना सिर पर चढ़ा लेते हैं। 
लिखना कहते हैं हमारे चेतन भाई के काम को, मनोरंजन का मनोरंजन और काम का काम। इनका लिख ऐसा होता है जैसे एक के साथ दूसरा प्रॉडक्ट फ्री मिलता है, जैसे टाइम भी पास हो, और नींद भी आ जाए। हमारे चेतन भगत भाई ने जो लिखा है वो इतिहास नहीं है, लेकिन स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने वाली चीजें हैं, आप आज उसकी महत्ता नहीं समझ रहे हैं, क्योंकि आप सब बेवकूफ हैं, अभी उनके लिखे का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है, मूल्यांकन होने दीजिए, उसे नोबेल मिलेगा, रेड क्रॉस मिलेगा, पद्मभूषण, परमवीर चक्र, भारत रत्म, सोवियतलैंड पुरस्कार, अकादमी अवार्ड, ग्लोडन ग्लोब......और वो क्या होता है, रेड कॉर्नर नोटिस आदि सबकुछ मिलेगा। अभी बस एक बार मूल्यांकन हो जाने दीजिए। अभी तो एक ही मिला है उन्हे अवार्ड, वो क्या है.....मेन्स वाला.....बुकर वाला....हां...अभी मूल्यांकन होने दीजिए बस।
भारत में क्या कहिए आज के हालात बहुत खराब हैं। लोग व्यक्तिगत विरोध को, नापसंदगी को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। हुआ यूं कि, एक दिन ये सारे इतिहासकार, फिल्मकार, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, आदि मिले और इन्होने सोचा, ”मतलब ऐसे ही सोचा, क्योंकि काम तो इनको कोई होता नहीं है” कि नरेन्द्र मोदी से नफरत की जाए, ”आप पूछ सकते हैं, नरेन्द्र मोदी से ही क्यों? लेकिन कोई जवाब नहीं मिलेगा” अब इतना साफ-सुथरा, सीधा-सच्चा, ईमानदार, व्यक्ति, और उससे नफरत, पर ये सब बेकार के, बेकाम के, इतिहासकार, फिल्मकार, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, पत्रकार, आदि होते ही ऐसे हैं। खैर, तो दूसरे दिन से इन्होने नरेन्द्र मोदी से नफरत करना शुरु कर दिया। सबने एक-एक करके अपने पुरस्कार, जो दया करके राज्य की तरफ से इन्हे दिए गए थे, वापस लौटाने शुरु कर दिए। ”सच कहूं तो राज्य जिसे भी पुरस्कार दे, उससे एक शपथपत्र भरवा लेना चाहिए, कि कभी राज्य या सरकार के बारे में कुछ उल्टा-सीधा नहीं बोलेगा।”  बताइए एक तो दया दिखाते हुए इन नालायकों को पुरस्कार दो, फिर इनकी झें-झें भी सुनो। कुछ समझदार लोग, जैसे अनुपम खेर, आदि इन पागलों से दूर ही रहे, इतिहास में अनुपम खेर जैसे समझदार बहुत कम हुए हैं, लेकिन जो भी हुए हैं, उन्होेने अपने वक्तों का बहुत फायदा उठाया है। अंग्रेजों के जमाने में जागीरदारी ले ली, सर का खिताब ले लिया, अब राज्यसभा की सीट कहीं नहीं जाती, बाकी काफी सारे पुरस्कार हैं ही, ऑनरेरी अवार्ड हैं, आदि-आदि हैं। सरकार की तरफ रहो, तो दूरदर्शन में, फिल्म बोर्ड में, सेंसर बोर्ड में, जगह मिल ही जाती है। अब गजेन्द्र चौहान का देख लो, है किसी करम का, लेकिन बस ठाठ कर रहा है बैठा हुआ, ये सरकार की तरफदारी का इनाम है। 
खैर, विषय पर वापस आते हुए, चेतन भगत ने कुछ गलत नहीं कहा है। बल्कि वही कहा है जो अरुण जेटली एंड कंपनी लगातार कह रही है। असल में ईमानदारी से देखा जाए तो राज्य को आखिर सोचने समझने वालों की जरूरत हो ही क्यूं। ऐसे लोग समाज में क्यूं हों, जो जनता को उसके अधिकारों के बारे में, उसकी आज़ादी के बारे में, और बाकी चीजों के बारे में बताए। एक बात बताइए ईमानदारी से, यानी सोच-समझकर, सरकार चलाने के लिए किन चीजों की जरूरत है। बताइए, एक तो चाहिए पैसा, क्योंकि पैसा चाहिए ही चाहिए, वो मिलता है पूंजीपतियों से, दूसरा चाहिए काम करने वाले, यानी मजदूरों, किसानों से, बाकी कुछ क्लर्क आदि भी चाहिएं, लेकिन ऐसे नहीं जो ऑफिस के अतिरिक्त कुछ सोचें। यानी  शासक हो, प्रशासक हों, व्यापारी हों, मजदूर हों, पुलिस हों, सेना हो और बस। इनके अलावा आप बता दीजिए किसी और की जरूरत हो तो? अगर मान लीजिए कुछ मजा-मनोरंजन करना हो तो ऐसे ही होने चाहिए भांड-चारण, जैसे चेतन भगत हैं या अनुपम खेर हैं। और किसी की जरूरत ही क्यों हों। इसीलिए सरकार तमाम संस्थानों को, और अन्य कार्यस्थलों को ऐसा बना रही है ताकि छात्र हों या शिक्षक, या कोई और यहां तक कि किसान, मजदूर, ठेकामजदूर, घरेलू कामगार, यानी सभी, मशीन हो जाएं, जो बिना सोचे-समझे काम करें, और कुछ ना करें। 
अभी तवलीन सिंह ने लिखा, लोग बेकार ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रो रहे हैं। इतनी आज़ादी तो आज तक किसी भी पी एम के वक्त में नहीं मिली, अरुण जेटली ने दोहरा दिया। मैं सहमत हूं। असल में आप समझते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी होगी जब आपको बोलने दिया जाएगा। मैं कहता हूं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी नाम के साथ थोडे़ ही आती है कि भाई कपिल बोलेगा तभी होगी अभिव्यक्ति की आज़ादी, अब चेतन भगत बोल रहे हैं, अनुपम खेर, तवलीन सिंह, अरुण जेटली, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, साध्वी, रामदेव, साधु, तमाम लोग, बोल रहे हैं, जो मुंह में आ रहा है वो बोल दे रहे हैं, तो ये क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है। अब उनकी आज़ादी के रास्ते में आपके अधिकारों को, जैसे जीने के अधिकार को, रुकावट नहीं बनने दिया जा सकता, इसलिए आपको एक-एक करके मार दिया जा रहा है।  कुल मिलाकर आपको ये तकलीफ हो रही है कि इन लोगां को आज़ादी क्यों मिल रही है, हां......सारा मामला आपकी नापसंदगी का है, आपको ना जाने क्यूं नरेन्द्र मोदी पसंद नहीं है। तवलीन सिंह को, अरुण जेट ली को, गडकरी आदि को यही समझ नहीं आ रहा कि आप लोगों को आखिर नरेन्द्र मोदी पसंद क्यों नहीं हैं। 
खैर ऐसी की तैसी आपकी, आप पसंद करें, नरेन्द्र मोदी को या ना करें, चाहे जो भी करें, लेकिन ये ना करें। मेरा मतलब है, पढ़ना-लिखना बंद करें। अव्वल तो पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं है। रोज सैंकड़ों-हजारों की संख्या में किताबें छप रही हैं, उन्हे ही लोग पढ़ लें बहुत है। और रही ज्ञान की बात तो ज्ञान था सदियों पहले हमारे देश में, उसे किताबों में डाल दिया गया है। वेद, पुराण, मनुस्मृति और गीता-रामायण आदि हैं, जिनमें सारा, ज्ञान-विज्ञान-समाजशास्त्र-साहित्य-कला-संस्कृति-दर्शन, आदि समाया हुआ है, और अब और किसी की जरूरत नहीं है। ना तुम्हारी ना तुम्हारे लिखे की, इसलिए चेतन भगत ने लिखा कि उन्हे समझ नहीं आया कि इतिहास कार करते क्या हैं। धन्य हैं, चेतन भगत, जो चैन से रहते हैं, इतिहास, राजनीति की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते और जब जैसा मौका होता है, वैसा बोल देते हैं, तवलीन सिंह हैं, जो दो ही टाइम में जीती हैं, इमरजेंसी या आज, बीच का सारा वक्त इन्होने सो कर गुज़ारा है, इसलिए जैसा दिखता है, उलटा-सीधा लिख मारती हैं। चाहे उसका कोई मतलब बने या ना बने। 
कुल मिलाकर दोस्तों बहुत हसीन वक्त है, अब देखना सिफ ये है कि ये लेखक-फेकक, कवि-फवि समझते हैं, चेतन भगत, तवलीन सिंह और अनुपम खेर की बात ये उन्हे अपने ”खास” संस्कृति कृमियों को भेज कर समझाना पड़ेगा””a

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

भय और नफ़रत के खिलाफ संगवारी


भय और नफ़रत के खिलाफ संगवारी

कल यानी 28 तारीख को डूटा ने दिनेश सिंह के वीसी पद से हटने यानी जाने के मौके पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस आयोजन का नाम ”गुड रिडन्स् डे” रखा गया। इस आयोजन में संगवारी को क्रांतिकारी गीत पेश करने के लिए आमंत्रित किया गया। संगवारी का हर उस संस्था से जो लोकतांत्रिक हितों और जन अधिकारों के संघर्ष में शामिल है, बहुत ही इंकलाबी रिश्ता कायम है। हम डूटा के कई कार्यक्रमों में पहले भी गए हैं, और डूटा के लोग हमारे कार्यक्रमों को बहुत पसंद करते हैं, इसलिए समय-समय पर हमें बुलाते भी रहते हैं। इसी तरह दिल्ली के अन्य संगठन भी संघर्ष के मौकों पर, संगवारी को अपने कार्यक्रमों में आमंतत्रत करते हैं। दिल्ली में जन संस्कृति से जुड़े ज्यादातर लोग जानते हैं कि संगवारी एक निश्चित राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ सांस्कृतिक समूह है, हम हर हालत में जहालत का, फिरकापरस्ती का, पूंजीवाद का, विरोध करते हैं। हम जनता के अधिकारों के पैरोकार हैं, जनता की ताकत पर भरोसा करते हैं, और जनता के लिए, जनता के साथ, जनता से ही सीखे हुए गीत गाते हैं, नाटक करते हैं। संगवारी गैर सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए काम नहीं करता, कार्यक्रम नहीं देता और ना ही किसी कोरपोरेट, कंपनी, सरकार आदि से पैसा लेता है। इसीलिए संगवारी भव्य कार्यक्रम नहीं करता, और अपने संघर्ष के साथियों के सहयोगअपने कार्यक्रमों का आयोजन व अन्य काम करता है। हमारे साथी, जैसे डूटा के सदस्य ये भी जानते हैं, कि संगवारी किस किस्म के गीत गाता है और कार्यक्रम करता है। तो जब संगवारी को डूटा की तरफ से कार्यक्रम में शिरकत का निमंत्रण मिला तो सगवारी ने उत्साह के साथ अपनी मंजूरी दी और नियत समय पर, निश्चित जगह यानी आटर््स फैकल्टी के गेट पर पहुंच गया। 

कार्यक्रम की शुरुआत में नंदिता नारायण जी ने कार्यक्रम का परिचय दिया और संगवारी को अपने गीत पेश करते हुए कार्यक्रम की शुरुआत करने को कहा। संगवारी ने अपने तौर पर कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए, वी सी के जाने को सभी के लिए अच्छा बताते हुए हबीब जालिब की गज़ल ”मै नहीं मानता, मै नहीं जानता” पेश की। इसके बाद देश में नफरत और भय के, असहिष्णुता के और असहमति के दमन के खिलाफ, अपनी बात रखते हुए केरल हाउस पर बीफ ढूंढने के लिए पुलिस की रेड के बारे में बात रखते हुए कहा कि, ”मोदी अब पुलिस वालों को मेटल डिटेक्टर की जगह बीफ डिटेक्टर देने वाले हैं, इसलिए अपने-अपने टिफिन बचा कर रखें।” इसके बाद हमने गाना गाया, ”ये क्यों हो रहा है, जो ना होना था, हमारे दौर में....”

इस गाने के खत्म होते ही नंदिता जी जो पास ही बैठी थीं, फौरन उठीं और हमसे कहा कि आप एजेंडा पर ही रहें, इससे अलग ना हों। हमें लगा कि वे शायद ये कह रही हैं कि अब हम दो गीतों के बाद वक्ताओं को समय दें। क्योंकि ये तो हम सोच ही नहीं सकते थे कि हमें इन गीतों को गाने से मना किया जाएगा। खैर हम पूरी टीम अपनी जगह आकर बैठने लगे। तभी एक महिला और दो पुरुष मेरे करीब आकर चिल्लाने लगे कि, ”तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ये सब बोलने की.....” मेरा जवाब था, ”कि मैने कुछ गलत तो नहीं कहा, जो भी कहा सच कहा” उनका कहना था कि, ैसच हो कि नहीं, ये हम नहीं बोलने देंगे।” और मैं लगातार यही कहता रहा कि जो सच है वो तो मैं कहूंगा और उसे कहने से मुझे कोई नहीं रोक सकता। दूसरे मैने कहा कि मैं एक सांस्कृतिक टीम लेकर आया हूं, इसलिए हम तो वही गाने गाएंगे जो हम गाते हैं, वही बात करेंगे जो हम करते हैं। 

इस बहस को अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि आभा जी भी वहां आ गई, उन्होने मुझे कहा कि अगर यहां ये मुद्दा बन गया, तो वो असल मुद्दे जिनके लिए इस कार्यक्रम को आयोजन किया गया है, वो रह जाएंगे और इन लोगों का मकसद भी यही है। उनकी बात समझते हुए, और दूसरे उन्होने ही संगवारी को आमंत्रित किया था। मैने अंतिम तौर पर अपनी बात रखी कि मैंने जो कहा वो सच था, और सच मैं कहूंगा ही, लेकिन अब मैं आपसे ”जो लड़ने पर आमादा थे” कोई बात नहीं करूंगा क्योंकि बात तो आप करना चाहते ही नहीं हैं। 

तभी वहां नंदिता जी भी आ गईं, और उन्होनेे भी यही कहा कि डूटा के इस आयोजन में भाजपा के लोग भी हैं, इसलिए हम नाम नहीं ले सकते थे। लड़ाई को आमादा चिल्लाने वाले एक आदमी से उन्होने ये भी कहा कि इसीलिए हमें रोक दिया गया है, इसलिए इस तरह तमाशा ना करें, आयोजन को मुद्दे पर रहने दें। लेकिन नंदिता जी की इस बात को उस आदमी पर कोई असर नहीं पड़ा, और वो एक चबूतरे पर चढ़ कर मेरे खिलाफ धमकियां जारी करता रहा। मैने अपनी टीम की ओर देखा, और उन्हे शांति से बैठकर आयोजन में शामिल रहने को कहा। मेरी टीम बैठ गई थी। इधर पीछे की तरफ वो आदमी रह-रह कर मेरे लिए धमकियां जारी कर रहा था। मैं शांति से बैठा हुआ था, और मेरी टीम मुझे देख रही थी। मैं वहां जिन लोगों के आमंत्रण पर गया था, उन्होने मुझसे इस विवाद को खत्म करने की गुजारिश की थी, इसलिए मैने इसके बाद बात तक नहीं की, और चुपचाप धमकियां और गालियां सुनता रहा। 

नंदिता जी ने माइक से कहा कि, "ये हाल है आपका कि आप असहमति के दो लफ्ज़ नहीं सुन सकते। और हम यहां ये आयोजन ही इस अधिकार के लिए कर रहे हैं कि हमें कम से कम बोलने की आज़ादी तो दी जाए।" 

खैर वो आदमी लगातार कुछ ना कुछ बकता रहा। और हम कुछ देर बाद वहां से चले आए। कार्यक्रम में हम शिरकत कर ही चुके थे, और वहां बैठने का कोई और मकसद नहीं था। 

इस पूरे प्रकरण से जो दो चीजें साफ होती हैं। पहली तो ये कि असहिष्णुता और डर का जो माहौल बनाया जा रहा है, वो इस कदर है कि शिक्षण संस्थानों तक में किसी को कुछ भी बोलने की आज़ादी नहीं है। ये असहमति के गला घोंटने की राजनीति है जो आपको खड़े तक होने का, मुंह तक खोलने का मौका नहीं देना चाहती। दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर इस तरह के लंपट और बदमाश, लोग चिल्ला-चिल्ला कर धमकियां जारी कर रहे हैं, और पुलिस वहां खड़ी हुई देख रही है। सब मुंह बाए देख रहे हैं। उस बदमाश को, गुंडे को चुप कराने की कोशिश कर रहे हैं। 

हालांकि नंदिता जी ने उसे चुप रहने को कहा, लेकिन मेरा कहना है कि ऐसे कार्यक्रम में जहां आप एक तानाशाह वीसी के जाने की खुशी जताते हुए अपने अधिकारों की लड़ाई को तेज़ करने बात कर रहे हैं, क्या देश के तानाशाह, देश में फासीवाद, देश में भय और नफरत के माहौल के खिलाफ बोलने वाले को सिर्फ इसलिए मना कर देंगे कि कहीं उसी फासीवादी पार्टी के लोग कार्यक्रम छोड़ कर ना चले जाएं। 

दूसरे ये कि इस देश का माहौल इस कदर हो गया है, कि अब आपको मुहं खोलने के लिए भी जान जोखिम में डालना होगी। इस कदर वहशत है, इस कदर डर है, कि कोई कहीं गाना गाएगा, नाटक करेगा, लिखेगा, बोलेगा तो उसे मारने की धमकी दी जाएगी और मार डाला जाएगा। इसलिए अगर इंसान की तरह जीने की शर्त ये है कि संघर्ष किया जाए, या मर जाया जाए, तो हम जीने के लिए, संघर्ष के लिए  तैयार हैं।  

वापस आते हुए, मैने अपनी टीम से पूछा कि आज की इस घटना से उन्होने क्या सीखा। टीम की एक सदस्य ने कहा, ”वो लोग कितना डरे हुए हैं, कि आपके सच बताने तक पर ऐसे भड़क रहे हैं। ये उनके डर को दिखाता है, ये बताता है कि वो लोग जनता से इतना डरे हुए हैं कि वो बात करने से कांप जाते हैं।” संगवारी हर संघर्ष में जनता के साथ है, जनता के साथ रहेगा, और हर तरह के फासीवादी खतरे, फिरकापरस्ती, शोषण और अत्याचार के खिलाफ लगातार काम करता रहेगा। गीत गाता रहेगा, नाटक करता रहेगा। 
इंकलाब जिंदाबाद

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

पोशम्पा भई पोशम्पा.....दिल्ली में कल क्या हुआ...



अरे तुम्हे पता है कल क्या हुआ.....हां हां...वो छात्र लोग यू जी सी को घेर-घार कर बैठे हैं, वो तो है ही.....कल ये भी हुआ कि केरल हाउस की कैंटीन में पुलिस पहुंच गई कि उनका खाना चैक करना है, क्योंकि हिन्दु सेना वाले किसी सज्जन ने पुलिस को फोन किया था कि वहां बीफ परोसा जा रहा है। अखबार में छपा है कि हालांकि वहां बीफ यानी गौमांस नहीं परोसा जा रहा था, बल्कि अप्रतिबंधित भैंस का मांस परोसा जा रहा था, लेकिन वहां के प्रबंधक ने कहा है कि अब वहां भैंस का मांस भी नहीं परोसा जाएगा......मुसीबत कौन मोल ले.....




समझे मिस्टर.....यानी बकरे की मां, कब तक खैर मनाएंगी.....तुम चिकन भी बनाओगे तो हिन्दु सेना वाले पुलिस भेज देंगे, पालक का साग बनाओगे तो भी पुलिस पतीला उठाकर ले जाएगी.....किसी हिंदु सेना वाले ने फोन किया है कि इसमें बीफ है। अब बना हुआ मांस तो उठ कर गवाही देगा नहीं कि वो बीफ है कि नहीं है, और तुम्हारी औकात क्या, कि तुम्हारी बात मानी जाएगी, हिंदु सेना वालों की बात मानी जाएगी, क्योंकि वो शुद्ध शाकाहारी, ब्रहम्चारी किस्म के लोग हैं और पुलिस को उनकी बात पर पूरा-पूरा भरोसा है, इसलिए इधर उन्होने शिकायत की और उधर पुलिस पहुंची। प्रधानमंत्री की निगरानी में, अमित शाह की गाइडेंस में, आदित्यनाथ जैसे संतों की अगुआई में एक नई किस्म की पुलिस का गठन होगा जो बीफ की शिकायत पर किसी के भी घर, रेफ्रीजरेटर, आदि की जांच के लिए सदैव, सतत् तैयार रहेगी। 

घर दालों से खाली हैं, सब्जियां वैसे ही नहीं मिलती, अब अगर कुछ घास-फूस मान लो तुमने सब्जी के नाम पर बना लिया तो पुलिस आ जाएगी जांच के लिए। पचास-पचास कोस दूर, जब रात को चूल्हे पर हांडी चढ़ती है तो, पड़ोसी चिल्लाते हैं, बंद करो ये आग, अगर हिंदु सेना को पता चल गया कि तुमने हांडी चढ़ाई है तो पुलिस आ जाएगी। गाय का मांस राष्ट्रीय प्रश्न बन चुका है। लाखों किसान मर गए, लड़कियों का बलात्कार होता ही रहता है, दिल्ली में लड़कियां पुलिस में शिकायत करती है कि गुण्डे हमें छेड़ रहे हैं, ;ये भी ये सेना और दल वाले ही होते हैं, दोनो जगह रहते हैंद्ध तो पुलिस के कानों पर जूं नहीं रेंगती, गुण्डे लड़की के चेहरे पर तेजाब डाल कर चले जाते हैं, लड़की को कार में खींच लेते हैं और घंटो बलात्कार करके किसी सड़क के कोने पर मरने के लिए छोड़ देते हैं लेकिन पुलिस को कोई फर्क नहीं पड़ता, और मान लीजिए किसी ने शिकायत कर भी दी तो पहले तो पुलिस पहुंचती नहीं है, पहुंचे तो पहले इसी बात पर गाली-गलौज होता है कि मामला किस थाने का बनता है, फिर कहीं जाकर बात होती है एफ आई आर की, और जांच-वांच की तो बात ही भूल जाओ आप। लेकिन जब हिंदु सेना को कर्मठ कार्यकर्ता बीफ की शिकायत पुलिस को फोन पर बताता है तो पुलिस दौड़ कर जाती है, ताकि बीफ को गिरफ्तार किया जा सके। इतनी कर्मठता आपको दो ही जगह मिलेगी, जब ये लोग गाड़ियों से रिश्वत बटोरने के लिए हाईवे पर ट्रक्स को जान पर खेलकर रोकते हैं। या फिर जब अल्पसंख्यकों के खिलाफ कोई सेना, दल, बल, आदि शिकायत करते हैं। 

मेरी मां ने कल सरसों का साग बनाया था, मुझे बहुत पसंद है, कटोरी में ढंक कर उपर ले गया, पड़ोसी ने आवाज़ लगाई, ”क्या ले जा रहे हो कपिल भाई, छुपा कर....” दिल धक्क से रह गया.....ये क्या सोच रहा है, कहीं पुलिस को फोन ना कर दे कि मैं बीफ खा रहा हूं, कहीं अगर पुलिस आ गई और इस साग की कटोरी को फोरेंसिक टेस्ट करने के लिए ले गई तो......? मैने घर में घुसते ही, बिना कपड़े उतारे, बिना हाथ मुंह धोए, बिना थोड़ी देर बैठे, पहले, सबसे पहले दो रोटियां निकालीं और साग खत्म कर दिया। अब कोई किसी को भी कह दे, मैने तो खा लिया। कम से कम ये तो रहा कि साग का टेस्ट नहीं किया जा सकेगा। हो सकता है कि शिकायत हो और पुलिस आ जाए, तो अब तो कल स्टूल का सैम्पल ही फोरेंसिक लैब में भेज कर पता किया जा सकेगा कि मैने बीफ खाया या नहीं।

अब मामला जो है उसकी गंभीरता आप नहीं समझ रहे हैं, इसलिए ये आर्टिकल पढ़ते हुए भी मुस्कुरा रहे हैं। बंधु-भगिनियों, ज़रा इस बात की गंभीरता को समझिए, आपके हाथ में निवाला है और पुलिस की ठक-ठक होती है, 
”निवाला नीचे रख” एक कड़क आवाज़ में आपको आदेश मिलता है, आप डरते सहमते कांपते हाथों से निवाला नीचे रख देते हैं। 
”तेरे खिलाफ फोन पर शिकायत आई है कि तू......बीफ खा रहा है” 
तुम शॉक्ड, तुमने तो शक्ल नहीं देखी बीफ की, खाना तो दूर की बात.....”न....नहीं सर....कोई गलतफहमी हो गई है आपको.....” 
”चोप्प.....साले वो सेना वाले क्या झूठ बोलेंगे.....वो राष्ट्रवादी, देशभक्त, गौ भक्त, हिंदू धर्म के रक्षक.....  झूठ बोलेंगे...... ये खाना पैक कर लो.....इसे फोरेंसिक जांच के लिए भेजा जाएगा....” 
”पर सर मैं खाउंगा क्या....” 
”ये देखो.....यहां गौ माता की रक्षा की बात हो रही है, राष्ट्र के बड़े संकट को टालने की, समस्या से जूझने की बात हो रही है, और तुझे अपने खाने की चिंता हो रही है....इसीलिए हमारा देश आगे नहीं बढ़ता है। तेरी किचन तब तक सील रहेगी, जब तक फोरेंसिक जांच से नतीजे सामने नहीं आते.....” 
”तो तब तक मैं.....क्या खाउंगा” 
”भूख रह....क्या तू देश के लिए, अपने राष्ट्र के लिए हफ्ता दस दिन भूख तक नहीं रह सकता....देशद्रोही तुझे तो ठौर मार देना चाहिए.....पर अभी रुक, रिपोर्ट आने दे....तब तक तू भूख से ही मर जाएगा....या....कोई और इंतजाम करेंगे.....”
कुल मिलाकर अब आप घीया खाओ, या तुरई, बैंगन खाओ या आलू.....;दाल तो वैसे हीं नहीं खा सकते.....द्ध यानी कुछ भी खाओ, उसे जांच के लिए जब मर्जी ले जाया जा सकता है। 
बाकी दिल्ली में यू जी सी पर छात्र लोगों का धरना भी चल रहा है, जिसके चारों ओर पुलिस देखी जा सकती है। जाहिर है ये पुलिस कुछ लोगों की सुरक्षा के लिए है, क्योंकि शासन को डर रहता है, ये शंातिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पुलिस पकड़ कर बस में डाल देती है, कभी जेल में डाल देती है, कभी डंडे चला देती है। वहीं सेना वाले, बल वाले, दल वाले छात्रनुमा गंुडे जब आते हैं, तो यही पुलिसवाले उनकी हुड़दंगई में मदद करने को तत्पर दिखती है। उन्हे आने-जाने का सुगम रास्ता भी बताती है, और उनके साथ पूरी पटकथा डिस्कस करके काम करती है। पहले ये अभाविप के छात्र नेता आते हैं, उनके साथ कुछ अछात्र/कुछात्र किस्म के छात्र भी होते हैं, जो गालियां देने में, पत्थर चलाने में, दंगे आदि करने में माहिर होते हैं। फिर ये पहले आकर ठी-ठी करके हंसते हैं, फिर पुलिसवालों से राम-राम करते हैं, हाथ-वाथ मिलाते हैं, फिर थोड़ा भारत माता की जय टाइप नारे लगाते हैं, फिर जब मन भर जाता है, या पटकथा के मुताबिक अखबार आदि के लिए फोटो खिंच जाता है तो पुलिसवालों को इशारा कर दिया जाता है, पुलिसवाले इन्हे उठालेते हैं और ये पुलिस स्टेशन चले जाते हैं, जहां पहले से ही इनकी गाड़ियां खड़ी होती हैं, अंदर जाकर ये थोड़ा ठंडा, नाश्ता आदि करते हैं फिर अपने घर, या कॉलेज, जैसा प्रोग्राम हो चले जाते हैं। 
तो कल दिल्ली में ये सब हुआ। अब आपके सामने दो रास्ते हैं। एक तो आप जेल में जाओ, दूसरे आपको पुलिस पकड़ कर जेल ले जाएगी। समझदार नहीं हैं आप, आसान गणित नहीं समझ आ रहा आपको। देखो, अगर तुम यू जी सी जाओगे तो पुलिस तुम्हे पकड़ कर जेल ले जाएगी, और अगर तुम यू जी सी नहीं जाते हो, तो पुलिस किसी की शिकायत को आधार बनाकर तुम्हे गिर-तार कर लेगी और फिर तुम्हारे साथ जा  होगा.....
खैर बात ये हो रही थी कि दिल्ली में कल क्या हुआ.....केरल हाउस में हिंदु सेना आई, लोकतंत्र की हुई पिटाई, छात्रों ने किया, यू जी सी ऑक्यूपाई, अब तुम जो चाहे कर लो भाई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा। हा हा हा हा हा हा हा

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

शर्म तुमको मगर नहीं आती......




भई बहुत ही शानदार समय है। कुछ समय तक तो यूं लगता था कि इस देश में कुछ होगा भी कि नहीं, लेकिन अब पिछले कुछ समय से, इतना कुछ चल रहा है? जैसा कि नेतृत्व ने यकीन दिलाया था। बहुत कुछ है देखने-सुनने-समझने के लिए, अभी दादरी के अख्लाक की मौत की खबर ठंडी भी नहीं हुई थी कि पता चला कि रामलीला देखते हुए एक बच्ची को उठा ले गए और उसके साथ बलात्कार कर दिया, फिर एक और बच्ची के साथ ऐसा हुआ, फिर तीसरी बच्ची के साथ भी यही करने की कोशिश की गई। दूसरी तरफ फरीदाबाद में दो बच्चों को जिंदा जला दिया गया। देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां से हत्या, बलात्कार, दंगा, की खबर ना आ रही हो। लोगों को इसलिए मारा जा रहा है, क्योंकि उनके लिखने से, खाने से, पीने से, जीने से ऐतराज है। गजब समय है जहां मुल्क और कौम के रहबर ये कह रहे हैं कि, ”ये हत्याएं, बलात्कार स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं” यानी कुल मिलाकर हत्यारों को, बलात्कारियों को इन रहबरों का वरदहस्त मिला हुआ है। 
जाने कौन है जिसे विकास चाहिए, जिसके लिए इतना सब कुछ कुर्बान कर देना पड़ रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि किसी भी तरह के विकास के लिए ये कीमत बहुत बड़ी है। क्या आपको समाज के आपसी विश्वास, प्यार और सद्भाव की कीमत पर बुलेट ट्रेन चाहिए। कुछ समय पहले मेरा मतलब है तब जबकि सारे देश में चुनाव की लहर दौड़ रही थी, मैने तब भी एक जगह लिखा था कि लाशों के अंबार पर शानदार सड़कें, चमचमाते शहर, और दुनिया भर का विकास नहीं चाहिए, अब तो मैं ये कहना चाहता हूं कि किसी भी तरह से अगर वो दोनो बच्चें वापस आ जाएं, इन बच्चियों के बलात्कार रुक जाएं, तो ये जो दो चार दिन की सांसे भी हैं वो भी ले लो यारों, कम से कम देश के इस तथाकथित विकास के लिए बच्चों की बलि मत दो। 
इन खबरों को पढ़कर भी तुम्हारा दिल ”मेक इन इंडिया” ”स्वच्छ भारत” जैसे नारों से बहलता है, अब भी तुम ये सवाल नहीं करना चाहते कि आखिर ये देश कहां जा रहा है, किस दिशा में बढ़ रहा है। कलबुर्गी, पन्सारे, और दाभोलकर को इसलिए मार दिया गया कि उन्होने जो लिखा वो तुम्हे रास नहीं आया, अख्लाक को इसलिए मार दिया क्योंकि उसने जो खाया वो तुम्हे रास नहीं आया, इन बच्चों को इसलिए जला दिया कि आखिर ये जो चाहते थे वो भी तुम्हे रास नहीं आ रहा था। मेरे एक दोस्त ने याद दिलाया कि ये असल में पिछले साल हुए एक झगड़े का बदला था जिसमें दलितों के एक लड़कों को नाली से गेंद निकालने के लिए कहा गया था, दलित को नाली से गेंद निकालने का आदेश देने की हिम्मत जिस संस्कृति से मिलती है, थू है ऐसी संस्कृति पर। और तुम यही संस्कृति पूरे देश में फैलाने की बातें कर रहे हों। हलक से निवाला नहीं उतरता, और लोग पूरे दिन सोशल मीडिया पर उन बच्चों के फोटो चस्पा कर रहे हैं। 
तुम्हे शर्म नहीं आती कि अब भी तुम उन्ही कामों का बचाव कर रहे हो, जिनकी वजह से इन बच्चों की जान गई है। क्या तुम्हारे कानों में वो चीखें नहीं गूंज रही, क्या तुम्हे इस मॉल के शांत वातावरण में उन बच्चों का आर्तनाद नहीं सुन रहा, क्या यहां ईको टॅूरिज्म करते हुए अचानक तुम्हारी नाक में जलते मांस की गंध नहीं समा जा रही। क्या अब भी तुम्हे समझ नहीं आ रहा कि आखिर क्यों जरूरी है कि विरोध के सभी स्वरों को एकसाथ मिलाया जाए, क्या अब भी तुम्हे लेखकों, साहित्याकारों, नाटकारों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों के इस सत्ता के और इन हत्यारों के खिलाफ खड़े होने का मतलब समझ नहीं आता। 
कौन है जिसने ये माहौल बनाया है, कौन है जो इस माहौल को पाल-पोस रहा है। कौन है जिसे इस माहौल से फायदा होता है, क्यों है ये माहौल ऐसा कि जिसके बारे सोचते ही आपकी नस-नस में नपसंदगी और वहशत छा जाती है। वो कौन है जो लोगो के गोश्त-पोस्त से अपने लिए बेहतरी के रास्ते तलाश सकता है। 
अब इसके अलावा अमनपसंद लोगों के पास, अपने अधिकारों के प्रति जागरुक लोगों के पास, आत्म सम्मान के साथ जीने वाले लोगों के पास, आज़ादी पसंद लोगों के पास क्या चारा बचा रह जाता है कि वो एक साथ इस माहौल के विरोध में, इस असहिष्णुता के विरोध में, इस अंधे हत्यारे युग की शुरुआत के विरोध में, इस बलात्कारी समय की कोशिश के खिलाफ, इस जहालत से भरे विकास के झूठे वादों वाले युग के खिलाफ अपनी पूरी ताकत, पूरे चेष्टा से अपना प्रतिरोध दर्ज करवाएं। क्योंकि अगर आज चुप रहे तो कल आप ही के पास इस बात का जवाब नहीं होगा कि जब एक पूरे युग की हत्या हो रही थी, जब अधिकारों का गला घोंटा जा रहा था, जब मानवता के हाथ बांधे जा रहे थे, सद्भावना को चाकुओं से गोदा जा रहा था, और पूरे समाज को दहशत में पिरोया जा रहा था, तब तुम कहां थे। जो लोग इस लड़ाई में जन के पक्ष में हैं वो तो जाहिर है लड़ रहे हैं, कुछ लोग चुप हैं, शायद डरे हुए हैं, उम्मीद है कि वो भी साथ आ ही जाएंगे, आज नही ंतो कल......
असली मामला उन लोगों का है जो इस सबके बावजूद सत्ता की इस वहशियाना कोशिश के समर्थन में हैं और आज भी, इतने सब के बावजूद किसी ना किसी तरह से इसे सही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं का बलात्कार हो रहा है, मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ा जा रहा, सिर्फ शक करके किसी को भी मारा जा रहा है, जिंदा जलाया जा रहा है, तमाम तरह की धमकियां दी जा रही हैं। विरोध के, असहमति के हर स्वर को मारा जा रहा है, मारने की धमकी दी जा रही है, और फिर भी तुम अमीर बनने के, वाई-फाई के, स्मार्ट सिटी के सपने में इन सबको नज़रअंदाज़ कर रहे हो.....कुछ तो शर्म करो....कुछ तो शर्म करो......

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

तुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या है.....


विरोध में 
सुबह-सुबह एक दोस्त का फोन आया तो पता चला कि रवीना टंडन ने कहा है कि ये लेखक-फेखक जो पुरस्कार लौटा रहे हैं, ये उन्होेने तब 26/11 पर क्यों नहीं लौटाया था। मुझे माजरा समझ नहीं आया, तो दोस्त ने ही समझाया कि रवीना टंडन का कहने का मतलब था कि जो लेखक अब देश में फासीवाद की बढ़त और असहिष्णुता के महौल के खिलाफ, इमरजेंसी जैसे हालात के खिलाफ और बोलने-लिखने की आज़ादी के पक्ष में जो अपने पुरस्कार वापस कर रहे हैं, रवीना टंडन उसी संदर्भ में उन्हे याद दिला रही थी कि उन्हे आतंकवादी हमले के समय अपने अवार्ड लौटा देने थे। रवीना टंडन बहुत समझदार हैं उनकी समझदारी का मुकाबला सिर्फ अरुण जेटली की समझदारी से ही लगाया जा सकता है। हालांकि समझदारी के मामले में इस वक्त भाजपा में सभी ढाई किलो से ज्यादा के हैं...”वहां समझदारी किलो के हिसाब से ही होती है”। अब जैसे योगी आदित्यनाथ की समझदारी और बतरा की समझदारी और संबित पात्रा की समझदारी और अमित शाह की समझदारी और....अंततः मोदी की समझदारी। इस समय भाजपा की समझदारी किलो में 1100 ग्राम के हिसाब से मिल रही है, भाजपा में इस वक्त सिर्फ विचार ही विचार हैं, बाकी और कुछ है ही नहीं.....
पर कुछ भी कहिए, आखिर रवीना टंडन ने बात बिल्कुल सही कही है, आखिर इन लेखकों ने तब क्यों नहीं अपने अवार्ड लौटाए जब देश पर आतंकवादी हमला हुआ था, इसका मतलब साफ है......यानी मतलब ये है कि......बात यूं है....चलिए अनुपम खेर की बात करते हैं। उनका कहना है कि लेखकों का ये कदम जो है राजनीति से प्रेरित है, और प्रधानमंत्री को डिस्क्रेडिट करने के लिए उठाया जा रहा है। अनुपम खेर समझदार इंसान हैं, उन्होने बिल्कुल सही कहा, लेखक इसीलिए ऐसा कर रहे हैं, उनका ये कदम राजनीति से प्रेरित है, लेकिन जनाब ये तो इतनी ही साफ बात है, जैसा आपका ये कहना कि लेखकों को ऐसा नहीं करना चाहिए। यानी आप प्रधानमंत्री के समर्थन में बयान दें तो ठीक, हम उनकी आलोचना करें तो गलत, गजब समझदारी है साहब आपकी। लेकिन खुशी इस बात की है कि रवीना टंडन ने भी लेखकों के विरोध में अपना स्वर दिया है। मैं रवीना टंडन से सहमत हूं, हालांकि मैने उनकी कोई फिल्म नहीं देखी, ”भूल-चूक क्षमा होनी चाहिए” लेकिन 26/11 के विरोध में, और लेखकों के इस अवार्ड लौटाने के विरोध में, रवीना टंडन का समर्थन करते हुए मैं उनकी कोई फिल्म खरीद कर लौटाने के लिए तैयार हूं.....इसमें आप मेरी मदद कीजिए और मुझे उनकी किसी फिल्म का नाम बता दीजिए। मैं आपका शुक्रगुज़ार रहूंगा। 
तवलीन सिंह से लेकर रवीना टंडन तक का सफर बहुत ही दिलचस्प है। तवलीन सिंह अखबार में एक कॉलम लिखती हैं, कुल मिलाकर हफ्तावारी कॉलम जिसे लोग संडे की शाम तक भूल जाते हैं, उसमें वे लिखती हैं कि जो लो अवार्ड लौटा रहे हैं, वो पहले ही भूला दिए गए हैं और इसलिए अवार्ड लौटा रहे हैं ताकि फिर से लाइम-लाइट में आ सकें। तवलीन जी बहुत ही तल्लीन किस्म की राइटर हैं, कहीं कुछ भी हो रहा हो, वे किसी ना किसी तरह पी एम के लिए एक दरार पैदा  कर ही देती हैं। बाकी उन्हे कुछ नहीं सूझता, उन्हे लगता है कि दंगे तो कांग्रेस के राज में भी हुए थे, तो फिर मोदी के राज में ही क्यों अवार्ड लौटाया जाए, आगे उन्हे लगता है कि लेखक लोग, या वो लोग जिन्हे मोदी का राज पसंद नहीं है, वो इसलिए कि उन्हे निजी तौर पर मोदी पसंद नहीं है। तवलीन जी का मानना है कि उनके कॉलम को लोग जीवन-भर याद रखते हैं और बाकी जो भी इस देश में लिखा जा रहा है उसे लोग फौरन भूल जाते हैं, इसके पीछे वही आर एस एस वाली सोच है, कि जो मोदी के पक्ष में है सब बेहतर है, जो भी आलोचना है वो देशद्रोह है। तवलीन जी को कभी पढ़िए काफी मजेदार होता है, वो अक्सर अपना लिखा याद दिलाती हैं। वे मोदी राज की हर घटना दुर्घटना के पक्ष में कैसा भी तर्क दे सकती हैं, उनके कॉलम का मकसद किसी भी तरह से मोदी राज के कांडों को सही साबित करना होता है। और इस तरह मोदी की, मोदी राज की आलोचना का उन्हे इसके अलावा कोई कारण लगता ही नहीं है। भारत में पिछले एक साल में साम्प्रदायिक हिंसा और हिंसक वारदातों में खतरनाक रूप हुई वृद्धि उन्हे दिखाई ही नहीं देती, उन्हे दाल, आटा, चावल, सब्जी की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि भी नहीं दिखाई देती, उन्हे प्रधानमंत्री के विभिन्न गुर्गों के महिलाओं के खिलाफ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ, लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ बयान और काम नज़र नहीं आते। 
उन्हे लगता है कि विरोधियों को मोदी से नफरत है और इसलिए वे अवार्ड लौटा रहे हैं, रैलियां निकाल रहे हैं, और लोगांें की हत्याओं का विरोध कर रहे हैं। तवलीन सिंह जी की काबीलियत और उनकी लेखनी की रचनात्मका और वैचारिक क्षमता की सीमा ये है कि वे लेखकों, कलाकारों के विरोध को, आम जनता के विरोध को, ”हुंह, ये लोग तो मोदी से चिढ़ते हैं” तक सीमित कर देती हैं। जैसे हम तवलीन जी ही की तरह, नीतियों पर बात नहीं कर रहे, मोदी की हैंडसमनेस पर बात कर रहे हैं। वे चाहती हैं कि राजा ने आज क्या पहना पर बहस हो, बजाय इसके कि जनता में कितने लोग भूख से मरे। वे चाहती हैं कि लोग देश में लोकतंत्र पर हमले की बजाय मोदी के खाने की बात करें। और जो ऐसा नहीं करता वो उन्हे मोदी विरोधी लगता है। 
अचानक ऐसा हुआ कि कई लेखकों ने पुरस्कार लौटाना शुरु कर दिया, तो लोगों के मन में सवाल आया कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। अब चैनल दिखाए या ना दिखाए, लेकिन जवाब तो बनता है कि आखिर ये लोग जो आज पुरस्कार लौटा रहे हैं, कल तक क्या कर रहे थे जी......पुरस्कार लौटाए क्यों नहीं थे। असल में इसका सीधा सा गणित है। जब लोगों की रोज़ी पर संकट  आता है तो वो अपने नाखूनों से आसमान नोच देते हैं। लेखक, गायक, नाटककार, आदि का काम है अभिव्यक्ति, अब मान लीजिए आपको ये कहा जाए कि आप कुछ अभिव्यक्त नहीं कर सकते, आप वही कहेंगे जो सत्ता आपसे कहे, आप वही लिखेंगे, वही नाटक करेंगे, गाने गाएंगे, नाचेंगे सत्ता आपसे चाहेगी, यानी विरोध नहीं करेंगे, असहमति नही जताएंगे, या किसी भी किस्म से सत्ता प्रतिष्ठान और उनके चेले-चपाटों की आलोचना नहीं करेंगे, बल्कि वो जो भी करें, उसका येन-केन-प्रकारेण समर्थन करेंगे। तो आप क्या करेंगे, जाहिर है आप या तो तवलीन सिंह, अनुपम खेर हो जाएंगे, नामवर सिंह हो जाएंगे या फिर आप ये कहेंगे कि भई देखो मियां, हम वो लिखेंगे जो हम लिखना चाहते हैं, और जिसकी आज़ादी संविधान हमें देता है, और अगर हमें लिखने से रोकोगे, या किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी में रुकावट डालोगे तो ये लो अपना अवार्ड बेटा, अपने गले लटका ल्यो, हमें नहीं चाहिए। और सुन लो भईया, लोकतंत्र और इंसानी अधिकारों की रक्षा के लिए लेखकों, विचारकों ने नोबेल तक लौटा दिया, ये तुम्हारा साहित्य अकादमी क्या है जी.....
रही बात रवीना टंडन की, तो उन्हे पहले तो ये समझान होगा कि साहित्य आकदमी अवार्ड और भारत में होते हैं और एकेडमी अवार्ड फिल्मों के लिए अमरीका देता है। दोनो अलग-अलग चीजें हैं। अनुपम खेर और तवलीन सिंह को ये समझाना होगा कि लिखना, पढ़ना, जीवन जीना सभी कुछ राजनीति है भईया, और तुम जो कर रहे हो उसे चापलूसी की राजनीति कहते हैं, हम जो कर रहे हैं उसे जनता की राजनीति कहते हैं। और भईया आखिरी बात अपने पसंदीदा योगी, जोकर, नेता, और मुख्यमंत्री पद के दावेदार, आदित्यनाथ जी के लिए, सुधर जाओ, जनता गोलबंद हो गई तो बहुत मारेगी बाबू, संतई और गुंडई दोनो ऐसी निकलेगी कि हथेली लगाने से भी नहीं रुकेगी। बाकी तो तो है वो हइए है।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

बीफ का टेस्ट या डेमोक्रेसी का....?





जितने भी प्रगतिशीलों ने दादरी में हुई अख्लाक की हत्या का विरोध किया, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या उनका ये विरोध उचित था? क्या उन्हे वाकई बहुत बुरा लगा कि अख्लाक की हत्या की गई। आखिर उसने बीफ खाया था, या कम से कम लोगों को लगा कि उसने बीफ खाया था। ये आस्था का मामला है, और आस्था प्रमाण नहीं मांगती। अगर लोगों की आस्था को ठेस लगेगी तो वो कुछ ना कुछ तो करेंगे ही। और आस्था को ठेस इस बात से नहीं लगती कि किसी ने वास्तव में बीफ खाया है या नहीं, आस्था को इस बात से ठेस लगती है कि उनके मन को ये लगे कि कोई बीफ खा सकता है या नहीं। यानी मान लीजिए, आपने आज तक खाना तो दूर बीफ देखा भी ना हो, लेकिन आपको ऐतराज ना हो बीफ खाने से, तो आपकी हत्या की जा सकती है। क्योंकि सवाल ये है ही नहीं, कि आपने बीफ खाया है या नहीं, सवाल ये है कि आप बीफ खा सकते हैं या नहीं। 
हमें तो अब समझ में आ रहा है कि आखिर ये हर घर में टॉयलेट बनवाने की प्रधानमंत्री की योजना का असल मतबल क्या था। अब अख्लाक के जैसे किसी के घर में घुस कर उसके रेफ्रिजरेटर में से खाने का सामान निकाल कर जांचने की जरूरत है ही नहीं.....आपने सुबह टॉयलेट में जो भी किया, वो सीधा जांच के लिए जाएगा, और जांच के बाद जिस किसी ने भी बीफ खाया होगा, उसके घर आस्थावान लोगों का झंुड पहुंच जाएगा। और फिर आपका क्या होगा, ये सोच लीजिए।
चिंता मत कीजिए, ये लोग बहुत सभ्य होते हैं, सिर्फ जान से मारते हैं, बलात्कार वगैरह नहीं करते। हां ये अनुशासन तो मानना पड़ेगा भाई साहब.....बलात्कार वाली टाइम बलात्कार ही करते हैं ये लोग, मारने के टाइम मारते हैं, गालियां देने के टाइम गाली ही देते हैं। अब जैसे किसी को उसके बच्चों समेत जिंदा जलाना हो, तो बहुत ही फोकस होकर बस यही काम करते हैं, जैसे ग्राहम स्टेंस के साथ किया था। या मान लीजिए इनकी आस्था को आपने ठेस पहुंचा दी, और आपकी हत्या का इन्होने फैसला ले लिया, तो बस ये आपके घर जाएंगे और सीधा गोली.....काम में बहुत अनुशासन है, ये तो मानना पड़ेगा। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि जैसे बलात्कार करना हो, या लड़कियों के कपड़े-वपड़े फाड़ने हों, उन्हे नंगा करके घुमाना हो, तो मार-पिटाई भी हो जाती है। लेकिन ये कभी-कभी ही होता है, ज्यादातर अनुशासन में ही रहते हैं, आस्थावान लोग।
कभी परसाई ने कहा था कि बाकी देशों में गाय दूध के, मांस के काम आती होगी, हमारे यहां तो गाय दंगे कराने के काम आती है। अभी तो हाल ये है कि गाय सिर्फ दंगे कराने के काम ही नहीं आती, इससे काफी सारे काम हो सकते हैं। अब ये अखलाक वाला मामला ही ले लीजिए, एक तरफ ये साफ हो गया कि आपके खाने की चीजों की जांच हो सकती है। यानी आपका घर हो, या रेफ्रिजरेटर कोई भी कभी भी आकर कोई भी सामान जब्त कर सकता है, और अगर पब्लिक को शक हो, यानी ”खास” पब्लिक को शक हो तो वो बिना कुछ सोचे-समझे आपको जान से भी मार सकती है। 
अच्छा मान लीजिए कि अखलाक ने बीफ ही खाया हो, मान लीजिए कि उसके परिवार ने अपने घर के रेफ्रिजरेटर में बीफ ही रखा हो। और आपकी उस मीट की फोरेंसिक जांच से ये साबित भी हो जाए कि वो गाय का ही मांस था, तो? माने तो क्या होगा? क्या आप अखलाक के हत्यारों को छोड़ देंगे, क्या उन पर हत्या का मामला नहीं  बनेगा। जिन लोगों को समझ में आता है, वो ये समझ लें कि दादरी में अखलाक को पीट-पीट कर नहीं मारा गया है, बल्कि वहां लोकतंत्र को पीट-पीट कर उसकी हत्या की गई है। आपके संविधान प्रदत्त अधिकार आई सी यू में पड़े हुए अंतिम सांसे गिन रहे हैं। 
अभी कल या परसों की सुना या पढ़ा था कि कोई मिनिस्टर कह रहा था कि दादरी में जो हुआ वो गलत था लेकिन प्रधानमंत्री क्यों बयान दे, क्योंकि ये संेटर का मामला नहीं है। तो आखिर सेंटर का मामला क्या है। आपके देश के किसी हिस्से में, चाहे वो कितना ही छोटा हिस्सा क्यों ना हो, जनता किसी एक धर्म की आस्था के सवाल पर किसी के भी घर में घुस का उसे पीट-पीट कर मार दे, ये आतंकवाद नही ंतो क्या है, ये फासीवाद नही ंतो क्या है, ये लोकतंत्र की सरेआम हत्या नही ंतो क्या है। क्या देश में लोकतंत्र रहे या भाड़ में जाए ये प्रधानमंत्री की चिंता नहीं होनी चाहिए?
और सबसे बड़ी बात तो ये कि आखिर ये लेखकों बु़ि़द्वजीवियों को क्या हो गया, आखिर ये लोग अपने-अपने पुरस्कार क्यों लौटा रहे हैं। ये अकादमी पुरस्कार लौटाना, पद्म-भूषण लौटा देना, आखिर चक्कर क्या है जी। अगर इतना ही शौक है तो ये लो लिखना ही क्यों नहीं छोड़ देते। जो समझदार लेखक हैं, जैसे चेतन आनंद हुए, बतरा साहब हुए, मधोक जी हुए या सदाबहार मस्तराम, इन लोगों ने तो कोई पुरस्कार वापस नहीं किया। यूं हो सकता है कि इन्हे कोई पुरस्कार ना मिला हो, लेकिन आगे मिलेगा, अब लिखने वाले यही लोग रह जाएंगे तो सरकार को पुरस्कार तो देना ही ठहरा। बाकी सरकार को चाहिए कि लिखने के लिए भी जीने जैसी शर्तें लगा दे, जैसे आप रामायण-महाभारत-वेद-पुराण आदि की प्रशंसा में, मोदी की प्रशंसा में, हिंदुत्व की भाजपाई परिभाषा वाली कितबें-कहानियां ही लिख सकते हैं। बाकी कुछ और लिखा तो जेल हो जाएगी, या फिर हो सकता कि आस्थवान लोगों की भीड़ आपको भी.......समझ गए ना। 
वैसे भी ये सरकार बहुत बढ़िया काम कर रही है। इससे पहले वाली सरकार ने तय कर दिया था कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है, इसलिए सबकुछ प्राइवेटाइज़ करने की शुरुआत कर दी, बिजली, पानी, शिक्षा, परिवहन, चिकित्सा.....गरज ये कि हर चीज़ को व्यापार मान कर प्राइवेट हाथों में सौंप दिया गया। अब खेती से लेकर विज्ञान तक हर चीज़ या तो अंबानी, अडानी, टाटा के हाथ में है, या फिर उन्ही की कोई सब्सीडरी कम्पनी के हाथ में है। तो सरकार को कोई काम तो बचा नहीं, सिवाय इसके कि वो इन कम्पनियों के काम को और आसान करने में उनकी मदद करे। तो आखिर ये सरकार क्या करे, क्योंकि सरकार है तो उसे कुछ ना कुछ तो करना ही होगा। तो इस सरकार ने अपना काम मान लिया कि ये जनता को बताएगी कि उसे किस तरह रहना है, क्या सोचना है, क्या पहनना है, क्या खाना है और आखिरकार ये कि उसे जिंदा रहना भी है या नहीं। 
तो एक मंत्री ने जिम्मेदारी ली कि वो बताएंगे कि महिलाओं को कैसे कपड़े पहनने चाहिएं, कब और कितनी देर तक घर के बाहर रहना चाहिए, उन्हे किससे प्रेम करना चाहिए और किससे नहीं, वो कितने बच्चे, कब पैदा करें। फिर लोग क्या सोचें, और क्या नहीं सोचना है। क्या खाएं और क्या नहीं.....कुल मिलाकर अब सरकार देश नहीं चलाएगी, बल्कि लोगों की जिंदगी तय करेगी। 
और इस काम को अंजाम देंगे हमारे राजा साहब। हमारे राजा साहब, प्रजा को बिल्कुल अपने बच्चों की तरह मानते हैं। ये सूडो-डेमोक्रेटिक, सूडो-सेक्यूलर, सूडो-इंटलैक्चुअल, क्या जाने कि राज-काज कैसे चलाया जाता है। राजकाज चलाया जाता था प्राचीन भारत में, जब भारत सोने की चिड़िया था, जब वायुयान, और अनाश्व-रथ होते थे, मन की गति से लोग अंतरिक्ष की अनंत सीमाओं तक चले जाते थे, और जब भारत पूरे विश्व का ही नहीं, पूरे ब्रहमांड का गुरु था। तो निश्चिंत बैठिए, दादरी में लोकतंत्र का छोटा सा टेस्ट हुआ है, इस तरह के छोटे-छोटे टेस्ट यानी परीक्षण पूरे देश में चल रहे हैं, और काफी फेवरेबल रिजल्ट भी आ रहे हैं। कुछ नालायकों को छोड़कर इन परीक्षणों को कोई ज्यादा विरोध नहीं हो रहा है। तो जल्दी ही लोकतंत्र को खारिज करके फिर से वही महान परपंरा वाला राजतंत्र फिर से इस देश में स्थापित होगा और फिर वही होगा जो अब हो रहा है.......तो तैयार हो जाइए........मरने के लिए.....या मारे जाने के लिए। 

सोमवार, 24 अगस्त 2015

आलोचकों की आलोचना में


मुझे अपनो ने लूटा गैरों में कहां दम था
मेरी कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था.....

ये आलोचनाओं का दौर है, मेरे दोस्त! कोई नहीं जानना चाहता कि पिछले एक साल में हमने कितनी तरक्की की है, कोई नहीं जानना चाहता कि भारत पिछले एक साल में कितना आगे, मेरा मतलब विकास की राह पर, आगे आ गया है। पूरी दुनिया भारत के आगे बिछी जा रही है। दुनिया के चारों कोनो में भारत का नाम गूंज गया है, ये कोई नहीं जानना चाहता। हमारे अपने ही देश में ऐसे लोग हैं, जो भारत के विकास से जलते हैं, जो भारत को आगे बढ़ता हुआ नहीं देखना चाहते। ये हमारे ही लोग हैं जो दुश्मन बने हुए हैं। आज जब पूरे राष्ट्र को एकजुट होकर प्रधानमंत्री का साथ देने की जरूरत है तो ऐसे समय में, इस संक्रमणकाल में ये लोग आलोचनाएं कर रहे हैं। 

वो यूं ही मर जाते हैं तो हो जाते हैं मशहूर
हम कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।
पिछले सत्तर सालों में देश का कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं था जिसने राजसी शान से भारत का गणतंत्र दिवस मनाया हो, जिसमें कई-कई देशों के, खासतौर पर सुपरपावर अमरीका के राष्ट्रपति ने हिस्सेदारी की हो। लेकिन इस बार ऐसा हुआ, ये बात कोई नहीं जानना चाहता। मैडीसन स्क्वायर गार्डन से लेकर, सउदी अरब का सैंट्रल गार्डन जनता से लबालब भर गया, ऐसा दुनिया में कभी नहीं हुआ था, कि एक देश के राष्ट्रपति को सुनने के लिए उस देश का इतना बड़ा गार्डन या स्टेडियम यूं पूरी तरह भर जाए, लेकिन इस बार ऐसा हुआ। लेकिन ये बात कोई नहीं जानना चाहता। इतने बड़े-बडे़ कारनामें देश में इस बीच हो चुके हैं लेकिन ये आलोचक सिर्फ और सिर्फ, गुजरात के दंगे, किसानों की आत्महत्या का राग अलापते रहे।

भला देखो भला होगा, बुरा सोचो बुरा होगा
ना होंगे हम जो महफिल में, ज़रा सोचो तो क्या होगा।
हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यही है कि यहां के लोग चीप हैं, ”सस्ते नहीं,  कमीने” ये लोग इस देश के स्वर्णिम इतिहास को नहीं जानते, ये लोग इस देश के स्वर्णिम वर्तमान को नहीं जानना चाहते, और यही चीप लोग, इस देश को स्वर्णिम भविष्य नहीं देना चाहते। अगर यही प्रधानमंत्री किसी और देश का होता तो अब तक तो उस देश के लोग पता नहीं क्या-क्या और क्या कर चुके होते। इस देश के लोगों से कोई उम्मीद बाकी नहीं बची है। ये लोग सिर्फ आलोचना के कुछ नहीं कर सकते। इन्हे हर चीज़ में बुराई दिखाई देती है। पिछले सत्तर सालों से इस देश में हर चीज़ बुरी हुई, और इस देश के लोगों ने कुछ नहीं कहा, तो अब इन्हे बुरा कहने का क्या अधिकार है। ज़रा सोचो कि अगर ये प्रधानमंत्री नहीं आए होते, तो यही लोग जो इनकी आलोचना कर रहे हैं, ये कहां होते। ये वो लोग हैं, जिन्हे चारों तरफ बुरा दिखता है क्योंकि ये अच्छा देखना ही नहीं चाहते, अब ऐसे लोगों का किया ही क्या जा सकता है। हालांकि कुछ का तो किया ही जा रहा है, लेकिन सबका वो नहीं किया जा सकता जो कुछ का किया जा रहा है, इसलिए.......

हमें तू कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले
तुझे हमसे ये पूछना पड़े कि आखिर हमारी रज़ा क्या है।
ये ठीक है कि हमारे प्रधानमंत्री अभी काला धन वापिस नहीं ला पाए हैं, चीजों के दाम बढ़ रहे हैं, किसानों की आत्महत्या में भी बढ़ोतरी हुई है, देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्र हड़तालें कर रहे हैं, बलात्कार, छेड़खानी के मामलों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, देश में दंगों की तादाद बढ़ी है, और दंगे में मरने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है, पकिस्तान को अभी तक हम सबक नहीं सिखा पाए हैं, पाकिस्तान के मामले में हमारी विदेश नीति भी बहुत खराब रही है। ये भी सही है कि पैट्रोल के दाम, अंर्तराष्ट्रीय बाज़ार में कम होने के बावजूद भारत में पैट्रोल महंगा है, ये भी सही है कि अभी रुपया डॉलर के मुकाबले मजबूत नहीं हुआ है, बल्कि और कमजोर होता जा रहा है। लगातार मंत्री, केन्द्रीय मंत्री, मुख्य मंत्री, प्रधान मंत्री, और बाकी मंत्री, घोटालों में लपेटे में आ रहे हैं, उनके खिलाफ सबूतों का पुलंदा बढ़ता जा रहा है, उनके खिलाफ खुलेआम सबूत इकठ्ठा हो रहे हैं। ये सही है कि मिडिल क्लास के अच्छे दिन नहीं आए हैं, लोअर क्लास के बुरे दिन आ गए हैं। ये भी सही है कि देश लगातार बुरे दौर से गुज़र रहा है। लेकिन इसके पीछे एक लंबी कार्ययोजना है, जिसके लिए त्याग और सेवा भावना, त्याग और आस्था, त्याग और राष्ट्रभक्ति, त्याग और धर्म की भावना का होना जरूरी है।

वो पूछते हैं हमसे कि पी एम क्या है, कहां है?
कोई बतलाए कि हम बतलाएं क्या?
सत्तर सालों के बुरे राज के बाद, पहली बार देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिला है जो अतिआत्मविश्वास से लबरेज़ है, जिसके पास इतनी बुद्धि है कि वो किसान से लेकर रॉकेट साइंटिस्ट तक जिस भी सभा में जाता है, उन्हे ज्ञान देकर आता है। ऐसा प्रधानमंत्री जो भूगोल में अव्वल है, इतिहास में अव्वल है, देश की संस्कृति का महान ज्ञाता है, विज्ञान में जिसे महारत हासिल है, जो शिक्षा और शैक्षिक नीतियों को पूरी तरह बदल देने की हिम्मत रखता है, जो किसी भी कानून या संविधान से नहीं डरता है, जो बिना रुके बोलता है, जो मर्जी बोलता है, जैसा मर्जी बोलता है, जो संतों का आदर करता है, और पूरी दुनिया घूमने का मद्दा रखता है। ऐसा प्रधानमंत्री ना भूतो ना भविष्यति वाली श्रेणी में आता है। ऐसे पीएम को मौका देना चाहिए, समय देना चाहिए। 

जन्नी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है
इसके कण-कण में लिखा राम-कृष्ण नाम है
धर्म का ये धाम है सदा इसे प्रणाम है
असल में हम पहले से ही कहते आए हैं कि ये भारतीय लोकतंत्र असल में बेकार की चीज़ है, यहां की पावन भूमि राजतंत्र के लिए बनी है, इसीलिए यहां अंग्रेजों के आने से पहले राजतंत्र हुआ करता था। ध्यान दीजिए इतने देवी-देवता यहां हुए, क्या किसी ने भी जनता के राज की बात की? उन्होने जो भी बात की, वो सब सौ टांक सच की, आज तक उन्हे हम अपने सिर के बालों तक के सिलसिले तक में मानते हैं, लेकिन वे सब राजाओं के घर पैदा हुए, और उन्होने राजाओं की वकालत की, तो यहां लोकतंत्र का क्या काम है। बुरा हो, नवाबतंत्र और सुल्तानतंत्र वाले मुगलों का जिन्होेने यहां के पावन राजाओं के राज को समाप्त कर दिया और फिर राज अंग्रेजों के हाथों में सौंप दिया। खैर, तो हम चाहते तो असल में ये हैं कि ये लोकतंत्र, चुनाव, संविधान आदि बेकार की चीजों वाली व्यवस्था खत्म हो जाए और हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री को भारत का एकछत्र राजा घोषित कर दिया जाए। हालात अपने आप सुधर जाएंगे। अगर नहीं सुधरे तो इस सुझाव में ये जोड़ दिया जाए कि भारत का एकछत्र सम्राट घोषित होने के बाद, प्रधानमंत्री जो तब सम्राट हो चुके हों, खुद को दुनिया का एकछत्र सम्राट घोषित कर दें, और फिर दुनिया की जीत पर निकल जाएं। 

वक्त आने दो बता देंगे तुम्हे आलोचकों
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
लेकिन हम जानते हैं कि अभी हालात अनुकूल नहीं हैं, और इसलिए ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा। असल में पिछले सत्तर सालों में विभिन्न सरकारों ने ”वाजपेयी सरकार को छोड़ दिया जाए” इस देश को बर्बाद ही किया है, और इन हालात को सुधारने के लिए, देश का, राष्ट्र का विकास करने के लिए, पांच साल का वक्फा कम है, इसलिए संविधान में संशोधन किया जाए और वर्तमान प्रधानमंत्री को कम से कम पच्चीस साल तक प्रधानमंत्री रहने का मौका दिया जाए, तो देश के हालात सुधर सकते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इस दिशा में काम शुरु किया जा चुका है। प्रधानमंत्री की योजना का पहला हिस्सा पूर्ण हो चुका है, देश के सभी पत्र-पत्रिकाओं, टी वी चैनलों, यानी हर मीडिया संस्थान को प्रधानमंत्री के मित्रों द्वारा खरीदा जा चुका है, और ये बहुत व्यवस्थित तरीके से किया गया है, इतना व्यवस्थित, कि कोई खबर बिना सेंसर के निकलती ही नहीं है। देश की हर महत्वपूर्ण संस्था में, राष्ट्रवादियों को स्थापित किया जा रहा है, इस वक्त देश को विषय से संबंधित योग्यता नहीं, राष्ट्रवादिता, आस्था और प्रधानमंत्री में विश्वास की जरूरत है, इसलिए सिर्फ इन्हे ही योग्यता का प्रमाण माना जा रहा है। कुछ ही दिनों में सारे देश की सारी संस्थाओं में प्रधानमंत्री के विश्वस्त सेवक होंगे। देश के स्कूलों, कॉलेजों, और विश्वविद्यालयों में राष्ट्रवादी और प्रधानमंत्री में विश्वास करने वाले लोगों को नियुक्त किया जा रहा है, और इसके अलावा, शिक्षा के हर क्षेत्र जैसे किताब, नीति निर्माण वाले हर सरकारी, गैर-सरकारी संस्थान में प्रधानमंत्री के विश्वस्त जनों को नियुक्त किया जा रहा है। इसके बाद अगला चरण न्यायपालिका और प्रशासनिक अंगों में प्रधानमंत्री के विश्वस्त लोगों की नियुक्ति है। कुल मिलाकर जल्द ही पूरे देश में सिर्फ प्रधानमंत्री ही प्रधानमंत्री होंगे, और तब असल में ये देश विकास के उस रास्ते पर चलेगा जिस पर प्रधानमंत्री इसे हांकना चाहते हैं। असल में देश के अच्छे दिन तब आएंगे, क्योंकि तब ना सिर्फ प्रधानमंत्री के किसी कार्य पर विरोध करने वाला कोई नहीं होगा, बल्कि अगर कोई इस बारे में बोलेगा भी तो उसे सबक सिखा दिया जाएगा, जिसकी घोषणा समय-समय पर होती रही है। बल्कि हम तो चाहते हैं कि ऐसा सोचने वालों के खिलाफ भी कार्यवाही हो, लेकिन अभी विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की है कि लोगों की सोच के बारे में बताया जा सके। 

तुम्हे हो ना हो, मुझको तो इतना यकीं है
कुछ ही दिनों में अच्छे दिनों की शुरुआत होनी है।

हमें पूरा यकीन है कि उपरलिखित इन सब बाधाओं के बावजूद प्रधानमंत्री इस देश को दुनिया का सबसे विकसित देश बनाने में सफल होंगे, वो दिन शायद हम ना देख पाएं जब इस दुनिया पर ब्राहम्ण राज करेंगे, दलित, मलेच्छ और बाकी असभ्य लोग अपनी सही जगह पहचान लेंगे और ये देश तरक्की के रास्ते पर चल पड़ेगा। जब विचारों से ही सर्जरी हो जाया करेगी, जब मन की गति से कारें सड़कों पर और आसमान में दौडें़गी, जब किसान, मजदूर सेवा के अपने कर्तव्य को अपना कर्म और भाग्य मानकर, इश्वरेच्छा मानकर करेंगे और उसके बदले में दाम नहीं मांगेगे, जब महिलाएं, घर में रहेंगी, या मंदिरों में नाचेंगी, कुछ को मानवमात्र के मनोरंजन के लिए छोड़ा जा सकता है। संतों पर उंगली उठाने वालों को यही जमीन पर नर्क की आग में झोंक दिया जाएगा, और उन्हे अपनी संतई के लिए हर तरह के कर्मकांड की खुली छूट मिल जाएगी। जब सारी दुनिया में यज्ञ होंगे और इन करोड़ों यज्ञों का धुआं इतना होगा कि सूरज भी ढंक जाएगा। बस सिर्फ इन आलोचकों का कुछ इलाज करना होगा, जो सस्ती प्याज़ के लिए चिल्लाते हैं, जो जी एस टी के खिलाफ नारे लगाते हैं, जो शुद्धिकरण, अर्थात दंगों के खिलाफ काम करते हैं। बाकी तो प्रधानमंत्री सक्षम हैं सब कुछ संभाल लेंगे। 

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना मांग
अभी तो उलझा हूं ज़रा नाज़ुक से इन मसलों में
फिर नाई के पास जाकर तेरी जुल्फों को कटवा दूंगा

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

कांवड़ का महीना और पी एम






हमारे प्रधानमंत्री का दिशाज्ञान बहुत कमजोर है, कांवड़ वाले महीने में बिहार पहंुच गए, या हो सकता है कि वो पटना में गंगा घाट से जल लाकर संसद का जलाभिषेक करने की सोच रहे हों। जो भी हो, सावन के महीने का बड़ा महत्व है जी, और मैं ये मानता भी रहा हूं। ये वो महीना होता था, जब गांव के उपद्रवियों से राहत मिलती थी, सारे के सारे कांवड़ लेने चले जाते थे, गांव के आस-पास चोरी-चकारी की घटनाएं कम हो जाती थीं, लोग-बाग थोड़ा बेफिकरी और आराम के साथ सोते थे। आपको यकीन नही ंतो अब भी क्राइम ब्रांच के आंकड़े उठाकर देख लो, कांवड़ के महीने में महल्ले के अपराध दरों में कमी आ जाती है। सारे उपद्रवी, ”कोई ये ना सोचे कि मैं प्रधानमंत्री को उपद्रवी कह रहा हूं, हालांकि उनका इतिहास यही बताता है” कांवड़ के महीने में गांव के बाहर चले जाते थे। 

पहले-पहले कांवड़ इतना पॉपुलर नहीं था, मेरा मतलब बहुत कम लोग जाते थे कांवड़ लेने। मुझे लगता है कि गांव के बुर्जुगों ने सोचा होगा कि ये लौंडे जो दिन भर गांव में आवारागर्दी करते हैं, चोरी-चकारी लूटमार करते हैं, झगड़े करते हैं, इन्हे क्यों ना कुछ दिन गांव से निकाल दिया जाए, कुछ दिन तो शांति रहेगी। उस जमाने में ट्रैफिक इतना आसान नहीं था, आने-जाने में बहुत वक्त लगता था। तो ये जो गांव के चोर, उचक्के, गुंडे टाइप लोग थे वो चले जाते थे। और जब वो वापस आते थे तो पूरे गांव में ढोल-ताशे बजाकर कर, बाकायदा शोर मचाकर लोगों को सावधान किया जाता था कि भई अब तुम्हारी बेफिकरी के दिन खत्म हो गए हैं, ये गांव के गुंडे वापस आ गए हैं। 
गलती ये है कि गांव के गुंडे बाहर जाकर भी गुंडई ही करते हैं। क्योंकि चोर दिल्ली का हो या बनारस का, काम तो उसका चोरी ही रहेगा। उपर से लोगों की तादाद बढ़ गई, उपर से सफर का डिस्टेंस कम हो गया, कुल मिलाकर हालत ये हो गई कि अब कांवड़िये जो असल में गांव के गंुडे हैं, कांवड़ के नाम पर पूरे कांवड़ के रास्ते में गुंडई करते हैं। शराब पीकर हुड़दंग करना, महिलाओं के साथ बेधड़क छेड़खानी, चोरी-चकारी लूटमार, दंगा ये तो आम बात है, और ये सब करते हुए शिव से संबंधित नारे भी लगाते हैं। इनका असल मकसद शिव या धर्म या गंगा या मंदिर से नहीं होता। इनका असल मकसद होता है अपनी फ्रस्ट्रेशन को निकालने से, उसके लिए ये कारें तोड़ते हैं, आने-जाने वालों पर लाठी बरसाते हैं और जो मिलता है उसे आधा खाते हैं और आधा फैलाते हैं। 

पूरे कांवड़ भर आमजन की हालत खराब रहती है, कब कौन कांवड़िया उस पर हमला कर देगा इस आशंका से, महिलाएं घर से नहीं निकलती, ये कांवड़िए छोटी बच्चियों तक को नहीं छोड़ते, कांवड़ के रास्ते में पुलिस का भारी बंदोबस्त होता है, खुद पुलिसवाले भी डरे-डरे से रहते हैं, क्योंकि आम आदमी को बेवजह मारा-पीटा जा सकता है, जेल में डाला जा सकता है, उसका एनकाउंटर तक किया जा सकता है, लेकिन कांवड़िया आम आदमी नहीं होता, उसे उत्पात मचाने की, गुंडागर्दी करने का लाइसेंस मिला होता है, और वो उसका भरपूर फायदा उठाने की फिराक में रहता है। 

अगर किसी वजह से आपको ये लगता है कि साल-दर-साल कांवड़ियों की बढ़ती तादाद का लेना-देना धर्म के प्रति लोगों की आस्था के बढ़ने से है तो आप बहुत बड़ी गलती पर हैं, असल में कांवड़ के दौरान होने वाली गुंडागर्दी का आकर्षण इसकी सबसे बड़ी वजह है। 

कांवड़ लाने वालों के टैंपो ट्रैफिक नियमों को नहीं मानते, उनमें बड़े-बड़े स्पीकर अश्लील गानों के साथ शिव और पार्वती की बेइज्जती करते हैं, और उनमे चढ़े हुए गुंडे अपनी अश्लील हरकतों के साथ अपनी गुंडई की पूरी धाक जमाने का प्रयास करते हैं। जैसा कि आपने पटना में अभी देखा। 

गुंडई दो प्रकार की होती है, एक तो वो जिसमें गुंडागर्दी हाथ में लाठी पकड़ कर की जाती है और सबको साफ बता कर की जाती है, जिसमें नकटा-बूचा सबसे उंचा वाला भाव रहता है, दूसरी गुंडई थोड़ा सोफिस्टिकेटिड किस्म की होती है, हालांकि उसमें भी बेशर्मी कूट-कूट कर भरी होती है, लेकिन वो मंच पर चढ़कर माइक के सामने की जाती है। पहली वाली गुंडई सिर्फ कांवड़ के महीने में कुछ खास दिनो में ही होती है, दूसरी गंुडई का कोई अंत नहीं होता, कांवड़ हो या ना हो, सावन हो या ना हो, ये गुंडई चलती रहती है। आपको राहत की सांस नहीं मिलती। इसलिए कुछ लोग तो प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं से खुश भी लगते हैं, उनका कहना है, आफत जितनी दूर रहे उतना अच्छा। इसमें समस्या ये है कि आफत जाते हुए अपने प्रतिनिधियों को गुंडई फैलाने के लिए यहां छोड़ जाती है।

अभी कांवड़ियों को इस बात का गुस्सा है कि बनारस प्रशासन ने उन्हे डी जे की अनुमति नहीं दी है। बिल्कुल सही बात है, उनका गुस्सा जायज़ है, आखिर जो बिना शोर-शराबे, हुडदंग और दंगे के हो जाए, वो कैसी पूजा, ऐसी पूजा से तो पूजा ना हो वो अच्छा। आप प्रधानमंत्री को बिना किसी रुकावट, शर्म या ऐसे किसी नैतिक, सामाजिक बंधन के पूरे देश में गुंडई फैलाने दे रहे हैं, और कांवड़ियों को रोकेंगे। कांवड़िए इस तरह के भेदभाव को बर्दाश्त नहीं करेंगे। 

अब असली सवाल, क्या प्रधानमंत्री पटना की गंगा से पानी ले आए हैं, अगर नही ंतो क्यों, अगर हां तो फिर संसद में जलाभिषेक कब होने वाला है। मुलायम सिंह भी कह चुके हैं कि जलाभिषेक हो, जबसे यादवसिंह के सिर पर तलवार लटकी है, मुलायम सिंह कुछ ज्यादा ही मुलायम हो गए हैं, मुलायम सिंह की मुलायमियत सी बी आई के एक्शन के डायरेक्ट प्रोपोर्शन में होती है, जब-जब जिस-जिस सरकार ने मुलायम सिंह पर सी बी आई एक्शन की मार की, मुलायम सिंह की मुलायमियत उसी समय सरकार के साथ हो गई है, इतिहास देख लीजिए, मुलायम को मुलायम करने का सबसे ताकतवर मंत्र है सी बी आई, अब हो सकता है जलाभिषेक हो ही जाए। 

जो भी हो, अपने दोस्तों आदि को मेरी सलाह ये है कि कांवड़ के इन दिनो, घर पर ही रहें, मोदी हों या आम कांवड़िए, कभी भी दंगे करा सकते हैं। लड़कियों को घर से कतई नहीं निकलना चाहिए, जो लोग अपने आराध्य शिव की पत्नि को अपने अश्लील गानों में शुमार कर लें, वो राह चलती मासूम लड़कियों के साथ क्या कुछ नहीं कर सकते। इस मामले में भी, ताकतवर लोगों से बच कर रहें, उनका इतिहास भी लड़कियों का पीछा कराने का रहा है। कांवड़ आदि के रास्ते से ना निकलें, और यदि कोई मासूम इन कांवड़ियों के बीच में फंस जाए, तो उसे बचाने की पूरी कोशिश करें। 
बाकी ये हर साल की बिमारी है, इससे बचने का कोई उपाय नहीं दिखता, तो झंेलें, और क्या कहें। 

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

घोटालों का यथार्थ



किसी भी वस्तु का यथार्थ जानने का सबसे अच्छा तरीका है उसका विश्लेषण कर लिया जाए। यानी उसके इतिहास, वर्तमान और भविष्य की समीक्षा की जाए। उसे परिभाषित किया जाए और इस तरह ये पता लगाने की कोशिश की जाए कि आखिर वो है क्या। तो सवाल ये है कि घोटला आखिर क्या है? क्या होता है? कहां रहता है? समय-समय पर होता है या इसके घटित होने में कोई निरंतरता है? क्या ये बुरा होता है जैसा कि सामान्य धारणा है या फिर अच्छा होता है, जैसा कि इससे लाभ उठाने वाले लोग मानते हैं। या यूं भी हो सकता है कि ये निरपेक्ष हो, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, वाली कहावत के अनुरूप। 
मानता हूं कि मसला पेचीदा है, लेकिन इतना भी पेचीदा नहीं है। बस थोड़ा सा नज़रिए को सत्यान्वेषी बनाना होगा, जैसे ब्योमकेश बख्शी ने किया। तो सबसे पहले ये जानते हैं कि आखिर घोटाला शुरु कहां से हुआ होगा। क्या कबीलाई युग में घोटाला होता होगा, क्या सामंतवादी युग में घोटाला होता होगा, क्या औपनिवेशिक काल में घोटाला होता होगा। या फिर ये घोटाला 15 अगस्त 1947 को पैदा हुआ जो अब इतना बड़ा हो गया है कि हर सरकारी दफ्तर, राजभवन, कोर्टाआदि में पाया जाने लगा है। 
इसके लिए सबसे पहले तो घोटाले की परिभाषा बनानी पड़ेगी, और अगर पहले से कोई परिभाषा मौजूद है तो उस पर ध्यान देना होगा। मुझे याद नहीं पड़ता कि घोटाले पर पहले किसी ने इतने विस्तार से सोचा है, कि उसकी परिभाषा आदि के बारे में लिखा हो। ये सही है कि लोग कई घोटालों के बारे में लिख चुके हैं, कैसे हुआ, यानी प्रक्रिया क्या थी, किसने लाभ उठाया, यानी ये प्रक्रिया किसने चलाई थी, और इसमें किनकी जाने गईं। ये मरने वाले अक्सर वो होते हैं, जो घोटालों की सीमाओं पर या उनसे बाहर होते हैं। अक्सर घोटाले करने वालों का तो बाल भी बांका नहीं होता। उदाहरण आपके पूरे इतिहास में बिखरे पड़े हैं। 
तो पहला सवाल पहले, घोटाले की परिभाषा क्या है, अगर है तो, और अगर नहीं है तो क्या हो सकती है। तो यकीन मानिए घोटाले की अभी तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, ये अभी तक अनाथ शब्द है। तो घोटाले की परिभाषा क्या हो सकती है, क्या यूं कह सकते हैं कि, ”वो चोरी जिसमें शासन और प्रशासन की सीनाजोरी हो, जिसमें अहंकारपूर्ण रहस्य हो, जिसमें अबोध निडरता हो, और मैं सबका बाप हूं किस्म की गैरकानूनियत हो”। हो सकता है कि इसमें आप कुछ और जोड़ना चाहें, लेकिन परिभाषा जितनी छोटी हो उतनी ही अच्छी होती है। अब ज़रा इस परिभाषा पर गौर करें, इसमें चोरी है जिसमें शासन और प्रशान है, अहंकार है, रहस्य है, निडरता है, और गैरकानूनीयत है। 
इन सब बातों पर गौर करेंगे तो आप घोटाले का विश्लेषण करने के नज़दीक पहुंच जाएंगे। देखिए भारत में घोटाले की शुरुआत मानी जाती है तब से जब राजा-रानियों का अंत हो गया, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ये सैमी राजा-रानी हुआ करते थे, इसलिए उस वक्त हुकूमत करने वाले यानी अंग्रेज और राजा-रानी दोनो ही घोटाला करते थे, लेकिन 1947 के बाद घोटालों की पूरी जिम्मेदारी नेताओं ने, प्रशासकों ने अपने हाथ में ले ली और राजा-रानियों को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। 
आप पूछ सकते हैं कि क्या उससे पहले घोटाला नहीं होता था, जनाब, उससे पहले राजा-रानियों की हुकूमत चलती थी, जब सारा राज उनके बाप का होता था, या कम से कम माना जाता था। ऐसे में अपने माल में से कुछ भी, कभी भी ले लेना, चोरी, डाका या घोटाला तो नहीं का जा सकता ना। अंग्रेजी हुकूमत ने घोटालों को स्थापित करने की दिशा जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया वो ये कि हुकूमत प्रशासकों के हाथ में आ गई, ये प्रशासक राजा नहीं थे, ना हो सकते थे, अब भारत की लूट का जो हिस्सा इंग्लैंड की रानी के नाम पर गया, उसे आप घोटाला नहीं कह सकते, क्योंकि रानी का मानना ये था कि भारत उसके बाप का है। लेकिन उसके दूरस्थ प्रशासकों ने जो भी चोरियां की, यानी भारत का माल जो वो चोरी-चुपके अपने साथ ले गए और जिसे उन्होने रानी के मालखाने में जमा नहीं करवाया, वो घोटाला ही था। इन प्रशासकों के ऐसा करने में गैरकानूनियत थी, क्योंकि अगर रानी को पता चल जाता तो शायद उनका सिर कलम कर दिया जाता, या जेल हो जाती, लेकिन इस लूट को वो जिस निडरता अहंकार और सीनाजोरी के साथ करते थे, वो इस लूट को घोटाला बनाता है। 
दूसरी तरफ अंग्रेजी प्रशासकों की दया पर राजा-रानी बने हुए भारतीयों ने, इन्हीं अंग्रेजों से छुपा कर जिस माल की चोरी की, डाका डाला वो घोटाला ही था, क्योंेिक अंग्रेजों की हुकूमत में, ये राजा जो भी कमाते थे, वो अप्रत्यक्ष तौर पर रानी की संपत्ति माना जाता था। इन राजा-रानियों की इस लूट में भी, घोटाले की परिभाषा के अनुसार वो सबकुछ था, जो घोटाले के मूलतत्व होते हैं, जैसे प्रशासन और शासन सत्ता की भागीदारी, निडरता, गैरकानूनियत, और अहंकार भी था। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गांधी के पसंदीदा बिड़ला आदि ने भी घोटाले किए और खूब किए। 
1947 के बाद सबसे पहले जिस चीज़ का राष्ट्रीयकरण हुआ वो घोटाला ही था। अंग्रेजों के जाने के बाद असल में प्रशासकों ने ये मान लिया कि अंग्रेजों की हुकूमत नाम के लिए बेशक लोकतंत्र हो चुकी है, लेकिन असल में तो सब उनके नाम हो चुका है। इसलिए उन्होने पूरे अहंकार, निडरता और शासन की मिलीभगत से जी भर के लूट-पाट की। इन प्रशासकों और शासकों ने मिलकर इतने घोटाले किए हैं कि अगर गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में सबसे ज्यादा घोटालों की बात हो तो इस देश का जिक्र जरूर आएगा। अफसोस बस यही है कि इनमें से ज्यादातर घोटाले पकड़े नहीं गए, और पकड़े गए तो संचार साधनों के अभाव में ज्यादा चर्चित नहीं हुए, जो चर्चित हुए उन्हे दबा दिया गया, और जिन्हे दबाया नहीं जा सका उनमें कुछ एक छोटे-मोटे लोगों की बलि देकर मुक्ति पा ली गई। 
घोटालों के इतिहास के बाद हमें घोटालों के आधुनिक रूपों की बात करनी चाहिए। आज देश के भिन्न हिस्सों में विभिन्न आकार-प्रकार, मिजाज़, रंग-रूप आदि के घोटाले हो रहे हैं। कुछ मिनी साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ व्यापमं टाइप मेगा साइज़ घोटाले होते हैं, कुछ मीडियम साइज़ के घोटाले भी होते हैं, जिन्हे लोग पिछले साल की दिसंबर की ठंड की तरह भूल जाते हैं और बस कभी-कभी इस घोटाले के चक्कर में उसे याद कर लेते हैं। यूं लोग मेगा घोटालों को भी भूल जाते हैं, जैसे 3जी, कोलगेट, जैसे घोटालों को अब कौन याद रखता है। अपने आकार-प्रकार के हिसाब से और इसमें आपकी इन्वोल्वमेंट के हिसाब से ही इसका हिसाब भी चुकता होता है। यानी अगर आपने एक मेगा घोटाले में कुछ हजार-पांच सौ का हिस्सा पाया है, तो समझिए कि घोटाले के उजागर होने पर आप लम्बे नप सकते हैं, जान से जा सकते हैं, जबकि अगर आपने कुछ सौ करोड़ कमाए हैं तो खुद पुलिस, प्रशासन, सत्ता, न्यायपालिका आपके बचाव में, मानवधिकार, मानवीयता, आदि की ढाल लेकर खड़े हो जाएंगे और आपका बाल भी बांका ना होगा। 
आधुनिक भारत में घोटालों ने बहुत विकास किया है, देश के हर हिस्से में, ”जैसा कि मैने पहले कहा” घोटाला पनप रहा है, पनपाया जा रहा है। कुछ लोग खुलेआम, 56 इंची छाती फुलाकर घोटाला करते हैं, कुछ घोटालों को मक्खी की तरह उड़ा देते हैं, कुछ लोग दबे-छुपे घोटाले करते हैं, तो कुछ लोग हर घोटाले को संरक्षण देने की अपनी फीस लेते हैं। कुछ लोग सिर्फ घोटाले की स्कीम बनाते हैं और उसकी फीस लेते हैं। यहां तो अच्छे-खासे पेशेवर घोटालेबाज़ हैं और कोई मुजायका नहीं कि कुछ दिनो बाद विश्वविद्यालयों में घोटाला विभाग हो, और घोटाले का बाकायदा व्यावयासिक प्रशिक्षण दिया जाए, जिनमें सफल घोटालाबाज़ों को प्रोफेसर आदि बनाया जा सकता है। 
घोटाले का इतना विश्लेषण करने के बाद कुछ बातें साफ हो जाती हैं।
घोटाले थे, हैं और रहेंगे। 
घोटाले सरकारी और प्रशासकीय होते हैं। ”जनता ने आज तक कोई घोटाला नहीं किया, इसलिए कि इसके लिए जो साधन-संसाधन दरकार होते हैं वो जनता के पास होते ही नहीं हैं”
सरकारी और प्रशासकीय चरित्र होने के चलते घोटाले में लिप्त किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती, ना हो सकती है।
घोटाले में लिप्त छोटी मछली हमेशा मारी जाती है। ”चाहे उसे जेल हो, या जान से हाथ धोना पड़े, इसके भी तमाम उदाहरण घोटाले के इतिहास में भरे पड़े हैं।”
अंतिम बात मैं घोटालों के प्रति सकारात्मक रुख दिखाते हुए कहना चाहता हूं, 
जैसा कि मैने अपने निबंध में पहले ही साबित कर दिया है कि घोटाले तभी संभव हैं जब राज जनता का हो, यानी लोकतंत्र हो, जैसा कि ये है, जो चल रहा है। अरे भई, अगर लोकतंत्र की जगह राजशाही हुई तो घोटाले को घोटाला नहीं कहा जा सकेगा। इसलिए घोटाले की सकारात्मकता इसी में है कि घोटाला इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र है, जिसमें सभी घोटाला कर रहे हैं, चाहे वो समाजवादी हों, या दलित वाले हों, चाहे कटट्र राष्ट्रवादी हों या कांग्रेसी हों, कुल मिलाकर घोटाले का होना ही लोकतंत्र के होने को साबित करता है। इसलिए अगर आप इस लोकतंत्र का बचाना चाहते हैं तो घोटालों को बचाए रखिए, क्योंकि लोकतंत्र का एकमात्र मीटर घोटाला है। यही घोटाले का यर्थाथ है, यही घोटाले की सार्थकता है। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...