तस्वीरें पुरानी यादों की खिडकियां होती हैं। तस्वीरें अच्छी-बुरी नहीं होती, उनके साथ जुड़ी यादें होती हैं जो आपको या तो अच्छी लगती हैं, या फिर बुरी लगती हैं। तस्वीरें तो बहुत ही तटस्थता से आपको याद दिलाती हैं कि उस समय क्या हुआ था, कई बार ऐसा लगता है जैसे तस्वीरें बोल रही हों, हंस रही हों, या चल रही हों, या हो सकता है कि ऐसा सिर्फ मुझे लगता हो। ऐसा लगने पर मैं किसी को बताता भी नहीं हूं, जाने सामने वाला मुझे पागल ही ना समझने लगे। यूं मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। कम से कम दुनिया वाले तो यही कहते हैं, अपनी तमाम उम्र में अब तक मैने अगर कोई कॉम्पलीमेंट या ताना सबसे ज्यादा सुना है तो वो यही है कि मैं बहुत प्रैक्टिकल इंसान हूं। पहले लगता था कि ये लोग शायद पै्रक्टिकल का मतलब ही नहीं जानते, फिर इतने लोगों ने ऐसा कहा कि मुझे लगने लगा कि ये लोग ठीक ही कहते होंगे, इतने लोग झूठ थोड़े ही बोलेंगे जी। तो मैं भी खुद को प्रैक्टिकल मानने लगा, जबकि सच कहूं तो मुझे जैसा सपनों में जीने वाला, कल्पनाओं में मजे लेने वाला इंसान बहुत ही मुश्किल मिलेगा आपको। लेकिन अब अगर दुनिया कहती है कि आप प्रैक्टिकल हैं, तो हैं।
सुबह-सुबह कमरे की हल्की-फुल्की सफाई में वो फोटो मिली थी, जिसे हाथ में पकड़े हुए मैं ये सब सोच रहा था, और शायद अभी और भी सोचता जबकि दीदी चाय लेकर आ गई थीं। दीदी का भी बढ़िया है, साढ़े आठ तक आ जाती हैं, लेकिन चाय बनाने में कम से कम 45 मिनट लगता है। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब मैं चाय मांगता हूं तो मुझे पांच मिनट में ही चाय कैसे मिल जाती है, जबकि पहली चाय वो आने के 45 मिनट बाद देती है। मुझे हमेशा लगता है कि वो आने के बाद अपना कोई धार्मिक रिचुअल पूरा करती है, जैसे लोगबाग रोज़मर्रा के काम शुरु करने के बाद करते हैं। जैसे कोई ड्राइवर स्टीयरिंग को हाथ लगाकर अपने कान छूता है, या कोई बारबर कंघी-कैंची को हाथ लगाकर अपने कान छूता है।
तो दीदी चाय ले आई और मैं फोटो को टेबल पर रखकर फिर से कम्प्यूटर में घुस गया। ये कम्प्यूटर भी कमाल चीज़ बनाई है बनाने वाले ने, एक पल को आप अंदर गए तो कई सदियों बाद ही निकलते हो, बिल्कुल ऐसा है जैसे आप बाज़ार जाते हो, दाल लेने के लिए और दाल छोड़ कर आपकी निगाहें हर चीज़ पर पड़ती हैं, और आप बाज़ार में गुम से हो जाते हो। अरे याद आया आज बाज़ार भी तो जाना है, काफी दिनो से सोच रहा हूं कि नया हेल्मेट ले लूं, ये हेल्मेट तो खत्म हो गया है। एक तरफ का स्ट्रैप टूट गया है, और गाड़ी चलाते हुए यूं सिर से खिसकता है कि बार-बार एक हाथ हैंडल से हटाकर हेल्मेट को ठीक करना पड़ता है। इस तरह गाड़ी चलाना, बहुत खतरनाक होता है। अभी उस दिन जब मैं घर वापस आ रहा था तो अचानक गाड़ी स्लिप हो गई, वो हेल्मेट ही था जिसकी वजह से मेरा सिर बच गया था। हेल्मेट तो ले ही लेना चाहिए, लीजिए मैं तो कम्प्यूटर पर ई-मार्केट में हेल्मेट ही देख रहा हूं। बहुत महंगे हेल्मेट हैं ये तो, इससे अच्छा तो दुकान पर जाकर ही ले लेना चाहिए। कम से कम बार्गेनिंग करने का सुख तो साथ मिलेगा। यहां तो एक ही कीमत होती है, लेना है तो लो नही तो टा टा, बाई बाई।
ये फोटो नज़रों के सामने से नहीं हट रही है, बहुत पुरानी फोटो है, मैं बहुत कम उम्र का हूं, साइकिल रिक्शा चला रहा हूं। यहां की नहीं है, भरतपुर की फोटो हैं, भरतपुर जैसा पहले था, अब वैसा नहीं बचा, कतई नहीं। अब तो बहुत भीड़-भड़क्का हो गया है वहां। उन दिनों बहुत शांत था भरतपुर, हम दोनो गए थे, बस से....। मौसम खूबसूरत था, उम्र शानदार थी और दिल बहुत हसीन था, और हम दोनो गए थे। फोटो कुछ-कुछ पुरानी हो गई है, मुझे उस दौर में लगता था कि मैं बहुत उम्दा फोटोग्राफर हूं। बहुत देर में समझ में आया कि मुझे फोटोग्राफी नहीं आती, अब तो खैर करना भी छोड़ दिया। उस जमाने में जब रोल वाली रील होती थी, मेरे पास चार या पांच कैमरे थे। कहीं जाता था तो कम से कम तीन कैमरे तो हमेशा लेकर जाता था। बहुत सारी फोटो खीचीं, मैं हैप्पी क्लिकर था, बस बिना कुछ सोचे जो सामने आया कैमरा में कैद कर लिया। बहुत बाद में समझ में आया कि फोटो खींचना असल में बहुत ही सब्र और सन्नीयत का काम है। इतना सब्र मुझमें तब कहां था, और देखा जाए तो अब भी सब्र कहां है मेरी शख्सियत में।
मैं अपने गुज़रे जमाने को देखता हूं तो सच में ये लगता है कि समय के साथ सबकुछ बदल जाता है। मेरे ही घर के पास, कल तक जहां भैंसे बंधती थीं, आज वहां रेलवे के फ्लैट है, जिनमें एक पूरी दुनिया बसती है, कभी पूरे इलाके में कीकर के पेड़ होते थे, आज देखने को भी नहीं मिलते। पता नहीं किसने कहा था कि खूब मजबूत होते हैं, समय के साथ हवा हो गए, कीकर के पेड़। सारी खूबसूरती चौकोर कंक्रीट के डिब्बों में कैद हो गई है, अब उसमें ही हरा भी ढूंढिए और बाकी कायनात के रंग उसी में मिलते हैं, जमीन वो निगल गए, आसमान को उन्होेने ढांप लिया, पेड़ों को उन्होने इस्तेमाल कर लिया और उन पर रहने वाले परिंदे जाने कहां चले गए। कोई नया पता भी ना दिया उन्होने कि कभी याद आए तो एक दो हरूफ लिख के हाल-चाल ही ले लिया जाए उनका। वो जमाने और थे साहब जब जमीन की थाह नहीं मिलती थी, आज तो जाइए कोरपोरेशन के ऑफिस में और पटवारी आपको हर जमीन की सही-सही हद बता देता है, उसका नंबर दे देता है। उसके पास यहां से वहां तक सब जमीन का साइज़ नापा हुआ रहता है। वो जमाने गए जब आसमान सबकुछ ढांपता था, आज तो हालत ये है कि मुंह छुपाता रहता है, दिखाई ही नहीं देता, जमाना हो गया, सही चेहरा देखे हुए आसमान का, धुुंधुआता सा, काला-काला सा दिखता है, पता नहीं दिखता नहीं कि लज्जित है।
ये तस्वीर जिसकी मैं बात कर रहा हूं उस जमाने की है जिसमें ये सब चीजें जिनका मैने जिक्र किया अभी उतनी खराब नहीं हुई थी, कि बच्चों के फेफडे़ गुलाबी ही होते थे। तब मैं उसके साथ भरतपुर गया था। उस समय कुछ खास पता नहीं था, बस डिपो से बस पकड़ी और दूसरे दिन सुबह-सुबह भरतपुर बस स्टैंड पर उतर गए थे। वहीं पास में देखा एक ढाबा, जिसपे चाय पी, उसीने पूछा, ”कमरा चाहिए?” सोचा यहीं ले लिया जाए, पैसा कम लगेगा, ”हां” मैने कहा, उसने दिखाया उसी ढाबे के उपर चार कमरे थे, जिनमे चारपाई थी, गंदे गद्दे और दरवाज़े पर चिटकनी नहीं थी, बाथरूम बाहर था। मैं बिना कुछ बोले नीचे उतर आया और उसे इशारा कर दिया था। हमारा बहुत सारा काम इशारों में ही चल जाता था।
कई बार होता है ऐसा, कि हमें किसी से बात करने की जरूरत ही ना हो, आंखों ही आंखों में बात हो जाए। तुम सब कुछ कह दो, और मैं सबकुछ समझ जाउं। ऐसा होता है कई बार, कई-कई घंटे तक हम बोलते ही नहीं हैं और हजारों किस्म की बातें हमारे बीच हो जाती है। ऐसा होता है कई बार, कि हम सबकुछ समझ जाते हैं, सबकुछ समझा देते हैं, और बोलते नहीं हैं। सिर्फ छूने भर से तसल्ली मिल जाती है, भरोसा हो जाता है, सबकुछ वहीं होता है, वहीं होता है, ऐसा होता है कई बार। जब सारी दुनिया सिर्फ उस एक पल में सिमट जाती है, जब सबकुछ होता है और कुछ नहीं होता। कभी-कभी इंतजार भी होता है, लेकिन वो इंतजार खलने वाला, चुभने वाला नहीं होता। मीठा होता है, अच्छा लगता है, इंतजार करना। थोड़ा खुमारी वाला होता है, ऐसा मौका, ऐसा......।
जब वो समय था, तो ऐसा था, ऐसा ही था। मैने कुछ नहीं कहा, उसने समझ लिया और बैग उठा लिया। उसके बाद हमने कई होटलों के चक्कर काटे, अपनी जेब के बाहर के कुछ होटल थे, तो कुछ बहुत ही नालायक से होटल थे। आखिर एक होटल मिला। वो बस स्टैंड और महल वाले होटल के बीच का होटल था। उसने मेरी तरफ देखा और मैं समझ या कि अब यही होटल लेना है। हमने वो होटल ले लिया, सर्दियों के दिन थे, नर्म धूप के और कड़क रातों के दिन थे। कुछ ना कहने के और कुछ ना सुनने के दिन थे। फिर भी उन दो दिनों में वहां बहुत कुछ कहा-सुना गया।
ये तस्वीर उसी कहे-सुने का पंचनामा तो है। दिन अब भी वही हैं, नर्म धूप वाले, लेकिन धूप अब वैसी नहीं लगती। कहीं-कहीं से इसका पलस्तर उधड़ गया लगता है, समय ज्यादा हो गया, धूप चटक गई है, कहीं-कहीं से। तस्वीर भी यही कह रही है। समय हो गया।
लीजिए चाय ठंडी हो गई। मै अक्सर गुनगुनी चाय पीता हूं, बहुत पीता हूं, लेकिन गुनगुनी पीता हूं। जब तक मुहं भर चाय ना हो, स्वाद नहीं आता। इसीलिए मेरे घर में चाय के कप बहुत बड़े-बड़े हैं। सुड़क कर पीने वाली चाय में मुझे आज तक मजा नहीं आया, चाय का मज़ा घूंट भर कर पीने में है, ज़बान पे दर्ज हो, मुहर लगे दिल पे कि चाय पी है। वो लोग जो चाय को बिना किसी जज़्बे के पीते हैं, मुझे समझ नहीं आते। जो भी संपर्क में आया, उसे पहचाने बिना उसे कैसे दर्ज कर लेंगे, कैसे स्वीकार करेंगे या अस्वीकार करेंगे। कुछ तो होगा, जो चलेगा, बहेगा, रुकेगा। मुझसे नहीं होता। जैसे ये तस्वीर, उस रोज़ भी इसने बहुत कुछ कहा, किया था। आज भी ये बहुत कुछ कह, कर रही है। तस्वीर सिर्फ तस्वीर नहीं होती, यादों की खिड़की होती है। इसलिए मैं तस्वीरों को अपनी मेज़ की उस दराज़ में बंद करके रखता हूं जिसका कोई हैंडल नहीं है। जब तक बहुत शिद्दत से ना चाहो, नहीं खोल सकते। यादों को बेमुरव्वती से बरतना मुझे पसंद नहीं है। मैं इन यादों को भी जिंदगी जैसी गंभीरता से बरतता हूं, उसी खूबसूरती के साथ उन्हे हाथ में लेता हूं जिससे उन्हे बनाया था। वैसा ही अहसास होता है, जैसा याद बनते वक्त था। यादों के साथ जिस तरह का रिश्ता आप रखते हैं, अक्सर लोगों के साथ भी आपके वैसे ही रिश्ते होते हैं। ऐसा मेरा मानना है, हो सकता है कि आप कुछ अलग सोचते हों।
मुझे बहुत कुछ करना है, सिर्फ तस्वीर हाथ में लिए बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। इस घर की, खासतौर से इस कमरे की सफाई हमेशा बहुत सारा समय खा जाती है। थोड़ा समय लगता है सफाई में, मैं ज्यादा सफाई पसंद नहीं हूं ना, उतने से काम चला लेता हूं, जितने से काम चल जाता है। ज्यादा समय लगता है यादों को सहेजने, समेटने, बटोरने और फिर करीने से किनारे करने में.....अब यही लीजिए। इसीलिए मैं इस बीच वाली दराज़ को नहीं खोलता, इसमें इस तरह की बहुत सारी यादें जमा हैं, अगर खोला तो कई दिन बीत जाएंगे। फिर भी खोलनी तो होगी ये दराज़, आज किसी याद को निकालने के लिए नहीं, इस याद को फिर से सहेज कर रखने के लिए, इसी तरह बाहर रहेगी तो कहीं खो जाएगी। यादें ऐसी ही होती हैं, नहीं सहेजेंगे तो खो जाएंगी। बच्चों की तरह चंचल होती हैं, खेलते हुए कही दूर चली जाएंगी और फिर पुकारेंगे तो भी नहीं आएंगी। इसलिए इन यादों को सहेज कर रखने में समझदारी है।
बहुत मुश्किल से वो बीच वाली दराज़ खोलकर मैने ये फोटो उसमें रख दी है, समय की चौखट पर यादों की एक खिड़की खुल गई थी। बंद कर दिया उसे दिल पर हाथ रखकर। फिर कभी सही....यादों की ये खिड़कियां वहीं रहेंगी, जहां रख दी जाएंगी। फिर कभी......















