मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल




 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रेशर में बिचारे महामानव से कुछ ना कुछ लफड़ा हो जाता है। काफी दिनों तक अच्छी चली, हमारे महामानव और परम मित्र डोलांड की, अच्छी ही कहेंगे, जब भी महामानव का मन तू तड़ाक से बात करने का करता था, महामानव अमरीका पहुंच जाते थे। पिछले चुनावों में अबकी बार टरम्प सरकार का नारा भी लगा आए थे।



आपने देखा होगा महामानव, अपने भाषणों को कितना भी असभ्य बना दें, कितना भी गालियां दें, कितने भी अपशब्द कहें, कभी तू-तड़ाक में बात नहीं करते। इस मामले में हमारे महामानव बहुत संस्कारी हैं। तू-तड़ाक से उनकी बातचीत सिर्फ डोलांड से थी। अब मामले कुछ ऐसे बन गए कि अब मिलना नहीं हो पा रहा है, पहले तो ऐसा था कि मन किया तो फोन उठाकर बात कर ली, अब सुना कि फोन पर भी बात नहीं होती। इसीलिए शायद महामानव का मूड भी कुछ उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। अब यार अपने परम मित्र से बात ना हो पाए तो मूड तो खराब होना ही ठहरा। कुछ भी हो, दोस्त तो दोस्त होता है, और महामानव का तो वो डीयर फ्रेंड था, डोलांड। आप ये समझो कि दोस्त जो होता है, वो तो ऐवें ही होता है, उससे बड़ी कैटेगरी होती है फ्रेंड की, फिर उससे उपर होता है क्लोज़ फ्रेंड और फिर आता है तू-तड़ाक वाला फ्रेंड। ये जो सूक्ष्म अंतर है मित्रता में, यही समझने की ज़रूरत है। इसीलिए आजकल महामानव का मूड खराब रहता है, उधर डोलांड भी सुना है काफी चिड़चिड़ा सा हो गया है। इसी चिड़चिड़े मूड की वजह से उसने कई आयं-बायं-शायं फैसले कर डाले, जिसने उसकी कम अमेरिकियों की रातों की नींद हराम कर दी है, पूरी दुनिया के उसने कल्ले काट रखे हैं। 




महामानव और डोलांड की फ्रेंडशिप में ये दरार जो पड़ी वो असल में ऑपरेशन सिंदूर के रुकने से पड़ी, अगर आपको याद हो तो, ये वो समय था जब अपने परम मित्र के कहने पर महामानव ने ऑपरेशन सिंदूर को फौरन स्टॉप कर दिया था। अब भाजपा के अन्य मंत्री जो भी कहें, लेकिन दोस्तों हुआ तो यही था, वरना ये कैसे संभव था कि उधर डोलांड कहें कि भैये मैने वॉर रुकवा दी, और इधर पता चले कि सचुमुच में वॉर रुक गई।



बस इसके बाद जो भब्भड़ मचा इंडियन पॉलिटिक्स में, जनाब क्या ही रंग उड़ा था। मार बयान पे बयान पूरे विपक्ष ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, महामानव को कायर, यानी कॉवर्ड कहा गया, उन्हें डरपोक कहा गया, उनकी छाती के नाप पर फिकरे कसे गए, लेकिन मज़ाल है कि महामानव ने अपने होठों से उंगली को हटाया हो, मैं पहले भी कह चुका हूं, महामानव अपनी फ्रेंडशिप को लेकर बहुत सीरियस थे, उन्होने एक शब्द भी डीयर फ्रेंड डोलांड के खिलाफ नहीं कहा। 



अब ये जो सारे विपक्षी हैं, ये फें्रडशिप क्या जानें, इन्होने घेर-घार कर महामानव की फजीहत कर दी, इसी चक्कर में महामानव को भी थोड़ा सख्त होना पड़ा। इधर टम्प को लगा कि महामानव की फ्रेंडशिप में कुछ कमी आ गई है, याद रखिएगा दोस्तो, हैल हैथ नो फ्यूरी लाइक ए टम्प स्कॉर्न्ड, यानी डीयर फ्रेंड डोलांड ने अपने इसी गुस्से के चलते भारत पर टैरिफ पर टैरिफ लगाना शुरु कर दिया, साथ ही चेतावनी भी दे दी, कि बाज़ आ जाओ, इधर हमारे महामानव जानते थे कि एक बार वो डीयर फ्रेंड के सामने दोबारा पड़े तो कहीं लेने के देने ना पड़ जाएं। इसलिए उन्होने अपनी भरसक कोशिश की कि उनकी और डीयर फ्रेंड टम्प की मुलाकात ना हो सके। इस बच निकलने मे ंतो महामानव माहिर हैं, वैसे वो और कई कारनामों में माहिर हैं, लेकिन इसमें तो उनका जवाब नहीं है, वो जहां चाहते हैं, वहां से गायब हो जाते हैं, जैसे पूरे साल मणिपुर से गायब रहे, पुलवामा हमले के समय बहुत समय तक गायब रहे, इस बार के पहलगाम हमले के वक्त गायब रहे, जब विदेश से वापस आए तो भी सीधा बिहार गए, पहलगाम नहीं गए। तो अपनी इसी बच के निकल जाने की महारत के चलते उनकी डीयर फ्रेंड से मुलाकात ही ना हुई, और इस तरह महामानव ने देश को सीधे कन्फ्रंटेशन से बचा लिया। 

खैर डोलांड अपनी तरफ से महामानव को उकसाने की पूरी कोशिश करता रहा, उसने टैरिफ लगाए, पाकिस्तान से प्रेम की पींगे बढ़ाईं, और भी बहुत कुछ किया कि महामानव पलट कर कोई तो रिएक्शन दें, इधर महामानव चुप बैठे थे। दरअसल महामानव के बारे में एक बात जो अक्सर आप भूल जाते हैं वो ये कि वो अवतार होने यानी नॉन बायोलॉजिकल होने के चलते, समय से पहले ही उसे भांप जाते हैं। 



तो महामानव तो पहले से ही सबकुछ भांपे बैठे थे, उन्हें कोई चिंता नहीं थी। अपनी अजैविक ईश्वरीय क्षमता से वो पहले ही देख चुके थे कि आगे क्या होने वाला है, और इसलिए उन्हें कोई चिंता नहीं थी। इधर डोलांड ने अपना आखिरी दांव चला, और उसने कहा कि क्योंकि इंडिया पुतिन का तेल खरीद रहा है, इसलिए वो इंडिया से नाराज़ है, और अगर इंडिया पुतिन का तेल खरीदना बंद कर दे, तो फिर से फ्रेंडशिप का रास्ता खोला जा सकता है। बस महामानव को एक रास्ता मिल गया, वो रास्ता जिसकी उन्हें काफी समय से तलाश थी। इस एक रास्ते से महामानव को एक तीर से एक दर्जन शिकार करने का मौका मिल गया। 

एक तरफ वो अपने देश में तथाकथित प्रगतिशीलों को, वामियों को, कांगियों को जवाब दे सकते थे। साथ ही अमेरिका से व्यापार को दोबारा शुरु कर सकते थे, तीसरे अपने दोस्तों पर अमेरिका व अन्य देशों में चलने वाले फ्रॉड के केसों में हस्तक्षेप करके उन्हें बचा सकते थे, अपने दोस्तों को किसी और ज़रिए माली इमदाद दे सकते थे, और सबसे बड़ी बात, तेल की क़ीमतों में जो कमी उन्होने नहीं की, उसे जस्टीफाई भी कर सकते थे। हालांकि आप अगर गौर से देखें तो इससे भी ज्यादा कारण मिल सकते हैं, लेकिन महामानव जैसे चतुर-सुजान को इससे ज्यादा इशारा नहीं चाहिए था, और उन्होने इसे लपक लिया। फौरन लपक लिया। 



पिछले कुछ ही दिनों में पुतिन के तेल की आवक में सत्तर प्रतिशत की कमी आई है। यानी अब भारत में पुतिन का तेल नहीं आ रहा है, या बहुत कम आ रहा है। तेल का ये खेल महामानव की जर्बदस्त राजनीतिक दूरदृष्टि के चलते हुआ है, अब आप ये मत देखिए कि भारत में पुतिन का तेल नहीं आ रहा, जो कि भारतीय दलाल पूंजीपतियों को बहुत सस्ते में मिल रहा था, जिसे वो रिफाइन करके बहुत महंगे में बेच रहे थे। आप ऐसा इसलिए ना कीजिए क्योंकि पुतिन के इस सस्ते तेल का आपको यानी देश की जनता कोई फायदा नहीं मिल रहा था। इस सस्ते तेल का फायदा सिर्फ और सिर्फ महामानव के दलाल मित्रों को था, जो इधर का माल उधर करते थे और बीच में अपनी दलाली कमाते थे। 

खैर साहब अब मामला यूं है कि पुतिन से तो साहब की कोई मुरव्वत थी नहीं, वो तो उनके डीयर फ्रेंड से थोड़ी बतकही हो गई थी, तो महामानव ने सोचा कि चलो इस बतकही का भी फायदा उठाया जाए और अपने देसी दोस्तों को भी कुछ थोड़ा कमा-खाने दिया जाए। लेकिन याद रखिएगा ऐसी दोस्ती को फ्रेंडशिप पर कुर्बान करने में महामानव को एक सैंकिंड की हिचक नहीं होगी, यही महामानव का संदेश है। 

अब ये जो देसी दलाल हैं, इन्होने भी खूब चांदी काट ली है, और अब इन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अब वो पुतिन का तेल खरीद सकते हैं कि नहीं, देश को वैसे ही कोई फर्क नहीं पड़ता, आपको अब भी वहीं 100 रु. लीटर मिलने वाला है, और उसमें भी बीस प्रतिशत गन्ने का रस मिला हुआ होगा। तो आपको कोई फायदा या नुक्सासन नहीं होने वाला है, इसलिए आप इस पर अपना दिमाग खपाना बंद कीजिए। सिर्फ इस बात की खुशी मनाइए कि दुनिया के दो ऐसे लोग, जो खुद को ईश्वर का वरदान मानते हैं, फिर से फ्रेंडशिप के, क्लोज़ फ्रेंडशिप के रास्ते पर अग्रसर हो गए हैं, और वो दिन दूर नहीं, जब आपको एक बार फिर डोलांड और महामानव बगलगीर दिखेंगे और महामानव एक बार फिर कहेंगे


महामानव की ऐसी दोस्ती पर देश की प्रभुसत्ता को भी निछावर करना पड़े तो भी कोई चिंता नहीं होनी चाहिए दोस्तों, हम कहें महामानव से, देश गया भाड़ में आप तो अपनी ये क्लोज़ फ्रेंडशिप बचा के रखो, फिर देखी जाएगी जो होना होगा हो जाएगा।

बाकी चचा ग़ालिब को भी पुतिन का तेल कुछ खास पसंद नहीं था, पर मुश्किल ये है कि उस समय फॉसिल फ्यूल नाम की चीज़ भी नहीं थी, इसलिए थोड़ा कनफ्यूज़न में उन्होने एक शेर कहा है, जो आपकी नज़र है

पुतिन का तेल जो आए, कहीं फ्रेंडशिप की आड़ में
तो उसको मार लात, भेज दे वहीं से भाड़ में
तू अपने देश की इज्जत को भी सरका दे ज़रा सा
कहीं सच दिख ना जाए, ऐसी धका धक उघाड़ में

चचा कहना चाहते थे कि फ्रेंडशिप से बड़ी कोई चीज़ नहीं होती, और क्लोज़ फ्रेंडशिप तो ईश्वर से भी उपर की चीज़ होती है, तो दोस्तों, महामानव और उनके परम मित्र, यानी डीयर फ्रेंड डोलांड की दोस्ती जिंदाबाद, बाकी जो है सो हइये है।

फिर मिलते हैं, नमस्कार। 

शनिवार, 29 नवंबर 2025

गंजहों का देश - भारत





    
     चुनावों में धंाधली कोई नई बात नहीं है। आज राहुल गांधी ने एक ऐसा बम जैसा विस्फोट करने का दावा किया है जिससे साफ जाहिर होता कि के चु आ के साथ मिलकर महामानव ने, या जिसे पुराने समयों में भाजपा माना जाता था उस पार्टी ने चुनावों में जम कर धंाधली की और सारे चुनाव जिनमें महाराष्ट, मध्य प्रदेश और हरियाणा तक शामिल हैं अपने नाम कर लिए। अब आपको ये समझाने के लिए कि ये सिर्फ कोरी हवा-हवाई बात नहीं है, राहुल गांधी ने के चु आ द्वारा जारी वोटर लिस्ट को ही आधार बनाया और सबके सामने रख दिया। ऐसे में क्या ही कहने लोकतंत्र के, भारतीय प्रजातंत्र के, या इस खुलासे के बाद तो कहा जाए, भारत के चुनाव आयोग तंत्र के, क्योंकि जब सरकार चुनने का काम चुनाव आयोग अपने हाथ में ले ले, तो फिर उस व्यवस्था को ईमानदारी से तो चुनाव आयोग तंत्र ही कहा जाएगा जिसे संक्षिप्त में केचुआ तंत्र भी कहा जा सकता है। और शायद यही बात राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में अंत में कही थी। 
   
     पर आज मैं आपको एक पुरानी जानकारी दे रहा हूं। दरअसल राहुल गांधी ने अपने आकट्य सबूतों से जिस तरह की धंाधली का आरोप लगाया है, उसका सूत्र जिन्होने धंाधली की है, उन्होने एक मशहूर व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी से लिया है। यकीन नहीं आता, वीडियो पूरा देखिए आपको समझ में आ जाएगा। 
    
    श्रीलाल शुक्ल जी के उपन्यास में जिस चुनाव की बात है, उसी संदर्भ में चुनाव जीतने के कुछ तरीके बताए गए हैं। तो
चुनाव जीतने के रागदरबारी में जो तीन टिक बताई गई हैं, वो हैं। रामनगर वाली टिक, नेवादा वाली टिक और महिपालपुर वाली टिक। 
   
     रामनगर वाली टिक वो होती है जिसमें किसी चुनाव में दो मुख्य उम्मीदवार एक ही जाति के हों। ऐसे में जब जनता जाति के आधार पर वोट देने को तैयार ना हो, या उसमें उम्मीदवारों को लगे कि जाति का फायदे से ज्यादा नुक्सान हो सकता है, तो पहले जनता को ये समझाने की कोशिश की जानी चाहिए कि प्रजातंत्र बहुत महत्वपूर्ण है और वोट ग़लत आदमी को नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन अमूमन जनता समझदार होती है और वो जानती है कि जब दोनो ही आदमी ग़लत हो, तो वोट किसी को भी दो, जीतेगा ग़लत आदमी ही। तब जनता को ये समझाने की कोशिश की जानी चाहिए कि तुम्हारा प्रतिद्वंदी अगर जीता तो वो जनता का नुक्सान करेगा, लेकिन ऐसे में जनता जानती है कि नुक्सान दोनो ही करने वाले हैं, तब इसके अलावा कोई उपाय नहीं रह जाता कि पुलिस में कम्पलेंट करवा कर अपनी तरफ के और दूसरी तरफ के पच्चीस तीस आदमियों को जेल भिजवा दिया जाए। अब जब दोनो तरफ के पच्चीस-तीस आदमी जेल में हैं तो जिसके उम्मीदवार के आदमी जेल जाने से बच गए हैं, वो अपनी मनमानी करके चुनाव जीत लेगा। बहुत आसान तरीका है। लेकिन ये तरीका सिर्फ तब ही काम में लाया जा सकता है जब उम्मीदवार, समर्थकों और मतदाताओं की संख्या कम हो। आज के दौर में जहां, उम्मीदवार भी सैंकड़ों हों, समर्थक हजारों हों, और वोटर लाखों हों, इस टिक को चलाने और इस्तेमाल करने में मुश्किल हो सकती है। 
    
    रागदरबारी के अनुसार चुनाव जीतने की दूसरी टिक नेवादा वाली है, जिसे भाजपा बहुत शानदार तरीके से बहुत बार इस्तेमाल कर चुकी है। इस टिक में होता यूं है कि चुनाव के दिनों में किसी मंदिर, धर्म, का सहारा लिया जाता है। सीधे तौर पर धार्मिक बाबा लोग चुनाव प्रचार में नहीं उतरते, लेकिन अपने-अपने डेरों और ठिकानों से अपने अंधभक्तों को ये संदेश देते रहते हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट करना चाहिए। ऐसे में बलात्कार और हत्या के अपराध की सजा भुगत रहे एक खास बाबा को चुनावों के आस-पास बेल, फरलो, जैसी शर्तों के नाम पर जेल से बाहर निकाला जाता है, उसे ससम्मान तब तक बाहर रखा जाता है, जब तक उसके अंधभक्तों के वोट अपने नाम हो जाएं। ऐसे में वो बाबा जी 15 रुपये का पैटोल देने की बात कर सकते हैं, या हनुमान जी से सीधे बात भी कर सकते हैं, लेकिन जो एक बात बदलती नहीं है वो ये कि चुनाव के बाद वो बाबा जी गायब हो जाते हैं, जनता के सामने नहीं आते हैं। इस तरीके को चुनाव जीतने की नेवादा वाली टिक कहा जाता है, और देश में इस टिक बहुतेरा इस्तेमाल किया जा चुका है, अब भी हो ही रहा है। 
    
    लेकिन राहुल गांधी ने जो खुलासा किया है, वो बहुत हद तक राग दरबारी के चुनाव जीतने की महिपालपुर वाली टिक जैसा है। इसे चुनाव जीतने का एक वैज्ञानिक तरीका बताया गया है जिसकी खोज न्यूटन की खोज की तरह संयोगवश हुई थी, और अब उसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रहा है। ये चाल पूरी चुनाव प्रक्रिया में धांधली करने की एक व्यापक रणनीति है, इसमें गांव में रहने वाले लोगों के नामों को मतदाता सूची से हटाकर एक झूठी मतदाता सूची बनाना शामिल है, और फिर अपने हिसाब से वोट डालना शामिल है। राग दरबारी की महिपालपुर टिक में वैद्यजी ने चुनाव कमिश्नर को अपने साथ मिला लिया था, और चुनाव के समय की घड़ी को एक घंटा आगे और पीछे करके, दूसरी पार्टी के वोटरों को वोट डालने से ही रोक दिया था। यानी जाली वोट डालकर धोखाधड़ी से चुनाव जीत लिया था।
    
    अब राहुल गांधी की बातों को माने तो यही तरीका महामानव ने अपनाया है, लेकिन ज़रा बड़े पैमाने पर, यानी पहले के चु आ को अपने साथ मिलाया गया। वैद्यजी ने इसके लिए चुनाव अधिकारी को काफी कुछ दिया था, यहां ये नहीं पता कि क्या लिया-दिया गया है, या कुछ लिया-दिया गया है या नहीं। दूसरे पूरी मतदाता सूची का नक्शा ही बदल दिया गया है, और फिर महिपालपुर वाली टिक के अुनसार ही के चु आ ने घड़ी में टाइम ही बदल दिया। यानी उसूलों को ही बदल दिया, एक तो डिजिटल वोटर लिस्ट देने से ही मना कर दिया ताकि धोखाधड़ी पकड़ी ना जा सके, और दूसरे चुनाव के वक्त के वीडियो रिलीज़ करने से ही मना कर दिया, बल्कि कानून में ही फेरबदल कर दिया, कि अब वीडियो को जल्द से जल्द नष्ट करने का प्रावधान हो गया। इससे हमें ये समझ में आता है कि राग दरबारी की महिपालपुर वाली टिक का भी इवोल्यूशन हो गया है। आज रागदरबारी सार्थक हुआ, और महामानव यानी भाजपा के वैद्यजी ने, पहलवान, रुप्पन, और सभी गंजहों के साथ मिलकर इस देश को महिपालपुर बना दिया है। अब तुम सब इस महिपालपुर वाली टिक से चुनाव जीते हुए वैद्यजी के शासनकाल में उनके द्वारा गबन किए हुए रुपयों की भरपाई सरकार से करने का आयोजन देखो। 
    
    खैर हमें क्या, चचा हमारे याानी ग़ालिब जो थे, वो कोई रामाधीन भीखमखेड़वी से कम शायर नहीं थे, उन्होने भी ठीक भीखमखेड़वी की तरह ये शानदार शेर इस चुनावी टिक के बारे में कहा है, 

    पूछो हमसे इस इलैक्शन में खिला क्या गुल कहो
    कुछ हुआ ना महिपालपुर वाली टिक ही चल गई
    गंजहों का देश बन के रह गया इंडिया सुनो
    टापती जनता रही, बैद जी की दिवाली मन गई
       
     एक वाक्य में कहें तो ग़ालिब को पता था कि अंततः ये बैद्य जी देश के राजा की कुर्सी पर बैठेंगे, और उसी टिक का इस्तेमाल करके बैठेंगे, बाकि वैसा ही चलेगा जैसा चल रहा है, क्योंकि ये देश गंजहों का देश बन चुका है, और गंजहे......अब क्या कहं, खुद पढ़ लीजिए। 
   

बुधवार, 26 नवंबर 2025

सालाना नोटबंदी हो





 दोस्तों मैं आपसे एक खास अपील करना चाहता हूं। एक अपील जिससे इस देश का बहुत भला हो सकता है। आपको याद होगा महामानव ने एक दिन रात को आठ बजे टीवी पर आकर एक ऐसा आदेश देश को दिया था, जिसने इस देश का पूरा रंग-रूप ही बदल दिया था। 



जिस दिन से इस देश में नोटबंदी हुई, उसी दिन से इस देश तक़दीर बदल गई, एकदम से देश की किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि ये देश तरक्की के ऐसे रास्ते पर चल निकला कि आज तक कोई भी इस देश को उस रास्ते से हटा नहीं पाया है। आपको याद होगा दोस्तों महामानव के उस क्रांतिकारी कदम का क्या जमकर विरोध हुआ था, क्या तो प्रगतिशील, क्या वामपंथी, क्या कांग्रेसी, सब ने महामानव की नोटबंदी को देश के लिए घातक बताया था। 


लेकिन महामानव को पता था कि ये नोटबंदी आखिरकार देश के कालेधन का बाहर निकाल लेगी, और आखिरकार सारा कालाधन बाहर आ गया। जो अरबों-खरबों रुपये का कालाधन लोगों ने दबा कर रखा हुआ था, वो बाहर आ गया, देश के कालेधन को लोगों की जेबों से बाहर निकालने में महामानव को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा वो तो महामानव ही जानते हैं। पूरे देश में कालेधन को बाहर निकालने के लिए जिस हिम्मत की ज़रूरत थी वो सिर्फ महामानव में थी। इस पूरे कालेधन पर हमले में सिर्फ कुछ हिम्मतवाले पत्रकार ही महामानव के साथ बने रहे थे। लेकिन आखिरकार महामानव ने सभी ग़रीब लोगों की जेबों से सारे कालेधन का बाहर निकाल ही लिया।


आखिरकार जब नोटबंदी के इस महती कार्य का मूल्यांकन किया गया तो पता चला कि, कुल 98 प्रतिशत धन वापस आया था। इसकी वजह ये थी कि ग़रीबों के पास जितना कालाधन था वो निकल गया, और अमीरों के पास जो कालाधन था, उसे व्हाइट करने के सारे रास्ते उन्होने अपना लिए होंगे। 

ये सही कि बहुत ज्यादा कालाधन वापिस नहीं आ पाया था, यानी जितना पैसा देश भर में घूम रहा था, उसका ज्यादातर हिस्सा तो वापस आ गया। तब महामानव ने हमें बताया कि ये नोटबंदी तो उन्होने इसलिए की थी ताकि आतंकवाद की कमर टूट जाए। आतंकवाद की कमर आप जानते ही हैं कि आज तक कोई तोड़ नहीं पाया, लेकिन महामानव का निशाना अचूक था, उन्होने सीधे आतंकवाद की कमर पर चोट की थी और नोटबंदी के चलते आतंकवाद की कमर ऐसी टूटी कि आज तक वो बेचारा अपनी टूटी कमर के साथ कराह रहा है और नोटबंदी के बाद से देश में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई है। इसलिए जब आप नोटबंदी के समय सामान्य नागरिकों की मौत की बात करते हैं तो ये याद रखिए कि इसी नोटबंदी से ही तो आतंकवाद की कमर टूटी है।

उसी समय एक अफवाह भी उड़ी थी कि महामानव के महान साथी, आधुनिक युग के चाणक्य और देश के गृहमंत्री ने कई हज़ार करोड़ रुपये का कालाधन इसी धकापेल में सफेद करवा लिए थे, जिनका कोई हिसाब नहीं था। खैर वो अफवाह थी, क्योंकि ई डी ने कोई छापा नहीं मारा, और इस खबर पर कोई कार्यवाही ना हुई। जिन खबरों पर कार्यवाही नहीं होती, वो सब अफवाहें होती हैं। लेकिन इन्हीं सब  तथाकथित प्रगतिशीलों के लगातार हमलों से आजिज आकर महामानव ने कह ही दिया, कि 50 दिन में अगर नोटबंदी का कोई पॉजीटिव रिजल्ट ना आए, तो वो खुद चौराहे पर आएंगे और उन्हें सरेराह पीटा जा सकता है। 

देखते देखते पचास दिन बीत गए, लेकिन महामानव को चौराहे पर नहीं आना था, वो ना आए। इन प्रगतिशीलों के कलेजे पर सांप लोट गया, इनकी बड़ी इच्छा थी कि महामानव अपने कहे अनुसार चौराहे पर आएं, और ये लोग उनके सिर पर जूते बरसाएं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, इसलिए नहीं कि महामानव झूठे हैं, और उन्हें झूठ बोलने की आदत है, बल्कि इसलिए कि तब, यानी आखिर में महामानव ने अपना फाइनल दांव खेला, उन्होने जनता को बताया कि दरअसल ये नोटबंदी कालेधन के बारे में नहीं थी, ना ही इसका आतंकवाद से कोई लेना-देना था, बल्कि सारा मसला ये था कि जनता को डिजिटल करेंसी की आदत लगानी थी। 

अब बताइए, नोटबंदी के बिना डिजिटल करेंसी का चलन कैसे संभव था। सदियों से इस देश में कैश का सिस्टम था, लोगों को आदत पड़ चुकी थी कि वो कैश में बैंक के ज़रिए डील करते थे। ऐसे में हमारे आधुनिक युग के महामानव ने ये सख्त कदम उठाया था कि लोग कैश को भूल जाएं, बैंक से पैसे निकालना बंद करें, और डिजिटल करेंसी का इस्तेमाल करें। और महामानव का ये कदम सफल रहा।
आज परे भारत में ढूंढ लीजिए किसी भी जेब में आपको कैश जिसे नगद कहते हैं, नहीं मिलेगा। अब कई लोगों को मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी के पास पैसा ही नहीं है। और जब पैसा है ही नही ंतो किसी की जेब में मिलेगा कैसे। लेकिन यहीं ये लोग ग़लत हैं, दरअसल पैसा बहुत है, सिर्फ अकाउंट नंबर बदल गया है। पहले पैसा जनता के पास होता था, लेकिन नोटबंदी के बाद सारा पैसा कुछ खास अकाउंटस् में टांसफर हो रहा है। ये जो खास अकांउटस् हैं ये महामानव के दोस्तों के हैं, इनमें देश का ज्यादातर पैसा जमा हो गया है, और अब वहां सेफ है। इसी सेफ पैसे के बलबूते हमारा देश दुनिया की चौथे नंबर की इकानॉमी बन गया है। और तो और, अब देश के तमाम पैसे को इन्हीं सेफ जगहों पर रखने के लिए महामानव ने एल आई सी का पैसा तक इन्हीं लोगों के पास टांसफर कर दिया है। 

और आपको याद होगा कि उसी दौरान दो हज़ार का ऐसा टेकनीकली एडवांस नोट भी ईजाद किया गया था, जिसमें चमत्कारी चिप लगी हुई थी।

ऐसे नोट की वजह से हालांकि कोई छापेमारी नहीं हो सकी, और ना ही किसी कालेधन का पकड़ा जा सका, लेकिन क्योंकि सरकार की तरफ से इसका कोई खंडन नहीं हुआ था, इसलिए मुझे तो अब भी लगता है कि ये खबर सच ही थी। पर सच कहूं तो मुझे तो दो हज़ार को नोट देखे ही सालों हो गए, क्या पता क्या सही है क्या ग़लत। पर इन महान पत्रकारों ने कहा और महामानव ने मना नहीं किया तो सही ही होगा। 
अब जब मैं आपको, महामानव के इस महान क्रांतिकारी कदम के बारे में बता चुका हूं, तो मैं अब आपसे अपील करना चाहता हूं कि नोटबंदी जैसे इस महान कदम को रिपीट करने की ज़रूरत है। जरूरत इस बात की है कि नोटबंदी ने जिस तरह देश की काया बदली है, इस देश को हर साल इसी तरह के कायाकल्प की ज़रूरत है। इसलिए हमें महामानव अपील करनी चाहिए कि वो हर साल उसी तरह आठ बजे टी वी पर आकर नोटबंदी की घोषणा करें। दोस्तों मेरा कहना है कि हर साल नोटबंदी होनी चाहिए। हर साल कालाधन बाहर आना चाहिए, हर साल आतंकवाद की कमर टूटनी चाहिए, हर साल डिजिटल करेंसी और डिजिटल इकॉनॉमी को मजबूत करना चाहिए, हर साल देश की अर्थव्यवस्था को बूस्ट मिलना चाहिए, और हर साल जनता को देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। 

और वहीं महान चाणक्य का ये अमर कथन भी गूंजा था कि जब विरोधी एकजुट हो जाएं तो समझ जाओ कि राजा सही कर रहा है। एक और महान मंत्री जी ने ये भी साबित किया था कि नोटबंदी की मार सहना ही देशभक्ति है। मेरा सवाल ये है कि क्या ऐसी देशभक्ति से देश की जनता को नियमित तौर पर दो-चार नहीं करना चाहिए। 
इसीलिए दोस्तों मैं चाहता हूं कि आप सबके मुहं पर यही एक सवाल और नारा हो, कि महामानव के इस महान कदम को जनता याद रखे, कि हर साल देश में नोटबंदी हो। आज मेरी आप से यही अपील है कि महामानव या उनके जो भी यार, दोस्त, भक्त, आदि मिलें, तो उनसे कहें कि भैये, देश हर साल एक नोटबंदी मांगता है। हमें चाहिए नोटबंदी, नोटबंदी-नोटबंदी
हमारे चचा ग़ालिब के जमाने में नोटबंदी नहीं हुई थी। कैसे होती, उस वक्त ना कालाधन था, ना आतंकवाद था, और ना ही डिजिटल करेंसी की कोई बात थी। हालांकि सुनते हैं भारत बहुत अमीर था उस समय, महामानव वाली बात तो खैर नहीं थी, फिर भी ठीक-ठाक हालत में था। तो उसी दौर का चचा ग़ालिब का शेर है


हो जाए जनता में कभी देशभक्ति मंदी
करवा दे तू झटक के मेरी जान नोटबंदी


नोटबंदी वो शानदार कदम था दोस्तों, जिसका हर साल याद किया जाना ज़रूरी है, महामानव को याद दिलाया जाना ज़रूरी है, जैसे उस नोटबंदी से देश महान से महानतम बना, वैसे ही हर साल नोटबंदी से देश महान बनता रहे यही हमारी कामना है।
नमस्कार

शनिवार, 22 नवंबर 2025

महामानव - बेरोज़गार




नमस्कार। मैं कपिल एक बार फिर आपके सामने। जनाब एक बात तो बताइए मुझे ये लोग महामानव का पीछा छोडेंगे कि नहीं। यार पिछले तीन - चार दिनों से लगातार महामानव की एक वीडियो को लगातार वायरल किया जा रहा है, लगातार उस पर मीम और जोक्स बनाए जा रहे हैं। 

बताइए, आखिर इस वीडियो में ऐसा क्या है कि जिसे मुद्दा बनाया जाए। एक तो आपको इतने कठिन प्रयासों के बाद, इतने खराब प्रधानमंत्री झेलने के बाद ऐसा छप्पन इंची छाती वाला, नॉन बायोलॉजिकल, विश्वगुरु टाइप महामानव पी एम मिला है, और अब जब वो कुछ नया, कुछ बेहतर, कुछ शानदार, कुछ दुनिया में पहली बार टाइप करने की कोशिश कर रहा है तो तुम हो कि उसके पीछे पड़े हो। 

महामानव हमारे हमेशा कुछ नया करने की कोशिश करते हैं, जब वे पहली बार पी एम बने थे, तब याद कीजिए उन्होने नवयुवकों को, इस देश की फ्यूचर जेनरेशन को एक नई दिशा दी थी।




तब भी तुम लोगों ने महामानव का मज़ाक बनाया था, लेकिन देश के नौजवानों ने इसे हाथों-हाथ लिया, और तन, मन, धन से पकौड़े बेचने में लग गए। और आज आलम ये है कि पकौड़े बेचने और बनाने में भारत दुनिया में नंबर वन देश बन गया है, हर गली, हर चौराहे, हर नुक्कड़ पर, हर उम्र का व्यक्ति, पकौड़े बेच रहा है, कहीं कहीं तो नौजवानों ने अपनी डिग्री को ही अपनी दुकान का नाम बना लिया है। दोस्तों सिर्फ महामानव ही विश्वगुरु और वर्ल्ड लीडर नहीं बने हैं, बल्कि हमारे देश में रोज़गार का भी विकास हो गया है। और जो लोग महामानव के द्वारा सुझाए गए पकौड़ा बेचने वाले बयान का मज़ाक उड़ा रहे थे, वो आज कहां हैं? कहां हैं? अरे मैं पूछ रहा हूं कि वो आज कहां हैं? जबकि महामानव अपनी एंटायर पॉलिटिकल साइंस में एम ए की डिग्री के साथ अब भी महामानव पी एम ही बने हुए हैं। 



महामानव जो भी करते हैं, उसमें वो अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। अब देखिए सदियों तक लोगों को ये एंटायर पॉलिटिकल साइंस याद रहने वाला है, और इसकी वजह ये है कि ये डिग्री आज तक किसी को मिली नहीं, और आगे भी ये डिग्री किसी को मिलने की संभावना नहीं है। हालांकि मैने अपना बी ए ऑनर्स पॉल साइंस दिल्ली यूनिवर्सिटी से किया है, लेकिन अफसोस कि मुझे भी एंटायर पोल साइंस की डिग्री नहीं मिली। क्या कोई जानकार मुझे ये बता सकता है कि क्या मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी पर भेदभाव का इल्जाम लगाते हुए मुकद्मा कर सकता हूं क्या? क्या मुझे और मेरे जैसे लाखों, करोड़ों लोगों को भी एंटायर पोलिटिकल साइंस की डिग्री नहीं मिलनी चाहिए थी क्या? 
खैर मैं विषय से भटक जाता हूं। महामानव विषय से नहीं भटकते, आखिर वो महामानव हैं, इसलिए जब से वो इस देश के राजा नियुक्त हुए हैं, उन्होने क़सम खाई है कि देश को बेरोज़गारी से, और बेरोज़गारों से मुक्त कर देंगे। अब ज़रा ध्यान से सुनिएगा। बेरोजगारी दूर करने के दो तरीके होते हैं, एक तो यही कि रोज़गार उपलब्ध करवाया जाए। अब इस तरीके में, कई अड़चने आती हैं, सरकारी नौकरियां हैं नहीं, क्योंकि सरकारी काम के लिए तो ठेके पर लोग रखे जा रहे हैं। दूसरा सरकारी सेक्टर को प्राइवेट हाथों में, या सीधा कहें तो अडानी के हाथों बेच दिया जा रहा है। इसलिए नौकरियों की गुंजाइश कम होती जा रही है। इसके अलावा पहले तो वेकेंसी ही नहीं निकलती, वेकेंसी निकलती है तो पेपर लीक हो जाता है, वेकेंसी निकली, पेपर भी लीक नहीं हुआ, तो जो पेपर पास करते हैं, उनका नियुक्ति पत्र आते-आते ही पंद्रह-बीस साल लग जाते हैं। ऐसे में सीधे रास्ते से रोज़गार सृजन हो तो कैसे हो। 
रोज़गार सृजन का दूसरा तरीका है, हर उस चीज़ को रोज़गार का नाम दे देना, जिससे आप दो पैसा कमाते हो। 
अब मान लीजिए, आप बेरोज़गार हैं, और मजबूरी में, दोस्त-रिश्तेदारों के तानों से बचने के लिए दिन में गांव के तालाब में मछली पकड़ने जाते हो तो क्या
उसे आप रोज़गार कहेंगे कि नहीं कहेंगे
या मान लीजिए, आपने बेरोज़गारी से तंग आकर भीख मांगना शुरु कर दिया। हालांकि शुरु में आपको किसी ने ना पूछा क्योंकि आपको एक्सपीरिएंस नहीं था। लेकिन फिर आपको थोड़ी-बहुत भीख मिलने लगी। अब आप मुझे बताइए कि 
डसे आप रोज़गार कहेंगे कि नहीं कहेंगे
आपके पिता ने आपको पढ़ाने के लिए अपना छोटा-मोटा खेत बेच दिया, आपने भी अपनी पूरी मेहनत की, और बी टेक में अच्छे नंबरों से पास हो गए। इसके बाद आपने अपनी जिंदगी का सबसे अहम काम, यानी नौकरी की तलाश शुरु की, पर फिर मजबूरी में आपको डिलीवरी ब्वॉय का काम करना पड़ा। जिसमें सैलरी तो कम थी ही, लेकिन गालियां भी बहुत मिलती थीं, लेकिन आप मुझे बताइए कि 
इसे आप रोज़गार कहेंगे कि नहीं कहेंगे
इसी तरह दुनिया में तमाम तरह के काम हैं, जिन्हें करने के बाद आप खुद को कुछ भी कह लें, बेरोज़गार नहीं कह सकते। महामानव की रोजगार देने की इस तकनीक से दुनिया में बेरोज़गारी का आंकड़ा यूं धड़ाम से नीचे आकर गिरेगा कि क्या न्यूटन का सेब भी गिरा होगा पेड़ से। भाई साहब सच बता रहा हूं आपको ग्रेविटी का कोई नया नुस्ख ईजाद करना पड़ेगा। 
इस तकनीक का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि सरकार को कोई काम नहीं करना पड़ता, बस आंकड़ों में थोड़ी हेर-फेर करनी होती है, और वो कोई बड़ा काम नहीं है सरकार के लिए। ये दुनिया भर के आइ ए एस, आई आर एस, आई पी एस बनाए किसलिए हुए हैं जी। इनका मुख्य काम ही ये है कि महामानव जब चाहे ंतब उन्हें मनमुताबिक आंकड़े मुहैया करवा दिए जाएं। 

अब जैसे ये बेरोज़गारी के आंकड़ों का ग्राफ है, अब इसमें देखिए तीर उपर की तरफ जा रहा है, इसका मतलब ये है कि बेरोज़गारी बढ़ रही है। अब अगर इसे लोगों को दिखाना है तो महामानव ने जिस मोबाइल की लाइट जलवाई थी, उसे उल्टा कर दीजिए। अब देखिए बेरोज़गारी का तीर कैसे नीचे जा रहा है। 


दुनिया की हर ग़लत चीज़ की तरह, देश की बेरोज़गारी भी असल में नेहरु की ग़लती है। महामानव पिछले तेरह सालों से नेहरु की ग़लतियां गिनवा रहे हैं, और आप इतने बेमुरव्वत हैं कि आपको अब भी यकीन नहीं आता कि इस देश की जितनी मुसीबतें हैं, वो सब नेहरु की ग़लती हैं, जिनमें बेरोज़गारी तो मुख्य है। सच बता रहा हूं कि अगर देश की आज़ादी के समय नेहरु की जगह महामानव को देश का पहला प्रधान मंत्री बना दिया गया होता तो ये जो थोड़ी बहुत बेरोज़गारी इस देश में बची हुई है, वो भी खत्म हो गई होती। लेकिन इस देश को आज़ाद करवाने वालों को जाने क्यों तब महामानव की अजैविक, अद्भुत और अलौकिक क्षमता दिखाई ना दी, जो आज के टी वी एंकरों को दिखाई देती है।

बंधुवर, माननीय मेरी ये बात गांठ बांध कर रख लो, कि अगर आप भी महामानव के नुस्खों के हिसाब से चलोगे तो आप को भी ये नया चमत्कार दिखाई देगा, चारों तरफ बहार दिखाई देगी, हर तरफ रोज़गार दिखाई देगा। आज महामानव ने बिहार के हर रील बनाने वाले को बेरोज़गार की श्रेणी से बाहर निकाल दिया है। वो दिन दूर नहीं, जब वे अपने इसी मंत्र से पूरे देश के बेरोज़गारों को एक ही झटके में रोज़गार वाला बना देंगे।
ये तेजस्वी, राहुल, अखिलेश ये सब सिर्फ रोज़गार के दावे कर रहे हैं, ये सिर्फ आपको भरमा रहे हैं। महामानव ने तो चुनावों से पहले ये साबित कर दिया है कि उन्होने बिहार के युवाओं को रोज़गार उपलब्ध करवा दिया है। महामानव की इसी उपलब्धि पर एक बार जोरदार तालियां हो जाएं। 

बिहार तो फिर मान लीजिए अब भी थोड़ा -बहुत, ज्यादा नहीं, पर थोड़ा-बहुत पिछड़ा राज्य है, लेकिन आप देखिए कि खुद को महान मानने वाला केरल जो कल तक यू पी के शिक्षा के मॉडल को फॉलो करता था, कहीं कल से उसे भी बिहार के रोज़गार वाले मॉडल को फॉलो ना करना पड़ जाए। बेरोज़गारी को मात अगर किसी ने दी है दोस्तों तो वो आधुनिक युग के अवतार हैं, महामानव। महामानव ने वो कर दिखाया जो पूरी दुनिया में आज तक कोई नहीं कर पाया। और ये तो अभी बिहार चुनावों की शुरुआत है, और मुझे पूरा यकीन है कि वो दिन दूर नहीं जब इसी तरह के रील्स बनाने और पकौड़े तलने के रोज़गार में पूरी दुनिया को लीड करेगा। और दुनिया ससम्मान महामानव को विश्वगुरु के ओहदे पर बैठाएगी। 
जब तक उस दिन का इंतजार करना हो, तब तक आप दो-चार सौ रील और बना लीजिए। अब महामानव ने कह दिया है तो रील्स का ये कारोबार रुकना नहीं चाहिए, ताकि सबको रोज़गार मिलता रहे। और महामानव इस रोज़गार का श्रेय लेते रहें। जय महामानव, जय रोज़गार। 

चचा जो हैं हमारे, ग़ालिब, जीवन भर बेरोज़गार रहे। क्या करें, ना तो पकौड़े बेच पाए ना उस वक्त मोबाइल था, और ना ही महामानव ने तब तक डेटा सस्ता किया था। इसलिए रील्स बनाने के रोज़गार को भी न जुटा पाए। पर रोजगार पर एक भावनात्मक शेर लिखा है उन्होने

तूने मुझे क्यों ना दिया रोज़गार, किसी काम आता मैं भी
जो तू डाटा सस्ता कर देता, तो रील्स बनाता मैं भी

ग़ालिब को अफसोस रहा कि वो अपनी शायरी की रील्स न बना पाए कभी, जब भी घंटे वाले हलवाई के यहां जलेबी खाने जाते थे तो इसका जिक्र जरूर करते थे। खैर चचा से अपनी बातचीत किसी और वक्त बताउंगा। आप अपना रोज़गार जारी रखिए, और हां, इस बार बिहार में महामानव को ही वोट कीजिए, ताकि मछली मारना, मच्छर मारना, पुलिस से पिटाई खाना, आदि को भी रोज़गार गिना जाने लगे। 
इसे आप रोज़गार कहेंगे कि नहीं कहेंगे
मिले रोज़गार, जय बिहार। नमस्कार

बुधवार, 19 नवंबर 2025

जो नहीं कहा उसकी सज़ा

 



आज की बात एक शेर से शुरु करते हैं....

जो बात मैने नहीं कही थी, उसी पे तक़रार हो रही थी
वो कह रहे थे, नहीं, कही थी, मैं कह रहा था नहीं कही थी

ये तो पता नहीं चल सका कि ये शानदार शेर किसका है, बहुत ढूंढा, पर नहीं मिला। पर जिसने भी लिखा बहुत ही सामयिक शेर है। जो हमने नहीं कहा, वही उन्हें दिखाई दिया, तो महत्व इसका है कि उन्हें क्या दिखाई दिया, इसका नहीं कि हमने क्या नहीं लिखा। खैर हाल में इलाहाबाद हाईकोर्ट का बहुत ही शानदार फैसला और कथन देखा। बहुत अच्छा फैसला है और बहुत अच्छा कथन है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जो कुछ नहीं कहते। कोर्ट का कहना है, कि चाहे तुम कुछ ना कहो, हमने सुन लिया, और अब इसी बिना पर तुम्हें हमने अपराधी मान लिया। ये इस देश के दंडविधान का इवोल्यूशन माना जाएगा। इवोल्यूशन को हिंदी में विकास कहते हैं, लेकिन यहां मुझे ये शब्द विकास कुछ ज्यादा जंच नहीं रहा है। खैर जो भी हुआ हो, हमारे देश के दंडाधिकारी, लगातार और सेंसेटिव लगातार विकास की उच्चतर अवस्था को जाते जा रहे हैं। पहले सिर्फ सबूतों और गवाहों के बयानों को मद्देनज़र रख कर फैसला किया जाता था, उसके बाद दंडाधिकारियों को लगने लगा कि इस तरह जो फैसले होते हैं, उनमें इस बात का बहुत ज्यादा दखल होता है कि आंखों के सामने क्या है। इसलिए सोचा गया कि इसमें कुछ सुधार करना होगा, धीरे-धीरे ये प्रकिया शुरु हुई कि दंडाधिकारियों ने, जिसे आप सामान्य भाषा में जज या न्यायाधीश कहते हैं, ये करना शुरु किया कि फैसले पढ़ने से पहले फिल्मी गाने गाने शुरु किए ताकि वे ये समझा सकें  िकवे कितने बड़े देशभक्त हैं, और आरोपी के बारे में वो क्या सोचते हैं। इसके अलावा मोरनी के बच्चे पैदा करने के बारे में, अपने ईश्वर से सपने में पूछ कर फैसले देने जैसे कई महत्वपूर्ण पड़ाव पार करके अंततः हम उस महत्वपूर्ण माइलस्टोन पर आ पहुंचे हैं, जहां हमारे दंडाधिकारी अब ये कह रहे हैं कि तुमने कहा बेशक ना हो, लेकिन हम ये समझ कर, कि तुम क्या कहना चाहते थे, तुम्हे दंड देंगे। 

मेरे दोस्तों जल्द ही वो समय आने वाला है जबकि तुम क्या सोचते हो, जैसी महत्वपूर्ण बातों पर तुम फैसला नहीं लोगे बल्कि ये सरकार तुम्हें बताएगी कि तुम्हें क्या सोचना है, और यही काम इन दंडाधिकारियों ने शुरु कर दिया है। किसी जमाने में एक किताब पढ़ी थी, हालांकि किसी विदेशी लेखक की किताब थी, जहां एक थॉट पुलिस होती थी। वहां नागरिकों की सोच पर भी दंडाधिकारियों की नज़र होती थी। भली सी किताब थी, कुछ 1984 करके, जॉर्ज ऑरवेल ने लिखी थी। सच कहूं तो ये बढ़िया मामला लगता है, हमें आइंदा दिनों में भारतीय कोर्टस् से यही उम्मीद करनी चाहिए कि वो जल्द ही सारे देश में ये निर्देश भी लागू कर दें कि अगर कोई ऐसी-वैसी बात सोचेगा भी तो उसे अंदर कर दिया जाएगा, या मान लीजिए जो भी दंड उसके लिए उचित होगा वो उसे दे दिया जाएगा। जैसे मान लीजिए आपने व्हाटस्एप पर किसी को कहा ईद मुबारक, अब कोई आपके खिलाफ शिकायत कर सकता है कि आपने ये धार्मिक भावनाएं भड़काने वाला मैसेज किया है, अब कोर्ट कहेगा कि हां भई, तुमने जो नहीं लिखा वो तो साफ दिखाई दे रहा है, कि तुम धार्मिक भावनाएं भड़का रहे हो, क्योंकि कोर्ट के पास ये विशेष समझ होती है कि वो वो बातें भी समझ लेता है जो लिखी नहीं गई हैं इसलिए उस व्यक्ति को सज़ा मिलेगी जो व्हाटस्एप् पर ऐसा कोई मैसेज भेजेगा। 

वाह कितना सुंदर वातावरण हो जाएगा, ऐसे देश में कौन रहना नहीं चाहेगा, जहां दंडाधिकारी ये कह कर दंड दे, कि उसे पता है कि तुम क्या सोच रहे हो। ऐसे सटल मैसजेस पर दंड देने की परंपरा का जल्द ही विकास होगा, और यहां तक पहुंचेगा कि तुम्हारी भावनाओं पर भी तुम्हें दंड दिया जा सकेगा। वैसे भी इस देश में बुरा-बुरा सोचने वाले बहुत सारे लोग हैं, और इन सब बुरा सोचने वालों पर कार्यवाही होनी ही चाहिए। मेरा मानना है कि ऐसा एक प्रकोष्ठ, बनाया जाना चाहिए जो लोगों की सोच पर नज़र रखे और सीधे दंडाधिकारियों को रिपोर्ट करे कि कौन बुरा, ग़लत या मान लीजिए ऐसा सोच रहा है जो सरकार की विचारधारा से मेल नहीं खाता, और दंडाधिकारी इस सोच को ही आधार बना कर उस पर कार्यवाही कर सकती है, उसे जेल भेज सकती है या सीधे गोली मारी जा सकती है। हमें ऐसी किसी सोच को पनपने नहीं देना चाहिए जो सरकार की, पुलिस की, और कोर्ट की आलोचना करती हो। क्योंकि इस देश में रहने वाले सबके लिए सबसे पहली शर्त ये होनी चाहिए कि वो ये मानें कि सरकार, पुलिस और कोर्ट जो भी करते हैं, वो सब सही और अच्छा होता है और उसकी आलोचना करना, पाप है, और अपराध की तो मान लीजिए एक बार को माफी मिल भी जाए, पाप की माफी नहीं मिलती, पाप की तो सज़ा ही मिल सकती है। 

दोस्तों, इस देश में वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फ्री थिंकर्स बहुत हो गए हैं, बल्कि बहुत से ज्यादा हो गए हैं, उनकी हमें ज़रूरत नहीं है, ये लोग दिन-ब-दिन स्थापित सिस्टम को चैलेंज करते हैं, कई खुले-आम करते हैं, कई ढंके-छुपे करते हैं। इन खुले आम आज़ादी मांगने वालों को तो हम समय-समय पर सबक सिखाते ही हैं, अभी उमर खालिद समेत ग्यारह-बारह लोगों को बिना किसी मुकद्में के ही जेल में डाला हुआ है, पांचेक साल हो गए, तो इन लोगों का जो खुले आम किताबें लिखते हैं, भाषण देते हैं, गाने गाते हैं, नाटक-फाटक करते हैं, और अब तो सोशल मीडिया प्लेटफार्मस् पर भी आ गए हैं, इनका इलाज तो ये है कि इन्हें सीधे जेल में डाला जाए, हैं जी। लेकिन ये जो ढंके-छुपे हैं, तथाकथित प्रगतिशील हैं, लोकतंत्र के हिमायती, ये बहुत खतरनाक हैं, इनका इलाज अब शुरु किया जाएगा। इन्हें पकड़ने में बड़ी दिक्कत ये होती थी कि ये लोग खुलेआम ऐसा कुछ नहीं करते थे कि इन पर आरोप लगाया जाए। ये लोग या तो समर्थन करते थे, या फिर सोशल मीडिया पर आने वाले ऐसे संदेशों को शेयर कर देते थे। ये लोग ऐसा भी करते थे कि व्यंग करते थे, सटायर जिसे कहते हैं। अब आप कुछ लिखोगे नही ंतो कोई आप पर कोई आरोप कैसे लगाएगा। अब होगा ये कि ये दंडाधिकारी कह सकते हैं, कि ये सही कि तुमने लिखा नहीं, जो हमारे हिसाब से अपराध है, लेकिन बच्चू तुमने जो नहीं लिखा तुम्हें उसकी सज़ा मिलेगी। वाह। मैं सच बात रहा हूं दो दिन में होश ठिकाने आ जाएंगे इनके। 

असल में कोर्ट के इस फैसले से जो समझ में आता है, वो ये कि ये सही है कि संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात की गई है, लेकिन आप थोड़ा सोचिए, अरे भई हर किसी को तो ये आज़ादी नहीं दी जा सकती, ये आज़ादी सिर्फ उन लोगों को दी जा सकती है, जिनके पास सोचने-समझने की लियाकत है। मेरा मानना तो ये है कि सोचने की आज़ादी के लिए भी एक सर्वे करवाया जाना चाहिए, जो महामानव को अजैविक, ईश्वर का अवतार माने, आंखे मूंद कर सरकार पर भरोसा करे, और सिर्फ और सिर्फ वर्तमान सत्ताधारी पार्टी को वोट देने पर हामी भरे, सिर्फ उन्हीं को सोचने, बोलने की आज़ादी होनी चाहिए। बाकी सभी के लिए पहले तो यही तय कीजिए कि वो इस देश के नागरिक होने लायक भी हैं या नहीं। और इस तरफ हमारे देश की एक और बहुत ही शानदार लोकतांत्रिक संस्था के चु आ ने काम शुरु कर भी दिया है, अब वो तय कर रहे हैं कि कौन इस देश का नागरिक है और कौन नहीं। दूसरा काम इन कोर्ट ने तय कर दिया है। बढ़िया, अब इस देश में लोकतंत्र की वो बढ़िया वाली बीन बजेगी जिसके सुर सदियों तक जनता के कानों में गूंजते रहेंगे। 


किसी शायर ने लिखा था।

निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन के जहां
चली है रस्म के कोई ना सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्म-ओ-जां बचा के चले

दोस्तो इशारा साफ है कि गुरु वही समय आ गया है। अब तुमने जो ना लिखा, वही हमने समझ लिया, हम जानते हैं कि तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है, इसलिए तुमने जो सोचा उस पर हम तुम्हें दंड देंगे, कर लो जो कर सकते हो। मैं तो ये सोच-सोच कर ही रोमांचित हो जाता हूं कि कैसा समय आ रहा है कि जब किसी को बुरा सोचने पर भी जेल में भेजा जा सकता है। थ्री चीयर्स फॉर द कोर्ट, विच एक्चुअली गेव अस दिस शानदार ऑपरच्युनिटी। हिप हिप हुर्रे, हिप हिप हुर्रे, हिप हिप हुर्रे।

ऐसे ही शानदार फैसलों से मेरे देश में लोकतंत्र और फैलता जाएगा, और एक दिन ऐसा आएगा कि जब ये सारे बुरा सोचने वाले, जेल में होंगे और पूरे देश में एक शानदार पीसफुल माहौल होगा। 

चचा ग़ालिब के जमाने में जब सुनते हैं बादशाह का राज था, लेकिन उस जमाने में बादशाहत के पास ऐसी तकनीक नहीं थी कि वो किसी के सोचने पर रोक लगा सकते, या ये कह सकते कि तुमने जो नहीं कहा है, तुम्हें उसकी सज़ा दी जाएगी। तो ग़ालिब का ये शेर आज के दौर के लिए

जो कहा नहीं है तुमने, हमने समझ लिया है
अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खानी पड़ेगी

सोचना, समझना, बोलना छोड़िए, तब हो सकता है कि आप जेल से बच जाएं, बाकी बोलने वालों की शामत आई है। क्या कहे साहब अमृतकाल है, जो ना हो जाए वो थोड़ा।

गुरुवार, 13 नवंबर 2025

महामानव और महंगाई




 दिवाली दरवाजे़ पर है और चारों तरफ चर्चा है, महंगाई की। महंगाई जिसे आमिर खान द्वारा निर्मित एक फिल्म में डायन भी कहा गया है। मुझे इससे घोर एतराज है। महंगाई को डायन कहना, मितरों, हमारी पुरानी परंपरा और संस्कृति पर हमला है, और हमें इस हमले का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। महंगाई का समर्थन, करना दरअसल एक तरह से अपने महामानव का ही समर्थन करना है दोस्तों। कोई ज़रा महंगाई का विरोध करने वालों से पूछे कि क्या कांग्रेस के जमाने में महंगाई नहीं थी? क्या नेहरु के जमाने में, इंदिरा के जमाने में राजीव गांधी के जमाने में महंगाई नहीं थी, मनमोहन सिंह, क्या मनमोहन सिंह के जमाने में महंगाई नहीं थी। जाहिर है इन सभी जमानों में महंगाई थी, लेकिन यही लोग जो आज महंगाई का विरोध कर रहे हैं, उस समय महंगाई का विरोध नही ंकर रहे थे। आज ये महंगाई का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि देश की गद्दी पर सदियांे बाद एक हिंदू शेर बैठा है, जिसे महामानव कहते हैं। महामानव द्वारा बढ़ाई गई ये महंगाई हमारे देश को, देश वासियों के लिए, राष्टप्रेमियों के लिए, महामानव का ही एक तोहफा है, एक वरदान है। महामानव की इस महंगाई से देश का चरित्र मजबूत होता है, नैतिकता बढ़ती है, आत्मा का परमात्मा से रिश्ता मजबूत होता है, और सबसे बड़ी बात, देश की नैतिकता और सद्चरित्रता का उत्थान होता है।



 

महंगाई के साथ इस देश ने कभी भी बहुत अच्छा व्यवहार नहीं किया है, लोग महंगाई को उसके सही अर्थों में समझ नहीं सके, और इस देश ने हमेशा कोशिश की कि महंगाई कम की जाए, महंगाई के प्रति एक नफरत का वातावरण हमेशा तैयार किया गया, जनता ने महंगाई को कभी अच्छा नहीं समझा। पहली बार हमें महामानव ने समझाया कि महंगाई अच्छी होती है। अगर आप सच्चे महामानव प्रेमियों से मिलेंगे, सच्चे देशभक्तों से मिलेंगे तो आपको पता चलेगा कि महंगाई परेशान करने वाली चीज़ नहीं है, बल्कि खुशी मनाने वाली चीज़ है। 


महंगाई का क्या ह ैना मितरों, ये हमारी परंपरा का हिस्सा है, याद कीजिए, बचपन से ही हमें सिखाया जाता है, सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार। महामानव हमारे परंपरा वाले हैं, ये उनका अजैविक कर्तव्य है कि पूरा देश अपनी परंपरा और संस्कृति को भूलने ना पाए। इसलिए वो हमें बार-बार नहीं रुलाना चाहते, वे चाहते हैं कि हम एक ही बार रोएं, जब हम महंगा खरीदें। अगर देश में चीजें सस्ती होंगी तो इस पारंपरिक कहावत के अनुसार हमें बार बार रोना होगा, और ऐसा कौन होगा, जो बार-बार रोना चाहेगा। इसलिए महामानव ने महंगाई को इत्ता बढ़ा दिया है, ताकि लोग रोएं, लेकिन एक ही बार रोएं। ये जो रोने की परंपरा है, बहुत उम्दा परंपरा है, इससे होता ये है कि रोने वाले को रोने से नहीं, बल्कि रोने की शिकायत करने वालों से परेशानी होती है, और दुआ की जाती है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोने का मौका मिले। 

महंगाई के यू ंतो कई फायदे हैं, और मैं आपको गिना भी सकता हूं, पर सोचता हूं कि आप सभी समझदार लोग हैं, पिछले पंद्रह सालों में आपको समझ आ ही गया होगा कि महंगाई हो तो उसे उत्सव की तरह लेना चाहिए। महंगाई को क्या, महामानव ने हमें हर आपदा को उत्सव में बदलने के, आपदा को अवसर में बदलने का महत्व सिखाया है। याद कीजिए कोविड में जब देश में लाशों का अंबार लगा था, तो महामानव हमसे थाली बजवा रहे थे, मोबाइल की टॉर्च जलवा रहे थे, जब नोटबंदी के समय पूरा देश रोने लगा था, ए टी एम की लाइन में खड़े-खड़े ही लोग, इस नश्वर शरीर को छोड़ रहे थे, तब महामाानव ही थे, जिन्होने हमें समझाया था कि लाइन में लगने का कितना महत्व है। जब अमरीका ने टैरिफ लगाया तो महामानव ने उसे स्वेदशी में बदलने की कोशिश की, और फिर जी एस टी से बरबाद हुए लोगों को महामानव ने ही बचत उत्सव का नारा दिया था। 



महामानव ने आप पर ये अहसान किया है, वो आप को कर्मठ बना रहे हैं। इसे ज़रा इस तरह समझिए कि अगर सब कुछ सस्ता होगा, यानी उसे खरीदने में पैसे कम लगेंगे, कम पैसों की ज़रूरत हो तो लोग पैसा कम ही कमाते हैं, कम पैसे के लिए मेहनत भी कम लगती है। अब ज़रा सोचिए कि लोग कम मेहनत करेंगे तो देश में कर्मठता की कमी होगी, देश की उत्पादकता में कमी होगी, और देश ग़रीब हो जाएगा। जो देश के लिए घातक होगा। देश की भलाई इसी में है कि देश में महंगाई हो, देश में महंगाई होगी तो सामान जैसे खाना, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थय सब महंगा होगा, जब सब कुछ महंगा होगा तो उसे अफोर्ड करने के लिए लोगों को ज्यादा पैसा चाहिए होगा। ज्यादा पैसा बिना ज्यादा काम किए नहीं आएगा, लोग ज्यादा काम करेंगे तो देश की उत्पादकता बढ़ेगी और देश अमीर होगा। यूंह ी तो देश की अर्थव्यवस्था उछाल नहीं मार रही। अगर देश पुराने ढर्रे पर चल रहा होता जहां लोेग महंगाई के खिलाफ हों, और सरकार महंगाई के खिलाफ काम कर रही होती तो आज देश की अर्थव्यवस्था चौथे पायदान पर नहीं होती।



देश की अर्थव्यवस्था को ऐसी हालत में लाने का पूरा श्रेय इस महंगाई को दिया जाना चाहिए और ये महंगाई आपके जीवन में महामानव लाए हैं, ऐसी अभूतपूर्व महंगाई के लिए हमें महामानव को धन्यवाद देना चाहिए। महामानव को धन्यवाद दीजिए कि घर की मुर्गी को उन्होने सच में दाल बराबर कर दिया, बल्कि ये कहा जाए कि दाल की कीमत मुर्गी बराबर हो गई, ये महामानव का कमाल है। अब कोई पार्टी मांगे तो आप हंसते हुए दाल पका कर सर्व कर सकते हो, और कोई आपको नहीं टोकेगा। 



महामानव और उनकी पार्टी के लोग इस फिलासफी की बारीकी को समझ गए हैं, लेकिन अन्य लोग इसी महंगाई पर राजनीति करने को उतारु हैं, ये लोग तुम्हें महंगाई जैसे मुद्दों पर भड़काने की कोशिश करेंगे, लेकिन तुम असली मुद्दों पर डटे रहना, मंदिर बन ही गया है, भारत विश्वगुरु बनने ही वाला है, बस अब तुम इस रास्ते से मत भटकना, याद रखना, महामानव की ये महंगाई तुम्हारे भीतर के हिंदू की परीक्षा है, बच्चे भले ही भूखें रहें, अनपढ़ रहें, लेकिन एक बार भारत हिंदू राष्ट बन गया तो फिर मजे ही मजे होंगे। ये लोग, खुदा इन्हें गारत करे, इस देश में फिर से सस्ते दिन लाना चाहते हैं, एक हम हैं कि पिछले बारह सालों से अच्छे दिनों को इंतजार कर रहे हैं, अब जब अगले कुछ बारह-पंद्रह सालों में अच्छे दिन आने ही वाले हैं, ये लोग हमें फिर से उन्हीं दिनों में ले जाने की बातें कर रहे हैं, जब पैटरोल पचास-साठ रुपये का था और डॉलर भी इसी दाम मिल जाता था, कहां आज हम बड़े गर्व से दो-ढाई सौ रुपये किलो दाल खा रहे हैं, और कहां ये लोग हमें फिर से साठ-सत्तर वाली सस्ती दाल खिलाने पर आमादा हैं, कहां हम रसोई गैस के बारह-पंद्रह सौ रुपये दे रहे हैं, और ये लोग हमें चार-पांच सौ रुपये में रसोई गैस का लालच दे रहे हैं। 




याद रखना दोस्तों, अच्छे भविष्य के लिए हमें अपनी और अपने बच्चों के भविष्य की बलि देनी ही होगी, हमारे बच्चें ना पढें ना सही, उन्हें रोजगार ना मिले ना सही, लेकिन अखंड भारत, सनातन और धर्म की रक्षा के लिए ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। तुम्हारी महंगाई से ही तो इस देश के वीर सपूत, अडानी और अंबानी दुनिया के सबसे अमीर लोगों की श्रेणी में आए हैं, अरे क्या तुम्हें गर्व नहीं होता कि चाहे देश में करोड़ो लोगों को खाने के लाले पड़े हों, लेकिन देश के कुछ लोग दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूचि में आते हैं। ये गर्व ही असली चीज़ है, राशन का क्या है, कल था, आज नहीं है, हो सकता है आगे भी ना हो, इसकी कोई गारंटी नही ंकर सकता। लेकिन असली चीज़ है देश का गौरव, तुम्हारे बच्चों की लाशों पर जो आलीशान महल बने हैं, वो पूरी दुनिया में देश का गौरव बढ़ाते हैं, सच कहना अपने बच्चों की मौत पर रोते हुए, क्या तुम्हें पूरी दुनिया में महामानव के नाम का डंका बजते हुए सुनने से गर्व नहीं होता, तुम्हारी छाती नहीं फूलती। बच्चों की दवा ना हो तो क्या, किसानों को खाद ना हो तो क्या, महामानव के नाम का डंका तो बदस्तूर बज रहा है दुनिया में। यही एक संतोष लेकर जीना हमें पिछले बारह सालों में महामानव ने सिखाया है, और मुझे पूरा यकीन है कि आगे भी वो अपने इसी कार्य में लगातार लगे रहेंगे। 


मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं दोस्तों की ये गाड़ी जो महंगाई की सड़क पर इतनी तेज़ रफ्तार से दौड़ रही है इसे किसी भी लालच में धीमा नहीं करना है, ये महंगाई हमें भले ही बरबाद कर दे, लेकिन हमें महामानव के जुमलों पर ही जीवन चलाते रहना है। महंगाई को बुरा मत समझिए, बुरा मत कहिए, बल्कि और लोगों से सवाल कीजिए कि, महंगा है तो क्या हुआ, पूरी दुनिया में डंका तो बज रहा है, अब हम अमरीका को ये तो कहते हैं कि तू क्या है बे, चीन को लाल आंखों से डराते तो हैं, अब्दुल को टाइट कर दिया, दलितों को लगातार सबक सिखा तो रहे हैं, औरतों के साथ वो सब भी तो कर रहे हैं, जो हम करना चाहते हैं। महंगाई है तो क्या, हम अपने देश को महामानव के सपनों का देश बना रहे हैं, और हम चाहे कितना भी मुश्किल झेलें, हम महामानव के दिखाए रास्ते से नहीं हटेंगे, महामानव का डंका बजता रहेगा। 


कहते हैं अपने दौर में चचा महंगाई से परेशान नहीं थे, लेकिन जैसा कि चचा के बारे में कहा जाता है, अपने दौर से आगे के शेर लिखे हैं उन्होने, उनके शेर उनके ज़माने के लोग तो समझ नहीं पाए, भविष्य को देख कर लिख रहे थे वो, इसीलिए महंगाई पर लिखे उनके इस शेर की उस जमाने के लोगों को कोई कदर ना हुई, आप देखिए, आपको पक्का इस शेर से कुछ सीख मिलेगी, तो मुलाहिजा फरमाइए।

महंगी है जिंदगी, इसे रोकर गुज़ार दे
खुद को तू बेवकूफ, महामानव पे वार दे
ग़र भूख प्यास से कभी हो जाए परेशान
जय बोल धर्म की, और कपड़े उतार दे

तो महंगाई के इस बेहद शानदार समय में आपकी दिवाली ठीक से गुज़रे, आप महंगा सोना भले ना खरीद पाएं, मिठाई भी महंगी ही है, तो बताशों से ही काम चलाइए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आज्ञा दे ही दी है, पटाखे ज़रूर जलाइए। बाकी महंगाई का जश्न मनाइए, और इस महंगाई के लिए महामानव को बधाई देना ना भूलें। 

बुधवार, 12 नवंबर 2025

गांधी नहीं, महामानव महान हैं।




 दोस्तों आज मैं आपके सामने एक बहुत बड़ा सवाल लेकर आया हूं। ये सवाल, या आप इसे जो भी कहें, इत्ता बड़ा है कि इसके आगे सभी सवाल फीके और बेजान मालूम होते हैं। सवाल ये है कि इस देश में गांधी बड़े या महामानव। सबसे पहले तो इसी बात पर गौर कीजिए कि इत्ती बड़ी मतलब, बहुत बड़ी, मतलब बहुत से भी ज्यादा बड़ी शख्सियत महामानव की, गांधी उनके आगे क्या हैं? महामानव वर्ल्ड लीडर हैं इत्ते बड़े कि जहां अन्य देशों के राष्टपति, प्रधानमंत्री इत्यादी जमा होते हैं, वहां अकेले एकमात्र वर्ल्ड लीडर महामानव सबसे बीच में खड़े होते हैं, और सबकी फोटो खिंचती है, महामानव की फोटो उतारी जाती है, जैसे आरती उतारी जाती हो। वो इत्ते बड़े हैं वो हंसते हैं तो और लोगों को समझ में आता है कि यहां, यानी इस मौके पर हंसना है, और उनके बाद सब लोग हंसते हैं। यानी वो बहुत बड़े वर्ल्ड लीडर हैं। चाहते तो गज़ा पर इस्राइल का हमला यूं रुकवा देते, चुटकी बजा कर, लेकिन सबर किया, इंतजार किया, कि कोई छोटा मोटा लीडर इसका हल निकाले। और वजह  सिर्फ एक, इतने हम्बल हैं कि अपने मुहं से अपनी तारीफ के लिए एक शब्द नहीं निकलता। अब इत्ते बड़े, माने विशाल व्यक्तित्व के मालिक, महामानव खुद महात्मा गांधी की बहुत चिंता करते हैं। 




लेकिन गांधी को कभी आपने महामानव की चिंता करते हुए नहीं देखा होगा। वो तो संयोग की बात है कि महामानव से पहले ही रिचर्ड एटनबरो गांधी पर फिल्म बना लिए थे, वरना ये जिम्मेदारी भी बिचारे महामानव की हो जाती कि वो दुनिया को गांधी के बारे में बताएं। मैं आपको सच बताउं तो गांधी कभी उतने मशहूर नहीं थे, जितना हमें बताया जाता है, 



ये वाली मोहतरमा जो कह रही हैं ना, वही दरअसल सच है। अगर आप अपनी आंखें खोल कर देखेंगे, सच्ची में देखेंगे तो आप को पता चलेगा गांधी सच में उत्ते मशहूर नहीं थे, जित्ता बताया जाता है, और महामानव वाली शोहरत तक तो कभी पहुंच ही ना पाए। उन्हें जानता ही कौन था, सिर्फ देश के कुछ लोग, कुछ लोग विदेशों में उन्हें जानते थे, जिन तक उनकी पब्लिकसिटी पहुंचती थी, वरना कौन जानता था, गांधी को। जबरदस्ती लोगों से गांधी का आदर करवाया जाता था, यानी कोई मन से उनका आदर नहीं करता था, जो उनका आदर नहीं करता था, उसके पीेछे ई डी और सी बी आई लगा दी जाती थी। किसी को उनकी आलोचना नहीं करने दिया जाता था। दूसरी तरफ हमारे महामानव हैं, जिन्होने शोहरत की सारी हदें पार कर दी हैं, और अपनी शोहरत के लिए उन्हें कोई वीडियो नहीं बनानी पड़ती, कहीं अपनी फोटो नहीं लगानी पड़ती, किसी अखबार, रेडियो प्रोग्राम या टी वी इंटरव्यू के ज़रिए नहीं बताना पड़ता कि वो महान हैं, बिना कुछ पब्लिकसिटी किए ही दुनिया की कुल 800 करोड़ से कुछ ज्यादा की आबादी के कम से कम अस्सी प्रतिशत लोगों में उनकी शोहरत है।  


जिस महामानव को 600 करोड़ लोगों ने वोट दिया हो, बताइए वो इतना हम्बल है कि अब भी, आज भी गांधी जी को विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते हैं, अब मुझे ये बताइए दोस्तों कि क्या आपने कभी देखा कि गांधी ने कभी महामानव को आदर दिया हो, आदर देना तो दूर की बात है, महामानव के बारे में कभी दो अच्छी बातें नहीं बोली गई गांधी से। ये एटिट्यूड दिखाता है जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है, वो उतना ही विनम्र होता है, महामानव हैं, गांधी नहीं थे। 
दरअसल गांधी के बारे में जो सब अच्छी बातें हैं, वो सब सिर्फ उपर का आवरण था, उनकी पब्लिकसिटी की गई थी, ये पब्लिकसिटी का कमाल था कि उन्हें लोग इतना मानते थे। 


इत्ती पब्लिकसिटी के बावजूद गांधी के बारे मे बहुत कम लोग आज तक जान पाए, और दूसरी तरफ हमारे महामानव, आप सच में सोच के देखिए, महामानव ने कभी अपनी शोहरत के लिए अपनी पब्लिकसिटी का सहारा नहीं लिया। महामानव की महानता की रौशनी इतनी चकाचौंध करने वाली है कि लोग खुद-ब-खुद उनके उपर निछावर हो जाते हैं। बचपन से लेकर आज तक, महामानव ने कभी कहीं, अपना ढिंढोरा नहीं पीटा, कभी कोई अच्छा काम किया भी तो उसका क्रेडिट नहीं लिया, बल्कि हर बार, बार -बार, लगातार कहते रहे कि उन्हें क्रेडिट नहीं चाहिए।

हालांकि अगर आप गौर से देखें, यानी अगर आप सच मंे देखे तो महामानव की उपलब्धियों के आगे गांधी की उपलब्धियां छोटी नज़र आती हैं। गांधी क्या थे, क्या थे गांधी, गांधी ने अपने पूरे जीवन में इतने कपड़े नहीं पहने होंगे, जितने महामानव एक हफ्ते में डिस्कार्ड कर देते हैं। देश के लिए महामानव ने अपना घर छोड़ा, अपनी पत्नि को भी छोड़ दिया। क्या गांधी ने ऐसा किया? नहीं किया, उनकी पत्नि कस्तूरबा लगातार पूरे जीवन उनके साथ रही। लेकिन महामानव, उन्होने सत्रह साल की उमर में घर छोड़ा, शायद उनके जीवन का यही कालखंड था, जिसमें उन्होने अपनी पत्नि को भी छोड़ दिया था। बताइए, किसका त्याग ज्यादा बड़ा है। महामानव खुद हाथ पकड़ कर राम को उनके मंदिर तक लेकर गए, गांधी तो कुछ छोटी -छोटी जनसभाओं में बस वो एक भजन जैसा गाते रह गए। इस बारे में कोई कुछ क्यों नहीं बोलता। 
आखिर गांधी ने किया ही क्या था, देश को आज़ाद ही तो करवाया था। लेकिन रुकिए, ये भी पूरा सच नहीं है दोस्तों, पूरा सच वो है जो इस बार हमारे प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से दुनिया को बताया है। 


असल में इस देश को आज़ादी आर एस एस ने दिलवाई थी, और जब आजादी मिल गई, तो वो अपनी हम्बलनेस के चलते अलग खड़े हो गए, और गांधी को इसका क्रेडिट दे दिया। सेवा की जो प्रवृति हमारे महामानव में आपको देखने को मिलती है, वो इसी आर एस एस की देन है। ये गुण, यानी सेवा, समर्पण, संगठन, और अप्रतिम अनुशासन, आपको महामानव में भी देखने को मिलेंगे, लेकिन क्या गांधी में आपको ये सेवा, ये समर्पण, ये अप्रतिम अनुशासन देखने को मिलता है? ये महामानव का ही जहूरा है कि आज भी दुनिया में गांधी का कोई नामलेवा है, वरना गांधी को कौन पूछता है। सब बस महामानव का ही गुणगान करते हैं। 
दोस्तों आज मैं आपको राज़ की बात बताता हूं, अभी जो नोबेल पीस प्राइज़ मिला है, माजाडो नाम की एक महिला हैं, उन्हें मिला है, लोग कह रहे हैं कि वो गांधीवादी हैं। लेकिन अगर आप उनके काम देखेंगे, और उनकी विचारधारा पर गौर करेंगे तो वो गांधी से नहीं, हमारे महामानव से प्रभावित लगती हैं। नोबेल मिलते ही उन्होेने इसे महामानव के डीयर फें्रड डोलांड को समर्पित कर दिया। मुझे पूरा यकीन है कि अगर ये नोबेल महामानव को मिला होता, तो वो भी इसे अपने डीयर फ्रेंड डोलांड को ही समर्पित करते। और यहां गौर करने वाली बात एक और भी है, महामानव को पूरी दुनिया के लोग बुला-बुला कर अपने देश में सम्मानित कर रहे हैं, उन्हें अवार्डस् दे रहे हैं, क्या गांधी को कभी भी, कहीं भी, किसी भी देश ने कोई अवार्ड दिया है? 
अभी हमारे यहां इतिहास को ठीक करने की जो मुहिम महामानव के नेतृत्व में चल रही है, उसमें हमें इस इतिहास को भी ठीक करना चाहिए, और आजादी की लड़ाई में संघ के योगदान पर पूरा एक चैप्टर होना चाहिए। हां गांधी को भी जगह मिलनी चाहिए, कहीं एक आधी लाइन लिखी जा सकती है कि कोई गांधी भी एक नेता थे, जिन्होने अपनी तरफ से कोशिश की थी। वो भी इसलिए कि गांधी थे, वरना यूं हम हर छोटे-मोटे नेता का जिक्र करने लगे तो आजादी का इतिहास बहुत लंबा हो जाएगा ना। इसकी जगह हमें बाल नरेंन्द्र के कुछ चैप्टर्स को बच्चों को पढ़ाना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियों को ये पता चल सके कि आज के दौर में भी इस देश में अवतारों ने जन्म लिया है। 



गांधी ने अपने पूरे जीवन में कहीं नहीं कहा कि वो नॉन बायोलॉजिकल हैं, गांधी ने एक किताब लिखी थी, सत्य के मेरे प्रयोग, जिसे गांधी की आत्मकथा कहा जाता है, पूरी पढ़ लीजिए, कहीं आपको गांधी ये कहते नहीं मिलेंगे कि वो अवतार हैं, लेकिन महामानव ने कहा है, और खुलेआम कहा है, एक से ज्यादा बार कहा है। क्या आपको इससे भी ज्यादा सबूत चाहिएं ये समझने के लिए कि महामानव का कद गांधी से ज्यादा बड़ा है। मेरा तो ये मानना है कि ये कांग्रेस और इसके लीडरों को महामानव से और इस देश की जनता से माफी मांगनी चाहिए कि गांधी ने कभी महामानव की तारीफ नहीं की, उन्हें आदर नहीं दिया, उनसे प्रेरणा नहीं ली। 
पर मुझे पता है कि ये तथाकथित प्रगतिशील, ये वामी और कांगी, कभी इस सच्चाई पर विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन आप तो जनता हैं, आप तो सच्चाई जानते हैं कि महामानव बड़े, बहुत बड़े हैं, और गांधी उनके सामने.....छोड़िए जाने दीजिए।

चचा जो थे अपने, ग़ालिब, गांधी पे कुछ ना लिख गए, समय का बहुत बड़ा अंतराल रहा, लेकिन महामानव तो अजैविक जीव हैं, इसलिए महामानव की महानता पर एक शेर लिख गए हैं। वही आपको सुना रहा हूं

अब तो दुनिया भी पहचान गई है उसको
कहो तो नाम उसका हम बताएं किसको
तुम्ही कहते हो कि तुम हो, महामानव
अब बताएं हम ये बात किसको किसको

तड़प रहे थे, चचा ये बताने के लिए कि महामानव स्वयंसिद्ध हैं, स्वयंभू हैं, स्वयंप्रसिद्ध हैं। पर ये बात पक्की है कि गांधी से महामानव की तुलना करना, सूरज का दिया दिखाने जैसा है, हम तो कहेंगे कि अब महामानव को इतनी शोहरत मिल चुकी है कि अपना एक नया धर्म भी वो शुरु कर ही सकते हैं। पर ये बात करेंगे अगली बार, इस बार चलते हैं। नमस्कार

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

फकीरी का माहात्मय




 सर जी, ये देश वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का नहीं है। ये देश दरअसल फकीरों का देश है। फकीरी इस देश को बहुत भाती है। इस देश में सदा से, सदियों से फकीरों को ही बोलबाला रहा है। जो फकीर हुआ, वही मशहूर हुआ, वही धन्य हुआ, क्या जनता, क्या राजा सबने उसका गुण-गाया। फकीरी का जहूरा ये कि राजे-महाराजे और बादशाह तक फकीरी के लिए झूमते गुनगुनाते रहे। ऐसा नहीं है कि बाकी दुनिया में फकीरों को सम्मान नहीं मिला। मिला, ज़रूर मिला, लेकिन वैसा और उतना नहीं मिला, जितना इस देश में मिला। इस देश में तो जितने फकीर हुए, उनमें से ज्यादातर ने सुना राज-पाट छोड़ कर फकीरी पकड़ी और ऐसी पकड़ी कि एक की जगह सैंकड़ो राज्यों के राजा उन पर बलिहारी हो गए। फकीरी की इसी परंपरा की पराकाष्ठा इस दौर में इस घोषणा से हुई



यूं तो फकीरी की मौज जीवन के हर पहलू में देखी जा सकती है, पर सबसे बड़ा कमाल ये है कि वो मशहूर झोला आज तक न दिखाई दिया जिसे उठा कर चलने की बात की गई थी, ये तथाकथित झोला, जिस पर उतनी भी बात ना हुई जितनी का वो हक़दार था, उस पर तवज्जो जाना जरूरी है। विद्वान लोग अब तक कयास लगा रहे हैं कि आखिर इस फकीर के उस झोले का नाप क्या होगा, जिसे ये इतनी शिद्दत से, इतने पैशन से उठा कर जाने की बात कर रहा है। फकीर के अपने लक्षणों को देखते हुए, लोग फकीर से कम और उस झोले से ज्यादा परेशान हैं, जिसे उठाकर चलने की बात की जा रही है। कहते हैं झोला है या भानूमति का पिटारा, पर आप मेरा यक़ीन मानिए, भानूमति के पिटारे का रहस्य इस रहस्य के सामने कुछ नहीं है कि आखिर ये जगतप्रसिद्ध झोला कहां है, कैसा है, और इस झोले में क्या है। 

सच कहूं तो अपने को ये वाले फकीर बहुत भाते हैं। वो क्या फकीरी हुई कि लिए कटोरा फिर रहे हैं, जंगल-जंगल, बस्ती-बस्ती, लौ लगा ली कहीं, और अब जी रहे हैं तो उसी की याद में, जीने की फिकर नहीं कि मरने का डर नहीं। फकीरी हो तो यार ऐसी हो, कि लोग देखें और रश्क करें कि यार, काश हमें भी ऐसी फकीरी नसीब होती।


यहां कवि दरअसल सवाल नहीं पूछ रहा है। वो हजारों लाखों लोगों के उस दर्द को अभिव्यक्ति दे रहा है जो इसी फकीरी के जुगाड़ में लगे हुए हैं, और फकीरी है कि उनसे भाग रही है दूर, वो अपनी तौर पर पूरा जुगाड़ लगाते हैं, लेकिन कोई जुगाड़ काम ही नहीं करता। इधर जो फकीर है, वो दुनिया के मज़े लेता घूमता रहता है, किसी ने सही कहा है

फकीरी कर दुनिया में गाफ़िल, जिम्मेदारी में मौज क्या
मौज मान ले कुछ हो गई तो, ऐशो-इशरत ये कहां?

फकीरी का अपना ही मज़ा होता है, ना बीवी की चिंता ना घरबार की फिकर, बस इंसान जब चाहे घर से भाग जाता है, जिसे वो बाद में घर छोड़ना भी कह सकता है। घर से भागते हुए घर का माल-मत्ता समेट लेने से फकीरी की तरफ जाने की राह में जो मुश्किलें आती हैं, उन्हें आसान किया जा सकता है। हालांकि फकीरी के सबसे उंचे सोपान पर बैठ कर उस माल-मत्ते की बात भूल जाती है, याद रहती है तो सिफ फकीरी। 


घर छोड़ने या आम ज़बान में कहें तो घर से भागने के बाद आमतौर पर इंसान दर-दर की ठोकरें खाता है, लेकिन कुछ किस्मत वाले ऐसे भी होते हैं, जो अमरीका के कई शहरों की सैर करते हैं, और जमाने भर की ऐश करते हैं। 
मोदी मैं अमरीका के इतने शहर घूम चुका था।
कमाल ये है कि ह्वेनसंाग और फाह्यान, साथ में इब्ने बतूता को भी मिला लें और मार्को पोलो को भी तो भी इत्ती बड़ी सैर नहीं होती, जैसी फकीर ने की है। सुनते हैं फकीर के इस विश्व भ्रमण पर हजारों करोड़ रुपए ही खर्च हुआ है। बताइए कौन फकीर इत्ती इफरात से दुनिया की सैर पर इत्ता पैसा खर्च करता है यार। 
और फकीरी में अगर ऐसे ऐश करने को मिलें तो क्यों ना भला फकीरी का इतना आकर्षण हो भाई। जानते हैं, कभी - कभी मेरे दिल में ख्याल आता है, कि जिंदगी ऐसी फकीरी में गुज़रने पाती तो ऐश हो भी सकती थी। ये जो बेकार की मारामारी है, करोड़ों के हवाई जाहज में बैठ के सो भी सकती थी। मगर ये हो ना सका, मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है, कि जी एस टी भर के भी जेबें हमारी खाली हैं, चल रही है ई एम आई पे जिंदगी अपनी हम तो अच्छे दिनों के सवाली हैं। कभी -कभी मेरे दिल में ख्याल आता है। इस अनचाहे फकीर के कटोरे में वो हवाई जहाज है जिसकी कुल क़ीमत आठ हज़ार करोड़ रुपये है, ऐसा लगता है कि हवाई जहाज खुद-ब-खुद उड़ता होगा, उसकी खिड़कियों के शीशे अपने आप उपर नीचे होते होंगे, और उसके पंखों से कोमल फूलों की मधुर सुगंध आती होगी। 

उड़ने की बात तो छोटी रही साहब, आप तो फकीरी में लिखने पढ़ने की बात करो। तो भाई साहब, अगर फकीरों को लिखना हो, चाहे हवा में ही लिखना हो, तो वो कौन सा पेन इस्तेमाल करेंगे। हम जैसे नॉन-फकीरों वाला पेन तो मान लीजिए नहीं ही इस्तेमाल करेंगे। फकीर लोगों को क्योंकि लिखने से विशेष प्रेम होता है, इसलिए मैं आपका बताता हूं कि ये फकीर लोग यूं ही, साइन करने के लिए, या एक-आधी सतर कहीं पर फेंक मारने के लिए, बहुत ही मामूली मोंट ब्लांक के ऐसे पेन का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी हक़ीर क़ीमत सिर्फ 1,30,000 होती है, इससे कम क़ीमत वाले पेन से लिखने से फकीरी का रौब कम होता है, और एक फकीर सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है, फकीरी के रौब -दाब पर कोई आंच आने नहीं देता है। 


फकीर की इस फकीराना अदा पर ही मीर ने कहा था, 
फकीराना आए साइन कर चले
मोंटे ब्लांक से हम ये क्या कर चले
चलने के लिए इत्ती महंगी कार हो, पहनने के लिए इत्ते ढेर कपड़े हों, हर मौके पर पहनने और फिर कभी ना पहनने के लिए टोपियां हों तो ऐसी फकीरी पर तो कौन ना मर जाए ऐ खुदा। पर क्या करें, हमारे दिन अच्छे नहीं आए कि हम भी फकीर बन सकते, हम भी अमेरीका के 25-30 शहर घूम सकते, कि हम भी काजू के आटे की रोटी का स्वाद चख सकते। सच कहें हमने तो आज तक ना काजू का आटा देखा ना हजारों रुपये किलो वाली मशरूम ही देखी है। ऐसे मज़े सिर्फ फकीरों को ही उपलब्ध होते हैं सुना है। 
फकीर तुम बढ़े चलो
फकीर तुम बढ़े चलो
मोंट ब्लांक पेन से लिखो
मेबैक चश्में से देखो
नज़र कभी झुके नहीं
कदम कभी रुके नहीं
फकीर तुम बढ़े चलो
फकीर तुम बढ़े चलो
खैर साहब, जैसा कि हर कथा के अंत में कहा जाता है, आपके लिए भी हमारे पास दुआ है। हालांकि ऐसी फकीरत पाने के लिए बहुत साधना करनी पड़ती है, बीवी को छोड़ना पड़ता है, घर से भागना पड़ता है, लेकिन आप जैसे पापियों के लिए, जिन्होने ये पूरा वीडियो देखा और पूरी कथा सुनी है, हमारी दुआ है कि जैसे इनके दिन फिरे, और ये फकीर बनें, वैसे ही आपको भी जल्द ऐसा फकीर बनना नसीब हो। 

आखिर में, चचा ग़ालिब का ये शेर आपकी नज़रे-इनायत चाहते हैं।

ये ना थी हमारी किस्मत, के मैं भी गरीब होता
गर घर से भाग जाता, तो मैं भी फकीर होता
मैं घर से भाग जाता, शाखा में बैठ जाता,
तो ऐसा फकीर बनना, मुझे भी नसीब होता
चचा जिंदगी भर ग़रीबी में गुज़ारा किए, हालांकि सुना जब पैसे आए तो शराब खरीद लाए कि कभी कमी ना पड़े। पर भैये हर किसी का अपना अपना ढब होता है। आप तो फकीरी के गुणों को गिनिए और सुनिए, फकीरी के ऐसे उदाहरण कुछ हों आपके पास तो बताने से मत चूकिएगा। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...