आज की बात एक शेर से शुरु करते हैं....
जो बात मैने नहीं कही थी, उसी पे तक़रार हो रही थी
वो कह रहे थे, नहीं, कही थी, मैं कह रहा था नहीं कही थी
ये तो पता नहीं चल सका कि ये शानदार शेर किसका है, बहुत ढूंढा, पर नहीं मिला। पर जिसने भी लिखा बहुत ही सामयिक शेर है। जो हमने नहीं कहा, वही उन्हें दिखाई दिया, तो महत्व इसका है कि उन्हें क्या दिखाई दिया, इसका नहीं कि हमने क्या नहीं लिखा। खैर हाल में इलाहाबाद हाईकोर्ट का बहुत ही शानदार फैसला और कथन देखा। बहुत अच्छा फैसला है और बहुत अच्छा कथन है। खासतौर पर उन लोगों के लिए जो कुछ नहीं कहते। कोर्ट का कहना है, कि चाहे तुम कुछ ना कहो, हमने सुन लिया, और अब इसी बिना पर तुम्हें हमने अपराधी मान लिया। ये इस देश के दंडविधान का इवोल्यूशन माना जाएगा। इवोल्यूशन को हिंदी में विकास कहते हैं, लेकिन यहां मुझे ये शब्द विकास कुछ ज्यादा जंच नहीं रहा है। खैर जो भी हुआ हो, हमारे देश के दंडाधिकारी, लगातार और सेंसेटिव लगातार विकास की उच्चतर अवस्था को जाते जा रहे हैं। पहले सिर्फ सबूतों और गवाहों के बयानों को मद्देनज़र रख कर फैसला किया जाता था, उसके बाद दंडाधिकारियों को लगने लगा कि इस तरह जो फैसले होते हैं, उनमें इस बात का बहुत ज्यादा दखल होता है कि आंखों के सामने क्या है। इसलिए सोचा गया कि इसमें कुछ सुधार करना होगा, धीरे-धीरे ये प्रकिया शुरु हुई कि दंडाधिकारियों ने, जिसे आप सामान्य भाषा में जज या न्यायाधीश कहते हैं, ये करना शुरु किया कि फैसले पढ़ने से पहले फिल्मी गाने गाने शुरु किए ताकि वे ये समझा सकें िकवे कितने बड़े देशभक्त हैं, और आरोपी के बारे में वो क्या सोचते हैं। इसके अलावा मोरनी के बच्चे पैदा करने के बारे में, अपने ईश्वर से सपने में पूछ कर फैसले देने जैसे कई महत्वपूर्ण पड़ाव पार करके अंततः हम उस महत्वपूर्ण माइलस्टोन पर आ पहुंचे हैं, जहां हमारे दंडाधिकारी अब ये कह रहे हैं कि तुमने कहा बेशक ना हो, लेकिन हम ये समझ कर, कि तुम क्या कहना चाहते थे, तुम्हे दंड देंगे।
मेरे दोस्तों जल्द ही वो समय आने वाला है जबकि तुम क्या सोचते हो, जैसी महत्वपूर्ण बातों पर तुम फैसला नहीं लोगे बल्कि ये सरकार तुम्हें बताएगी कि तुम्हें क्या सोचना है, और यही काम इन दंडाधिकारियों ने शुरु कर दिया है। किसी जमाने में एक किताब पढ़ी थी, हालांकि किसी विदेशी लेखक की किताब थी, जहां एक थॉट पुलिस होती थी। वहां नागरिकों की सोच पर भी दंडाधिकारियों की नज़र होती थी। भली सी किताब थी, कुछ 1984 करके, जॉर्ज ऑरवेल ने लिखी थी। सच कहूं तो ये बढ़िया मामला लगता है, हमें आइंदा दिनों में भारतीय कोर्टस् से यही उम्मीद करनी चाहिए कि वो जल्द ही सारे देश में ये निर्देश भी लागू कर दें कि अगर कोई ऐसी-वैसी बात सोचेगा भी तो उसे अंदर कर दिया जाएगा, या मान लीजिए जो भी दंड उसके लिए उचित होगा वो उसे दे दिया जाएगा। जैसे मान लीजिए आपने व्हाटस्एप पर किसी को कहा ईद मुबारक, अब कोई आपके खिलाफ शिकायत कर सकता है कि आपने ये धार्मिक भावनाएं भड़काने वाला मैसेज किया है, अब कोर्ट कहेगा कि हां भई, तुमने जो नहीं लिखा वो तो साफ दिखाई दे रहा है, कि तुम धार्मिक भावनाएं भड़का रहे हो, क्योंकि कोर्ट के पास ये विशेष समझ होती है कि वो वो बातें भी समझ लेता है जो लिखी नहीं गई हैं इसलिए उस व्यक्ति को सज़ा मिलेगी जो व्हाटस्एप् पर ऐसा कोई मैसेज भेजेगा।
वाह कितना सुंदर वातावरण हो जाएगा, ऐसे देश में कौन रहना नहीं चाहेगा, जहां दंडाधिकारी ये कह कर दंड दे, कि उसे पता है कि तुम क्या सोच रहे हो। ऐसे सटल मैसजेस पर दंड देने की परंपरा का जल्द ही विकास होगा, और यहां तक पहुंचेगा कि तुम्हारी भावनाओं पर भी तुम्हें दंड दिया जा सकेगा। वैसे भी इस देश में बुरा-बुरा सोचने वाले बहुत सारे लोग हैं, और इन सब बुरा सोचने वालों पर कार्यवाही होनी ही चाहिए। मेरा मानना है कि ऐसा एक प्रकोष्ठ, बनाया जाना चाहिए जो लोगों की सोच पर नज़र रखे और सीधे दंडाधिकारियों को रिपोर्ट करे कि कौन बुरा, ग़लत या मान लीजिए ऐसा सोच रहा है जो सरकार की विचारधारा से मेल नहीं खाता, और दंडाधिकारी इस सोच को ही आधार बना कर उस पर कार्यवाही कर सकती है, उसे जेल भेज सकती है या सीधे गोली मारी जा सकती है। हमें ऐसी किसी सोच को पनपने नहीं देना चाहिए जो सरकार की, पुलिस की, और कोर्ट की आलोचना करती हो। क्योंकि इस देश में रहने वाले सबके लिए सबसे पहली शर्त ये होनी चाहिए कि वो ये मानें कि सरकार, पुलिस और कोर्ट जो भी करते हैं, वो सब सही और अच्छा होता है और उसकी आलोचना करना, पाप है, और अपराध की तो मान लीजिए एक बार को माफी मिल भी जाए, पाप की माफी नहीं मिलती, पाप की तो सज़ा ही मिल सकती है।
दोस्तों, इस देश में वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फ्री थिंकर्स बहुत हो गए हैं, बल्कि बहुत से ज्यादा हो गए हैं, उनकी हमें ज़रूरत नहीं है, ये लोग दिन-ब-दिन स्थापित सिस्टम को चैलेंज करते हैं, कई खुले-आम करते हैं, कई ढंके-छुपे करते हैं। इन खुले आम आज़ादी मांगने वालों को तो हम समय-समय पर सबक सिखाते ही हैं, अभी उमर खालिद समेत ग्यारह-बारह लोगों को बिना किसी मुकद्में के ही जेल में डाला हुआ है, पांचेक साल हो गए, तो इन लोगों का जो खुले आम किताबें लिखते हैं, भाषण देते हैं, गाने गाते हैं, नाटक-फाटक करते हैं, और अब तो सोशल मीडिया प्लेटफार्मस् पर भी आ गए हैं, इनका इलाज तो ये है कि इन्हें सीधे जेल में डाला जाए, हैं जी। लेकिन ये जो ढंके-छुपे हैं, तथाकथित प्रगतिशील हैं, लोकतंत्र के हिमायती, ये बहुत खतरनाक हैं, इनका इलाज अब शुरु किया जाएगा। इन्हें पकड़ने में बड़ी दिक्कत ये होती थी कि ये लोग खुलेआम ऐसा कुछ नहीं करते थे कि इन पर आरोप लगाया जाए। ये लोग या तो समर्थन करते थे, या फिर सोशल मीडिया पर आने वाले ऐसे संदेशों को शेयर कर देते थे। ये लोग ऐसा भी करते थे कि व्यंग करते थे, सटायर जिसे कहते हैं। अब आप कुछ लिखोगे नही ंतो कोई आप पर कोई आरोप कैसे लगाएगा। अब होगा ये कि ये दंडाधिकारी कह सकते हैं, कि ये सही कि तुमने लिखा नहीं, जो हमारे हिसाब से अपराध है, लेकिन बच्चू तुमने जो नहीं लिखा तुम्हें उसकी सज़ा मिलेगी। वाह। मैं सच बात रहा हूं दो दिन में होश ठिकाने आ जाएंगे इनके।
असल में कोर्ट के इस फैसले से जो समझ में आता है, वो ये कि ये सही है कि संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात की गई है, लेकिन आप थोड़ा सोचिए, अरे भई हर किसी को तो ये आज़ादी नहीं दी जा सकती, ये आज़ादी सिर्फ उन लोगों को दी जा सकती है, जिनके पास सोचने-समझने की लियाकत है। मेरा मानना तो ये है कि सोचने की आज़ादी के लिए भी एक सर्वे करवाया जाना चाहिए, जो महामानव को अजैविक, ईश्वर का अवतार माने, आंखे मूंद कर सरकार पर भरोसा करे, और सिर्फ और सिर्फ वर्तमान सत्ताधारी पार्टी को वोट देने पर हामी भरे, सिर्फ उन्हीं को सोचने, बोलने की आज़ादी होनी चाहिए। बाकी सभी के लिए पहले तो यही तय कीजिए कि वो इस देश के नागरिक होने लायक भी हैं या नहीं। और इस तरफ हमारे देश की एक और बहुत ही शानदार लोकतांत्रिक संस्था के चु आ ने काम शुरु कर भी दिया है, अब वो तय कर रहे हैं कि कौन इस देश का नागरिक है और कौन नहीं। दूसरा काम इन कोर्ट ने तय कर दिया है। बढ़िया, अब इस देश में लोकतंत्र की वो बढ़िया वाली बीन बजेगी जिसके सुर सदियों तक जनता के कानों में गूंजते रहेंगे।
किसी शायर ने लिखा था।
निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन के जहां
चली है रस्म के कोई ना सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्म-ओ-जां बचा के चले
दोस्तो इशारा साफ है कि गुरु वही समय आ गया है। अब तुमने जो ना लिखा, वही हमने समझ लिया, हम जानते हैं कि तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है, इसलिए तुमने जो सोचा उस पर हम तुम्हें दंड देंगे, कर लो जो कर सकते हो। मैं तो ये सोच-सोच कर ही रोमांचित हो जाता हूं कि कैसा समय आ रहा है कि जब किसी को बुरा सोचने पर भी जेल में भेजा जा सकता है। थ्री चीयर्स फॉर द कोर्ट, विच एक्चुअली गेव अस दिस शानदार ऑपरच्युनिटी। हिप हिप हुर्रे, हिप हिप हुर्रे, हिप हिप हुर्रे।
ऐसे ही शानदार फैसलों से मेरे देश में लोकतंत्र और फैलता जाएगा, और एक दिन ऐसा आएगा कि जब ये सारे बुरा सोचने वाले, जेल में होंगे और पूरे देश में एक शानदार पीसफुल माहौल होगा।
चचा ग़ालिब के जमाने में जब सुनते हैं बादशाह का राज था, लेकिन उस जमाने में बादशाहत के पास ऐसी तकनीक नहीं थी कि वो किसी के सोचने पर रोक लगा सकते, या ये कह सकते कि तुमने जो नहीं कहा है, तुम्हें उसकी सज़ा दी जाएगी। तो ग़ालिब का ये शेर आज के दौर के लिए
जो कहा नहीं है तुमने, हमने समझ लिया है
अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खानी पड़ेगी
सोचना, समझना, बोलना छोड़िए, तब हो सकता है कि आप जेल से बच जाएं, बाकी बोलने वालों की शामत आई है। क्या कहे साहब अमृतकाल है, जो ना हो जाए वो थोड़ा।
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