महाधिवेशन
जबसे रांची से वापस आया हूं, लगभग तभी से सोच रहा हूं कि रांची में पार्टी महाधिवेशन की अपनी एक रिपोर्ट लिखूं, ये लिखूं कि वहां मैने क्या महसूस किया, वहां मुझे कैसा लगा। हलांकि पार्टी स्तर पर पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट आ चुकी है, और जितनी जरूरी बातें पार्टी कांग्रेस की होनी चाहिएं, और सबके सामने आनी चाहिएं वे आ ही चुकी हैं, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि अपने तईं मुझे तभी संतोष मिलेगा जब मैं अपनी रिपोर्ट लिख लूंगा। मैने अपने कुछ दोस्तों ;कामरेडोंद्ध से इस बारे में बात किया तो उन्होने यही कहा कि अगर ऐसी कोई रिपोर्ट लिखना चाहो तो ठीेक ही है। बल्कि एक दो लोगों ने तो ये कहकर बहुत प्रोत्साहित किया कि वो इस तरह की रिपोर्ट का इंतजार करेंगे।
असल में पार्टी कांग्रेस का आयोजन, पार्टी कामकाज, पार्टी लाइन, विभिन्न विषयों और मुद्दों पर पार्टी की सोच आदि पर बहस और फिर भविष्य के लिए पार्टी के कामकाज और नीति निर्धारण के लिए होता है। जाहिर है सभी ने इस बहस में भागीदारी की, करनी ही चाहिए, और इसके बाद सदन ने इन बहसों को पार्टी दस्तावेजों में बदला, ये भी होना ही चाहिए। मैं इस पूरी कार्यवाही में मौजूद रहा, मैने सभी कुछ देखा, समझा, उसमें हिस्सेदारी की, और इसके अलावा भी बहुत कुछ किया, अब पार्टी महाधिवेशन के बाद मुझे लगता है कि इस सारी कार्यवाही के अलावा जो कुछ रांची में हुआ, जो मैने महसूस किया, सुना, देखा, समझा उसे भी सबके सामने आना चाहिए। हो सकता है कि मेरा ये प्रयास कुछ लोगों को अच्छा ना लगे, लेकिन मुझे लगता है कि मुझे वो कहना ही चाहिए जो मैं कहना चाहता हूं, फिर चाहे किसी को कुछ भी लगे।
मैं पार्टी कांग्रेस में जाने के लिए बहुत उत्साहित था, जबसे मैं पहली बार पार्टी महाधिवेशन में गया था, मेरा मतलब कलकत्ता, मैं वहां के पूरे माहौल से इतना अभिभूत हो गया था और वो इतने समय तक मेरे जेहन पर छाया रहा था कि मैं किसी भी हालत में पार्टी माहिधवेशन में जाना चाहता था, और यकीन जानिए कि अगर मैं डेलीगेट नहीं होता, तो भी मैं पार्टी महाधिवेशन में जाता, अगर मुझे ऑर्ब्जवर नहीं बनाया जाता, वालंटियर नहीं बनाया जाता तो भी मैं पार्टी महाधिवेशन में जरूर जाता, गर्जें़ कि कुछ भी होता मैं रांची जरूर गया होता, और चाहे कुछ भी होता, किसी भी हैसियत से मैने पार्टी महाधिवेशन में हिस्सेदारी की होती। लेकिन मैं डेलीगेट था, तो मैने जल्दी ही अपनी टिकट बुक की और महाधिवेशन शुरु होने से दो दिन पहले यानी 31 तारीख को ही मैं रंाची पहुंच गया था। पार्टी महाधिवेशन 2 को शुरु होना था।
ट्रेन में ही मुझे अपने तीन पसंदीदा शख्स मिल गए जिनके साथ जाना और बढ़िया लगा, कभी उनके साथ बातचीत करता तो कभी अकेला पढ़ता हुआ मैं रांची पहुंचा। रांची पहुंच कर स्टेशन पर तो ऐसा नहीं लगा कि यहां पार्टी महाधिवेशन की तैयारी है लेकिन जैसे ही हम शहर में पहुंचे, हमें तैयारियों के लक्षण दिखाई देने लगे थे। सड़कों पर लाल झंडे, कुछ झंडों पर पार्टी का नाम, और कुछ चौक-चौराहों पर खास सजावटें, ओह, अभी तो पूरा एक दिन पड़ा था शहर सजाने के लिए, शायद इसलिए जब हम पहुंचे थे, यानी दो दिन पहले, तो सजावट शायद सिर्फ शुरु ही हुई थी। लेकिन जो भी थी, जितनी भी, रोमांचित करने वाली थी, मेरे साथी शायद कम रोमांचित हुए हों, क्योंकि बहुत अनुभवी साथी थे, लेकिन सच कहूं तो मैं इतना उत्साहित था कि मुझसे तो शब्द तक नहीं सम्हल रहे थे, बस अपनी उम्र, और अनुभव को दिखाने के चलते कुछ ऐसा सा ही दिखा रहा था। लिखते हुए सोच रहा हूं कि जब लोग पढ़ेंगे तो कैसा हसेंगे......लेकिन सच कहूं तो अब मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ता।
हम लोग सबसे पहले स्टेट ऑफिस पहुंचे, अब पहली बार लगा कि, हां, तैयारियां हो रही हैं, वो जो एक खास किस्म को माहौल होता है, जिसमें सभी लोग बिना कुछ कहे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हैं, जिसमें हर इंसान काम में लगा होता है, चाहे वो बौद्धिक काम हो या शारीरिक काम हो, सभी बस लगे थे, और इतना सब भी बिना किसी तनाव के हो रहा था, हो सकता है कि मुख्य जिम्मदारियों में लगे लोगों को कोई तनाव हो, लेकिन पूरे माहौल से ऐसा नहीं दिख रहा था, बल्कि दिल और हल्का और खुश लगने लगा था, फिर पता किया कि हमें यानी दिल्ली वालों के ठहरने का इंतजाम कहां है। तो हमें बड़ा ताल के पास वाली धर्मशाला में ले जाया गया, वहां पहुंचे तो पता चला कि उससे कुछ ही कदमों की दूरी पर जो ग्राउंड है असल में माहाधिवेशन की तैयारी वहीं की गई है।
अब ऐसे में कुछ बातें हवा में जरूर थीं, जैसे पहली बार महाधिवेशन खुले में हो रहा था, जैसे जो इंतजाम किया गया था वो काफी महंगा था, जैसे माओवादियों के बंद की वजह से रैली पर असर पड़ने की शंका थी और जैसे जो चुनाव घोषित किए गए थे वो भी माहाधिवेशन पर बहुत व्यवधान डालने वाले थे। लेकिन हम लोग अपने कमरों में गए और अपना सामान रख कर निश्चिंत होकर बैठ गए थे। फिर चाय की खोज होने लगी। कभी कहीं किसी समारोह में निश्चित दिन से दो दिन पहले पहुंच कर देखिए आपको रूकने की जगह छोड़िए, स्टेशन पर मिलने वाला तक कोई नहीं मिलेगा, यहां चाय कहां मिलती, फिर हम इतनी सुबह पहंुचे थे कि रांची जैसे शहर में किसी तरह की दुकान खुलने का कोई चांस ही नहीं था। लेकिन नीचे सड़क के पास एक गुमटी वाला अपनी सिगड़ी सुलगा चुका था, उसे चाय बनाने के लिए कहा गया और हमारे साथ जो और साथी आ चुके थे उन्होने भी चाय पी, मैं सिगरेट का शैदाई हूं तो सिगरेट की खोज में एक-डेढ़ किलोमीटर का एक चक्कर लगाया और अपने और एक दूसरे कामरेड के लिए सिगरेट लेकर आया। आया तो पता चला कि एक राउंड चाय हो चुकी है तो दूसरे राउंड की चाय पी, और फिर अपने लिए एक एक्स्ट्रा चाय पी। यहां एक बात बता देना जरूरी है कि रांची जाएं तो इस बात के लिए तैयार होकर जाइएगा कि चाय सिर्फ दो घूंट ही मिलती है और अगर ज्यादा पीनी हो तो दो या तीन खरीदिए ताकि आपकी चाय की तलब को संतुष्ट किया जा सके।
मैं तो चाय पीकर उपर जाकर सो गया और बाकी लोग जाने किस-किस तरह की बातों में मशगूल हो गए, बीच-बीच में जब भी आंख खुलती थी मैं भी बातचीत में अपनी हाजिरी लगवा देता था।
जैसे-जैसे और लोग आते गए नई धर्मशालाएं, उनके पते, लोगों का एडजस्टमेंट होने लगा। मेरे लोग आते गए और मैं अपने लोगों से मिलता रहा, सभी लोग आते गए और मैं सभी लोगों से मिलता रहा, मुस्कुराता रहा, ठहाके लगाता रहा, जोर-जोर से बहस करता रहा, चिल्लाता रहा, मुस्कुराता रहा।
आयोजन वाले दिन यानी 2 तारीख को सारे डेलीगेट्स, पर्यवेक्षक, मेहमान और वालंटियर बिरसा कारागार में जमा हुए, सुबह-सुबह इतने सारे लोग, बिरसा मुंडा कारागार में जमा हुए, और वहां पहली बार ऐसा लगा कि जैसे एक परिवार एक जगह जमा हुआ है और अपने ही बीच के किसी शख्स को याद कर रहा है, ये श्रृद्धांजली ऐसी नहीं थी जैसी रस्मी श्रृद्धांजलियां हुआ करती हैं, बल्कि जब लोग नारे लगा रहे थे, माला पहना रहे थे, फोटो खींच रहे थे, तब मैं अपने लोगों को ध्यान से देख रहा था, अगर आप वहां होते तो आप भी देखते कि वहां मौजूद हर शख्स की आंखों में ऐसा भाव था कि जैसे वो अपने ही परिवार के किसी सदस्य को याद कर रहा है, उसके लिए नारे लगा रहा है, पार्टी की अपनी स्थापना की बात छोड़ दीजिए और ना ही इस बहस की जरूरत है कि बिरसा कितने दशक पहले पैदा हुए थे, लड़े थे, ये अपने भीतर की बात है, वहां मौजूद होते तो आपको लगता कि बिरसा हमारे थे, हमारे हैं, उन्होने जो लड़ाई छेड़ी थी वो खत्म नहीं हुई है और हमें अभी उसके बहुत सारे पड़ाव पार करने हैं। ये किताबी बात नहीं है, मैने ये महसूस किया, मैने ये महसूस किया।
वहां से जो हमारी रैली चली, तो आहा, क्या तो रांची वालों ने ऐसी रैली देखी होगी, सबसे आगे नौ लाल झंडे, उंचे, और उंचे, उनके साथ एक पंक्ति में नगाड़ा बजाते कामरेड, और उनके पीछे लाल कपड़ों में सजे हुए कामरेड, और उनके पीछे ये 3 किलोमीटर लंबी दो अनुशासनबद्ध पंक्तियां, कमाल था भई कमाल था, सड़क पर सारे लोग मुहं बाये इस रैली को देख रहे थे, मुझे यकीन है कि उन्होने इस तरह की कोई रैली पहले नहीं देखी होगी। इतने लोग, इतनी तरह के लोग, इतने अनुशासनबद्ध तरीके से एक साथ चल रहे थे, दो लाइनों मे बीच में जगह खाली थी लेकिन रैली की अनुशासनबद्धता का कमाल था कि बिना किसी पुलिस की मौजूदगी के, बिना किसी सुरक्षा पंक्ति के, ना कोई बीच में आया, ना किसी ने रास्ता काटा, ना रुके हुए ट्रैफिक ने जल्दी मचाई, और ना ही कोई और व्यवधान पैदा हुआ। धड़धड़ाती हुई ये रैली बिरसा स्मृति स्थल पहंुची, और वहां बिरसा मुंडा को पुष्पांजली भेंट करके महाधिवेशन मैदान की तरफ चल दी।
वापस जाते हुए मैं, जो इस बीच रैली की व्यवस्था में भी हाथ बंटाने लगा था, एक साइकिल वाले को रोकने लगा, वो साइकिल वाला बोला, ”भैया मजदूरी करता हूं, लेट हुआ तो मालिक आधे दिन की पगार काट लेगा”, और मेरे पीछे वाले कामरेड फौरन रुक गए, बोले, ”तुम जाओ” और उसे बीच में से निकाल दिया। वो साइकिल वाला रैली के बीच से निकला, पीछे मुड़ा एक बार अपनी मुठ्ठी बांध कर उसने हाथ उठाया, कामरेड को सलाम किया और फिर चला गया। मेरी छाती भर गई, मैं और उत्साहित हो गया, मुझे रैली और प्यारी लगने लगी, लेकिन ये तो बस शुरुआत थी, इसके बाद वाले दिनों में जाने कितने ही ऐसे मौके आए कि मैं फिर फिर अभिभूत होता रहा, अपने दिल को, अपने फेंफड़ों को अपने दिमाग को महाधिवेशन की ऐसी घटनाओं से अभिभूत होकर देखता रहा, जो इतनी छोटी थीं कि महाधिवेशन की विशालता में शायद दिखाई ना दें, लेकिन मेरे लिए इतनी महत्वपूर्ण थीं कि उनकी वजह से महाधिवेशन मेरे लिए और अहम हो गया था।
महाधिवेशन स्थल को इस तरह सजाया गया था कि वो एक तरह से पार्टी को ही व्याख्यायित कर रहा था, विशाल पंडाल चारों तरफ से घिरा हुआ, अंदर शानदार मंच, बाहर हर तरफ हमारे शहीदों और दुनिया भर की संघर्षरत जनता के चित्र, फिर एक अस्थाई चारदिवारी जिसमें आने जाने के लिए दो गेट जिन पर हर वक्त तीर कमान ले वालंटियर साथी तैनात, तीन-चार बार तो मुझे ही टोका गया कि पहले बैज दिखाएं फिर अंदर जाएं, और कोई भी हो, चाहे जान-पहचान वाले ही हों, बिना बैज दिखाए कोई अंदर नहीं जा सकता था। मेरे ही सामने रांची के ही एक सज्जन बिना बैज दिखाए अंदर जाने की ज़िद कर रहे थे, और वालंटियर साथियों ने साफ कह दिया उनसे, ”देखिए हम जानते हैं कि आप कौन हैं, लेकिन जब तक आपके पास बैज नहीं है आपको अंदर नहीं जाने दिया जाएगा।” वालंटियर साथियों की इस प्रतिबद्धता पर मेरे वो मित्र थोड़ा भड़क गए, हालांकि उन्हे उसके बाद बाहर नहीं निकाला गया लेकिन वो ठीक से समझ ही गए होंगे कि उन्हे बिना बैज के अंदर नहीं जाने दिया जाएगा। उस अस्थाई चार-दिवारी के बाहर सच में ऐसा लगता था जैसे हम अधिवेशन स्थल के बाहर खड़े हैं, एक तरफ संघर्ष की दीवार थी जिस पर अनुपम और अन्य कलाकार साथियों की शानदार पेंटिग्स् प्रदर्शित थीं, उसके आगे कलाकार कामरेडों ने एक गिरे हुए पेड़ पर ही अपनी कलाकारी उकेर कर उसे संघर्षरत जनता की अदमनीय श्क्ति का मूर्त्य रूप दे दिया था। क्या शानदार कलाकारी थी, हर तरफ उठे हुए हाथ, अपने हकों के लिए नारे लगाते उठे हुए हाथ, हाथों में पारंपरिक हथियार जो शायद ये कह रहे थे कि क्रांति के लिए हमें तुम्हारे हथियारों का डर नहीं, उनकी जरूरत नहीं, जब क्रांति का बिगुल बजेगा तो हर कोने से उठने वाले हाथ ही बहुत होंगे।
महाधिवेशन का हर दिन, हर क्षण मेरी स्मृति पर अंकित है, हो सकता है कि इतना विस्तार से ये यादें हमेशा जीवित ना रहें, लेकिन महाधिवेशन हमेशा मेरे साथ रहेगा, जैसे कलकत्ता महाधिवेशन की यादें आज तक जीवित हैं। महाधिवेशन मेरे साथ हमेशा छोटी-छोटी यादों से जीवित रहता है, एक साथी के साथ अंडा करी खाने की याद, एक दूसरे साथी द्वारा दही-चावल खाने की न्यौता देने की याद, एक और साथी कामरेड के साथ चाय पीने के दौरान उसकी एक आंख दबा कर बात करने की याद, पंजाब की एक कामरेड से दोबारा मुलाकात की याद, उससे मैं रांची में ही हुए जसम सम्मेलन में मिला था, तब वो शायद सिर्फ 8 साल की थी इस बार वो डेलीगेट के तौर पर महाधिवेशन में आई थी, शानदार फोटोग्राफर थी, उसकी एक-एक फोटो कमाल थी। मुझे याद है दक्षिण भारत के दो कामरेडों को रांची ना जानने के बावजूद मैं उनके लिए नियत धर्मशाला लेकर गया, वहां से वापस महाधिवेशन स्थल आया। एक और चीज़ याद आ रही है, मेरे रांची के ही एक दोस्त ने शिकायत की, कि ”देखो पार्टी रांची में महाधिवेशन का आयोजन कर रही है लेकिन किसी आदिवासी शख्सियत को तरजीह नहीं दी गई, ऐसा क्यों।” मैने कहा, ”साथी, महाधिवेशन के लिए तो हमने रांची का नाम ही बिरसा नगर रखा है, क्या आप बिरसा को आदिवासी शहीद नहीं मानते”, वो चौंक गए, ”अरे, मुझे तो पता ही नहीं था।” मैने कहा, ”देखिए आलोचना जरूर कीजिए, उससे आपको कोई नहीं रोकता, लेकिन आलोचना करने से पहले तथ्यों पर गौर तो कर लीजिए।”
बहसें तो बहुत हुई, एक-एक नुक्ते पर, एक-एक शब्द पर, एक-एक लाइन पर, पंडाल के अंदर, पंडाल के बाहर, धर्मशाला में, चाय की दुकानों पर, खाने की लाइनों में, इधर-उधर, हर जगह, इतनी बहस, इतनी बहस, हर साथी की अपनी धारण, हर साथी का अपना नज़रिया, हर कोई अपनी बात को तरजीह देता हुआ, लेकिन इस सबके बावजूद हर नजरिए को जगह मिली, हर बात को सुना गया, हर कान ने सुना, हर दिल में रखा गया, और जब एकमत की बात आई तो हर कंठ ने नारा लगाया, हर हाथ ने ताली बजाई। जब भी तालियां बजती थीं, दिल एक बिलांद उपर उठ जाता था, जब नारा लगता था तो ऐसा लगता था कि कदम जमीन से चार इंच उपर उठे हुए हैं। आप वहां होते, हशमीत के आइडियाज़ सुनते, दीपांकर जी के चुटकुले सुनते, ईशू की बातें सुनते, वर्धराजन जी की बातें सुनते, संतोष के गाने सुनते, असलम की चुहल सुनते, अनिल के कटाक्ष सुनते, अपने कामरेडों की चहल-पहल, उनका उत्साह देखते, वालंटियर साथियों ने इतनी मेहनत की, इतनी मेहनत की, कि क्या कहूं, हर किसी को पानी देना, चाय देना, नाश्ता देना, हर जगह की हिफाज़त करना, आपकी विशेष जरूरतों का ध्यान रखना, और इस सबके बावजूद हमेशा मुस्कुराते रहना, एक दो घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो उनकी मेहनत और उनकी निष्ठा का जोड़ नहीं था। कुछ लोग ये भी कहेंगे कि मुझे तो हर जगह अच्छा ही अच्छा दीखा, लेकिन मैं क्या करूं, मैं ऐसे माहौल में था कि मुझे हर तरफ, हर चीज़ अच्छी नज़र आ रही थी, हर चीज़ अपनी थी, और अपनी चीज़ तो साथी सबको अच्छी ही लगती है ना।
महाधिवेशन में मैने भी एक गाना गया, गाना गाते हुए मेरे पास ढपली नहीं थी जो आमतौर पर मेरे पास होती है, इसलिए मैने डायस पर ही दोनो हाथों से ताल दी और गाना गाया, मुण्डारी गाना था, दीपांकर जी ने पूछा, क्यों भई ये मुण्डारी गाना कहां से सीख लिया, तुम तो अनिल को टक्कर दे रहे हो। मैं हंस दिया, मेरे कामरेडों की हर चीज़ पर नज़र रहती है, एक कामरेड ने पूछा, क्यों कपिल जी, तीन-चार दिनों से इसी गाने की तैयारी चल रही थी क्या, मै हंस दिया, कामरेड मैने संथाली, मुण्डारी, छत्तीसगढ़ी और अन्य भाषाओं के गाने भी सीखे हैं, ऐसे गाने जिनमें प्रतिरोध की आवाज़ है, और संघर्ष की ताल है। मुझे तो गाना, गाना बहुत अच्छा लगा, मुझे यकीन है, सुनने वालों को भी अच्छा ही लगा होगा, हालांकि इतने टाइट शेड्यूल के बावजूद इतने शानदार गीत प्रस्तुत किए गए, कि मज़ा आ गया, भगतसिंह, बंगाली में, मैने तो खैर पहले भी सुना था, जिन्होने नहीं सुना था, उन्होने भी दिल खोल कर सुना। अनिल ने शानदार ग्रुप सांग किए, उसकी तो खैर हर परफॉर्मेंस कमाल होती है, संतोष थोड़ा अपसेट था, उसने तैयारी बहुत की थी, लेकिन उसे समय कम मिला, लेकिन मेरा कहना है कि इतने कम समय में इतनी बढ़िया परफॉर्मेंस, अगर समय ज्यादा मिल गया होता तो वो तो टैंट ही उखाड़ मानता। अनिल को मैं कहना चाहता था, कह नहीं पाया कि, इंटरनेशनल एक बार सुन ले, तो बेहतर होगा। बल्कि मै तो अपने हर कामरेड से गुजारिश करूंगा कि कम से कम इंटरनेशनल सुन लें, धुन तो जरूर ही सुन लें, याद कर लें, और जब भी इंटरनेशनल गाया जाए तो उसे साथ में गाएं, शब्द ना पता हों तो धुन से साथ दें, इंटरनेशनल का यही तो मजा है कि सब कामरेड एक साथ गातें हैं तो आकाश तक गूंजता है। हमें तो अपने हर कार्यक्रम के अंत में इंटरनेशनल गाना चाहिए ताकि हर कामरेड को याद हो।
उठो जागो भूखे बंदी
अब खीचों लाल तलवार
कब तक सहेंगे भाई
जालिम के अत्याचार
हमारे रक्त से रंजित क्रंदन
अब दसों दिशा लाल रंग
सौ-सौ बरस का बंधन
एक साथ करेंगे भंग
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान
ऐसे में, जब इतना बड़ा आयोजन हो तो कुछ चीजें ऐसी हो ही जाती हैं, जो नहीं होनी चाहिए थीं, जिनके बारे में किसी ने सोचा नहीं होता, जिनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। महाधिवेशन के दौरान ही सिवान के एक वरिष्ठ कामरेड का असामयिक निधन हो गया, ऐसे में उनके शरीर को पहले महाधिवेशन स्थल पर लाया गया जहां मौजूद सभी डेलीगेट साथियों ने उन्हे अंतिम सलाम पेश किया और उन्हे विदा किया गया। किन्ही साथी ने बताया कि हालंाकि ज्यादातर साथियों ने उनके स्वास्थय को देखते हुए उनसे महाधिवेशन में आने से मना किया था, लेकिन वो नहीं माने और महाधिवेशन में आए। इस रिपोर्ट में भी मैं उन्हे अपना अंतिम सलाम पेश करना चाहता हूं।
अरे हां, अगर चुनाव की बात ना करूं तो समझो कोई बात नहीं की, पिछले महाधिवेशन में पूरी तैयारी हो चुकी थी लेकिन चुनाव नहीं हुआ था, इस बार चुनाव भी देखा, और समझा भी। विदाई कमेटी ने नई कमेटी के कुछ नाम प्रस्तावित किए दो कामरेडों ने कहा, कि भई हमें लगता है कि अगर हम केन्द्रिय कमेटी में होंगे तो हम ज्यादा बेहतर काम कर पाएंगे, तो केन्द्रिय कमेटी की तरफ से दीपांकर जी ने अपना पक्ष रखा और बाकी दो कामरेडों ने अपना पक्ष रखा, उसके बाद कामरेड उम्मीदवारों को कुछ समय दिया गया कि वो अपने पक्ष में प्रचार कर सकें। इसके बाद मतदान हुआ, टी वी की भाषा में कहें तो, ”मतदान शांतिपूर्ण रहा” कमाल था, 1026 प्रतिनिधियों ने मत दिया। सदन ने विदाई कमेटी द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को ही चुना था। लेकिन चुनाव देखना और समझना भी अपने आप में अद्वितीय अनुभव था। कैसे, तो मैं नहीं बता सकता, आपको वहां होना चाहिए था।
खैर, इसी तरह बीता मेरा दूसरा और पार्टी का नौंवां महाधिवेशन, बिरसा नगर में। ये पांच दिन जो मैने बिरसा नगर में बिताए, ये मेरे जीवन से इतर कुछ दिन थे जिन्हे मैने ऐसे ही सहेजा है। ये था मेरा पार्टी महाधिवेशन।













Main Mahadhiveshan me maujud to nahi tha, Lekin aapke is lekh ko jab main parh raha tha, to main bhi apne aapko mahadhiveshan k bich me hi pa raha tha...aapne apne dil ki bat likhi...Aapka mahadhiveshan safal raha .....i m very happy.
जवाब देंहटाएंबल्कि मै तो अपने हर कामरेड से गुजारिश करूंगा कि कम से कम इंटरनेशनल सुन लें, धुन तो जरूर ही सुन लें, याद कर लें, और जब भी इंटरनेशनल गाया जाए तो उसे साथ में गाएं, शब्द ना पता हों तो धुन से साथ दें, इंटरनेशनल का यही तो मजा है कि सब कामरेड एक साथ गातें हैं तो आकाश तक गूंजता है। हमें तो अपने हर कार्यक्रम के अंत में इंटरनेशनल गाना चाहिए ताकि हर कामरेड को याद हो।
जवाब देंहटाएंउठो जागो भूखे बंदी
अब खीचों लाल तलवार
कब तक सहेंगे भाई
जालिम के अत्याचार
हमारे रक्त से रंजित क्रंदन
अब दसों दिशा लाल रंग
सौ-सौ बरस का बंधन
एक साथ करेंगे भंग
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान
ये अंतिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इंटरनेशनल
भव स्वतंत्रता का गान