झिनकू
उसका असली नाम पता नहीं क्या था, लेकिन सब उसे झिनकू के नाम से जानते थे। झिनकू इसलिए क्योंकि वो झिनकता-मिनकता रहता था। लोग कहते थे कि किसी जमाने में सब ठीक था। एक बड़े होटल में सिक्योरिटी ऑफिसर की नौकरी थी, मजे में सब कटता था। अच्छी तन्ख्वाह थी और बड़े आदमी का रौब था। होटल से गाड़ी मिली हुई थी पिता की भी कुछ पॉपर्टी थी बाकी दिन मजे में कट रहे थे। और झिनकू अपनी बीवी और बच्ची के साथ एक आम आदमी की आम ’खुष’ जिंदगी गुजार रहा था। हर संडे को बीवी को शॉपिंग कराने लेकर जाता था, और हर शाम अपनी बच्ची के लिए पास की दुकान से चॉकलेट खरीदता था। यानी कुल मिलाकर सब ठीक चल रहा था। फिर एक दिन होटल में एक अमीर आदमी का नाबालिग बेटा एक ’कॉलगर्ल’ को ले आया। बदकिस्मती से झिनकू उस वक्त ड्यूटी पर था और उसे उसके एक स्टाफ गार्ड ने उसे ये बात बता दी थी। झिनकू थोड़ा समझदार था और फिर उस लड़के का बाप होटल का रेगुलर पैट्रन था, फिर जब रिसेप्षन को कोई ऐतराज नहीं था तो उसे क्या हो सकता था। तो सब चल गया। लेकिन उसी रात उस लड़के ने जो शायद किसी ’मनोवैज्ञानिक बीमारी’ (बाद में कोर्ट में डॉक्टर ने बीमारी का एक लंबा नाम बताया था) का षिकार था उस लड़की को बहुत पीटा था, लड़की चिल्लाई तो सिक्योरिटी ऑफिसर ने वही किया जो उसका फर्ज था। उसने कमरे का दरवाजा खोला उस लड़की को बचाया और लड़के को पुलिस में दे दिया। लड़के की दो रोज़ बाद जमानत हो पाई थी। उसके बाप की बड़ी फजीहत हुई थी जो पूरे दिल्ली शहर में बहुत रसूख वाले थे, लेकिन आखिर उसी रसूख ने उनकी फजीहत भी बंद करवा दी और लड़का भी तीसरे दिन खेलते खाते घर वापस आ गया। उसके एक महीने बाद झिनकू को डिसिप्लिनरी एक्षन के तहत नौकरी से निकाल दिया गया था। उसका ’आरोप’ था कि उसे उस लड़की की जान बचाने की सजा मिल रही है लेकिन उसके कहने से क्या होता है। और उसकी नौकरी चली गई। फिर धीरे-धीरे उसे शराब की लत लग गई। फिर बीवी और बच्ची चली गई। घर वालों ने काफी देर तक झेला लेकिन फिर आखिरकार वो भी छूट गए। और झिनकू अकेला रह गया।
अक्सर चाचा (उनका किस्सा फिर कभी सुनाउंगा।) की दुकान पर रहता था वो जो भी छोटा-मोटा काम करने को कहते थे करता था और रात को अपने पउए का पैसा ले लेता था, बाकी भी कुछ जुगाड़ करता ही था, क्योंकि पूरा दिन पीता ही रहता था। पता नहीं पैसे कहां से आते थे उसके पास, वैसे चाचा को वो मामा कहता था, पूरा मौहल्ला चाचा को चाचा कहता था लेकिन वो मामा कहता था। शायद उनसे अपना अलग रिष्ता गांठ कर वो खुद को ये तसल्ली देना चाहता था कि वो वहां नौकरी नहीं कर रहा बस किसी रिष्तेदार की मदद कर रहा है, क्योंकि और चाहे जो भी हो, खुद्दारी उसमें कूट कूट कर भरी हुई थी। ना किसी की सुनता था ना किसी की सहता था। चाचा, यानी अपने मामा की भी एक नहीं सुनता था, बस चुपचाप अपना काम करता था, अगर चाचा यानी उसके मामा ने उसे कभी डांट दिया तो गुस्से में दुकान से निकल जाता था और शाम को तभी वापस आता था जब पव्वे के पैसे लेने का टाइम आ जाता था। पतला सा था, सींकिया, बड़ी-बड़ी आंखें थी।
मुझसे उसका परिचय इत्तेफाक से ही हो गया था। क्योंकि चाचा की दुकान पर तो मैं अक्सर जाता था, उन दिनों मुझे फोटोग्राफी का शौक चर्राया था और मैं, मैं होने की खातिर कैमरा इस्तेमाल करने से पहले कैमरे के कसबल जानने की इच्छा की खातिर अक्सर चाचा की दुकान पर जाया करता था। पहले पहल तो वो वहीं बैठा मिलता था, फिर जब मेरा जाना बढ़ गया, और चाचा से दोस्ती सी हो गई तो उससे भी दोस्ती होना स्वाभाविक था। उस समय मैं ठीक-ठाक कमाने लगा था तो मेरे पास पैसे होते ही थे, और कपड़े साफ-सुथरे पहनने लगा था इसलिए पढ़ा-लिखा दिखाई देता था। तो जब पहली बार उससे बातचीत हुई तो उसने अंग्रेजी में बात करने की कोषिष की, शायद ये जताने के लिए कि, मेरे कपड़ों को और ऐसे ही बैठे रहने पर ध्यान मत देना, मैं यहां नौकर नहीं हूं तुम्हारी तरह सम्मानित हूं। थोड़ी देर मेरे सामने टूटी-फूटी अंग्रेजी झाड़ी (जिसका जवाब मैं हिंदी में देता रहा।) फिर झटके से उठा चाचा यानी अपने मामा से सिगरेट के पैसे मांगे और चला गया।
उस वक्त तक चाचा से मेरा इतना परिचय नहीं हुआ था कि मै पूछता कि ये कौन था। बस कैमरे की बातें चलती रहीं। लेकिन धीरे-धीरे मेरा चाचा के पास बैठना बढ़ता गया, बात बस इतनी सी थी कि चाचा के पास एक महफिल सी जमी रहती थी जिसमें हर तरह के लोग आते थे और हर तरह की दिलचस्प बातें होती रहती थीं, चाचा सिर झुका कर अपने दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी में पेचकस या चिमटी पकड़ कर कैमरा ठीक करता रहता था और कभी कभी सिर उठा कर बातचीत में अपनी उपस्थिती दर्ज करा देता था। लेकिन अमूमन हम बात करते रहते थे, औरत की अनॉटामी से लेकर राजनीति के दांवपेंचो से होते हुए धर्म की पेचीदा गलियों तक हमारी बातचीत का कोई अंत नहीं था। और झिनकू इस बातचीत में दीवार के पास कुर्सी पर बैठा रहता था। वो कुछ बोलता नहीं था, क्योंकि कोई उससे कुछ पूछता ही नहीं था। कोई उसकी बात पर ध्यान नहीं देता था और वो भी अपने ही में मगन रहता था, कुर्सी की पुष्त पर अपनी पीठ टिका कर कुर्सी की पुष्त को दीवार से लगाकर आगे पीछे करता रहता था। लेकिन इस दौरान इतना हो गया था कि मुझे ये समझ में आ गया था कि वो चाचा के अलावा हर उस आदमी का कोई छोटा-मोटा काम करने को तैयार रहता है जिसमें उसे दो चार रुपये की बचत हो जाए, जैसे चाय वाले को चाय बोलने जाना, या पान वाले से सिगरेट ले आना। और इस बीच मैं खुद भी इतना बेतकल्लुफ हो गया था कि उससे बिना किसी हिचकिचाहट के सिगरेट मंगा लेता था। ना मैने कभी उससे बचे पैसे मांगे और ना उसने दिए।
मेरा चाचा के पास बैठना दिन-ब-दिन बढ़ता गया और फिर अचानक रुक गया। मैं किसी नयी फिल्म के चक्कर में भोपाल की विधानसभा के चक्कर लगा रहा था। कुछ एक महीना बाद हमें जो फिल्म मिली उसे सिर्फ 13 दिन में पूरा करके जमा करवाना था। तौबा करके किसी तरह वो फिल्म पूरी की, जिसमें नौसीखिया कैमरामैन की वजह से मुसीबतें और झेलनी पड़ीं और ऊपर से वो अजीबो-गरीब जीप वाला जिसने भीलों के लोगों को लूटने के किस्से सुना सुना कर हमारी सांसे रोक दी थीं। लेकिन अगर ये किस्सा शुरु हो गया तो मैं फिर भटक जाउंगा। तो खैर जब मैं अपनी भोपाल वाली फिल्म जमा करके वापस आया तो मैने चाचा की दुकान पर फिर से जाना शुरु कर दिया। और मजे की बात ये कि मुझे बहुत दिनो बाद इस बात का अहसास हुआ कि झिनकू अब वहां नहीं बैठता। तब तक चाचा ने एक छोटे से लड़के को “काम सिखाने“ के लिए रख लिया था और हमारी जरूरतें, (सिगरेट चाय का बुलावा देने की) वो बखूबी पूरी कर दिया करता था। तो काफी दिनों तक तो झिनकू का ख्याल ही नहीं आया और फिर आया तो अचानक।
एक दिन मैं चाचा की दुकान पर बैठा था और ऐसे ही समय काटने के लिए अखबार पढ़ रहा था, चाचा किसी काम से बाहर गया हुआ था कि वो अचानक दुकान में आया। ’ मामा कहां है?’ उसने साधिकार पूछा, ’पता नहीं’ मैने उसे सच्चा जवाब दिया। उसके हांेठ भिंच गए। मै समझ गया कि ये अब इंग्लिष बोलने वाला है। ’ यू नो, मुझे फिफ्टी रुपीज़ चाहिए, अभी जरूरी है, मामा के आते ही तुम्हे वापस कर दूंगा।’ मैं जानता था कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला, यानी मुझे ये पैसे कभी वापस नहीं मिलेंगे। लेकिन वो थोड़ा टेंस और जेनुइन दिख रहा था। वैसे भी टेंषन में आदमी अक्सर जेनुइन दिखने लगता है। मैने चुपचाप उसे पचास रु॰ निकाल कर दे दिए। वो झटके से वापस चला गया। जब चाचा वापस आया तो मैने उसे ये वाकया बताया। चाचा हंस दिया और हंसते हंसते बोला, ’अरे उसे कभी पैसे मत दिओ, वो ऐसा ही है। दारू पीने के लिए पैसे नहीं होंगे तो ले गया होगा।’ खैर ना मुझे चाचा यानी उसके मामा ने पैसे दिए ना मैने मांगे।
लेकिन उसके बाद मेरी उसमें क्यूरिओसिटी जाग गई थी तो मैने चाचा से उसके बारे में सवाल करना शुरु कर दिया। चाचा ने बताया कि वो भी वहीं का बाषिंदा था। खाली था लेकिन खुद्दार था। पहले घर वाले ध्यान देते थे लेकिन अब उन्होने उस पर बिल्कुल ध्यान देना बंद कर दिया था। क्योंकि वो दिन भर दारु पीता था और दारु के अलावा उसे कुछ और बात सूझती ही नहीं थी। ’तो अब वो कहां है और क्या कर रहा है।’ मैने पूछा। ’पता नहीं’ ’क्या तुमसे कोई लड़ाई करके गया है।’ ’नही ंतो, बात बस इतनी है कि रात को जब सब बैठ कर पी रहे थे तो उसे ना किसी ने पूछा और ना किसी ने बताया, बस दूसरे दिन से गायब था।’
खैर, एक दिन मै किसी बस में किसी काम से कहीं जा रहा था। कि वो कंडक्टर की सीट पर बैठा दिखाई दिया। मैं उस वक्त बस में टिकट ले लिया करता था। इसलिए जब उसके पास पहुंचा तो उसने मुझसे हाथ मिलाया, सोबर लग रहा था। मैने उसे पैसे दिए तो उसने लेने से मना कर दिया और अपने साथ वाली सीट खाली करके मुझे वहां बिठाया। बस पूरी भरी हुई थी और मै थका हुआ था तो बैठना तो अच्छा ही लगा। मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था लेकिन इतनी भरी हुई बस में किसी कंडक्टर से टिकट के पैसे को लेकर होने वाली झक झक के अलावा कोई और बात करना नामुमकिन होता है। तो मै अपना स्टैंड आने पर उतर कर चला गया। और ये बात कतई भूल गया।
इसके कुछ ही दिन बाद एक दिन शाम को मैं चाचा के पास अड्डा करने का मन बना कर आया था, तो वो वहीं उसी कुर्सी पर बैठा मिल गया। मैने उससे हाथ मिलाया उसने मुझे इंग्लिष में विष किया जिसका कोई भी शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ा। खैर मैने उसे पैसे दिए और वो सिगरेट लेने और मेरे लिए चाय बोलने चला गया। मैने चाचा से पूछा, ’ये कैसे’ चाचा ने बताया कि तीन दिन पहले अचानक आ गया था और चाचा से रो रोकर जाने किस बात की माफी मांगी फिर वहीं रह गया। अब दिन भर उसकी दुकान पर बैठता है और रात का उसकी बैठक में सो जाता है। कहता है कि दारु छोड़ दी लेकिन असल बात ये है कि दारु के साथ और भी नषे करने लगा है। खैर मेरी दिलचस्पी उसमें खत्म हो चुकी थी, इसलिए मैने ज्यादा बात भी नहीं की, हालंाकि मुझे याद नहीं है लकिन उस दिन महफिल में भी कोई दिलचस्प बात चल रही थी।
उसके दूसरे दिन मैने उससे बात करने की कोषिष की, मैने उससे पूछा कि वो रहता कहां है। उसने सगर्व बताया कि वो चाचा की बैठक में रहता है, और चाचा का हाथ बंटा रहा है। फिर दिन वैसे ही चलने लगे, मैं चाचा की दुकान पर जाता था और बैठता था, महफिल जमती थी जिसमें महल्ले के आस-पास के लोग आते थे, दुनिया भर की बातें करते थे और झिनकू अपनी कुर्सी पर बैठा, कुर्सी की पुष्त को दीवार से लगाकर उसे आगे-पीछे करता रहता था। लेकिन धीरे-धीरे मैने महसूस किया कि मामला कुछ बदला है। एक तो अब चाचा यानी उसका मामा, उससे कोई काम नहीं कहता था, दूसरे वो चाचा यानी अपने मामा से शाम को पव्वे के पैसे नहीं मांगता था। तो मैने चाचा से वजह पूछी तो चाचा ने कहा कि अब उसने झिनकू को पैसे देना बंद कर दिया है।
तो आखिर उसके पास पैसे आते कहां से हैं। चाचा ने बताया कि उसने खून बेचना शुरु कर दिया है। खून बेचना। मैं हैरत में पड़ गया। मैने सुना था कि लोग खून बेचते हैं और उस पैसे से दारू पीते हैं लेकिन ऐसा कोई आदमी मैने अपनी आंखों से नहीं देखा था। और फिर झिनकू तो इतना मरघिल्ला सा लगता था कि कोई क्या उसका खून खरीदता। तो मैने झिनकू से खुद इस बाबत बात करने का फैसला किया। लेकिन सवाल ये था कि मैने कभी उससे इतनी रगबत पैदा करने की कोषिष ही नहीं की थी कि अब बेतकल्लुफी से उससे इस बारे में बात कर पाऊं, तो मैने उससे रगबत बढ़ाने के लिए उससे दोस्ती कर ली। और जैसा कि मेरा अंदेषा था तीसरे ही दिन उसने शाम को मुझसे बड़ी बेतकल्लुफी से पचास रुपये उधार मांग लिए। बिल्कुल ऐसे ही जैसे परसों शाम को वापस कर देगा। लेकिन मैने बिना कुछ आगा-पीछा सोचे उसे पैसे दे दिए। आखिर मेरे लिए आगे का रास्ता खुल रहा था। उस शाम उसने पक्का बिना खून बेचे दारू पी होगी। खैर दूसरे दिन मैने उससे बात की, बात क्या की उससे सीधे-सीधे बड़ी बेतकल्लुफी से पूछ लिया कि आखिर वो खून कैसे बेचता है। उसने उसी बेतकल्लुफी से सगर्व बताया कि अगर किसी अस्पताल के पास खड़े हो जाओ तो कोई ना कोई सूरत देख कर पूछ ही लेता है कि खून बेचना है, और फिर बड़े आराम से किसी का भाई, चाचा या कोई और रिष्तेदार बन कर एक यूनिट खून दे आओ बड़े आराम से 75 से 100 रु॰ तक मिल जाते हैं हालांकि ग्राहक अगर खुद आ जाए तो आप उससे तीन सौ से आठ सौ जैसी उसकी जरूरत हो मांग सकते हो लेकिन ये काम दलाल को बीच में रख कर हो तो अच्छा होता है। क्योंकि दलाल अस्पताल के स्टाफ को अच्छी तरह जानता है इसलिए उसमें फंसने का खतरा नहीं होता। क्या उसे कभी किसी ने पकड़ा नहीं, क्यों नहीं, एक बार तो आधा खून ले लेने के बाद एक अरदली ने उसे पहचान लिया था। नर्स ने बड़ी बेदर्दी से उसके हाथ से सुंई खींच ली और उस दिन तो उसे फ्रूटी और बिस्किट भी नहीं मिला जो अमूमन खून देने वाले को दिया जाता है।
उसने एक बार फिर चाचा की दुकान पर आना बंद कर दिया, बस कभी-कभी गाहे बगाहे वो वहां दिख जाता था। लेकिन ज्यादा देर के लिए नहीं। खून बेचने वाली जानकारी के बाद मुझे उससे हमदर्दी की जगह एक अजीब किस्म की नापसंदगी से पैदा हो गई थी। और मैं उससे बात भी नहीं करता था, उसके हैलो का जवाब भी नहीं देता था। लेकिन एक दिन मैने उससे पूछ ही लिया कि आखिर वो रहता कहां है।
उसने बताया कहीं भी जहां जगह मिल जाए। रेलवे स्टेषन के अंधेरे कोने में, या किसी झोंपड़ पट्टी के पास किसी चबूतरे पर, या किसी पार्क में, पर पार्क में से पुलिस वाले भगा देते हैं। वैसे खतरा तो हर जगह होता है लेकिन सर्दियों में रात काटने की सबसे ज्यादा सुरक्षित जगह है सफदरजंग हस्पताल। वो कैसे, मैने पूछा, उसने कहा कि रात को ग्यारह बजे तक इंतजार करो और फिर इमरजेंसी में जाकर पेटदर्द के लिए हाय-हाय चिल्लाना शुरु कर दो। थोड़ा अच्छी एक्टिंग करो तो डॉक्टर पेन किलर दे देता है और एक स्ट्रेचर पर डाल कर किसी कोने में सरका देता है वहीं चादर लेकर पड़े रहो और सुबह होने पर शोर की वजह से नींद खुल जाती है तो चुपचाप सरक आओ। लेकिन वहां भी खतरा यही है कि अक्सर रात की ड्यूटी करने वाला आपको पहचान जाता है तो वहां से भगा देता है, लेकिन ज्यादातर मामला चल जाता है।
मेरा ख्याल है ये मेरी उससे आखिरी मुलाकात थी। उसके बाद मैं करीब ढाई महीने के लिए कहीं चला गया था। मेरी अपनी मसरूफियत इतनी थीं कि कुछ और सोचने का वक्त ही नहीं था मेरे पास। वापस आया तो मसरूफियात ज्यादा बढ़ गईं और मैं चाचा के पास भी नहीं जा पाया। और फिर वो मेरे लिए इतना इम्पॉर्टेंट भी नहीं था कि मै उसके बारे सोचता। फिर जब चाचा के पास जाना शुरु किया तो ना मैने उसके बारे में कुछ पूछा और ना चाचा ने बताया। फिर एक दिन चाचा से उसके अजीबो-गरीब दोस्तों की बात चल रही थी, जिनमें एक कनमैलिया था, एक मच्छी वाला था एक किताब वाला था और एक मुरमुरे वाला था तभी उसका जिक्र चला। और चाचा ने बताया कि वो तो मर चुका है। कैसे, मैने पूछा, वहीं सफदरजंग में गया था, कि पेट में भयानक दर्द हो रहा है, किसी अरदली ने पहचान लिया, और उसे वहां से भगा दिया। वो वहां से बाहर निकला तो चल भी नहीं पा रहा था। डॉक्टर उसका विष्वास करने को तैयार नहीं था लेकिन फिर भी दया करके उसे पेन किलर दे दिया था। उसने वो पेन किलर खाया और सफदरजंग के आगे सड़क के किनारे फुटपाथ पर पड़ गया। रात में जाने क्या हुआ कि वो खुद चल कर सड़क पार कर रहा था या नषे की ऊंघ में करवट ले ली थी कि फुटपाथ से नीचे सड़क पर गिर पड़ा। और किसी गाड़ी के पहिए के नीचे आकर कुचल गया। पुलिस ने जब उसकी जामातलाषी ली तो उसमें चाचा यानी उसके मामा की दुकान का कार्ड मिला जिसके पीछे उसने अंग्रेजी में मामा लिख कर उसके नीचे चाचा यानी अपने मामा का मोबाइल नंबर लिखा हुआ था। पुलिस ने चाचा को खबर की तो चाचा दो और लोगों के साथ गया और तीन सौ रुपये देकर वहीं उसको विद्युत शवदाहगृह में जलवा आया था। इतना बताकर चाचा यानी उसका मामा सिर झुका कर अपने काम में मषगूल हो गया और मैं थोड़ी देर अवाक बैठा रहा और फिर आधी जली हुई सिगरेट एषट्रे में बुझाकर घर वापस आ गया।

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जवाब देंहटाएंJhinku bada jana pehchana sa chehra laga par uski khuddari ka concept thoda vichitra laga.. dilli shehar ka varnan bada vastavikta k kareeb laga..Shayad yahi hai asali dilli....thodi beparwaah.. farz k naam pe kuch kr diya to thodi c sensitive aur fir wahi beparwahi..
जवाब देंहटाएंपहले तो यही कि एक बार कमेंट लिखने के बाद उसे मिटाना 'इंसानियत' नहीं होती दूसरा ये की ऐसा होता हर शहर में है, नज़र में नहीं आता। क्या तुम जानती हो, उस भिखारी की कहानी जो हर रोज़ तुम्हे दीखता है , जब तुम कोलेज जाती हो, या वो बुढिया जो तुम्हे मिली थी रेल के डिब्बे में, या वो बच्चा जो दिल्ली के किसी चौराहे पर तुमसे एक रूपया मांग रहा था. यकीन मानो मै उन सबको जानता हूँ, कभी मिलवाऊंगा
जवाब देंहटाएं"मैं थोड़ी देर अवाक बैठा रहा और फिर आधी जली हुई सिगरेट एषट्रे में बुझाकर घर वापस आ गया।"
जवाब देंहटाएंजाहिर है कहानीकार सिर्फ यही कर सकता है. पर वह ऐसा अंत पाठकों को देकर क्या कहना चाहता है.
बात सिर्फ कहानीकार की नहीं है, सवाल ये है कि एक आम आदमी ऐसी स्थिति में क्या कर सकता है। क्या हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प है। हो सकता है कि इस कहानी में आपको कहानीकार के पार्ट में संवेदनहीनता लगे, लेकिन मेरे दोस्त, अपनी ही परेशानियों, जिम्मेदारियों और काम से जूझते किसी भी आदमी की मनःस्थिति में इसके अलावा और क्या किया जाए कि ”सिगरेट बुझा कर” वापस लौट जाया जाए। एक कहानीकार होने के नाते मैने सिर्फ ये किया कि ईमानदारी से आपके सामने वो रखा जो हुआ होगा, या हुआ हो सकता है। बाकी तो आप ही फैसला करेंगे।
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