मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

अर्धसत्य




अर्धसत्य

काफी देर से आंखे खोले बिस्तर पर पड़े रहने से आंखों के गिर्द काले घेरे पड़ जाते हैं, बिस्तर से उठते हुए उसने सोचा। परछत्ती पर बने झोपड़ेनुमा कमरे में लोहे की जंगआलूदा चारपाई पर से उठते हुए उसने पास पड़े हुए अंगोछे को कमर में बांध लिया। अकेले रहने का ये भी एक सुख है कि कम से कम निरवस्त्र रहा जा सकता है, कोई किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं करता। उठ कर वो खिड़कीनुमा झरोखे के पास पहुंचा और मटके में से आधा गिलास पानी निकाल कर गटक गया। पानी के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, इस शहरी कॉलोनी में दो तरह के पानी आते हैं, एक पीने के लिए और एक बाकी कामों के लिए। बाकी काम जैसे कपड़े धोना, नहाना, पोंछा लगाना या ऐसे ही काम, इन गैरजरूरी कामों के लिए पानी वो छत के कोने में रखी तीन टंकियों में से किसी का भी ढक्कन उठा कर ले लेता था, लेकिन पीने के पानी के लिए उसे एक नियत समय पर नीचे जाकर पानी भरना पड़ता था और फिर बाल्टी को चार मंजिल उपर लाना पड़ता था। इसलिए पीने का पानी वो हफ्ते में सिर्फ एक ही बार भरता था और उसे बहुत सावधानी से बरतता था। जैसे प्यास लगने पर सिर्फ आधा गिलास पानी पीना, या चाय जब बहुत जरूरी हो या नीचे जाने का कतई मन ना हो तो ही बनाना। यूं कई बार ये भी हुआ कि वो टंकियों के पानी को ही पीने या चाय बनाने के काम ले आता था। फिर एक दिन उसने देखा कि टंकी का ढक्कन उठाकर बंदर उसमें नहा रहे हैं। तबसे उसने उस पानी को पीना छोड़ दिया था। 

मालिक मकान से उसका एक अलिखित समझौता था, मालिक मकान जो मकान की सबसे निचली मंजिल पर रहता था, हालांकि मकान बनवाते समय ही ठेकेदार से हुए एग्रीमेंट में तीसरी मंजिल के दो फ्लैट बिक गए थे, फिर दूसरी और चौथी मंजिल के चारों फ्लैट भी बिक गए थे और इस तरह जमीन के मालिक के पास निचली और पहली मंजिल के चार फ्लैट और ये छत बची थी जिस पर ये झोपड़ी पड़ी हुई थी। मालिक मकान यानी चौहान साहब ने अपनी पूरी जिंदगी में कोई काम नहीं किया था, वैसे वो पॉर्पटी डीलर थे, और उनकी काफी शोहरत भी थी। लेकिन अपने धंधे में उन्होने कोई पैसा बनाया हो, इसकी उसे खबर नहीं थी, पहली मंजिल के एक फ्लैट और ग्राउंड फ्लोर के दो फ्लैटों के किराए से ही उनका घरबार चलता था। उसके और चौहान साहब के बीच मुआहदा ये था कि वो उनकी दो लड़कियों को पढ़ाएगा और इसके बदले उससे उस झोपड़ी का किराया नहीं वसूला जाएगा, हालांकि जब वो यहां आया था तब ऐसा नहीं था। वो चौहान साहब को 1400 रुपये किराया देता था, लेकिन फिर जब एक बार उसे फैलोशिप का पैसा मिलने में देर हुई और तीन महीने तक किराया नहीं दे पाया तो चौहान साहब ने ही प्रस्ताव रखा कि अगर वो उनकी दोनो लड़कियों को ट्यूशन पढ़ा दिया करे तो चौहान साहब उससे किराया नहीं मांगेगे। इसमें उसे वैसे भी कोई एतराज नहीं था, किसी को ट्यूशन पढ़ाना कोई हत्तक का काम तो था नहीं, और अगर महाना मिलने वाले 4000 रुपयों में से कुछ बच ही जाए तो उसका क्या जाता है। 

इस ट्यूशन से उसे जो सबसे बड़ी परेशानी थी वो चौहान साहब की बड़ी बेटी से थीं जो जाने किस मुगालते में उसे तरह-तरह से इशारे करती थी, और अब तो चिठ्ठियां तक देने लगी थी। लड़की जवान थी, और वो भी कोई साधु तो नहीं ही था लेकिन चौहान साहब को पता चल जाने और झोंपड़ी छूट जाने के डर से ही वो किसी भी तरह की हरकत से बाज़ आ रहा था। हालांकि अपनी झोंपड़ी के एकांत में उसने कई बार, उसके सपने लिए थे। 

अपना सदाबहार सतरंगी कुरता और जींस पहन कर वो झोंपड़ी से बाहर निकला और दरवाज़ा भिड़का दिया। पहले वो इसमें ताला लगाया करता था, लेकिन किसी ऐसे दरवाजे़ को ताला लगाने का मतलब ही क्या जो हाथ के जोर के धक्के से ही सामने वाले के आगे अपने आप को पूर्णतः प्रस्तुत कर दे। इसलिए वो कुंडा तक नहीं लगाता था, पहले तो कोई छत पर आ ही नहीं सकता, दूसरे ये झोंपड़ी दूर से देखने पर ऐसी नहीं लगती थी कि कोई भिखारीनुमा चोर भी इस पर हाथ डाले, तीसरे अगर मान लीजिए कोई बहुत ही डेस्परेट आदमी आ ही जाए, और झोंपड़ी में चोरी करने के लिए अंदर घुस ही जाए तो उसे कुछ मिलेगा ही नहीं। गरीबी का ये आश्वासन ताला-चाबी के झंझट से उसे दूर रखे हुए था। वो नीचे चल दिया।

चाय की दुकान पर पहुंच कर उसने बंेच पर पड़ा अखबार उठा लिया, चाय वाले के लिए वो रोज़ का गाहक था इसलिए उसे बिना कहे एक गिलास चाय मिल गई, चाय पीकर वो फिर से अपनी उसी झोंपड़ी में जाएगा और उसके पीछे बने हुए टॉयलेट में नित्यक्रम से निवृत होगा और फिर यूनीवर्सिटी जाएगा, वहां कुछ एक दोस्तों के साथ कुछ गप-शप होगी, कुछ एक टीचरों के साथ बातचीत होगी, कुछ एक कार्यक्रम बनेंगे, कुछ एक पर बहस होगी, और शाम को ठीक चार बजे वो वहां से चल देगा, यूनिवर्सिर्टी बहुत पास ही थी जहां वो पैदल भी जा सकता था और बस से भी जा सकता था। अधिकतर वो पैदल ही जाता था, ताकि सोचने का वक्त निकल सके। उसने कई बार अपने कमरे के एकांत में सोचने की कोशिश की थी लेकिन एकांत में सोचने की आदत नहीं होने के चलते वो अपनी झोंपड़ी में सोच नहीं पाता था, और इसी तरह पैदल चलते चलते सोचता था, झोंपड़ी में उसके बौद्धिक सोच के सवालों पर, चौहान साहब की बड़ी लड़की हावी हो जाती थी, या कभी-कभी ऐसा लगता था जैसे दिमाग पर कोई धुंध जम गई हो जो किसी तरह भी हट ना सके। इसीलिए अपने तमाम बौद्धिक सवालांे पर वो युनिवर्सिटी तक पैदल जाते हुए सोचता था जब गाड़ियों की रफ्तार उसके कानों में गूंजे, जब लोगों के शोर के कतरे उसके जेहन से टकराएं, जब वो बिना सोचे गाड़ी में जुते हुए बैल की तरह बिना रास्ता देखे चलता रहे और सोचता रहे।

चाय पीकर वो वापस अपनी झोंपड़ी में वापस आ गया, अब उसे नहाना था और फिर यूनिवर्सिटी के लिए निकलना था। उसने झोंपड़ी के बाहर बंधे तार पर से अपना तौलिया उतारा और अंदर आया। बाल्टी कहीं नहीं दिख रही थी, वो बाथरूम में गया लेकिन बाल्टी वहां नहीं थी, वो कंधे पर तौलिया डाले टंकी के पास गया तो देखा कि बाल्टी वहां टेढ़ी पड़ी हुई थी, उसने बाल्टी को उठाया और टंकियों के चबूतरे पर चढ़कर पहली टंकी का ढक्कन खोला, टंकी आधी भरी हुई थी, उसका ढक्कन बंद करके वो दूसरी टंकी के पास गया और उसका ढक्कन खोला ये टंकी तीन-चौथाई भरी हुई थी, उसने इसमें अपनी बाल्टी डाल दी, आधी टंकी भरी हो तो पानी के लिए बहुत नीचे तक झुकना पड़ता है, इसीलिए वो ज्यादा भरी टंकी से ही पानी लेता था। पानी भरके वो टॉयलेट चला गया, वहां बाल्टी रख कर कुछ देर सोचता रहा और फिर मग्गा उठाकर फिर से टंकी के पास गया, इस बार उसने तीसरी टंकी खोली जो पूरी भरी हुई थी। उसमें से मग भरकर वो वापिस टॉयलेट आ गया, चौहान साहब ने झोंपड़ी में भी इंग्लिश टॉयलेट लगवा रखा था जिस पर वो कुर्सी की तरह बैठकर पाखाना कर सकता था, हालांकि ये कोई ज्यादा बड़ा आराम नहीं था, लेकिन अब उसे यही खुड्डी अच्छी लगने लगी थी। थोड़ी देर तक वो ऐसे ही बैठा रहा फिर नीचे झुक कर देखा, फिर चेहरा उपर उठाकर कल अपने खाए खाने का हिसाब लगाने लगा, उसे लगा कि खाने के हिसाब से पूरा हो गया है, तो वो इत्मिनान से उठ गया। 

नहाने के बाद वो तौलिया लपेटे बाहर निकला और अपने बिस्तर पर लेट कर उसने तौलिया उतार दिया, बाहर की गर्म हवा भी शरीर पर ठंडी लग रही थी। थोड़ी देर ऐसे ही लेटा रहकर वो उठ खड़ा हुआ और जल्दी-जल्दी कपड़े पहन लिए, वही सतरंगी कुर्ता और वहीं पुरानी जीन्स, अण्डरवियर पहनना वो कबका छोड़ चुका था, फायदा कोई था नहीं और झंझट कई सारे थे। उसने बिस्तर के पास पड़े टेबल पर से दो किताबें उठाईं और बाहर जाकर फिर से दरवाज़ा भिड़का दिया। आज उसे अपने गाइड से मिलना था, पिछले तीन महीनों से उसकी थीसिस में कोई हलचल नहीं हुई थी, और कल उसके गाइड ने उसे पकड़ लिया था और फिर आज उसे अपने ऑफिस में आने को कहा था। वो थीसिस पूरी करना चाहता था, आखिर क्यों नहीं करता, उसके पास करने के लिए इसके अलावा कुछ और नहीं था। लेकिन गाइड-मिलन, वार्ता की हर घटना के बाद थीसिस कुछ घट जाती थी और उसमें बढ़ाने के लिए कुछ बढ़ जाता था। वो ऐसा कोई ब्रिलिएंट छात्र था ना उसका विषय ही ऐसा कोई क्रांतिकारी था जिस पर उसके गाइड को कोई विशेष ध्यान देने की फुर्सत होनी चाहिए थी, लेकिन जाने क्यों उसका गाइड इसकी थीसिस पर इतना ध्यान देता था। फील्ड वर्क वो तीन महीना पहले ही पूरा कर चुका था और अब उसे अंदेशा था कि अगर इस साल के अंत तक वो अपनी थीसिस नहीं जमा करवाता तो कहीं उसका गाइड उसे दोबारा फील्ड वर्क के लिए ना कह दे। थीसिस में उसे अब सिर्फ आखिरी चैप्टर और कन्क्लूज़न लिखना था और गाइड ने आज ही मिलने के लिए बुलाया था। 

यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर घुसने के बाद उसने थीसिस के बारे में सोचना बंद कर दिया और ये सोचने लगा कि सबसे पहले कहां जाना चाहिए, लाइब्रेरी, कैंटीन, या किसी दोस्त के कमरे में, सारे ही दोस्त हॉस्टल में रहते थे और वो किसी के भी कमरे में जा सकता था, सप्तऋषि चला जाए, वहां ज्योत्सना और उर्वशी मिल जाएंगी, या फिर कैंटीन चला जाए वहां गार्गी के मिलने की गारंटी थी, लड़के ठीक हैं, अगर हों तो लेकिन उनके साथ ज्यादा देर बात नहीं की जा सकती, हां लड़कियां हों तो बातें आधी रात तक भी चल सकती हैं। थोड़ी देर उन्ही के साथ बैठकर बतियाया जाएगा और फिर कहीं और जाया जाएगा। गाइड तीन बजे से पहले अपने रूम में नहीं होंगे ये उसे पता था, तब तक का समय तो काटना ही था। वो लाइब्रेरी कैंटीन की तरफ बढ़ चला। कैंटीन में बहुत सारे काम हो जाते थे, लोगों से मिलना, मुफ्त की चाय, हो सके तो खाने का जुगाड़, नई खबरों की जानकारी, और इस सबके अलावा इसका पता चल जाता था कि कौन प्रोफेसर कहां है, कहां जॉब आदि की संभावना है और कहां नहीं।

काफी देर तक कैंटीन में बैठा हुआ वो आते-जाते दोस्तों से बातें करता रहा, तरह-तरह की बातें, बेवजह की बातें, ऐसी बातें जिनका कोई सिर-पैर नहीं था, कुछ राजनीतिक, कुछ अराजनीतिक, कुछ निजी कुछ सार्वजनिक, कुछ दोस्तों का मज़ाक उड़ाया, कुछ से रश्क जताया, और इसी तरह बातों-बातों में साढ़े तीन बज गए। उसे अपने गाइड से मिलने जाना था, वो उठ खड़ा हुआ, चारों तरफ एक आखिरी नज़र डाली और अपनी किताबें लेकर गाइड के ऑफिस की तरफ चल दिया। गाइड के ऑफिस की तरफ जाते हुए भी उसके दिमाग में कुछ खास नहीं चल रहा था इसके अलावा कि आज चौहान साहब की बेटियों को मैथ्स के कुछ सवाल करने को दे देगा, मैथ्स ठीक-ठाक सब्जेक्ट होता है, एक बार फार्मुला बताकर बच्चों को सवाल हल करने के लिए दिए जा सकते हैं और फिर अपने ख्यालों में डूबा रहा जा सकता है। ऐसे में सवाल हल करती चौहान साहब की बेटी कुछ इशारे करने या बहाने से उसे इधर-उधर छूने या अपना बदन उसके बदन के साथ लगाने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। 

गाइड का कमरा वैसा ही था जैसा पिछले महीने था, गाइड की कुर्सी के ठीक उपर एक घड़ी लगी हुई थी, दांयी तरफ एक पुराना सा पोस्टर लगा हुआ था, जिसे देखते ही उसका मन करता था कि उसे दीवार से उखाड़ दे, लेकिन इसमें पोस्टर के कन्टेंट का कोई लेना-देना नहीं था बस पोस्टर को दीवार पर चिपके-चिपके इतना अर्सा हो चुका था कि उसे लगता था कि उसे अब उखड़ जाना चाहिए था। सिर्फ इसलिए वो उस पोस्टर को उखाड़ देना चाहता था। गाइड ने फिर वही सब बातें कहीं जो किसी गाइड के लिए कहना जरूरी होता है और उसने भी उसी अनासक्त भाव से वे सब बातें सुनी और जहां-जहां उसे टिप्पणी की अपेक्षा थी वहंा अपनी टिप्पणी दी, गाइड के सद्वचनों को सुना, सिर हिलाया और उसे अगले हफ्ते एक ड्राफ्ट देने का वादा करके वो उठा। बाहर आया तो देखा कि आसमान में बादल घिर आए हैं, वो झोंपड़ी के लिए वापस चल पड़ा, उसे काफी कुछ सोचना था। अगर वो सचमुच अपनी थीसिस पूरी करना चाहता था तो उसे थोड़ी मेहनत करनी होगी, लाइब्रेरी के चक्कर लगाकर इस बार लास्ट चैप्टर पूरा कर लेना चाहिए। गाइड सपोर्ट करने के मूड में है, मौके का फायदा उठाना चाहिए। अब ये आखिरी चैप्टर था, तो वो पहले वाले चैप्टर्स का हिसाब लगाता हुआ अपनी झोंपड़ी की छत वाली कोठी के सामने आ गया। 

चौहान साहब दरवाज़ा बंद कर रहे थे। उन्होने बताया कि आज अपने किसी रिश्तेदार की शादी में शादीपुर जा रहे हैं, हो सकता है कल भी वहीं रहें, इसलिए पढ़ाई परसों........नहीं परसों तो इतवार था तो, मंडे से। उसने मन ही मन चैन की सांस ली, नज़र भरके उनकी बड़ी लड़की को देखा जो सलवार सूट में और बड़ी लग रही थी, दिल से थोड़ा गिल्ट और कम हो गया, वो छत की तरफ चला गया। हल्की बूंदा-बंादी शुरु हो चुकी थी। उसने झोंपड़ी का दरवाज़ा खोला और जीन्स उतार कर रख दी, फिर कुर्ता सहेजा और तौलिया लपेट का बाहर आ गया। बारिश थोड़ा तेज़ हो गई थी, वो गर्म छत के फर्श पर बैठ गया, और हाथों को पीछे टिका कर चेहरा उपर करके आंखें बंद कर लीं।

समाप्त 

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