बुधवार, 27 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 4


भाग-4
अब पुलिसवाले के क्वॉटर्र में रहना कैसा होता है ये वही जान सकता है जो खुद उस क्वॉटर्र में रहा हो। मेरी पुलिसवालों से कोई दोस्ती या प्रेम नहीं है, लेकिन फिर भी एक बात कहनी पड़ेगी कि जिस अमानवीय तरीके से रहते हैं उसमें तो कोई भी वहशी हो जायेगा। थाने के अपने जीवन में मैंने बहुत पुलिसवालों को देखा। जब आते हैं तो बहुत अच्छे से बात करते हैं, लेकिन जल्दी ही मानवीय त्रासदी के प्रति उनका रवैया ऐसा ठंडा हो जाता है कि लगता ही नहीं कि वो इंसान हैं। लगता था कि जिस तरह हमारी ढ़लाई होती है उसी तरह पुलिसवालों को भी उस साँचे में ढ़ाला जाता है जसमें वो बिना कोई सवाल किये, अच्छा-बुरा सोचे-समझे बिना वो कर दें जो उनसे करने को कहा जाये।
वो पुलिसवाला काफ़ी समझदार और होशियार था, बहुत ज़्यादा ईश्वर-भक्त नहीं था, 4-5 दिन में एक बार उसे पूजा करने का टाईम मिलता था और उसी टाईम में वो मुझमंे पानी भरके ऐसे ही कहीं भी एक धार में पानी गिराता था और होठों में कुछ बुदबुदाता हुआ अपनी पूजा पूरी कर लेता था। पर ज़्यादातर ड्यूटी पर रहता था, कभी क्वॉटर्र आता भी था तो सिर्फ़ पीठ सीधी करने या फिर रात को सोने। रात को साने से पहले दारू के कुछ पेग ज़रूर लगाता था (एक बात जो मैनें किसी को नहीं बताई, आप भी मत बताइयेगा, ‘‘रात को उसे बुरे सपनें दिखते थे और वो भयानक डरता था‘‘) खैर, पहली बार दारू का स्वाद मैंने वहीं चखा था। एक बार उसका कोई दोस्त चाबी लेकर क्वॉटर्र में आया था, उसके साथ एक मासूम सा बच्चा भी था। बच्चा बेहद डरा हुआ था, लेकिन तब तक मेरी आदत हो गयी थी, थाने मंे पुलिस और नेता की वर्दी के बिना जो भी शख़्स जाता है वो डरा ही होता है। खैर उस पुलिस वाले ने लड़के को दूसरे कमरे में भेज दिया और फिर सारी बोतल दारू मेरे अंदर डाल के एक गिलास में डाली और पीता रहा, फिर जब उसे अच्छा-ख़ासा नशा हो गया तो अंदर से लड़के के चीखने की आवाज़ें आने लगीं ।
काफ़ी देर बाद वो पुलिसवाला बाहर आया और बाकी बची दारू खत्म करके वहीं पसर गया। रात भर उस लड़के के रोने की आवाज़ें आती रहीं। मैं थाने में ही रहता था इसलिये लोेगों के रोने की, चीखने की, चिल्लाने की आवाज़ें तो आती ही रहती थी। लेकिन उसके क्वॉटर्र में ऐसा पहली बार हुआ था, लेकिन फिर तो ये रोज़ का काम बन गया। रात को मुझमें दारू डाली जाती थी और सुबह जब मैं नशे से पूरी तरह बाहर भी नहीं आया होता था तो मुझमें पानी भरके मुझे ‘सूर्य को अर्ध्य‘ दिया जाता था। खैर मुझे क्या, वैसे भी अब तो मुझे लगता था कि सूरज को सुबह-सुबह दारू का ही अर्ध्य देना चाहिये (हा हा हा)।
रोज़ कोई न कोई पुलिसवाला किसी न किसी बच्चे को पकड़ कर लाता था और उसे दूसरे कमरे में भेज कर दारू पीता था । फिर दूसरे कमरे में चला जाता था, और फिर बच्चे के चीखने की आवाज़ें, कभी-कभी वो बच्चियों को भी लाते थे, और कभी एक से ज़्यादा पुलिसवाले होते थे। लेकिन कुछ दिनों के बाद में मैं शक्लें देखना भूल गया, मुझे लगा कि मैं अंधा हो गया हूँ। लेकिन बाकी चीज़ंे तो मुझे साफ़-साफ़ दिखाई देती थीं, कमरा, पुलिसवालों की वर्दी, बच्चे-बच्चियों के डरे हुए मासूम चेहरे। बस पुलिसवालों के चेहरे ही नहीं दिखाई देते थे, बस उनकी वर्दियाँ दिखती थीं।
फिर एक दिन उन्होंने भी एक काँड कर डाला, उस क्वॉटर्र में बच्चों को लाकर वो जो हरकतें करते थे उनसे एक बच्चे की मौत हो गयी, और फिर हड़कम्प मच गया...अख़बार, टीवी सबने चीख-चीख कर पुलिस की अमानवियता की दुहाई दी (हुँह, जैसे इससे पहले कभी मानवीय रही थी, अरे भई पुलिस फोर्स बनाने का एकमात्र लक्ष्य और उद्येश्य है अमीरों की सेवा में गरीबों को कुचल देना, कभी ये काम ढ़ँके-छुपे किया जाता है, तो कभी सामने आ जाता है, इसमें इतना हो-हल्ला मचाने की क्या ज़रूरत है, और वो गरीब बस्तियों में रहने वाले कूड़ा उठाने वाले बच्चे-बच्चियाँ ही तो थे। उनके साथ कुछ हुआ तो 100-200 का मुआवज़ा दे दो, और बात को रफ़ा-दफ़ा करो, इतनी सी बात के लिए बहादुर पुलिस को क्यों सस्पेंड और इंक्वायरी जैसी चीज़ों का डर दिखाते हो। एस.एच.ओ. को गिरफ़तार कर लिया। और मुझे, मुझे मालखाने की जगह सड़क पर फेंक दिया गया । बात यूँ हुई कि कुछ मीडिया वालों ने कहा था कि पुलिस स्टेशन में दारू का धंधा होता है, और कोई इंक्वायरी कमेटी बैठ गई थी। उस टीम का इन्सपेक्शन होना था और पुलिसवालों के पास इतना टाईम भी नहीं था कि वो मुझे धो कर साफ़ कर पाते, तो किसी ने मुझे खिड़की से बाहर यानी थाने से बाहर फेंक दिया। हा हा हा, मैं थाने से सही सलामत बाहर आ गया था। और सिवाय कुछ भावनात्मक गन्दगी के, मुझे कोई नुकसान भी नहीं हुआ था। ये तो चमत्कार ही था, हा हा हा .....
और इस बार मुझे उठाया एक भिखारी ने। वो लकड़ी की नीची सी गाड़ी पर बैठा दोनों पैरों से लाचार भिखारी जिसका नाम था मोहम्मद अलताफ़...कैसी किस्मत पाई थी मैनंे, कहाँ तो मजदूरों के साथ रहता था, फिर उनके हत्यारे ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मैं एक ऐसे शख़्स के पास था जिसे आप प्रचलित सामाजिक भाषा मंे भिखारी कहते हो। और यहाँ मुझे पता चला कि एक कम्युनिस्ट से ज़्यादा किसी भी चीज़ का बहुउपयोग और कौन जानता होगा । भाई फ़करू,(मैं उसे इसी नाम से पुकारूँगा क्योंकि ये उसका प्रचलित नाम था), तो भाई फ़करू ने मुझे अपना घर-बार मान लिया था। वो खाते भी मुझमें थे, पीते भी मुझमंे थे और अक्सर धोते भी मुझमंे ही थे। इस सब से मुझे कोई नैतिक ऐतराज़ नहीं था क्योंकि आखिर मेरा काम तो उसके काम आना था जिसके हाथ में था (जैसे मैं कोई अलादिन का चिराग हूँ और मुझे घिसकर मेरा मालिक जो चाहे माँग ले)। ख़ैर इन बातों को करने का क्या फ़ायदा, मैं एक लोटा था जिसे मियाँ फ़करू ने बाल्टी, गिलास, प्लेट और टॉयलेट की बोतल गरचेे की हर चीज़ की तरह इस्तेमाल करके देख लिया था। मैं उनकी अस्वभाविक अपेक्षाओं पर ख़रा उतरा था और वो लगातार अपनी अस्वभाविक इच्छायें मुझ पर लादते जा रहे थे। 
उनकी ज़िन्दगी सच में बहुत खूबसूरत ज़िन्दगी थी, वो दिन में बाकायदगी से 8 घंटे काम करते थे। इस फ़ील्ड में बहुत पुराने और एक्सपिरियंस्ड यानी अनुभवी थे, इसलिए नये खिलाड़ियों यानी भिखारियों की तरह बहुत सब्र के साथ भीख माँगते थे। सुबह 8ः30 से 11ः30, जब लोगों के ऑफ़िस का जाने का टाईम होता है और शाम को 4ः30 से 8ः30 जब लोगों के ऑफ़िस से लौटने का समय होता है। उनका कहना था कि भीख माँगना उनका शौक नहीं पेशा था और इसे वो एक कैरियर की तरह मानते थे । उनकी अपनी खोली थी जिसमें वो बाकायदा खाना बनाते थे, चाय बनाते थे और अपने सहकर्मियों के साथ हँसी मज़ाक करते थे या नौसिखियों को अपने अनुभव बताते थे। उनके यहाँ टी॰वी था, वी॰सी॰डी प्लेयर था और बाकी सब सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं थी। वो सुबह नाश्ता करके निकलते थे, टाईम पर अपने ठिकाने पहँुच जाते थे और काम ख़्त्म करके सीधे घर वापस, कभी दिल किया तो मार्केट की तरफ निकल जाते थे और चाय पीते हुए, लोगों से बात करते हुए वापस घर आ जाते थे, ऐसे ही एक मार्केट दौरे पर मैं उनसे मिला था। मैं उनके लिए प्राइज़्ड पोज़ेशन था और वो बड़े गर्व से मेरा प्रर्दशन किया करते थे। लेकिन मुझे आजतक ये समझ नहीं आया कि उन्होंने मुझे कभी घर पर क्यों नहीं रखा, वो काम पर निकलने से पहले अपना साजो-सामान ज़रूर सम्भालते थे और उसमें भी ये ज़रूर देखते थे कि मैं उनके पास हूँ या नहीं। कभी-कभी तो वो मुझे भीख माँगने के कटोरे की तरह भी इस्तेमाल करते थे।
जानबूझ कर गंदे रहते थे, और इसके अलावा उन्होंने एक ख़ास स्ट्रेटजी अपना रखी थी वो कभी दया का भाव दिखा कर भीख नहीं माँगते थे, बल्कि अपने चेहरे पर ऐसे भाव ले आते थे जैसे उनकी टाँगें कट गयी हैं। इसमें उन लोगों का हाथ है जो उनके सामने से गुज़र रहे हैं। एसे में गिल्ट के मारे लोग उन्हें पैसे दे ही देते थे। इसके अलावा उन्होंने अपने कुछ पक्के क्लाइंट्स भी बना रखे थे जो बिना लाग-लपेट के उन्हें पैसे दे देते थे। ये ऐसा ही था जैसे कुछ लोग एक खास मन्दिर को अपना मान लेते थे और फिर जो भी दान देना हो उसी मन्दिर में दिया जाता था। इसके अलावा उन्हें, जैसा कि उन्होंने पहले ही सोच रखा था, इस प्रोफेशन से महल बनाने का उनका कोई इरादा नहीं था और रोज़ी-रोटी लायक वो कमा ही लेते थे। जितने समय मैं उनके साथ रहा मैंने अपनी हालत के साथ एक सूफ़ी समझौता कर लिया था, जैसा तू चाहें वैसा चला, तेरे सिवा कोई न मेरा, ये गीत ईश्वर के लिए नहीं था बल्कि फकरु भाई के लिए था। आप मुझमें खाइये, नहाइये, धोइये और हो सके तो मेरे ऊपर सो जाइये, मैं कुछ नहीं कहूँगा। ये साधु जैसा निर्मोही भाव मुझे उनसे ही मिला था और दिन इसी गन्दगी में बीत रहे थे।
फिर एक दिन आपकी दया से मुझे फ़करु भाई से निज़ात मिल गयी। हुआ यूँ कि वो अपने एक ग्राहक से पैसे ले रहे थे कि पुलिस वाले आ गये। और भिखारी तो भाग गये लेकिन फ़करु भाई तो फ़करु भाई थे, वो नहीं भागे, और पुलिस वालों ने उन्हें पकड़ लिया। जिस पुलिस वाले ने उन्हंे पकड़ा था वो सूरत से ही काईयाँ लगने वाले फूल सिंह नाम का तोन्दियल हवलदार था। उसने बड़ी बेशर्मी से फ़करु  भाई से रिश्वत माँगी, और साफ़-साफ़ धमकी दे डाली कि अगर उसकी रिश्वत की माँग पूरी नहीं हुई तो वो फ़करु  भाई को बैगर्स होम में खाना बनाने लगा देगा। अब फ़करु  भाई को तो दया और पीड़ा का भाव चेहरे पर लाना भी नहीं आता था और पैसे उनके पास थे नहीं, ‘मरता क्या न करता‘ के अंदाज़ में उन्होंने फूल सिंह के साथ मेरा सौदा कर लिया, और इस तरह मैं बहुत भरे मन से ( फ़करु  भाई के भरे मन से) फूल सिंह के पास चला गया ।  

सोमवार, 25 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 3


भाग-3
इसके बाद मेरे उपर से मनों गंदगी गुज़री, किसी ने मेरी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा, हाँ कुछ लोगों ने मेरे उपर थँूका ज़रूर, शुक्र है कि कोई पयजामा उपर करके मेरे उपर लघुशँका निवारण करने नहीं बैठा क्योंकि गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ये देश एक विशालतम मूतरी है जिसमें लोग जब चाहें जहॉं चाहें, पजामें का पैचन उपर करके बैठ जाते हैं, और अपनी छोटी-बड़ी सभी सम्सयाओं का समाधान कर लेते हैं। लेकिन ये मेरी कहानी का अंत नहीं है, क्योंकि एक दिन शहर में ज़बरदस्त सफाई अभियान चला, जिसमें पूरे शहर की सफाई की गई। उसी दौरान सौभाग्य से उस नाली की भी सफाई की गई, और मुझे भी मानों गंदगी के साथ निकाल लिया गया । मुझे निकालने वाले ने फौरन पहचाना हो ऐसा नहीं लगता, क्योंकि काफ़ी दिन मैं सड़क के किनारे पड़ा सूखता रहा और किसी ने मुझ पर कोई ध्यान नहीं दिया, फिर जिसने मुझे निकाला था उसी ने मुझे उठाया, धोया और अपने घर ले गया, और यहीं से मेरे जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ, मेरे नये मालिक का नाम नसीरूद्दीन अंसारी था......
यहाँ से मेरे जीवन का वो हिस्सा शुरू होता है जिसे मैं अपने जीवन का उजला हिस्सा समझता हँू, ये मेरा पर्सनल रिनासा था, नसीरूद्दीन शहर का कर्मचारी था, लेकिन वो सिर्फ सफाई कर्मचारी ही नहीं था, वो एक क्रांतिकारी मजदूर यूनियन का गरजदार नेता भी था, मुझे तो आश्चर्य होता था कि वो आदमी दिन में शहर की नालियाँ साफ़ करके आता है और रात को अपने दोस्तों के साथ बैठकर किसी लेनिन और माकर््स की किताब  पढ़ता था, और ज़ोरदार बहस करता था ।
वहीं मुझे पहली बार क्लास, डीक्लास और संघर्ष के असली कारणों का पता चला, पता नहीं आपने माकर््स को पढ़ा है या नहीं पर मैं तो उसके बारे में ही सुन कर उन पर फिदा हो गया, वो क्या नारा है ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिये सिर्फ़ अपनी बेड़ियाँ हैं लेकिन पाने के लिए सारी दुनिया है‘‘...वाह, वाह, वाह मान गये सर जी, मान गये कमाल कर दित्ता, मैं बलिहारी जाऊँ, इस एक नारे पर सारा जीवन कुरबान ।
लेकिन बात मेरे नये घर की और उसके मालिक की थी, तो आम घर था, बस यहाँ किताबें बहुत ज़्यादा थी। जो भी आता था, यहाँ आकर कुछ पढ़ने लगता था। घर सबके लिए खुला था, कोई रात को 2 बजे आ रहा है तो कोई सुबह चार बजे चला आ रहा है...किसी का कोई ठिकाना नहीं था। जिसकी मर्ज़ी हो किचन में जाकर चाय बना लाता था, और सबसे बड़ी बात ये थी कि वहाँ हँसने वालों की कमी नहीं थी...सबसे बड़ी बात ये थी कि वहाँ सब आज़ाद थे। यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है, यहाँ मुझे पहली बार ये भी पता चला कि आखिर मेरे कितने तरह के इस्तेमाल हो सकते हैं। लोगों ने मुझे चाय पीने, चाय बनाने से लेकर दाल-सब्ज़ी बनाने तक में इस्तेमाल किया, और ऐसा मैं किसी नाराज़गी के साथ नहीं कह रहा, असल में वहाँ का माहौल ही ऐसा था कि खुद ही लगता था कि किसी भी तरह इस लड़ाई में शामिल हो जाऊँ, कुछ तो करूँ, सच कहूँ मुझे अपने इस मालिक से भी प्यार हो गया था, वो कहता था कि खुदा अगर कहीं है तो इस दुनिया को उसने नहीं बनाया हो सकता, ये तो किसी शैतान का काम लगता है, वरना तो दुनिया खूबसूरत और उजास होती, मजदूर को उसका पूरा हक मिलता, और किसी को भी सताया नहीं जाता.....
वो लोग एक दूसरे को कॉमरेड कहते थे, मुझे नहीं पता कि इसका क्या मतलब होता है, लेकिन इतना अच्छा लगता था कि अगर आपकी इजाज़त हो तो मैं भी सिर्फ़ एक बार ,अपने नाम के आगे कॉमरेड लगा लूँ...बड़ा मन कर रहा है, कॉमरेड लोटा...वाह, वाह, मज़ा आ गया। मैनेें उस घर में बहुत कुछ सीखा...प्रेम, दोस्ती, संघर्ष, ईमानदारी और वो सारी चीज़ें जो इंसान बनने के लिये ज़रूरी होती हैं, नसीरूद्दीन को भी प्रेम था, कतई अजीब किस्म का प्रेम था। उसकी एक कॉमरेड और वो एक दूसरे को पसंद करते थे, लेकिन ये अजीब किस्म का इश्क था, लगता था कि दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं लेकिन फिर दोनों एक-दूसरे से इतनी बहस करते थे कि ताज्जुब होता था कि वो दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। वो दोनों एक-दूसरे के साथ मरने की कसम नहीं खाते थे, बल्कि साथ-साथ जीने के मनसूबे बनाते थे। अब आप ही बतायें, ऐसे किसी आदमी से आपको प्यार नहीं हो जायेगा।  मुझे उन सब से प्यार हो गया था, कॉम. गोपी, कॉम. नाथू, कॉम. उत्पल, कॉम. प्रिया, कॉम. नीरू, कॉम. नाज़िया, कॉम. रियाज़....कितने नाम गिनाऊँ, उन लोगों ने मुझे नीचे से काला कर दिया था, लेकिन उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, उन्होंने मुझ पर बेइंतिहाँ खरोंचें लगा दी थीं, लेकिन उससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे लगता था कि मेरे जीवन का मकसद पूरा हो गया है और मैं अब वहीं रहूँगा (ठंडी साँस)...लेकिन ऐसा नहीं था । उसे मार दिया, उसके कॉमरेड दोस्तों ने कहा कि वो शहीद हुआ है। लेकिन मैं कहता हूँ कि उसकी हत्या हुई है । मैनें अपनी आँखों से देखा, उसे दिन-दहाड़े, बड़ी बेरहमी से गोली मारी गयी। आपको तो याद होगा, आप अख़बार पढ़ते ही हैं, आपको याद होगा किस तरह पुलिस ने कुछ ‘खूँख़ार‘ आतंकवादियों को मुठभेड़ मंे मार गिराया था, जिसके लिये पुलिस को बाकायदा मेडल भी मिले थे, उन्हीं खूँखार आतंकवादियोें में से एक मेरा मालिक कॉमरेड नसीरूद्दीन अंसारी भी था । 
उस दिन शनिवार था, ये मुझे इसलिये पता है क्यांेकि शनिवार को कॉम. नसरू की छुट्टी रहती थी और वो अपने बाकी कॅाम. दोस्तों के साथ कोई किताब पढ़कर उस पर बहस करते थे, उस दिन वो किसी माओ नाम के शख़्स की किताब पढ़ने वाले थे, तीन लोग आ चुके थे और बाकी आने वाले थे। मैं गैस के पास बैठा जुटने और फिर किताबें पढ़े जाने का इंतज़ार कर रहा था। कॉम. नसीम ने मुझे पानी पीने के लिये इस्तेमाल किया और फिर खिड़की पर रख दिया। वहीं से थोड़ी देर बाद मुझे दिखा कि कुछ पुलिस वाले ऊपर आ रहे हैं, मुझे दाल में कुछ काला लगा, लेकिन उन लोगों की बेफ़िक्री देखकर मैं ख़ामोश रहा। फिर मुझे दिखा कि गली के मोड़ पर एक जीप रूकी दिखायी दी, उसमें से जल्दी-जल्दी कुछ पुलिस वाले उतरे। न जाने क्यों मेरे दिल में एक डर लगा और मैनें ज़ोर से चीखना चाहा लेकिन मेरी चीख मेरे गले में ही घुट कर रह गयी कि एक गोली आयी और कॉम. नसीम जो खिड़की से टेक लगा के खड़े थे उनके सर के परखच्चे उड़ा दिये। मेरे अंदर पानी था जिसमें वो खून मिल गया, और फिर मैं खून से सराबोर हो गया, फिर तो जैसे कयामत बरपा हो गयी । एक साथ कई पुलिस वाले अंदर घुस आये और उन्होंने आव देखा न ताव, बाकी के लोगों को एक कतार में बिठाया और उन पर गोलियों की बौछार कर दी । चारों तरफ से गोलियाँ चल रहीं थी, और उन्हीं में से एक गोली एक पुलिस वाले को भी लग गयी । कुछ पुलिस वाले उसे लेकर भागे, और वो जिसे गोली लगी थी उन्हें जी भर कर गालियाँ दे रहा था। पुलिस वालों ने कमरे में मौजूद सबको मार दिया था। वो अपने साथी को उठाकर वहाँ से ले गये और कुछ लम्हों के लिये वहाँ ख़ामोशी छा गयी। और तब मैंने वो मंज़र देखा जिसे कोई भी देखता तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते...वो लोग जो ज़िंदा-दिली की मिसाल थे, लाश बन कर पड़े थे..बेजान..बेहिस। जिनके ठहाकों से पूरा घर गूँजता था, वो चुप थे..ख़ामोश थे । फिर कुछ पुलिसवाले अंदर आये और फिर शुरू हुआ, कहानी बनाने का दौर। मैं वहीं था, मुझे भी एक सबूत के तौर पर रखा गया था । मैनें देखा कैसे-कैसे किस्से बनाये गये...वो लोग जो जीना चाहते थे, उन्हें मौत का सौदागर बताया गया। वो लोग जो सबको प्यार करते थे उन्हें कातिल करार दिया गया। जो पुलिसवाला खुद अपनी ही गोली का शिकार बना था, ये कहा गया कि वो तो ‘आतंकवादियों‘ की गोली का शिकार होकर शहीद हुआ है, और मैं सबूत बना, ख़ामोश उस ड्रामे के एक-एक भयानक चेहरे को उजागर होता देखता रहा। 
फिर मुझे मालखाने में जमा करवा दिया गया । मालखाना उस जगह को कहते हैं जहाँ पुलिसवाले उस सामान को रखते हैं जिसे वो बाद में बेच देना चाहें, जिसे नेता लोग कौड़ियों केे भाव खरीद लें। लेकिन मैं एक अदना सा लोटा, एक आतंकवादी के खून से सराबोर लोटा, कौन मुझे लेता, कौन मुझे चुनता, और मैं ऐसे ही पड़ा रहा, अपने मालिक कॉम. नसरू को याद करके, उसकी ज़िन्दादिली को, हिम्मत को याद करके खून के आँसू रोता पड़ा रहा उसी मालखाने में। और न जाने ऐसे ही कितने साल गुज़र गये। फिर एक दिन मुझे बाहर निकाला, एक गरीब से थाने में ही मुझे धुलवाया और थाने के पीछे बनें अपने क्वॉटर में मुझे ले आया। उसने मुझे मेरी पहली मालकिन की तरह भगवान के काम के लिये रख छोड़ा था। लेकिन उसको क्या पता कि कॉम. नसरू के साथ रहकर मैं नास्तिक हो गया था, मुझे भगवान में कोई विश्वास नहीं रह गया था। लेकिन मजबूरी में मैं पुलिसवाले का काम करता रहा और अपनी ज़िन्दगी के दिन काटता रहा....

गुरुवार, 21 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 2


भाग-2
उस चोर ने (जिसका नाम सिट्टू था, मुझे बाद में पता चला) मुझे बाहर से झोले में से निकाला और अपने पास रख लिया, पहले तो मुझे लगा कि शायद वो मुझे छुपा के रख लेगा । लेकिन उसे तो पैसे चाहिए थे, इसलिए उसने तो मुझे फौरन बेच दिया, वो एक छोटी सी बस्ती की छोटी सी दुकान थी। और उतना ही छोटा उन लोगों का मोल-भाव था....दुकानदार ने सिट्टू से कहा, ‘‘और सिट्टू क्या माल ले आया‘‘, सिट्टू बोला, ‘‘अरे लाला मोटे वाला लोटा ले आया हूँ, जल्दी से 40-50 निकाल‘‘...और उसने बड़ी शान से मुझे उस दुकानदार के सामने रख दिया। दुकानदार ने मुझे ध्यान से देखा परखा और फिर चुपचाप से तीस रूपये सिट्टू को दिये, फिर उसने अपनी बेटी को आवाज़ दी, ‘‘रेखा‘‘, और वो आयी, वो आयी तो मेरे दिल की धड़कन रूक सी गयी, उसने मुझे उठाया, घुमा कर देखा, उसके बाप ने उसे फिर अंदर जाने का इशारा किया, और जो ग्राहक आये थे उन्हें सम्भालने लगा । 
रेखा मुझे अपने साथ अंदर ले गयी, अंदर वाले कमरे की खिड़की के पास, वहाँ खड़ा था सिट्टू , ‘‘ये तू लाया है‘‘ रेखा ने पूछा, ‘‘और क्या‘‘ सिट्टू ने गर्व से कहा । ‘‘हँुह, तुझे कितनी बार कहा है कोई बड़ा हाथ मार वरना तू एसे ही चिन्दीचोरी करता रहेगा और मेरा बाप मुझे किसी ख़सम के हाथों थमा देगा‘‘, ‘‘क्या बात करती है, कुछ दिन रूक जा, मैं सब इंतज़ाम कर लूँगा‘‘, ‘‘ये सोच लियो कि जब तक मुझे खूब सारे पैसे दिखायी नही देंगे मैं कहीं नहीं जाउँगी‘‘, ‘‘पर मैं तुझसे ही प्यार करता हूँ‘‘, ‘‘हाँ हाँ और इस प्यार को तू अभी ठेके पे बोतल में डाल कर पियेगा, देख बे, मेरे साथ भागना है तो इंतज़ाम कर, वरना भाग यहाँ से मुझे बहुत काम है‘‘, ‘‘अरे सुन...‘‘, और रेखा ने खिड़की बंद कर दी, पता नहीं क्यूँ पर मैं तो उस पर फिदा हो गया, तौबा कसम से क्या लड़की थाी, मैं तो कहता हूॅँ कि अगर लड़कियाँ ऐसी ही हो जाये ंतो इस दुनिया का आगा-पीछा सब कुछ बदल जायेगा। अरे भई कमाल की लड़की थी, बेटी थी तो अपनी शर्तों पर, प्रेमिका थी तो अपनी शर्तोें पर, तुम्हें रहना है रहो नहीं रहना भाड़ में जाओ, उसका रंग साँवला था, सफे़द दाँत, और छोटे बाल, जो उसने अपने बाप से लड़कर कटवाये थे, उसके हाथ खुरदुरे थे और मुझे उसके हाथों का स्पर्श बहुत अच्छा लगता था। जब वो सुबह-सुबह आटा गॅूँथने के लिये मुझे इस्तेमाल करती थी तो मुझमें एक किस्म की गरमाहट सी आ जाती थी। मैं पूरा दिन शाम के उन लम्हों के सपनें देखता था, जब वो आटा गूँथेगी । वहीं रहते हुए मुझे उसकी और सिट्टू की ‘बोल्ड लव स्टोरी‘ के बारे में पता चला, उनकी बातचीत के टुकड़ों से मुझे पता चली ये कहानी ऐसी थी कि आप भी उसे सुनकर चौंक पड़ेंगे......
उनकी बातचीत और बाप बेटी के बीच समय-समय पर चलने वाली तकरार से रेखा की जो कहानी मैं जान पाया, वो ये थी कि रेखा की माँ, जिसे उसका बाप ‘वो बदचलन‘ कहता था‘ किसी एक वक्त में, ज़ाहिर है रेखा को पैदा करने के बाद मर गई थी, और उसके बाप ने दूसरी शादी नहीं की थी (मोटा, भद्दा, सूरत से ही नालायक लगता था, सोच के अचरज होता था कि उसकी पहली शादी कैसे हो गयी)। रेखा बिना माँ के बड़ी हुई थी और जल्दी ही समझ गयी थी कि लड़की की उम्र से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई भी मर्द, चाहे वो बाहर का हो या रिशतेदार उसका फ़ायदा उठायेगा अगर मौका मिलेगा तो। लेकिन वो ऐसी लड़की नहीं थी कि रोती, छुपती, या भाग जाती, बहुत छोटे में ही उसने ये तरीका अपना लिया कि अगर कोई रिशतेदार या और कोई भी उसके साथ, उसे सहलाने, पुचकारने, या प्यार करने के बहाने, हाथ चालाकी करने की कोशिश करता तो वो अपने पास लोहे की एक सलाई रखती थी जिसे उसकी जाँघ में घुसेड़ देती और फिर ज़ोर से चिल्लाने लगती। धीरे-धीरे लोगों ने डर के मारे उस के घर आना ही बंद कर दिया। एक उसका बाप था, जो किसी भी तरह उसकी शादी करके उसे निकाल देना चाहता था लेकिन उसके इरादे कुछ अलग थे। वो पढ़ी-लिखी तो नहीं थी पर पैसे गिनना जानती थी, और उसने कुछ पैसे जमा भी किये हुए थे, उसे पता था कि अगर उसे अपने भरोसे रहना है तो उसके लिए आमदनी का कोई ज़रिया तलाशना होगा (ये मेरा सोचना था)। इसके अलावा उसने सोचा होगा कि एक अकेली लड़की इस समाज में तो सुरक्षित रह नहीं सकती, इसलिये कोई भी, कैसा भी, एक मर्द तो चाहिए ही, उसके लिए सिट्टू था। उसका प्लान ये था कि सिट्टू कहीं बड़ा हाथ मारे, और उसको दो-ढ़ाई लाख रूपये लाकर दे, और वो कहीं भागकर शादी कर लें । ऐसी ही किसी बस्ती में जाकर वो अपने बाप की तरह दुकान खोल ले और फिर वो सुख से रहे। कमाल की बात ये है कि इस सुख मंे सिट्टू कभी शामिल नहीं देखा, उसका मानना था कि एक बार सिट्टू से शादी हो जाये और उसकी दुकान खुल जाये तो फिर सिट्टू जिये या मरे उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, और ये ठीक भी था।
इस सारी इक्वेशन में आपकी मिडिल क्लास मोरेलिटी को प्रोग्रेविनेस की चटाँक भर चुस्की के साथ बड़ा हाथ मारना, या चोरी करना अख़रा होगा, कमाल ये है कि चोरी, छीना-झपटी, इन चीज़ों को सभी बुरा मानते हैं, फिर भी अगर कोई चीज़ बाज़ार भाव से सस्ती मिल जाये तो मोरेलिटी को बिना कोई तकलीफ़ दिये वो चीज़ बेझिझक खरीद ली जाती है। आपके ही दोस्त आपको चोरी के कैमरे (डिजिटल) या मोबाइल फोन के सेफ़ इस्तेमाल के तरीके बताते मिल जायेंगे और तब हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। लेकिन ‘रेखा ने ऐसा सोचा‘ ये आपकी मोरल तबीयत पर थोड़ा ग़रां गुज़रा होगा। ख़ैर मुझे क्या, मेरा तो ये कहना है कि  मैं तो उस लड़की पर क्लीन बोल्ड आउट था। वो अपनी ज़िंदगी अपने हाथ में लेने के लिए कुछ भी करती मुझे इसमें कतई कोई ऐतराज़ नहीं होता, रत्ती भर भी नहीं।       
और आखिर एक दिन सिट्टू बड़ी बेसब्री से आकर खिड़की के नीचे खड़ा हो गया, रेखा ने जब खिड़की खोली तो मुझे उसका चेहरा देखते ही पता चल गया कि उसने बड़ा हाथ मार लिया है, उसने फुसफुसाते हुए कहा कि उसके पास 1.5 लाख रूपये हैं और वो उसे बड़े पाइप के पास मिले (यहाँ आपको ये याद रखना होगा कि मैं जब से इस घर में आया था, बाहर नहीं निकला था, और इसलिए मुझे नहीं पता कि ये बड़ा पाइप क्या था, कहाँ था, पर मुझे अंदाज़ा हो गया था कि ये कोई ऐसी जगह होगी जहाँ कोई आता-जाता न हो)। थोड़ी देर बाद वो घर से निकली और कई पतली गलियों से होती हुई बस्ती की तरफ चल दी, मुझे उसने क्या कहकर अपने साथ रखा था मुझे नहीं पता, बड़ा पाइप असल में पानी का वो पाइप था जिससे बड़ी कॉलोनियों तक पानी पहुँचाया जाता था। सिट्टू वहीं बैठा सिगरेट फूॅँक रहा था, वो उठ गया, रेखा उसके पास पहुँची तो उसने एक बैग खोला और उसमें से एक सौ की और एक पचास की गड्डी निकाली, और एक सोने की चैन निकाली, रेखा ने पैसे लेकर अपने झोले में डाल लिये, लेकिन जब उसने चैन के लिये हाथ बढ़ाया तो सिट्टू ने कहा ‘‘मैं पहना दूॅँ‘‘ ,एक बार तो लगा रेखा उसे मना कर देगी, लेकिन कुछ सोच कर उसने हाँ कर दी, सिट्टू ने अपने पंजों पर उचक कर उसे वो चैन पहना दी, लेकिन फिर उसका चेहरा पकड़ लिया और उसे चूमने लगा, रेखा ने उसे रोका नहीं, थोड़ी देर तक वो अपने पंजों पर खड़ा हुआ रेखा को चूमता रहा, फिर उसकी साँस चढ़ गयी, शायद थक गया था, उसने दोनों हाथांे से पकड़ कर रेखा को नीचे की तरफ खींचा और अपना एक हाथ उसकी गिरहबान में डाल दिया । रेखा ने थोड़ी देर इसका भी कोई विरोध नहीं किया, बल्कि यूँ कहें कि इसका कोई नोटिस ही नहीं लिया, लेकिन फिर उसका हाथ झटक दिया और बोली, ‘‘आज ही निकलना है, रात 11 बजे, जब मेरा बाप दुकान बंद करके सो जाता है, तब मैं निकलूँगी, मुझे परली तरफ मिल जाइयो, समझा‘‘, ‘‘हम्म्म..हाँ..11बजे थोड़ी देर रूक न ‘‘, ‘‘आज रात के बाद तेरे साथ ही रूकना है फिर, हैं न‘‘...जब रेखा घर वापस आ रही थी तो मैं ये सोच रहा था कि मैं जो उस लड़की पर क्लीन बोल्ड हॅँू , क्या मुझे जलन नहीं हुई, जवाब तो मेरे पास है, नहीं हुई, लेकिन ये नहीं पता कि क्यूँ , हो सकता है हम लोटों की जात में जलन होती ही न हो, या ये भी हो सकता है कि मुझे लगा हो, लगा हो क्या...मुझे पता हो, कि रेखा ने जो किया वो एक प्लान के तहत था, मुझे तो इस बात की खुशी थी कि वो मुझे  अपने साथ ले जाने वाली थी उस रात। 
उस रात जब उसका बाप दुकान बंद करके घर में आकर लेट गया तो वो उठी और उसने अपना कपड़े वाला झोला उठा लिया। मैं डर रहा था कि कहीं मुझे ले जाना न भूल जाये, और आखिरकार उसने मुझे उठाकर अपने झोले में डाल लिया, मेरे अलावा उसके झोले में थे कुछ कपड़े, सिट्टू वाले पैसे, उसके बाप ने जो ज़ेवर बनवाये थे, वो उसने उठा लिये क्योंकि वो तो उसी के थे, और सबसे ऊपर उसने मुझे रख लिया । और हम, यानी मैं और रेखा घर से निकले और रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़े, अब वो क्या सपनें देखती, मैं ही सपने देख रहा था (अब तो यकीन कर ही लीजिये कि लोटे को भी सपनें आते ही है), मेरे सपनों में भविष्य के वो दिन आ रहे थे कि कैसे, रेखा मुझे बड़े प्यार से उठाकर मेरी मदद से आटा गॅँूथ रही है, या वो मुझमें पानी पी रही है । आहा, क्या सपनें थे, वाह-वाह, लेकिन अचानक ही मुझे लगा कि मैं हवा मंे उड़ रहा हमॅँ,सपनें देखते हुए कोई भी हवा में उड़ सकता है, आप भी कभी न कभी हवा में उड़े होंगे, और आप से किसी ने कहा होगा कि ज़्यादा हवा में मत उड़ो।
लेकिन वो अनुभव कुछ और ही था, मेरा मन ही नहीं शरीर भी उड़ता हुआ लग रहा था । आपको तो कभी सपनों में उड़ते हुए कहीं एसा अनुभव नहीं हुआ होगा, क्यों ?..मुझे लगा कुछ गड़बड़ है गड़बड़, तो मैंने अपने सपने को पॉज़ दिया, और बड़ी मेहनत करके आँख (अब तक आपने कल्पना कर ली होगी कि लोटे की आँख कहाँ होती होगी) खोली, तो मैंने देखा कि मैं सच में हवा में उड़ रहा हँू, जाने क्या हुआ था, लेकिन मेरा सपना ऑटो में बैठा हुआ सड़क पर तेजी से दौड़ा जा रहा था, और मैं ऐसे शॉक हुआ कि मेरे तो मुँह से आवाज़ नहीं निकली ,और मैं सड़क से जा टकराया, तब मैं बहुत चीखा-चिल्लाया, बहुत तड़पा-छटपटाया, लेकिन कुछ कर नहीं पाया.......और लगता है रेखा ने मेरी आवाज़ भी नहीं सुनी, क्योंकि न तो स्कूटर रूका  और न ही कोई मुझे उठाने आया........और आपको याद होेगा कि मेरे पैर तो थे नहीं कि मैं खुद ही भागकर ऑटो पकड़ पाता ।
मैं लुढ़कता हुआ किनारे बनी हुई गंदी नाली में जा गिरा, और वहीं पडा़-पड़ा अपने हालात पर आँसू बहाता रहा..........

मंगलवार, 19 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा


भाग-1
आज जब इस अंधेरे कमरे के घुप अंधियारे में मैं इतने कबाड़ से ढ़का, दबा आपको अपनी कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूँ तो अब लगता है कि ये कह देना भर काफ़ी नहीं होगा मैं एक लोटा हूँ, जो किसी दिन फैक्ट्री से निकला था और आज अपनी उपयोगिता पूरी करके अपने गलाये जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ, बल्कि मुझे तो लगता है कि ये बात को गलत तरीके से कहना होगा । 
लेकिन ज़रा रूकिये, कहानी के इस हिस्से पर आप सोच रहे होंगे, (क्या बकवास है, क्या किसी लोटे की भी कहानी हो सकती है)...लेकिन सच तो ये है कि इस दुनिया में हर चीज़ की कोई न कोई कहानी होती ही है, ज़रूरत है एक बार थोड़ा सा रूक कर उसे देखने की, जानने की, महसूस करने की ।
अब सवाल ये है कि क्या आप इस लोटे की वो कहानी सुनना चाहेंगे, जो हो सकता है आपके लिए एक बोर मसाला हो, लेकिन मेरे लिए तो ज़िदगी की कहानी है, आप चाहें तो इसे पढ़ सकते हैं, या न पढ़ना चाहें तो डिलीट भी कर सकते हैं, आपकी मजीऱ् है,...लेकिन मेरी मानें तो अपनी ज़िंदगी के कुछ पल निकाल कर इस लोटे की आप बीती सुन लीजिए, ताकी आप अपनी इस चमकती-धमकती दुनिया का वो वीभत्स चेहरा देख सकें जो उन परदों के पीछे छुपा रहता है जो हर बुराई को छुपा के रखते हैं।
तो कहाँ से शुरू करूँ, उस माइन से जहाँ से मेरा धातु निकला था, या उस फैक्ट्री से जहाँ मेरी ढ़लाई हुई, या दुकान से जहाँ मैं पहली बार बिका था...
चलिये शुरू करते हैं...
मुझे नहीं पता कि मैं उस दुकान में कैसे पहुँचा, बस यूँ समझ लिजीये कि जब मेरी आँख (अगर आप कल्पना कर सकते हों कि अगर किसी लोटे की आँख होती तो वो कहाँ होती) खुली, या यूँ कहिये कि मैंने होश सम्भाला तो मैने खुद को उस दुकान के सबसे ऊँचे शेल्फ की साफ, शफ़ाक, नयी-नकोर पेंट की हुई छोटी सी जगह पर पाया, तब यूँ लग रहा था कि मैं दुनिया का सबसे चमकदार लोटा हूँँ, यूँ तो मेरे बगल में कतार बॉधे कई लोटे बैठे थे, लेकिन उनमें वो बात कहाँ थी, मेरी शाइनिंग और मेरा रूतबा कुछ और ही था। दुकान वाला बहुत भला और सफाईपसंद आदमी था, हर घंटे आधे घंटे में एक बार बरतनों को चमकाता रहता था, खैर मैं तो वैसे ही चमकदार था, लेकिन सड़क पर धूल बहुत थी...इस देश में ईश्वर का पता नहीं पर धूल सर्व-व्यापि है, सुना है विदेशों में ऐसा नहीं है, वहाँ धूल नहीं है, गरीबी और बेरोज़गारी तो है, शोषण और अत्याचार भी हैं, लेकिन वो लोग बहुत चालाक हैं और धूल की तरह जल्दी ही इप लानतों से भी निज़ात पा लेंगे, चलिये हमें क्या, तो मैं कहाँ था, हाँ, मैं दुकान की चमकदार शेल्फ पर बैठा हुआ था और दुकानदार बार-बार मुझे साफ कर रहा था।
हाँ, मेरे दिल में ढे़रों अरमान थे, कभी मैं सोचता था कि जो भी मुझे खरीदेगा मैं उसकी जिन्दगी सँवार दूँगा, उसे भरपूर खुशी दूँगा (हालाँकि आपको याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि मैं अलादिन का चिराग नहीं लोटा हूँ)
 तो मेरे दिल में वही सब अरमान थे जो किसी नये-नकोर लोटे के मन में हो सकते हैं, 
(अगर आप कल्पना कर सकते हों कि अगर किसी लोटे के कोई अरमान होते तो क्या होते)
...ओहो, मैं भूल गया आप तो इंसान हो, हाँ तो मैं कुछ ब्रीफ सा आइडिया दे देता कि मेरे क्या अरमान थे, मेरे अरमान थे कि मैं दुनिया का....,चलो वो बहुत बड़ी है, एशिया का...,नहीं उसमें कई ऐसे देश भी तो हैं जो लोटा इस्तेमाल नहीं करते, साउथ एशिया का, जिसमें से कुछ निकाल दिये जायें, जैसे चायना आदि, तो उस रीजन का जिसमें इंडिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश ,नेपाल, श्रीलंका...आदि आते हैं, उस रीजन का सबसे मशहूर लोटा बन जाउँ, अब आप सोच रहे होंगे, बहुत महत्वकाँक्षी लोटा है, लेकिन आप ही बताइए, जब ये देश 14 गोल्ड लाकर अपना नाम रोशन कर सकता है, कुछ करे न करे लेकिन ओलम्पिक गोल्ड की बाबत सोच सकता है तो एक लोटा अपनी शोहरत का दायरा क्यों नहीं बढ़ा सकता ।
तो मेरा बस यही अरमान था, जैसा कि ग़ालिब ने कहा है ‘‘चाँद तारे तोड़ लाऊँ, सारी दुनिया पर मैं छाऊँ, बस इतना सा ख़्वाब है, बस इतना सा ख़्वाब है‘‘ मैनें ये जिसके मुँह से सुना था वो इसे ग़ालिब का शेर बता रहा था, ख़ैर ये शेर मेरे दिल के अरमाँ तो बता ही देता। तो मैं दुकान पर बैठा ‘अपनी‘ खुली आँखों से सपने देख रहा था कि दुकान के सामने एक स्कूटर  आकर रूका।
स्कूटर बहुत नया नहीं था, वैसा ही था जैसा कि आम मिडिल क्लास घरों मंे देखने को मिल जाता है, और स्कूटर के मालिक भी मिडिल क्लास ही थे। ख़ैर मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि, तब तक मुझमें वर्ग चेतना नहीं थी, तो मुझे ये नहीं पता था कि लोगों का वर्ग कितना इम्पॉर्टेंट होता है, वो तो जब एक साहब के घर पहुँचा तो वहाँ अक्सर वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष की बातें होती रहती थीं, तो मुझे पता चला कि वर्ग क्या होता है, पर ये बात तो मैं आपको आगे बताने वाला हूँ, अभी तो कहानी को जारी रखते हुए, मैं आपको बता रहा था कि, स्कूटर पर आने वाले लोग मिडिल क्लास के थे, महिला थोड़ी नाटी और भारी शरीर की थी, पुरूष भी ठीक-ठाक भारी था, लेकिन दोनों को अपने शरीर के भारीपन पर कोई एतराज़ हो ऐसा नहीं लगता था। दोनों बरतनों की उस दुकान पर लोटा ही खरीदने पहुँचे थे, तो उन्होनें लोटों को लेकर भाव तय करना शुरू किया, एक तरफ तो मेरा मन कर रहा था कि मेरी तरफ देखा जाये और दूसरी तरफ मैं उनके साथ जाना नहीं चाहता था, मुझे लगता था कि मुझे तो किसी अमीर आदमी के साथ जाना चाहिये, लेकिन जब मैं ये सब सोच रहा था तभी दुकानदार ने हाथ बढ़ा कर मुझे उठा लिया और एक झटके से उस आदमी के हाथ में दिया । उस आदमी ने मुझे थोड़ी देर उलट-पलट कर देखा और फिर मुझे महिला के हाथ में दे दिया, हालाँकि मुझे इससे पहले किसी महिला ने हाथ में नहीं लिया था लेकिन फिर भी उस महिला का तोल-मोल कर मुझे देखना अच्छा नहीं लगा, उन्होनें दुकानदार के साथ बहुत मोल-भाव किया, एक बार तो ऐसा लगा कि वो बिना कुछ लिए ही वहाँ से वापस चले जायेंगे, लेकिन आखिरकार उन्होंने मुझे खरीद ही लिया (मुझे बाद में पता चला कि ये मोल-भाव करने का तरीका होता है, कि आप यानी ग्राहक, दुकान छोड़ कर जाता है, और आखिर में अपने भाव पर सामान खरीदता है)। तो इस हिसाब से उन लोेगों ने, यानी मिडिल क्लास दम्पत्ति ने मुझे खरीद लिया, पता नहीं कितने पैसे दिये, उस वक्त तो मुझे पैसे का भी कोई हिसाब-किताब पता नहीं था। और उस औरत ने मुझे बहुत बेरहमी से अपने झोले मंे घुसेड़ दिया, पहले तो लगा कि ये कहाँ आ गया, लेकिन फिर अपने आस-पास का जायज़ा लिया तो लगा कि मूलियों, आलुओं और प्याज़ के बीच मुझे सुरक्षित रखा गया था ।
स्कूटर धड़-धड़ाते हुए चलने लगा और वो पहला सफ़र था जो मुझे पसंद आया, ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी हिंडोले पर बैठकर बहुत तेज़ी से सफर कर रहा हूँ। और पहले चौड़ी सड़क, खुली हवा, फिर कुछ छोटी सड़क और कुछ बंद हवा, और आख़िर में एक बदबूदार गली में उनका मकान आया, और स्कूटर रूका....मकान क्या था, दो कमरे थे जिनमें उपयोगिता का कोई विशेष अंतर नहीं था। कुछ लोग इस कमरे को बेडरूम की तरह इस्तेमाल करते थे तो कुछ यही काम दूसरे कमरे में करते थे, लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि उनकी आपस की बातचीत मंे उन्हें पता नहीं होता था कि बात किस कमरे की हो रही है, इसलिए जब घर आकर उस महिला ने उसी बेरहमी से मुझे झोले के बाहर निकाला तो अपनी बहु से कहा ‘‘इस लोटे को उस कमरे में रख दो‘‘ और उसकी बहु ने मुझे बिना कुछ सोचे समझे उठा लिया और ले जाकर दूसरे कमरे में रख दिया। और यही बात उस रात उस बहु के पिटने का कारण बनी ।
असल कारण तो मुझे बाद मंे समझ आया, वो महिला चाहती थी कि उसकी बहु किसी ऐसे खानदान (यहाँ घर पढियेगा) से होती जो उसके घर को (यहाँ दो कमरों का मकान पढियेगा) खुशियों (यहाँ दौलत और गहने, जे़वर, कपड़े आदि पढियेगा) से भर देती, क्योंकि उसका बेटा तो लाखों मंे एक (यहाँ औसत शरीफ़ आदमी पढियेगा) था। रात को बड़ा ड्रामा हुआ, खाना-वाना खा के वो महिला अन्दर आई, उसने लोटा देखा जो खिड़कीनुमा चौखट पर रखा हुआ था, और आसमान सर पर उठा लिया, बहु को खूब कोसा गया, उसके पूरे खानदान में किसी को तमीज़ नहीं है कहा गया, और तभी मुझे पता चला कि मोहल्ले के कोने पर एक मन्दिर है, और मुझे रोज़ सुबह वहाँ जल चढ़ाने के लिए खरीदा गया है, उस (बदतमीज़, कुलक्ष्णी, सात घर खाउ) बहू ने मुझे ऐसे ही आले पर रख दिया था, वो तो उस घर के लोग समझदार थे कि किसी ने मुझे हाथ नहीं लगाया था और मेरी पवित्रता नष्ट नहीं हुई थी । रात को दो घंटे तक यही चलता रहा, जिसमें कम से कम 5 बार उस महिला ने अपनी बहु को सजेस्ट किया कि वो ज़हर खाकर मर जाये ताकि वो अपने बेटे की दूसरी शादी कर सके।
पति ठीक-ठाक था, बस माँ से कुछ बोलता नहीं था, आख़िर किसी भी शरीफ़ लड़के को अपनी बीवी की तरफ़दारी नहीं करनी चाहिए, मर्दानगी का यही उसूल है, उसे मोटे तौर पर अपनी बीवी से कोई शिकायत नहीं थी, बस वो एक अच्छा लड़का था जो अपनी माँ का बेटा बना रहना चाहता था, इसमें उसका तो कोई कसूर नहीं था। ख़ैर आप मेरी सुनिये, दूसरे दिन से शुरू हुआ मेरी उपयोगिता का दौर, वो महिला 5-5ः30 पर उठी, मुझे बड़ी बेरहमी से माँजा, और मुझमें पानी भर के मन्दिर की तरफ चल दी ।
मन्दिर में मेरी उपयोगिता पानी चढ़ाना कम और उस महिला के पास पड़े रहना ज्यादा थी। अब आप ही बतायें किसी लोटे के लिये ये कितना अपमानजनक मामला होगा कि उसे पूरे दिन मंे सिर्फ एक बार इस्तेमाल किया जाये और फिर पूरी पवित्रता के साथ उपेक्षित छोड़ दिया जाये। लेकिन मेरे साथ यही हुआ, मैं रोज़ सुबह उठाया जाता, गरदन पकड़ कर बड़ी बेरहमी से, पूरे कसाईपन के साथ मुझे माँजा जाता, इतनी बेरहमी से कि कई बार तो मेरी चमड़ी छिल जाती थी, आप कभी उस महिला को मुझे माँजते देखते तो आपको लगता कि जैसे कोई बदला ले रही हो, मुझे रगड़गते हुए उसके चेहरे पर ऐसे भाव होते थे कि अगर कभी गलती से किसी लोटे के पैर होते तो वो भाग खड़ा होता, 
लेकिन अफ़सोस(हंुह) की बात है कि मेरे पैर नहीं थे, इसलिए, रोज़ मुझे माँजा जाता, रोज़ मुझमंे पानी भर के मुझे मंदिर ले जाया जाता, और रोज़ मैं उस महिला की गोद में पड़ा रहता, और उसकी बातें सुनता रहता था, वहाँ बैठ कर उस महिला की बातें सुनते हुए एसा लगता था जैसे उस की बहू से बुरी औरत इस पूरी दुनिया में कोई ना हो, और वो महिला मन्दिर में बैठ कर इतना झूठ बोलती थी कि लगता था जैसे मन्दिर नाम की जगह होती ही बुराईयों का घर है। मैंने इतना झूठ, चोरी, व्याभिचार और दुनिया भर के तमाम बुरे काम मन्दिर में देखे उतने और कहीं नहीं देखे। उस महिला के साथ एक और महिला  थी, जो उसकी हर बात सुनती और गुनती थी, वो महिला लगातार इशारों-इशारों में ही मेरी पहली मालकिन को ये बताती रहती थी कि कैसे वो अपने ‘सपूत‘ की दूसरी शादी कर सकती थी। लेकिन गाड़ी यहीं आकर रूकती थी आजकल एक से ज़्यादा शादियाँ करने पर सज़ा हो जाती है (हालाँकि इतने से भी कोई मानता नहीं है)। एक दिन हुआ ये कि दूसरी महिला ने पहली महिला को कहा कि क्यों ना अपनी बहु को मार दे, सुना आपने, मन्दिर में बैठकर वो दोनों महिलायें ये योजना बना रही थी कि किस तरह अपनी गृहलक्ष्मी का कत्ल करके वो अपने बेटे की दूसरी शादी करवा सकती हैं, मैं इतना शॉक हुआ कि उस औरत की गोद से उछलकर नीचे जा गिरा, काश उस वक्त मेरे पैर होते तो मैं फ़ौरन वहाँ से भाग खड़ा होता, मैंने अपने पूरे जीवन में अपने पैर ना होने का इतना अफ़सोस कभी नहीं हुआ, ख़ैर ।
मुझे उम्मीद थी कि वो औरतें अपने इन नापाक इरादों से बाज़ आ जायेंगी, लेकिन अफ़सोस की ऐसा नहीं हुआ, वो नहीं मानी, मैं उस मोटी के साथ रोज़ मन्दिर ले जाया जाता रहा, और उनकी सारी साज़िश का गवाह बना रहा, काश मैं उस मासूम लड़की को बता सकता, काश उसे बचा सकता। पहले से ही किसी और मजबूर लड़की के बाप से बात करके सब तय कर लिया गया, फिर साजिश हुई, उस लड़की की हत्या करने की ।
मुझे वो रात बिल्कुल साफ तौर पर याद है, उस रात मैं बहुत डरा हुआ था, क्योंकि मन्दिर में सुबह ही ये प्लान बन चुका था कि आज रात बहु को ठिकाने लगा देना है, और जब रात ज़्यादा काली हो गई थी, तब माँ बेटे ने मिलकर उस बच्ची को दबोच लिया, बाप ने उस पर मिट्टी का तेल डाला और माँ ने आग लगा दी, उफ़्फ़्फ्फ्फ, क्या दिल दहला देने वाला दृश्य था, मैं आज भी उस रात के बारे में सोचता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वो बच्ची कितना तड़पी, चीखी-चिल्लाई, लेकिन रोज़ मन्दिर जाकर पीपल पर जल चढ़ाने वाली उस औरत का दिल नहीं पसीजा, एक बार को तो मैं ही उछल पड़ा, थोड़ा उछलकूद भी मचाया, लेकिन मुझे दबा दिया गया, मुझे दबा दिया गया......
मैं क्या कहूँ, एक लोटे का दिल रो रहा था, और तीन वहशी हँस रहे थे, अगर मेरे पैर होते तो मैं तब भी वहाँ से भाग खड़ा होता, लेकिन मैं मजबूर था, कि मैं एक लोटा था । 
दूसरी सुबह जब उस मासूम की लाश को जलाने के लिए ले जा रहे थे, तो दूसरी औरत ने आँख बचा कर मुझे अपने झोले में डाल लिया, वही जिसने मेरी मोटी मालकिन को अपनी बहु को मारने की सलाह दी थी उसी ने उसके घर पर मौका देखकर हाथ-सफ़ाई भी दिखा दी, और मैं आसमान से गिरा खजूर में अटका वाली तर्ज़ पर उस महिला के झोले में जा गिरा जिसमें और भी सामान पड़ा था । 
लेकिन मैं उस औरत के पास भी ज़्यादा देर नहीं रहा, हो सकता है कि इसके पीछे मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति का भी हाथ रहा हो, हालाँकि किसी लोटे की इच्छा क्या और शक्ति कैसी। लेकिन मेरी थी, और बहुत बढ़िया थी क्योंकि मुझे उस महिला से फौरन ही छुटकारा मिल गया, चुराये हुए सामान का झोला लेकर वो महिला कहीं जाने के लिए एक ऑटो पर बैठी, और वो किसी रेड लाईट पर रूका तो एक उठाईगिरे ने ऑटो से वो झोला पार कर लिया, और इस तरह मुझे लगभग फ़ौरन ही उस महिला से छुटकारा मिल गया । 

सोमवार, 11 मई 2015

जय जय जयललिता



लीजिए हुज़ूर, जयललिता की जय हो गई। हम तो पहले से कह रहे थे कि ये बड़े लोग भ्रष्टाचार कर ही नहीं सकते। बड़े लोग तो हम जैसे छोटे लोगों के लिए मिसाल कायम करते हैं, शुचिता, पवित्रता, ईमानदारी की। हम बेकार ही बार-बार इन महान, पवित्र नेताओं का नाम भ्रष्टाचार के कारनामों में घसीट कर अपनी थुक्का-फजीहत करवाते हैं। वो तो भला हो इस देश की न्यायपालिका का, न्यायलयों और न्यायाधीशों का जो हमें बार-बार इस पवित्र रास्ते से भटकने से रोक रही है। सलमान भाई के बाद अब जयललिता को जो राहत मिली है, इससे हमें यानी जनता को क्या संदेश मिलता है। यही कि इस देश की न्याय प्रक्रिया सौ टांक सच्ची है, उसे पता है कि किसे सज़ देनी है किसे नहीं। यहां कोई सबूत ना होने पर भी, किसी को इसलिए सज़ा मिल सकती है कि, राष्ट्रीय चेतना को संतुष्ट करना है, और कहीं ठीक इसीलिए सज़ा नहीं भी दी जा सकती। मुझे याद है कि राजस्थान में बलात्कार के एक मामले में माननीय न्यायाधीश ने टिप्पणी की थी कि आरोपी उच्च वर्ग के सदस्य थे, इसलिए बलात्कार पीड़िता की इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि उन्होने ही बलात्कार किया होगा। आखिर उच्च वर्ग के लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं, वे सत्य, न्याय, निष्ठा और ईमानदारी की जीती-जागती मूर्ति होते हैं। 
13 साल पहले मुंबई के फुटपाथ पर सोने वाले गरीब मजदूरों पर गाड़ी किसने चढ़ाई, पता नहीं हुजूर, 
1997 में लक्षमणपुर बाथे में 58 लोगों को किसने मारा, पता नहीं हुजूर, 
1999 में शंकरपुर बिगहा में 23 लोगों को किसने मारा, पता नहीं हुजूर, 
1996 में बथानी टोला में 21 लोगों को किसने मारा, पता नहीं हुजूर, 
बाबरी मस्जिद किसने ढहाई, पता नहीं हुजूर, 
गुजरात के दंगे किसने कराए, पता नहीं हुजूर, 
2002 में साबरमती एक्सप्रेस में आग किसने लगाई थी, पता नहीं हुजूर, 
1987 में हाशिमपुरा में 40 लोगों को किसने मारा, 
पता नहीं हुजूर, 
अच्छा जयललिता के पास इतनी दौलत, जायदाद आदि कहां से आई, पता नहीं हुजूर, 
अच्छा मायावती, मुलायम, लालू की दौलत का ही बता दो, कहां से आई, पता नहीं हुजूर.....
यार इन्हे तो कुछ पी पता नहीं है, तो ये कोर्ट इन सब मामलों के सभी आरोपियों को रिहा करता है। 
इसके बाद कोर्ट को ये आदेश देना चाहिए कि क्योंकि इन सभी अपराधों के कोई अपराधी नहीं हैं इसलिए इतिहास से इन सब हादसों को निकाल देना चाहिए। गुजरात दंगा, हाशिमपुरा नरसंहार, लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला, शंकरपुर बिगहा जैसे नरसंहारों की बात नहीं होनी चाहिए। साथ ही सलमान, जयललिता, मायावती, मुलायम आदि अन्य जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार आदि के मामले हैं उन्हे भी इतिहास से गायब कर देना चाहिए, ये कभी हुए ही नहीं। भई जिन अपराधों में अपराधियों का पता नहीं चला, कैसे मान लें कि वो अपराध हुए हैं। बल्कि मैं तो कहूंगा कि जब हम इतिहास को सुधारने की बात कर रहे हैं तो साथ ही साथ भविष्य को सुधारने की बातें भी कर ही लें। जैसे आइंदा से किसी नेता पर भ्रष्टाचार का कोई मामला मुकद्मा लगेगा ही नहीं, बल्कि उन पर आरोप लगाने वाले को ही अपराधी मान लिया जाए। ये बढ़िया रहेगा, आखिर आम जनता में नेताओं का थोड़ा बहुत डर तो होना ही चाहिए, ये क्या कि कोई भी, कभी भी, किसी भी नेता पर आरोप लगा देता है, ये गलत है, और इससे विदेशों में देश की छवि खराब होती है। 
इसके अलावा कानून में ये व्यवस्था की जा सकती है कि किसी भी दलित टोले में, आदिवासी गांव या बस्ती में किसी भी तरह का नरसंहार, कानूनन अपराध नहीं माना जाएगा, इसके अलावा सड़कों पर सोने वाले, गरीब, मजदूरों आदि को मारना भी कानूनन अपराध नहीं माना जाएगा। इन कदमों से इस देश में सच में कानून का राज स्थापित होगा और इससे कानून में लोगों की आस्था बढ़ेगी। अभी वाला मामला गलत है। किसी नेता पर भ्रष्टाचार का मुकद्मा चलता है और दशकों तक मुकद्मा चलने के बाद पता चलता है कि कोई अपराध हुआ ही नहीं था। इससे एक तो अदालत का समय व्यर्थ नष्ट होता है, दूसरे अदालत को बहाने ढूंढने पड़ते हैं, जैसे पिटीशन सही समय पर नहीं दाखिल किया गया, या चश्मदीद गवाह की गवाही पर यकीन नहीं किया जा सकता, या राष्ट्र के सामूहिक अंतःकरण की संतुष्टि के लिए। तो इस तरह के जो मामले हैं, वो एक तरह से इन बड़े लोगों का मोराल डाउन करते हैं, और इन्हे वो सब करने से रोकते हैं जो ये करना चाहते हैं। 
इस देश का कानून पुराना हो चुका है और इसे आज के हिसाब से बदलने की आवश्यकता है, बल्कि इसे भविष्योन्मुखी बनाने की आवश्यकता है। इनमें कुछ सुझाव मैं दे सकता हूं।
1. किसी भी नेता पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता, ये वक्त की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। अगर कोई ऐसा करेगा तो वो उसकी सज़ा भुगतने के लिए तैयार रहे।
2. किसी भी नेता पर किसी भी तरह के दंगे कराने, हत्या आदि का आरोप नहीं लगाया जा सकता, ऐसा करने वाले को एन्काउंटर में मार देने का या उसकी संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के लिए कोई भी सरकारी प्रतिष्ठान या न्यायलय जिम्मेदार नहीं होगा।
3. किन्ही खास संदर्भों में, जैसे विकास के लिए, अपने दोस्तों को गिफ्ट करने के लिए, या यूं ही, देश के किसी भी हिस्से में कितनी भी जमीन जबरन हथियाई जा सकती है, अगर किसी ने विरोध किया तो पुलिस को उन पर गोली चलाने का पूरा अधिकार होगा। वैसे भी ये सब विकास विरोधी होते हैं। 
4. सेना, पुलिस, और प्रशासन के वे लोग जो नेताओं ओर पूंजीपतियों के लिए, उनके इशारे पर एनकाउंटर और रेप करते हैं, उन्हे कानूनन सुरक्षा दी जाएगी कि उन पर इस तरह के आरोप नहीं लगाए जा सकें। ये सब उनका काम है, इससे उन्हे रोकने पर उनका मोराल डाउन होने की संभावना है। अगर कोई ऐसा मोराल डाउन करने वाला काम करता हुआ पाया जाए तो उसे देशद्रोही मान कर मार दिया जाना चाहिए।
इसके अलावा अगर किसी गरीब इंसान ने, किसान ने, छात्र-मजदूर ने देश की ओर, यानी नेता, सेठ, पूंजीपति यानी देश की ओर टेढ़ी नज़र से देख भी लिया तो उसे राष्ट्रद्रोह के अपराध में बिना किसी जमानत के विकल्प के आजीवन जेल में सड़ाया जा सकता है, फांसी दी जा सकती है, या फिर एन्काउंटर किया जा सकता है। 
जयललिता का साफ छूट जाना असल में तय था, ये भारतीय कानून की विशेषता है, जैसा कि बोफोर्स मामले में हुआ, सलमान वाले मामले में हुआ, संजय दत्त वाले मामले में हुआ, वंजारा वाले मामले में हुआ, और अब जयललिता वाले मामले में हो रहा है। इसी तरह आप देखेंगे कि अभी आसाराम, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, और बाकी सभी लोग छूट जाएंगे, क्योंकि उनके खिलाफ आरोप सिद्ध नहीं होंगे और फिर ये सिद्ध होगा कि कोई अपराध हुआ ही नहीं था। बाकी इस देश का कानून अपना काम कर रहा है, आपको सिर्फ ये देखना है कि कानून के इस चक्के में पिसने की आपकी बारी कब आती है, तो इंतजार कीजिए....और क्या। 

शुक्रवार, 8 मई 2015

ज़रुरत


उसने एक बार फिर से अपनी पैंट की जेब में हाथ डाल कर 50 रु. के नोट को मसला। उसने घर के राशन के खर्च में से ये 50 रु. बचाए थे। वो अक्सर ऐसा करता था, घर का कोई काम हो तो पैसे बचा लेता था, जैसे एक किलो की जगह 750 ग्राम दाल ले ली तो पांच-सात रुपये उसमें बचा लिए, और ऐसे ही कुछ और चीजों पर पैसे बच गए।  उसे पैसे की ज़रूरत नहीं थी, और ज़रूरत थी भी, कॉलेज में उसके लगभग हर दोस्त को घर से जेबखर्च मिलता था, उसे नहीं मिलता था। कॉलेज घर के पास ही था, और उसके बाप का कहना था कि पैदल चलने से सेहत ठीक रहती है, और बाहर के खाने से बेहतर घर का खाना होता है, इसलिए जेबखर्च की कोई जरूरत नहीं है। उसे ये समझ नहीं आता था कि 10 बजे सोकर उठने वाले उसके बाप को कैसे पता कि पैदल चलने से सेहत ठीक रहती है। 
कॉलेज में उसकी इमेज ठीक-ठाक थी, कुछ खास दोस्त थे, कुछ लड़कियां भी दोस्त थीं, जिनके सपने वो रातों को लिया करता था। लेकिन उसके घर का माहौल कुछ ऐसा था कि वहां हर चीज़ सबके साझे में थी। सबके सामने पढ़ना, टी वी देखना, खेलना, खाना खाना और सबके साथ आंगन में खाट बिछाकर सो जाना, इसलिए सपने देखने के अलावा वो कुछ कर नहीं पाता था। हालांकि औरत-मर्द के जिस्मानी संबंध के बारे में जितनी थ्यॉराटिकल नॉलेज किसी को हो सकती थी, वो उसे थी, बस प्रैक्टिकल पर हाथ कमज़ोर था। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि उसका ध्यान ईश्वर, पूजा, योग ध्यान समाधि में भी था और उसे लगता था कि किसी भी तरह का यौनिक विचार, या वैचारिक यौन उसके लिए ठीक नहीं है। 
उसने एक बार फिर से अपनी पैंट की जेब में हाथ डाल कर 50 रु. के नोट को मसला। पचास रुपये बड़ी रकम थी, सिगरेट की पूरी डिब्बी की कीमत 7 रुपये थी, और उसकी एक डिब्बी तीन दिन चल जाती थी, वो ज्यादा सिगरेट नहीं पीता था, पर पीता था। दिन में दो या तीन, वैसे भी सुबह नौ बजे घर से निकलने तक और शाम का चार बजे घर में घुसने के बाद सिगरेट पीने की तो छोडिए वो तेज़ सांस लेने की भी नहीं सोच सकता था। उसके घर में कुछ चीजों की मनाही थी, जैसे ज़ोर से हंसना, ये सिर्फ बहनों के लिए ही नहीं, उसके लिए भी वर्जित था, पेंटिंग, किताबें पढ़ना, वो सिर्फ स्कूल या कॉलेज की किताबें पढ़ सकता था, किसी भी किस्म का गाना-बजाना, टी वी देखना, टी वी केवल तभी देखा जा सकता था, जब मां का कोई रिश्तेदार आया हो, या पिताजी जल्दी घर आ गए हों, बच्चों के लिए इसके अलावा टी वी देखना वर्जित था, पतंग उड़ाना, कंचे खेलना, एक बार घर में घुसने के बाद कहीं बाहर आना जाना, गरज़ की हर वो काम मना था जो वो करना चाहता था। उसका कोई दोस्त आज तक उसके घर नहीं आया था, वो खुद दोस्तों के घर कभी गया तो उसकी सबसे बड़ी चिंता ये रहती थी कि वो सही समय पर, यानी चार बजे तक घर वापिस पहुंच जाए। उसके बाद चिंता होती थी कि कहीं दोस्त के घर जाने और वापिस आने में कोई ऐसी बस ना मिले जिसमें स्टाफ ना चलता हो, क्योंकि टिकट के पैसे नहीं होते थे। ऐसे में वो कई ऐसे काम कर चुका था जिनके बारे में सोचकर उसे खुद ताज्जुब होता था। जैसे आज़ादपुर से भीकाजी कामा प्लेस तक पैदल आना। 
एक बार उसे स्कूल से घर आने में देर हो गई थी, उसकी मां ने उसे इस गलती की सज़ा ये दी थी कि उसे धूप में खड़ा कर दिया था, जहां एक घंटे खड़े रहने के बाद वो बेहोश होकर गिर गया था और उसके बाप ने उसे इसलिए मारा था कि उसके गिरने की वजह से एक गमला टूट गया था। 
उसे अपने बाप या मां से डर नहीं लगता था, उसकी चिंता ये थी कि अगर घर में ऐसा कुछ होता था तो उसका सीधा असर उसकी बहनो पर पड़ता था और वो जो घर के लगभग हर काम में मां का हाथ बंटाती थीं, हर बात पर पिटती थीं या ताना खाती थीं।
उसे अपने दोस्तों के घर पर बच्चों के साथ मां-बाप के प्रेमपूर्ण व्यवहार से आश्चर्य होता था, और उसे लगता था कि ऐसा सिर्फ दिखावे के लिए हो रहा है। जैसा उसके घर में होता था, जब कोई रिश्तेदार आता था, तो उसके रहने तक घर में एक तरह की स्तब्धता रहती थी, लेकिन उस दौरान भी उसे काफी चौकन्ना रहना पड़ता था, क्योंकि वो बेशक भूल जाए, उसके मां-बाप को उसकी हर गलती याद रहती थी, और कभी-कभी तो उसे एक ही गलती के लिए दो या तीन बार सज़ा भी मिल जाया करती थी, कभी-कभी किसी नयी गलती की सज़ा में पुरानी गलती की सज़ा को भी जोड़ दिया जाता था। 
कमाल ये था कि यही सब काम थे जो उसे सबसे ज्यादा पसंद थे, जो घर में वर्जित थे, वो बाहर करता था, गीत-संगीत, कविता-कहानी, बल्कि कई काम तो वो करता ही इसलिए था क्योंकि घर मंे उनकी मनाही थी, जैसे जोर से हंसना। उसे जोर से हंसना बहुत पसंद था। वो छोटी से छोटी बात पर भी ठहाका लगाकर हंसता था। इसके लिए वो बहाने के तौर पर तर्क देता था कि अगर हंसना ही है तो जोर से हंसा जाए, वरना हंसने का बहाना क्यों करें। 
कॉलेज की उसकी दुनिया घर की दुनिया से बिल्कुल अलग थी, वहां वो जिंदादिल, हंसमुख, कलाकार और यारों का यार इंसान था। कॉलेज में वो कई प्रतियोगिताओं में हिस्सेदारी करता था, इनाम जीतता था, लेकिन घर नहीं ले जाता था, कहीं फेंक देता था या किसी दोस्त को दे देता था। घर में ऐसी चीजों की मनाही थी। वो कभी अपने घर का जिक्र अपने दोस्तों के सामने नहीं करता था, जब उसके दोस्त अपने घर की किसी बात का जिक्र करते थे तो कभी अपने घर का हवाला नहीं देता था। उसे अपने दोस्तों के परिवारों, घरों के बारे में लगभग वो सब पता ािा जो आमतौर पर ऐसी दोस्ती में पता होता है, लेकिन उसके दोस्तों को उसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। कॉलेज के बाद वो अपने दोस्तों के साथ बस स्टैंड तक जाता था, वहीं एक छोले-कुलचे वाला था, जिसकी रेहड़ी पर सभी दोस्त छोले कुल्चे खाते थे, लेकिन वो अक्सर मन नहीं कर रहा, या इच्छा नहीं है, पेट खराब है जैसे बहाने करके टाल देता था, क्योकि उसके पास पैसे ही नहीं होते थे। फिर दोस्तों के साथ बस का इंतजार करता था और जब सब चले जाते थे तो पैदल अपने घर की तरफ चल देता था। 
इस उम्र में, जिसका जिक्र मैं कर रहा हूं, आदमी की जरूरतें बहुत ज्यादा नहीं होती, बहुत कम भी नहीं होती। इंसान का हर काम, हर सोच इस तरफ माइल रहती है कि दोस्तों के सामने हंसी ना उड़े, मज़ाक ना बने, और उसके लिए वो सबकुछ करता है। क्योंकि ये उम्र, राजनीति, नैतिक, और इंसानी तकाज़ों के सही या गलत के हिसाब से नहीं चलती। ये मिले, हंसे, और बात की के हिसाब से चलती है। उसने एक बार फिर से अपनी पैंट की जेब में हाथ डाल कर 50 रु. के नोट को मसला। 
पिछले कई दिनो से दोस्तों ने उसे मज़ाक का निशाना बनाया हुआ था कि वो उन्हे चाय नहीं पिलाता, छोले कुल्चे नहीं खाता, यानी पैसे खर्च नहीं करता। कुछ दोस्तों ने तो दबी जुबान में उसे कंजूस भी कह दिया था। आज वो छोले-कुल्चे भी खाएगा और अपने दोस्तों को चाय भी पिलाएगा। कम से कम उसकी हंसी नहीं उड़ेगी। वो नहीं चाहता था कि घर का अवसाद, उदासी, नाराजगी और अकेलापन उसकी बाहर की दुनिया में भी उसे घेर ले, उसे इंसान बना रहने के लिए अपने दोस्तों की जरूरत थी। पचास का ये नोट, जो उसने राशन के पैसों से चुराया था, उसके इंसान होने की जरूरत को पूरा कर सकता था। वो जानता था कि चोरी करना सही नहीं है, लेकिन नैतिकता के इस तकाज़े से ज्यादा उसकी ज़रूरत अपने इंसान को बनाए रखने की थी, जिसे सिर्फ वही जानता था। घर में जोर से हंसना मना था, वो कॉलेज जाने के लिए तैयार खड़ा था, हल्के से मुस्कुरा दिया। 
उसने एक बार फिर से अपनी पैंट की जेब में हाथ डाल कर 50 रु. के नोट को मसला। 

गुरुवार, 7 मई 2015

भाई सलमान और सज़ा



इसे पढ़ने से पहले ये जान लें कि मैं सलमान भाई का फैन हूं, मैने उनकी सारी फिल्में देखी हैं। वो कमाल के हीरो हैं, गजब का नाचते हैं, और उनकी बॉडी जैसी बॉडी तो पूरी दुनिया में किसी की हो ही नहीं सकती। जब वो दबंग में अपनी बेल्ट पकड़ कर उसे उपर-नीचे करते हैं, तो कसम से उपर की सांस उपर और नीचे की सांस नीचे रह जाती है। किसी भी देश में न्याय के कुछ मानक होते हैं, जैसे हमारे ही देश में देख लीजिए, आप सरकारी अधिकारियों को बिना सरकार की अनुमति के प्रोसीक्यूट नहीं का सकते, मंत्रियों, नेताओं को किसी भी हालत में बिना सरकार की अनुमति के नहीं पकड़ सकते, फौज की तो बात तक नहीं की जा सकती, बाकी पुलिस-वुलिस तो खुद पकड़ने वाले लोगों की जमात है, उनपर कोई कैसे और क्यों हाथ डाल सकता है। मेरा कहना ये है कि अतीव कौशलयुक्त व्यक्ति जैसे अपने सलमान भाई आदि आदि को भी ऐसे मामलों में विशेषाधिकार मिलना चाहिए, जैसे 10-12 हत्याओं तक तो उनसे बात भी नहीं की जानी चाहिए। आपको पता नहीं है कि वो कितने महान व्यक्ति हैं, उनके एक घूंसे में विलेन जमीन चाटता है जमीन, और जब वो किसी लड़की को देखकर, शर्ट उतार कर, बेल्ट पकड़ कर उपर-नीचे करते हैं तो.....वो जब किसी से कमिटमेंट कर लेते हैं तो फिर तो खुद अपनी भी नहीं सुनते। 
लेकिन मैं सिर्फ फैन होने की बात पर नहीं कहता, मैं तथ्यों की बात करता हूं। अगर सलमान भाई के उपर लगे आरोपों में कोई भी सच्चाई होती तो क्या मामला 13 साल खिंचता, सब जानते हैं कि अगर मामला सच्चा हो तो वो जल्दी निपट जाता है। अब हाशिमपुरा वाले मामले को देख लीजिए, मामले में अगर सच्चाई होती तो मामला इतना लंबा नहीं खिंचता, लेकिन हाशिमपुरा में असल में कोई हत्या नहीं हुई थी, वो सिर्फ हमारे देश की सेना और पुलिस को बदनाम करने की साजिश थी। सलमान भाई ने कहा कि वो बार में बैठकर दारू नहीं पी रहे थे, अब आप ही सोचिए कि वो झूठ क्यों बोलेंगे, वो ये भी तो बोल सकते थे कि वो तो मंदिर से आ रहे थे, या मस्जिद से आ रहे थे, लेकिन उन्होने झूठ नहीं बोला, उन्होने साफ कहा कि मैं बार में था, लेकिन.....लेकिन मैं शराब नहीं पी रहा था, मैं पानी पी रहा था। इसमें सच्चाई है, मैं कहता हूं, आप भी गौर कीजिए। शराब पीने वाले किसी इंसान की बॉडी, ऐसी नहीं हो सकती, यानी सलमान भाई दारू नहीं पी रहे थे, वे तीन-चार घंटे बार में बैठ कर पानी पी रहे थे। 
दूसरी बात, गाड़ी सलमान भाई नहीं चला रहे थे। बाथे-बथानी नरसंहार में एक आदमी किसी तरह बच गया, उसने कोर्ट में अभियुक्तों को पहचाना और कहा कि जनाब यही लोग थे जिन्होने नरसंहार किया था। कोर्ट ने कहा कि उस व्यक्ति का बयान भरोसे के काबिल नहीं है, क्यों, क्योंकि एक तो ऐसे भयानक नरसंहार में वो बच गया यही संदेहास्पद है, दूसरे अगर बच भी गया तो ये कैसे मान लें कि जो वो कह रहा है सच कह रहा है। हां अलग से कोई निष्पक्ष गवाह हो तो उसकी गवाही मानी जा सकती है। सलमान भाई के केस में भी ऐसा ही कुछ है, सवाल ये है कि जो लोग कुचले गए, उनकी इस गवाही पर कि कार सलमान भाई चला रहे थे, कैसे एतबार किया जा सकता है। हां, कोई निष्पक्ष गवाह हो, जो खास इसलिए वहां खड़ा हो कि सलमान की गाड़ी वहां से निकलेगी तो वो देखेगा, और उसने ऐसा कुछ देखा हो तो माने। कुचले हुए, अधमरे आदमी की गवाही पर कोई यकीन करे कैसे। तीसरे सलमान भाई के ड्राइवर ने तो कहा, कि गाड़ी वो चला रहा था, सलमान नहीं, अब कोर्ट को एक भले आदमी की इस बात पर यकीन करना ही चाहिए, जो कि कोर्ट ने नहीं किया। ये गलत है, सरासर गलत है, कोर्ट ने तथ्यों की अनदेखी की है। 
सलमान भाई बहुत ही महान शख्स हैं, उन्होने बीइंग ह्यूमन नाम की एक संस्था चलाई हुई है, जो समाज की भलाई के काम करती रहती है, उनका नाम तो बॉलीवुड के हीरोज़ की लिस्ट में सबसे उपर होना चाहिए, और कुछ एक गरीब लोगों की जान तो उन पर यों ही न्यौछावर कर देनी चाहिए। सड़कों पर सोने वाले लोगों से हमें कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वो लोग समाज के गरीब लोगों के लिए ऐसा कुछ नहीं करते जो सलमान भाई करते हैं। बताइए, कितनी तस्वीरें आए दिन अखबारों और टी वी चैनलों में आती हैं, जिसमें सलमान भाई किसी गरीब के बच्चे को गोद में लेते हैं। गोद में! गरीब का बच्चा! अबे अब क्या जान लोगे किसी की......सलमान भाई ने कई जगहों पर स्कूल, अस्पताल आदि को चंदा भी दिया है। बल्कि उनके वकीलों ने अदालत को बताया कि सलमान भाई जो भी, जितना भी कमाते हैं, वो इन्ही सब कामों में जाता है, और अगर उन्हे सजा हो गई तो ये सब काम रुक जाएंगे। बताइए, तो भी कोर्ट नहीं पसीजा, कोर्ट को चाहिए था कि ऐसे कामों को चलने देने के लिए वो सलमान भाई को सजा नहीं देता, क्योंकि ऐसे काम करने वाले अगर कभी एकाध, हिरण-विरण को या गरीब-गुरबे लोगों को मार भी दें तो बहुसंख्यक गरीबों का तो भला ही करेंगे ना। 
लेकिन हमे न्याय प्रणाली पर पूरा विश्वास है। जब संजय दत्त को सजा हुई थी तो पूर्व न्यायाधीश काटजू उनके समर्थन में बयान दिए थे, अब भी कई लोगों ने सलमान भाई के समर्थन की बातें की हैं। न्यायायल मंे न्याय मिलता है इसीलिए तो सलमान भाई को फौरन बेल मिल गई।
150 के करीब मारुति मजदूरों को एक मैनेजर की संदेहास्पद मौत के लिए जिम्मेदार मानते हुए न्यायलय ने पिछले दो सालों से जेल में रखा हुआ है। उनकी बेल नहीं हो रही, हालांकि उनके खिलाफ ना पुलिस के पास, ना मारुति के वकीलों के पास, ना राज्य के पास और ना कोर्ट के पास कोई सबूत है। लेकिन फिर भी उनहे आज तक बेल नसीब नहीं हुई। लेकिन न्यायलय ने सलमान भाई की बेल की अर्जी को फौरन मंजूर करके इस देश की न्याय व्यवस्था में हमारा विश्वास बढ़ा दिया है। अगर संजय दत्त को तीन साल की सज़ा के दौरान 17 बार पैरोल और फरलो मिल सकता है जबकि उसके खिलाफ इतना मजबूत केस था, तो सलमान भाई को बेल क्यों नहीं मिल सकती। 
असल में जेल और बेल के कुछ खास नियम होने चाहिएं। जैसे एक खास इन्कम ग्रुप वालों को जेल नहीं होनी चाहिए, और जेल हो तो या तो उन्हे फौरन बेल का प्रावधान होना चाहिए या फिर कुछ ऐसा होना चाहिए जैसे वो अपने घर की सुख-सुविधाओं का आनंद लेते हुए सज़ा पूरी कर सकें, गलती की सज़ा तो उन्हे मिलनी चाहिए, उसके लिए हम मना नहीं करते, आखिर कानून का पालन होना ही चाहिए, लेकिन अगर उन्हे सज़ा देने वाला मामला हो तो ऐसे में उन पर कुछ प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। जैसे उन्हे छुट्टियां मनाने के लिए विदेश जाने से रोका जा सकता है ”काम की बात हो अनुमति दी जा सकती है” पार्टियों में जाने पर थोड़ी-बहुत रोक लगाई जा सकती है, और भी ऐसी रोक लगाई जा सकती हैं, जिनसे काम भी चलता रहे और वो मजे से सजा भी काट लें। 
आखिरी बात हमें ये कहनी है कि इन गरीबों ने ही भारत देश का कबाड़ा किया हुआ है। यही देश को दुनिया का सिरमौर होने से रोकते हैं, इस देश में अभिजीत जैसे लोग भी हैं जो सड़क पर कभी नहीं सोए, जो ना गरीबों वाला खाना खाते हैं, ना गरीबों वाले कपड़े पहनते हैं, और ना ही गरीबों की शक्ल देखना चाहते हैं। ये देश महान लोगों का है, ये देश मोदी, अडानी, अम्बानी, टाटा, अमित शाह, सलमान खान, और उन लोगों का है जो इस देश को अमीर बनाते हैं, ना कि उन लोगों का जिनकी वजह से इस देश का नाम कुपोषण, और भुखमरी और किसानो की आत्महत्या आदि की सूची में है। ये गरीब लोग जब मर्जी, जहां मर्जी सो जाते हैं, और अगर गाड़ियों के नीचे आ जाएं, तो सलमान भाई को बदनाम करते हैं। क्या हक है इन गरीब लोंगों को सड़कों पर रहने का, सड़कों पर सोने का, मुम्बई जैसे शहर में रहने का। इन मजदूर, गरीब, बेबस लोंगों को धक्के मार-मार कर मुम्बई से, इस देश से बाहर निकाल देना चाहिए, ताकि सलमान भाई जैसे हीरोज़ मजे से दारू पीकर सड़कों पर दिन-रात अपनी कारें दौड़ा सकें। अभिजीत ने बहुत अच्छी बात की है, हमें भारत में गरीबी को उनके नज़रिए से, देखना होगा जो हमारे देश के महान प्रधानमंत्री के नज़रिए से बहुत मेल खाता है। और इस देश के गरीबों का क्या करना है इस बाबत गंभीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि सलमान भाई जैसे और भी कई लोग हैं, जैसे अम्बानी का बेटा, जिनकी कारों के नीचे आकर ये लोग मरेंगे और फिर रोएंगे कि कार वालों को सज़ा दी जाए। मै आप सबसे अपील करता हूं कि दयावान, गुणी, अतीव मानवीय गुणो वाले, हीरो, स्टार सलमान भाई की दुख की घड़ी में, ”हालांकि बेल मिलने से वो सुख की घड़ी हो गई है” उनका समर्थन कीजिए, और गरीबों को लानत भेजिए। 

पेशाबी पौधा



”वो ज़माने गए जब हमारे पेशाब से चिराग जलते थे” ये किसी दौर की कहावत है साहब, आजकल किसी को इसका इस्तेमाल करते नहीं सुनते। हां भाजपा के एक बड़े नेता ये कहते जरूर सुने गए हैं कि उनके पौधों का बेहतर विकास इसलिए हो रहा है क्योंकि वो अपने पौधों को पानी की जगह अपने पेशाब से सींचते हैं। ऐसा ही एक बयान महराष्ट्र के एक बड़े नेता ”पवार” ने भी दिया था, हालांकि उन्होने खेत में सिंचाई के पानी की जगह अपना पेशाब पेश करने में असमर्थता जताने वाला बयान दिया था। काश कि गडकरी ने तब ही कुछ कहा होता। इस देश की यही सबसे बड़ी समस्या है। कितने ही किसानों की सूखे की वजह से फसलें बरबाद हो गई, उफ कि गडकरी ना हुए उस समय। बताइए, बारिश ना होने की सूरत में सारे गांव वाले पहले एक खेत में फिर दूसरे खेत में, और इस तरह पूरे गांव के खेतों में पेशाब करके फसलों की सिंचाई कर सकते थे, और बेहतर फसल ले सकते थे। गडकरी ने सिंचाई का एक ऐसा अभूतपूर्व हल पेश किया है कि सिंचाई की सारी समस्या ही हल हो गई है। 
अब ग्राम पंचायत में एक पेशाब विभाग भी बनाया जा सकता है, केन्द्र सरकार पेशाब से सिंचाई की योजना को प्रोत्साहन देने के लिए एक पेशाब मंत्रालय खोल सकती है, जिसका कार्यभार गडकरी को सौंपा जा सकता है। इस मामले में गडकरी ही एकमात्र अनुभवी हैं इसलिए उन्हे ही इस मंत्रालय का मंत्री बनाया जाना चाहिए। इसके बाद पूरे देश के हर राज्य, जिले, ब्लॉक और गांव में पेशाब जमा करने, उसके उचित इस्तेमाल की व्यवस्था की जानी चाहिए। मोदी को चाहिए कि वो इसके लिए गडकरी के लिए नोबेल पुरस्कार की संस्तुति करें, उन्हे यू एन से विश्व पेशाब दिवस मनाने की भी मांग करनी चाहिए, इसके साथ अगर गडकरी का नाम जोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा, ताकि पूरी दुनिया को मालूम पड़ जाए कि पेशाब से पौधों की सिंचाई वाला आइडिया किस महान शख्सियत का था। इस तरह सदियों-सदियों तक दुनिया याद रखेगी कि उनके बेहरत पौधों और फसलों को पेशाब से सींचने का महान आइडिया गडकरी का था। 
महान लोग ऐसे ही काम करते हैं, वे अपनी साधारण से साधारण चीज़ से महानता पैदा कर सकते हैं। भाजपा में सारे नेता महान हैं, शीर्ष नेता बचपन में मगरमच्छों का शिकार करते थे, तो उनके नीचे वाले नेता अल्पसंख्यकों का शिकार करते थे, उनसे नीचे वाले यानी गडकरी आदि शिकार-फिकार तो नहीं कर पाए लेकिन अपनी ताकत भर महान कार्य करते रहे, आज तक कर रहे हैं। 
सवाल ये है कि आखिर इन महान नेताओं को ये युग-प्रर्वतक आइडियाज़ आते कहां से हैं? मेरी अपनी थ्योरी है, सुनेंगे, हुआ ये होगा कि किसी दिन साहब गडकरी किसी पार्टी-शार्टी से लौटे होंगे, ”आजकल भाजपा नेताओं को उद्योगपति खूब जम के पार्टियां दे रहे हैं” वहां ज्यादा हो गई हो गई होगी, पेट भारी रहा होगा, ”पेट भारी होने से अक्सर गैस हो जाती है” रात में बैचेनी हुई होगी तो वो उठे होंगे। अब उठे हों तो बाथरूम जाने का होश ना रहा होगा, बाल्कनी से ही, मेरा मतलब सीधे....समझ रहे हैं ना आप.....। दूसरे दिन सुबह चाय या कॉफी जो भी वो पीते होंगे उसे पीते हुए, पेशाब की सौंधी सुगंध उन्हे आई होगी, तब याद आया होगा कि ”ओहो मैने तो कल रात बाल्कनी से बाग को सींचा था” बस तब से ये रोज़ का रूटीन बन गया होगा। 
अब गडकरी चाहते हैं कि उनकी ये खोज जो है, वो पूरी दुनिया, या कम से कम पूरा देश तो माने ही माने। अब आप मानिये मत मानिये लेकिन ये खोज है बड़ी मार्के की, गडकरी जब मूत्र मंत्रालय के मंत्री का अतिरिक्त कार्यभार संभाल लेंगे तब आप देखिएगा पूरा देश मूत्र महात्मय गा रहा होगा। मूत्र पर शोध निबंध होंगे, शोध संस्थान होंगे, मूत्र पर अनुसंधान होंगे और गडकरी का मूत्र निर्यात किया जाएगा। वैसे भी जब से सरकार ने सत्ता संभाली है, ज्यादातर बात विष्ठा और मूत्र की ही हो रही है। पहले गौ मूत्र को पवित्र माना गया, और अब गडकरी के मूत्र के बारे में वही बातें हो रही हैं, हो ना हो, टी वी चैनलों पर गडकरी और बाकी नेताओं के मूत्र से पेड़-पौधों को सींचने वाले फोटो और वीडियो भी आने वाले होंगे। ये मोदी सरकार की अपूर्व उपलब्धि में गिनी जानी चाहिए। 
इसमें एक मामला और भी है, गडकरी का ये कदम, ये खोज, ”क्या इसे आविष्कार कहा जा सकता है”, मोदी सरकार के इससे पूर्व के फैसले के बिल्कुल विपरीत पड़ती है। मोदी सरकार ने जनता से वादा किया है हर घर में, घर-घर में, शौचालय बनवा दिया जाएगा ताकि हर व्यक्ति घर की घर में शौच जा सके। अब बताइए, लोग शौच करने घर ही चले जाएंगे तो लघुशंका करने खेत में कैसे और क्यूं जाएंगे। मेरा ख्याल है अब गडकरी की इस नयी खोज के बाद मोदी सरकार ये फैसला लेगी कि घर-घर में शौचालय नहीं बनेगा, बल्कि जितने भी घरों में शौचालय हैं, उन्हे भी तुड़वा दिया जाएगा ताकि लोग खेतों में जाकर लघुशंका और बाकी शंकाओं का निवारण कर सकें, और बेहतर फसलें ले सकें। 
अब विद्या बालन टी वी एड पर यूं कहते हुए नज़र आएंगी कि, ”अब तो आप घर में शौचालय बनवाओ ही मत, वैसे भी बहु खेत में लघुशंका निवारण करेगी तो अच्छी फसल होगी।” बताइए एक पूरा कैंपेन उल्टा चलेगा। पर उसमें अभी देर है, अभी तो अनुसंधान करके ये पता लगाना होगा कि ये जो विशेषता है वो सिर्फ गडकरी के मूत्र में है, भाजपा के महान नेताओं के मूत्र में है, या फिर साधारण मानव के साधारण मूत्र से भी पेड़-पौधे और फसलें बेहतर हो सकती हैं। जब तक सरकार ये फैसला करे, तब तक सांस रोक कर बैठिए, मोदी जी देश सेवा के लिए मूत्र विर्सजन का आवाह्न कर सकते हैं।

बुधवार, 6 मई 2015

विश्वास, मीडिया और जनता






इधर सुन रहे हैं कि भारतीय मीडिया को नेपाल की जनता ने बर्खास्त कर दिया है। ”नेशन वांटस् टू नो....” चीखने वाले नेशन को बता नहीं रहे हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि नेपाल की त्रस्त जनता ने भारतीय मीडिया से हाथ-पांव जोड़ कर पनाह मांगते हुए गुज़ारिश की है कि वो वापिस चले जाएं, और अपने ही देश की ऐसी-तैसी करें। भारतीय मीडिया ने हालांकि नेपाल में ऐसा कुछ खास गुनाह नहीं किया था, बस वही किया था जिसकी वो आदी है.....यानी जिसकी उसे आदत है। जर्बदस्ती की न्यूज़ बनाना, जो नहीं है उसे हाईलाइट करना, जो है उसे गायब कर देना, न्यूज़ के नाम पर काली मुर्गी के सफेद अंडे की, देवों के पैरों के निशान की, शंकर जी की पिंडी के दूध पीने की सेन्सेशनल, लेकिन बेअक्ल कहानियां परोसना, न्यूज़ के नाम पर ”कपिल ने किया शादी से इन्कार.....जैसे भौंडे तमाशे दिखाना। सारे प्राइम टाइम टी वी सीरियलों के टुकड़े दिखाना, भविष्य बांचने का काम करना, आदि आदि के अलावा.......पैसे लेकर न्यूज़ बनाना, न्यूज़ बनाकर ब्लैकमेल करना, रिश्वत खाना, चापलूसी करना, यौन शोषण करना, अव्वल दर्जे का जुआ चलाना, आदि आदि के अलावा......हर संवेदनशील घटना की संवेदना को इस हद तक निचोड़ना कि वो बेतुकी और असंवेदनशील लगने लगे, यू ट्यूब से वीडियो डाउनलोड करके, ”हमारे चैनल पे एक्सक्लूसिव देखिए” का शोर मचाना, बिन बात की खबर को, भोंडे और सेन्सेशनल टाइटल देकर भुनाना, आदि आदि के अलावा.....बिना किसी राजनीतिक समझ के रिपोर्टिंग करना, जहां राजनीतिक मुद्दा हो वहां अपनी अराजनीतिक, हास्यास्पद रिपोर्टिंग के ज़रिए मुद्दे को खत्म कर देना, गरीब-गुरबों की, राष्ट्रीय महत्व की खबरें ना दिखाकर, अमिताभ बच्चन के बेटे की शादी, उनकी बहू के बच्चे की खबर को राष्ट्रीय खबर बना देना, क्रिकेट जैसे फालतू के खेल को इतना महत्व देना कि किसी और खबर के लिए कोई जगह ही ना बचे आदि आदि। ये कुछ आदतें हैं भारतीय मीडिया की जो, चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से ना जाए वाली तर्ज़ पर भारतीय मीडिया की हैं।  
लोकतंत्र के इस स्वयंभू चौथे खंभे की हालत खुद भारतीय लोकतंत्र जैसी है, ना इसके पास कोई नैतिकता बची है और ना ही कोई मूल्य, ना कोई इसका विश्वास करता है और ना ही इसे खुद पर विश्वास है। ये मीडिया चैनल हफ्तावारी बाज़ारों की तरह अपने माल की खरीद के लिए चिल्लाते रहते हैं, अपने माल को बढ़िया, सस्ता बताते हुए ग्राहकों को लुभाने की कोशिश करते हैं, और अपने व्यवसाय को कोसते रहते हैं। जैसे ही मौका मिलता है अपनी जगह बेच कर सरक लेते हैं। नेपाल की त्रासदी में रवीश कुमार नहीं दिखे, वो होते तो.....सोचिए ज़रा। नेपाल के भूकम्प के बीच नेपाल की राजनीति का सतही तब्सरा भी होता, लोगों की हालत का आंखो देखा हाल भी सुनने को मिलता, थोड़ा नेचुरल सा, अनमेड सा, अंदाज़ होता। खैर.....
नेपाल के लोगों ने भारतीय मीडिया के भोंडेपन को बहुत जल्दी पहचान लिया, हम अभी तक असमंजस में हैं। कभी यही मीडिया हमें प्यारा लगता है, कभी यही मीडिया हमें निष्पक्ष लगता है। इतने दिनों की धोखेबाज़ी के बावजूद हम आज तक नहीं समझे कि भाइयों, ये मीडिया, भारतीय मीडिया, आपका मीडिया नहीं है। ये मीडिया बिका हुआ नहीं है, बल्कि ये मीडिया बिकना चाहता है, टुकड़े-टुकड़े ये मीडिया बिकता है। इसके मालिक, वो पूंजीपति जो इस देश की हर शै को बेच देने पर अमादा हैं, इस मीडिया को लगातार बेच रहे हैं। बड़े-बड़े सेठों की तिजोरी में बंद ये मीडिया कैसे निष्पक्ष हो सकता है, और क्यों होगा? नेपाल की त्रासदी हो, या उत्तराखंड की, इस मीडिया को बिकना है, बिकने के लिए ये अपने माल को आकर्षक पैकेज में पेश करना चाहता है, इसके लिए इसे बेशर्मी की किसी भी हद तक जाना पड़े ये जाता है। जानबूझ कर खुद ही स्टिंग करता है, मलबे के ढेर में मर रहे लोगों से पूछता है कि उन्हे कैसा महसूस हो रहा है, स्टूडियो में खूबसूरत एंकर से बुलवाता है कि, ”कहीं मत जाइएगा भूकम्प की ऐसी ही दिल दहला देने वाली तस्वीरें लेकर हम फिर आएंगे, एक कॉमर्शियल ब्रेक के बाद”
नेपाल के लोग बेचारे और क्या करते, यही कर सकते थे कि इन्हें कहें, कि बहुत बना लिया हमारा तमाशा, अब जाओ, जाओ और अपने ही देश के लोगों का तमाशा बनाओ, उन्हे आदत है, मुझे यकीन है कि अगर अब भी ये लोग नहीं सुधरे, वापस नहीं आए तो आगे नेपाली जनता इन्हे मारेगी। 


तो भारतीय मीडिया से मेरी अपील यही है कि हमारी, माने देश की ज्यादा बेइज्जती ना करवाएं और चुपचाप वापस आ जाएं। न्यूज़ चैनल पर चलाने के लिए बाबा जी की भविष्यवाणी और सास-बहू सीरियलों का बहुत मसाला अभी है, चिंता ना करें, बाकी खबरे यू ट्यूब से ही डाउनलोड करके दे दें, वो तुमसे ज्यादा ऑथेंटिक होती हैं। बाकी अगर खबर बनानी है, चलानी है तो विश्वास की चलाओ यार, कुमार विश्वास की, उसमें मसाला है, मस्ती है, मजा है। चाहो तो लड़की का पुराना फोटो भी दिखा दो, अभी कोई केस तो है नहीं कि कोई कह सके कि पीड़िता का फोटो नहीं दिखाया जा सकता। कुमार विश्वास से ना सही तो ऐसे ही सड़क पर टहलती कुछ लड़कियों से पूछा जा सकता है कि उनका इस मामले पर क्या विचार है, और फिर, ”देखा आपने, इनका कहना है कि .....” के बाद फिर से कुछ बेकार के जुमले, फिर किसी को पकड़ लीजिए। 
ना लड़की मीडिया को कुछ कह रही है, ना विश्वास कह रहे हैं और केजरीवाल ने तो कह दिया है कि वो इस मामले में कुछ नहीं बोलेंगे। हालांकि बोलने के लिए उनके पास कुछ बचा भी नहीं है। सत्ता में आने से पहले गज भर लंबे दावे करने के बाद वो पहले ही कह चुके हैं कि वो उन सभी वादों को पूरा नहीं कर सकते। और ये कहकर वो साबित कर चुके हैं कि उनमें और किसी भी और सामान्य राजनीतिक पार्टी में कोई फर्क नहीं है, बाकी रही-सही कसर, विश्वास कुमार ने, तोमर ने और बस्सी ने पूरी कर दी। अब आ आ पा अपने पूरे जलाल पर है, कहीं इंजीनियरों को मार रहे हैं, कहीं सैक्स स्कैंडल में फंसे हैं, कहीं असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए हैं, कहीं टीवी पर रोआ-राटा मचा रखा है, अब बस भ्रष्टाचार का कोई मामला आना बाकी है, और जैसे इनके करम दिखाई दे रहे हैं उसमें देर सिर्फ इसलिए लग रही है कि पार्टी को सत्ता में आए अभी दिन ही कितने हुए हैं। 
विश्वास कुमार के लच्छन पहले से ही जनता को दिखाई दे रहे थे, उनका पूरा कविकर्म कोई लड़की मिल जाए, की सद्च्छिा पर टिका हुआ है। उनका हास्य, महिलाओं का अपमान होता है, उनकी कविता महिलाओं का संसर्ग, यहां से वो पहुंचे आ आ पा की राजनीति में, अब आप मुझे बताइए कि ऐसे व्यक्ति से किसी भी तरह की गंभीर राजनीति की उम्मीद करके गलती किसने की, आ आ पा ने, आप ने या विश्वास कुमार ने.....? 
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि विश्वास कुमार ने किसी स्वयंसेविका के साथ संबंध बनाए होंगे, और ये भी हो सकता है कि वो पकड़े भी गए हों। लेकिन अब जो मामला हो रहा है वो समझ नहीं आ रहा। मीडिया स्वयंभू चरित्रवान, मूल्यवान बिचौलिया बना विश्वास कुमार के अविश्वास की दुहाई दे रहा है, और बाकी राजनीतिक पार्टियां अपनी रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं। 
समझ तो ये भी नहीं आ रहा कि कोई महिला, चाहे उसने संबंध बनाए हों या ना बनाए हों, महिला अधिकारों की संस्था को पत्र देकर ये क्यूं कहेगी कि मेरा कोई संबंध नहीं था, लेकिन कुमार विश्वास ये कहें कि कोई संबंध नहीं था, और ना सिर्फ वो कहें बल्कि उनकी पत्नि भी ये बयान दे। इधर विश्वास कुमार ऐसा कोई भी बयान देने को तैयार नहीं हैं, एक तो लड़की की मांग, उपर से विश्वास कुमार की ज़िद। अरे भई अगर कोई लड़की कह रही है कि मेरा कोई संबंध आपसे नहीं है आप ये कह दीजिए, तो आपको ऐतराज़ क्या है। लेकिन ”कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है” जैसी अमर कविता के रचियता ये कैसे कह दें। समझ नहीं आता कि मामला क्या है। उपर से मीडिया, मसाला मीडिया, मस्त मीडिया, लगी हुई है, कैमरा क्लोज़ विश्वास कुमार, एंकर की आवाज़ ”आप नेता कुमार विश्वास चुप्पी साधे हुए हैं, क्या है इस चुप्पी का राज़ देखते रहिए ”हमारा चैनल”” स्क्रीन पर किसी लड़की धुधली तस्वीर, फिर कुछ लड़कियों के बीच, जिन्होने आप की स्वराज वाली टोपी पहन रखी है एक स्मोगी चेहरे की तस्वीर, एंकर की आवाज़ ”क्या आप नेता कुमार विश्वास के आप की वालंटियर के साथ अवैध संबंध थे, देखते रहिए ”हमारा चैनल”” और जनता.....।
जनता मुहं बाए देख रही है, तमाशा, ऐसा तमाशा जिसका जनता से असल में कुछ लेना-देना नहीं है। एक तरह भाजपा ने तुरुप का पत्ता हथिया लिया है, कुमार विश्वास की इस हरकत या ना-हरकत के पीछे भाजपा पड़ गई है, याद रखिएगा, ये वही पार्टी है जिसके नेता दिन-रात महिलाओं की बेइज्जती करते हैं, जिसके योगियों को रेप के आरोप में सज़ा हो चुकी है, जिसके नेताओं के अपने किस्से चटखारे लेकर संसद के गलियारों में सुनाए जाते रहे हैं। या कांग्रेस जो ऐसे ना जाने कितने किस्सों को अपने पेट में दबाए, हंसती रही है। याद ना हो तो सिर्फ नारायण दत्त तिवारी को याद कर लीजिए। गरज़ ये हम्माम में सभी नंगे हैं, नये नंगों की नंगई अब सामने आ रही है, और खुद नंगे ही नंगों का तमाशा बना रहे हैं, और कैमरा लेकर उनके पीछे नंगों की जमात पड़ी हुई है। भारतीय जनता ये तमाशा देखे जा रही है.....देखे जा रही है.....बस देखे जा रही है।

चाय



”निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन जाने के दो रास्ते हैं” बाइक रोकते हुए वो बोला, ”एक तो नीले गुम्बद से भोगल की तरफ जाते हुए बीच में कटता है....”
”....माने यहीं से...” वो बोली
” हां हां.....बस यहां से आगे की तरफ जाएंगे तो जो गोलचक्कर पड़ता है....वहां से सीधा जाना है.....और....एक पुल है.....नईं...पहले एक मॉन्यूमेंट है....वो....खान-ए-खाना टॉम्ब.....”
”बारापुला की तरफ जो रास्ता कट रहा है....” ऑटो वाले ने कहा।
”हां....वहीं”
”थैंक यू...”
ऑटो स्टार्ट हुआ और चला गया....उसने कमीज़ की उपर वाली जेब से सिगरेट निकाली....सुलगाई और फिर बाइक आगे बढ़ा दी। उसे बाइक चलाते हुए सिगरेट पीना अच्छा लगता है, अभी एक मीटिंग से आया था और आगे दूसरी मीटिंग में जा रहा था। मौसम बहुत अच्छा था, बदन पर हवा लग रही थी और बाइक ऐसे चल रही थी जैसे वो हवा पर सवार हो, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वो अपनी जिंदगी में मस्त था। 
बहुत कम लोगों को अपनी इच्छा का काम मिलता है। जबसे वो दिल्ली आया था तबसे उसे कभी काम की, अपनी इच्छा के काम की कमी नहीं हुई थी, या यूं हो सकता है कि वो जो भी करता था उसी में अपनी खुशी ढूंढ लेता था। कम्पनी के मालिकान उसके काम से खुश थे, वो कम्पनी से, अपनी सैलरी से, और अपनी जिंदगी से खुश था। 
थोड़ा आगे बढ़ा तो देखा कि सड़क के किनारे भीड़ जमा है। अमूमन ऐसी भीड़ देखकर वो रुकता नहीं है। ये दिल्ली का कल्चर है, कोई दुर्घटना हो जाए तो कोई रुकता नहीं है, हालांकि हर दुर्घटना पर भीड़ जमा होती ही है। वो कुछ कर तो सकता नहीं, और यंू ही चाटिल लोगों को देखना उसके शौक में शुमार नहीं है, लेकिन फिर उसे हरे रंग का कुर्ता दिखाई दिया और वो ऑटो वाला......उसने पीछे की तरफ देखा और बाइक को डिवाइडर की तरफ लगा कर रोक दिया। गौर से देखा तो लगा कि ये वही ऑटो है जिसमें बैठी लड़की ने उससे निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन का पता पूछा था। बहुत सावधानी से बाइक को सड़क के किनारे की तरफ किया और फिर बाइक को स्टैंड पर लगा कर वो भी भीड़ में शामिल हो गया। जाने कैसे ऑटो एक तरफ पलट गया था। ड्राइवर को थोड़ी-बहुत खराश आई थी लेकिन, लड़की की हालत खराब थी। उसका उपरला होंठ कट गया था और उससे खून बह रहा था जिसे वो अपने रूमाल से रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी। 
वो चाहता तो नहीं था, पर जाने क्यों थोड़ा आगे बढ़ आया, जैसे.....जैसे वो लड़की को जानता हो। लड़की ने उसकी तरफ देखा और अनजाने की उसके चेहरे पर भी पहचान लेने जैसा भाव आया। बाकी लोगांे ने उसे देखा और उनके चेहरे पर भी कुछ ऐसा भाव आया जैसे.......जैसे ”चलो भई तमाशा खत्म हुआ....”लड़की के कपड़ों का आगे वाला हिस्सा पूरी तरफ खून से लथपथ था, जैसे......जैसे किसी ने बाल्टी भरके खून उसके कपड़ों पर डाल दिया हो। लेकिन बहुत ही बहादुर लड़की थी, अब भी खुद को संभाले हुए थी.....
”स्कूटर चल रहा है.....” उसने थ्रीव्हीलर वाले से पूछा। थ्रीव्हीलर वाले ने एक नज़र अपने थ्रीव्हीलर को देखा फिर कुछ सोच कर कंधे उचका दिए।
”मुझे लगता है कि......कि तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा.....”
लड़की ने कुछ कहने की कोशिश में अपने चेहरे से रुमाल हटाया तो खून बह निकला.....उसने कुछ कहे बिना वापस अपने होठों पर रुमाल लगा लिया और इस्बात में सिर हिलाया। उसने लड़की का बैग गिरे हुए ऑटो में से उठा लिया और उसकी कोहनी को पकड़ कर अपनी बाइक की तरफ इशारा किया। लड़की उसके साथ चल दी। 
उसके ऑफिस के पास ही एक क्लीनिक था। वो खुद कभी उसे क्लीनिक में नहीं गया था, लेकिन उसके ऑफिस के कुछ लोगों के हिसाब से अच्छा क्लीनिक था। प्राइवेट था, डॉक्टर ने लड़की को एक नज़र देखा, और नर्स को इशारा किया, जो लड़की को एक छोटे से पार्टीशन के पीछे ले गई। वहां उसे लड़की की सिसकियां सुनाई दे रही थीं।
”क्या हुआ....” डॉक्टर ने पूछा
”पता नहीं.....ऑटो में जा रही थी....यहीं पास में एक्सीडेंट हो गया......” उसने कहा
”और तुम.....” 
”मैं तो वहां से गुज़र रहा था बस.....वहां भीड़ लगी हुई थी....कोई कुछ कर तो रहा नहीं था....तो मुझे लगा....इतना खून बह रहा था कि.....”
”हममम्.....” डॉक्टर उठा और खुद भी पार्टीशन के पीछे चला गया। ”यहां आओ....”डॉक्टर ने पार्टीशन के पीछे से ही आवाज़ दी।
वो भी उठ कर पार्टीशन के पीछे गया। वहां एक बेड जैसा लगा था, जिस पर सफेद चादर बिछी थी। पास में कुछ डॉक्टरी मशीने पड़ी हुई थी और एक स्टील के टेढ़े से बर्तन में खून सनी रुई के बहुत सारे फाहे पड़े हुए थे। 
”टांके लगाने पड़ेंगे....” डॉक्टर ने उसे देखते हुए कहा।
उसने लड़की की तरफ देखा। लड़की ने सिर हिलाया। 
”ठीक है” उसने कहा।
खून रुक चुका था और लड़की का उपरला होंठ साफ कटा नज़र आ रहा था। 
”बाकी सब ठीक हो जाएगा.....लेकिन निशान रह जाएगा।”
लड़की ने फिर सिर हिलाया। 
”ठीक है” उसने फिर कहा।
”दर्द हो रहा है” डॉक्टर ने इस बार लड़की से पूछा।
लड़की ने फिर इस्बात में सिर हिलाया। 
”ठीक है.....मैं कुछ पेन किलर दे दूंगा......” डॉक्टर ने उसकी तरफ इशारा किया, वो इशारे का मतलब तो नहीं समझा लेकिन बाहर आ गया। 
नर्स ने उसे एक पर्ची थमा दी। 1150 रुपये की पर्ची थी। ये तो अच्छा था कि आज उसके पास पैसे थे। उसने पर्ची को मोड़ कर अपने पर्स में रखा और 1200 रुपये निकाल कर नर्स को दिए। नर्स ने उसे पचास का नोट वापस कर दिया। वो थोड़ी देर बाहर बैठा रहा। कुछ देर बाद डॉक्टर और लड़की भी पार्टीशन से बाहर आ गए। लड़की के मुंह पर पट्टी बंधी थी।
”चोट तेज़ लगी है, चेहरे पर सूजन आएगी......लेकिन दो तीन दिन में खत्म हो जाएगी। बाकी कुछ दिन......एक हफ्ता तो लिक्विड डाइट ही लेनी होगी.....ये कुछ दवाइयां दे रहा हूं......इनसे काम हो जाना चाहिए। एक हफ्ते बाद पट्टी उतरवाने और टांके कटवाने आ जाना.....”
”लेकिन....” उसने कहना चाहा....अचानक उसे याद आया कि वो तो निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन का पता पूछ रही थी। 
”क्या हुआ” डॉक्टर अपने छपे हुए लैटरहेड पर कुछ लिख रहा था। 
लड़की ने उसकी तरफ देखा तो उसे लगा कि वो उसे कुछ कह रही है शायद......शायद कह रही है कि चुप रहो। 
”कुछ नहीं....” डॉक्टर ने नर्स की तरफ देखा। नर्स ने इशारा किया और डॉक्टर ने लैटरहेड उसके हवाले कर दिया। 
वो लड़की का सामान लेकर बाहर आ गया। थोड़ी देर अनिश्चित सा खड़ा रहा फिर लड़की को लेकर अपने ऑफिस आ गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। अब तक उसने जो किया था वो भी जाने क्या सोच कर किया था। लेकिन अब......
”अब....” उसने लड़की से पूछा।
लड़की ने उसकी तरफ देखा। वो बोल नहीं सकती थी, सूजन उसके चेहरे पर साफ दिखने लगी थी, और उसकी आंखों में आंसू भी थे। 
”आप.....चाहें तो मैं आपको रेलवे स्टेशन छोड़ सकता हूं।”
लड़की ने फिर उसकी तरफ देखा, आंखों में अब भी आंसू थे। वो असमंजस में पड़ गया। आखिर वो कर ही क्या सकता था, वो खुद अकेला रहता था, एक कमरा, ज्वाइंट टॉयलेट, और किचेन, हल्का थोड़ा सामान। आखिर वो इस अनजानी लड़की को कहां रखता, कोई लड़का होता तो उसे फिर भी अपने पास रखा जा सकता था। उसने एक गहरी सांस ली.....
”चलिए.....” वो बोला।
लड़की उठ कर खड़ी हो गई। वो लड़की और उसके एक बैग के साथ ऑफिस से बाहर आ गया। 
”मैं पास ही रहता हॅू, अकेला रहता हूं......अगर आपको कोई एतराज़ ना हो तो आप मेरे साथ रह सकती हैं.......अगर....अगर आपको कोई एतराज़ ना हो तो.....या अगर आप चाहें तो मुझे बता दें......मैं आपको कहीं.....मेरा मतलब किसी होटल में......”
लड़की ने इन्कार में सिर हिलाया।
”तो फिर मेरे ही घर चलिए.....” उसने कहा और मोटरसाइकिल की तरफ बढ़ गया। 
उसका कमरा दूसरी मंजिल पर था। मालिक मकान बहुत ही व्यस्त आदमी था। उसने अपनी बड़ी जमीन पर इस तरह घर बनाए थे कि ज्यादातर घरों के किराए से ही ना सिर्फ जिंदगी चला रहा था बल्कि और घर खरीद रहा था। यानी वो जब अपने घर पहुंचा तो नीचे तांक-झांक करने वाला कोई नहीं था। उसने ताला खोला और अंदर आकर लाइट जला दी। अभी दो ही दिन पहले कमरे की सफाई की थी, इसलिए कमरा कुछ सलीके वाला लग रहा था। 
लड़की भी सकुचाते हुए अंदर आ गई। उसने लड़की का बैग एक तरफ रख दिया। ”आप.....आप बेड पर बैठ जाइए....मैं....यहां....नीचे बैठ जाउंगा।” उसे पहली बार लगा कि घर में छोटे-मोटे फर्नीचर का क्या महत्व हो सकता है। 
लड़की बेड पर बैठ गई तो उसे याद आया पानी.....वो झटके से उठा और रसोई में जाकर मटके में से एक गिलास पानी निकाल लाया। मटका भी उसने कुछ 10-12 दिन पहले ही खरीदा था। 
लड़की ने पानी लिया और थोड़ी मुश्किल के साथ पी लिया। 
”आप कुछ खाएंगी.....मेरा मतलब है कुछ जूस वगैरहा.....माने रात का खाना तो बाद में हो जाएगा....यहीं पास में ढ़ाबा है.....तो.....आपके लिए भी कुछ ना कुछ हो जाएगा।” वो थोड़ा असहज था। उसके कमरे में पहली बार कोई लड़की आई थी। 
वो बैठ गया.....लड़की बेड पर थोड़ा सा पसर गई थी।
”आप ऐसा कीजिए कि....हाथ मुंह धो लीजिए.....फिर थोड़ा आराम कर लीजिए।” उसने कहा। ”बाथरूम यहां है....” इस रूम की ये सुविधा उसे सबसे ज्यादा पसंद थी। बाथरूम अटैच्ड था। 
लड़की ने अपने बैग में से कुछ कपड़े निकाले और बाथरूम में चली गई। 
”बताओ.....मैं इसका नाम तक नहीं जानता....और....पता नहीं कौन है।” वो पानी का गिलास उठाकर किचन में चला गया। ”चाय बनानी चाहिए” लेकिन उसके लिए दूध लाना पड़ेगा। गर्मियों में दूध खराब हो जाता है, इसलिए वो दूध खत्म करके ऑफिस जाता है। 
”मैं ज़रा दूध लेने बाहर जा रहा हूं.....आपकी दवाइयां भी लेता आउंगा...” बाथरूम से कोई जवाब नहीं आया। वो बाहर निकला, तो एक पल के ठिठका.....दरवाजा बाहर से बंद करना चाहिए या नहीं.....थोड़ी देर सोचने के बाद उसने दरवाजे को खुला छोड़ने का फैसला किया और चला गया।
वो पास वाली दुकान से एक सिगरेट का पैकेट, दूध, ब्रेड-अंडे और बिस्किट लाया। दरवाजा खोला तो देखा कि वो सो रही थी। शायद डॉक्टर की दवा का असर था। उसने अपने लिए चाय बनाई और एक चादर बिछा कर वो फर्श पर ही लेट गया। थोड़ी देर तक वो एक किताब पढ़ता रहा, फिर उसे भी नींद आ गई। 
जब उसकी आंख खुली तो बाहर अंधेरा था। पता नहीं वो कितनी देर तक सोता रहा था। उसने मोबाइल पर टाइम देखा, सवा बारह हो रहे थे। सोती हुई लड़की हमवार आवाज़ उसे सुनाई दे रही थी। वो उठा और दबे पांव रसोई में चला गया, उसे भूख नहीं लगी थी, सिर्फ ये था कि रात का खाना नहीं खाया था। उसने बची हुई चाय गर्म की और चार बिस्कुटों को दो ब्रेड के बीच में रख कर वहीं खड़े होकर अपना वो बिस्किट सैंडविच और चाय खत्म की और फिर बाहर आकर लेट गया। लड़की आराम से सो रही थी, उसे जगाने का क्या फायदा था, यही सोच कर वो फिर सो गया। 
सुबह जब उसकी आंख खुली तो लड़की अपने कपड़े तह कर रही थी। वो उठा तो लड़की ने उसकी तरफ देखा। लड़की के बाल गीले थे, यानी वो नहा भी चुकी थी। 
”आप.....आप चाय पिएंगी.....।” उसे सुबह उठने के बाद चाय की तलब लगती थी। 
लड़की ने सिर हिला दिया। वो रसोई में गया और रात के बर्तन मांज कर उसने चाय चढ़ा दी। अभी कोई खास समय नहीं हुआ था, उसने रसोई से बाहर देखा, बाल्कनी में पेपर पड़ा हुआ था। वो बाहर गया और अपना पेपर उठा लाया। लड़की ने कपड़े तह करके बैग में रख लिए थे और अब अपने गीले बालों को सुखा रही थी। बैग उसने बेड पर ऐसे रखा था जैसे वो वहां से जाने को तैयार हो। 
”आप रात में सो रही थीं, तो मैने डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा....इसलिए डिनर के लिए नहीं उठाया.....मैं अभी आमलेट बना देता हूं.....नाश्ता के लिए....” लड़की ने अपने गीले बाल अपनी चुन्नी से बांधे और उठ कर रसोई में चली गई। 
वो हड़बड़ा कर उठा। 
”आप बैठिए.....मैं बनाता हूं ना”
लड़की ने अस्पष्ट सा कुछ कहा, जिसका मतलब शायद ये था कि वो खुद भी बनाना जानती है और बना लेगी। वो एक पल के लिए हिचका, फिर बिना कुछ सोचे पेपर लिए बाथरूम में चला गया। 
उसे बाथरूम में थोड़ी देर लगती है। जब वो निकला तो उसकी चाय बेड के पास रखी थी। 
”आप....” उसने लड़की की तरफ देखा, फिर झेंप गया, लड़की की नाक के नीचे होंठ पर सर्जीकल टेप लगा हुआ था और मुुंह सूजा हुआ था। उसने एक दो सिप चाय के लिए.....कमाल चाय थी। उसने बहुत कोशिश की लेकिन आज तक वो अच्छी चाय नहीं बना पाया था। वो कुछ सोच कर उठा और बाहर चला गया। नीचे जाकर उसने दुकान से दो जूस के पैकेट खरीदे और कुछ स्ट्रा लीं, और वापिस आ गया। 
उसने रसोई में जाकर जूस को एक गिलास में डाला और स्ट्रा के साथ लड़की को दिया। लड़की कृतज्ञतापूर्वक मुस्कुराई और गिलास ले लिया।
”कल आप ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन जा रही थीं.....कहां के लिए.....?”
लड़की फिर कुछ अस्पष्ट सा बोली जिससे उसे यही समझ आया कि वो किसी ”.....बाद” जा रही थी। 
”वहां फैमिली रहती है आपकी...?” उसने पूछा
लड़की ने हां में सिर हिलाया।
”आप चाहें तो मैं उन्हे फोन कर दूं....” पता नहीं क्यों उसे कल इस बात का ख्याल ही नहीं आया था। लेकिन लड़की ने भी तो ऐसा कुछ नहीं कहा था। 
लड़की ने जूस का गिलास नीचे रख दिया और एकटक उसकी तरफ देखा। वैसे ये भी कमाल था कि इस दौर में जहां रिक्शा चलाने वालों के पास तक मोबाइल होता है, उसके पास मोबाइल नहीं था। 
उसने अपना मोबाइल निकाला लड़की की तरफ बढ़ा दिया। लड़की मोबाइल हाथ में लेकर कुछ सोचती रही, फिर एक नंबर डायल किया, फिर कुछ देर मोबाइल हाथ में लेकर सोचा और फिर एक कागज़ का पुर्जा निकाल कर उस पर कुछ लिखा और पुर्जा और मोबाइल दोनो उसकी तरफ बढ़ा दिए।
पुर्जे पर लिखा था ”शम्मी आंटी”
उसने मोबाइल लिया और कॉल कनेक्ट की। जाहिर था कि ये शम्मी आंटी का फोन था और उसे उनसे बात करनी थी।
”कौन”
”जी....मैं दिल्ली से बोल रहा हूं.....आप शम्मी आंटी बोल रही हैं।” तब उसे याद आया कि उसे तो लड़की का नाम तक नहीं पता था आखिर वो बताता क्या....?
”आपका नाम क्या है....” उसने फोन कान से हटाकर पूछा.....लड़की ने फिर कुछ बोलने की कोशिश की, उसने कागज़ का पुर्जा लड़की की तरफ बढ़ा दिया। लड़की ने उस पर अपना नाम लिखा और फिर उसकी तरफ बढ़ा दिया। ”हिना” उस लड़की का नाम था। 
”जी हां....शम्मी बोल रही हूं।” औरत की आवाज़ में आशंका थी।
”वो....बात ये है कि हिना जी कल निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन जा रही थीं कि उनका एक्सीडेंट हो गया......नहीं, नहीं....बिल्कुल ठीक हैं.....बस उपरले होंठ पर चोट है..... जी हां.....डॉक्टर को दिखा दिया है......हां....थोड़ी सूजन है चेहरे पर इसलिए बात नहीं कर  पा रही हैं.....जी....जी....पर.....”
उसने फोन हिना की तरफ बढ़ा दिया, शम्मी आंटी उससे बात करने की ज़िद कर रही थीं। हिना ने फोन लिया लेकिन वो थोड़ा बहुत अस्पष्ट से तरीके से बात करने के अलावा कुछ नहीं कर पाई। उसने फोन फिर से उसे थमा दिया।
”जी....”
शम्मी आंटी ने सवालों की बौछार कर दी। वो कौन है, कहां रहता है, हिना को कैसे जानता है, चोट कितनी लगी है, डॉक्टर ने क्या कहा.....आदि आदि। जो एक बात नहीं कही, वो ये कि वो दिल्ली आ रही हैं। उसे थोड़ा अचरज तो हुआ, लेकिन वो चुप रहा। उसके ऑफिस जाने का समय हो रहा था। 
हिना को सबकुछ समझा कर, और उसके लिए दलिया बनाकर वो ऑफिस चला गया। ऑफिस में काम कुछ खास नहीं था और उसका मन भी नहीं लग रहा था। तो लंच के बाद वो वापिस घर चला आया। 
हिना सो रही थी, शायद दवाई का असर था। उसके चेहरे की सूजन थोड़ी कम थी। उसने कुछ बात करने की कोशिश की तो पता चला कि वो लखनउ की है, और दिल्ली किसी इंटरव्यू के लिए आई थी। किसी रिश्तेदार ने यहां का पता दिया था। हिना के मां-पिता मर चुके थे और पिछले तीन साल से वो अपने मामा के यहां रह रही थी। अब पढ़ाई खत्म करने के बाद किसी रिश्तेदार के ज़रिए नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ा होने की ज़रूरत उसे दिल्ली ले आई थी। 
शाम हो चुकी थी और उसे कुछ भूख भी लगी थी। वो चाय बनाने के लिए उठा तो उसने हिना से भी चाय के लिए भी पूछा। हिना ने चाय पीने से तो इन्कार किया लेकिन चाय बनाने के लिए उठ गई, वो लगातार मना करता रहा, लेकिन हिना नहीं मानी, फिर उसे लगा कि अपने हाथ की खराब चाय पीने से बेहतर है कि हिना के हाथों की अच्छी चाय पी ली जाए। वो नीचे जाकर उसके लिए जूस ले आया, उसने अच्छी चाय पी और हिना ने जूस पिया। फिर वो बातें करते रहे, वो अपने बारे में बताता रहा और हिना सुनती रही। बीच में उसने उठ कर हिना के लिए दलिया बना दिया। 
हिना उसके साथ तीन दिन तक रही, और उनमें कुछ ज्यादा बातें नहीं हुईं, पहले तो इसलिए कि वो कुछ बोल नहीं सकती थी, और फिर शायद इसलिए कि ज़रूरत ही नहीं थी। जब वो गई तो उसकी बहुत शुक्रगुज़ार थी, उसने हिना के लिए अपने ऑफिस के ट्रैवल एजेंट से कहकर टिकट रिजर्व करवा दिया था। शम्मी आंटी को उसके आने की खबर भी दे दी थी, और हिना को बता दिया था कि अगर उसे दिल्ली में अपनी नौकरी के बारे में या किसी और चीज़ के बार में जानने की जरूरत हो तो वो उसे फोन कर सकती है। वो हिना को छोड़ने निजामुद्दीन गया और उसने एहतियात से हिना को सीट पर बैठा दिया। थोड़ी देर तक वहीं बैठ कर वो प्लेटफार्म पर आ गया। जब ट्रेन चल पड़ी तो वो बाहर निकल गया और थोड़ी देर तक वहीं टहलता रहा। फिर घर आ गया। रसोई में जाकर अपने लिए चाय बनाई, खराब चाय, और उसे चुसकता हुआ बेड पर आ गया। 

महामानव-डोलांड और पुतिन का तेल

 तो भाई दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन इन जलकुकड़े, प्रगतिशीलों को महामानव के सिवा और कुछ नहीं दिखाई देता। मुझे तो लगता है कि इसी प्रे...