सोमवार, 25 मई 2015

एक लोटे की आत्मकथा - 3


भाग-3
इसके बाद मेरे उपर से मनों गंदगी गुज़री, किसी ने मेरी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा, हाँ कुछ लोगों ने मेरे उपर थँूका ज़रूर, शुक्र है कि कोई पयजामा उपर करके मेरे उपर लघुशँका निवारण करने नहीं बैठा क्योंकि गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ये देश एक विशालतम मूतरी है जिसमें लोग जब चाहें जहॉं चाहें, पजामें का पैचन उपर करके बैठ जाते हैं, और अपनी छोटी-बड़ी सभी सम्सयाओं का समाधान कर लेते हैं। लेकिन ये मेरी कहानी का अंत नहीं है, क्योंकि एक दिन शहर में ज़बरदस्त सफाई अभियान चला, जिसमें पूरे शहर की सफाई की गई। उसी दौरान सौभाग्य से उस नाली की भी सफाई की गई, और मुझे भी मानों गंदगी के साथ निकाल लिया गया । मुझे निकालने वाले ने फौरन पहचाना हो ऐसा नहीं लगता, क्योंकि काफ़ी दिन मैं सड़क के किनारे पड़ा सूखता रहा और किसी ने मुझ पर कोई ध्यान नहीं दिया, फिर जिसने मुझे निकाला था उसी ने मुझे उठाया, धोया और अपने घर ले गया, और यहीं से मेरे जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ, मेरे नये मालिक का नाम नसीरूद्दीन अंसारी था......
यहाँ से मेरे जीवन का वो हिस्सा शुरू होता है जिसे मैं अपने जीवन का उजला हिस्सा समझता हँू, ये मेरा पर्सनल रिनासा था, नसीरूद्दीन शहर का कर्मचारी था, लेकिन वो सिर्फ सफाई कर्मचारी ही नहीं था, वो एक क्रांतिकारी मजदूर यूनियन का गरजदार नेता भी था, मुझे तो आश्चर्य होता था कि वो आदमी दिन में शहर की नालियाँ साफ़ करके आता है और रात को अपने दोस्तों के साथ बैठकर किसी लेनिन और माकर््स की किताब  पढ़ता था, और ज़ोरदार बहस करता था ।
वहीं मुझे पहली बार क्लास, डीक्लास और संघर्ष के असली कारणों का पता चला, पता नहीं आपने माकर््स को पढ़ा है या नहीं पर मैं तो उसके बारे में ही सुन कर उन पर फिदा हो गया, वो क्या नारा है ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिये सिर्फ़ अपनी बेड़ियाँ हैं लेकिन पाने के लिए सारी दुनिया है‘‘...वाह, वाह, वाह मान गये सर जी, मान गये कमाल कर दित्ता, मैं बलिहारी जाऊँ, इस एक नारे पर सारा जीवन कुरबान ।
लेकिन बात मेरे नये घर की और उसके मालिक की थी, तो आम घर था, बस यहाँ किताबें बहुत ज़्यादा थी। जो भी आता था, यहाँ आकर कुछ पढ़ने लगता था। घर सबके लिए खुला था, कोई रात को 2 बजे आ रहा है तो कोई सुबह चार बजे चला आ रहा है...किसी का कोई ठिकाना नहीं था। जिसकी मर्ज़ी हो किचन में जाकर चाय बना लाता था, और सबसे बड़ी बात ये थी कि वहाँ हँसने वालों की कमी नहीं थी...सबसे बड़ी बात ये थी कि वहाँ सब आज़ाद थे। यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है, यहाँ मुझे पहली बार ये भी पता चला कि आखिर मेरे कितने तरह के इस्तेमाल हो सकते हैं। लोगों ने मुझे चाय पीने, चाय बनाने से लेकर दाल-सब्ज़ी बनाने तक में इस्तेमाल किया, और ऐसा मैं किसी नाराज़गी के साथ नहीं कह रहा, असल में वहाँ का माहौल ही ऐसा था कि खुद ही लगता था कि किसी भी तरह इस लड़ाई में शामिल हो जाऊँ, कुछ तो करूँ, सच कहूँ मुझे अपने इस मालिक से भी प्यार हो गया था, वो कहता था कि खुदा अगर कहीं है तो इस दुनिया को उसने नहीं बनाया हो सकता, ये तो किसी शैतान का काम लगता है, वरना तो दुनिया खूबसूरत और उजास होती, मजदूर को उसका पूरा हक मिलता, और किसी को भी सताया नहीं जाता.....
वो लोग एक दूसरे को कॉमरेड कहते थे, मुझे नहीं पता कि इसका क्या मतलब होता है, लेकिन इतना अच्छा लगता था कि अगर आपकी इजाज़त हो तो मैं भी सिर्फ़ एक बार ,अपने नाम के आगे कॉमरेड लगा लूँ...बड़ा मन कर रहा है, कॉमरेड लोटा...वाह, वाह, मज़ा आ गया। मैनेें उस घर में बहुत कुछ सीखा...प्रेम, दोस्ती, संघर्ष, ईमानदारी और वो सारी चीज़ें जो इंसान बनने के लिये ज़रूरी होती हैं, नसीरूद्दीन को भी प्रेम था, कतई अजीब किस्म का प्रेम था। उसकी एक कॉमरेड और वो एक दूसरे को पसंद करते थे, लेकिन ये अजीब किस्म का इश्क था, लगता था कि दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं लेकिन फिर दोनों एक-दूसरे से इतनी बहस करते थे कि ताज्जुब होता था कि वो दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। वो दोनों एक-दूसरे के साथ मरने की कसम नहीं खाते थे, बल्कि साथ-साथ जीने के मनसूबे बनाते थे। अब आप ही बतायें, ऐसे किसी आदमी से आपको प्यार नहीं हो जायेगा।  मुझे उन सब से प्यार हो गया था, कॉम. गोपी, कॉम. नाथू, कॉम. उत्पल, कॉम. प्रिया, कॉम. नीरू, कॉम. नाज़िया, कॉम. रियाज़....कितने नाम गिनाऊँ, उन लोगों ने मुझे नीचे से काला कर दिया था, लेकिन उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, उन्होंने मुझ पर बेइंतिहाँ खरोंचें लगा दी थीं, लेकिन उससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे लगता था कि मेरे जीवन का मकसद पूरा हो गया है और मैं अब वहीं रहूँगा (ठंडी साँस)...लेकिन ऐसा नहीं था । उसे मार दिया, उसके कॉमरेड दोस्तों ने कहा कि वो शहीद हुआ है। लेकिन मैं कहता हूँ कि उसकी हत्या हुई है । मैनें अपनी आँखों से देखा, उसे दिन-दहाड़े, बड़ी बेरहमी से गोली मारी गयी। आपको तो याद होगा, आप अख़बार पढ़ते ही हैं, आपको याद होगा किस तरह पुलिस ने कुछ ‘खूँख़ार‘ आतंकवादियों को मुठभेड़ मंे मार गिराया था, जिसके लिये पुलिस को बाकायदा मेडल भी मिले थे, उन्हीं खूँखार आतंकवादियोें में से एक मेरा मालिक कॉमरेड नसीरूद्दीन अंसारी भी था । 
उस दिन शनिवार था, ये मुझे इसलिये पता है क्यांेकि शनिवार को कॉम. नसरू की छुट्टी रहती थी और वो अपने बाकी कॅाम. दोस्तों के साथ कोई किताब पढ़कर उस पर बहस करते थे, उस दिन वो किसी माओ नाम के शख़्स की किताब पढ़ने वाले थे, तीन लोग आ चुके थे और बाकी आने वाले थे। मैं गैस के पास बैठा जुटने और फिर किताबें पढ़े जाने का इंतज़ार कर रहा था। कॉम. नसीम ने मुझे पानी पीने के लिये इस्तेमाल किया और फिर खिड़की पर रख दिया। वहीं से थोड़ी देर बाद मुझे दिखा कि कुछ पुलिस वाले ऊपर आ रहे हैं, मुझे दाल में कुछ काला लगा, लेकिन उन लोगों की बेफ़िक्री देखकर मैं ख़ामोश रहा। फिर मुझे दिखा कि गली के मोड़ पर एक जीप रूकी दिखायी दी, उसमें से जल्दी-जल्दी कुछ पुलिस वाले उतरे। न जाने क्यों मेरे दिल में एक डर लगा और मैनें ज़ोर से चीखना चाहा लेकिन मेरी चीख मेरे गले में ही घुट कर रह गयी कि एक गोली आयी और कॉम. नसीम जो खिड़की से टेक लगा के खड़े थे उनके सर के परखच्चे उड़ा दिये। मेरे अंदर पानी था जिसमें वो खून मिल गया, और फिर मैं खून से सराबोर हो गया, फिर तो जैसे कयामत बरपा हो गयी । एक साथ कई पुलिस वाले अंदर घुस आये और उन्होंने आव देखा न ताव, बाकी के लोगों को एक कतार में बिठाया और उन पर गोलियों की बौछार कर दी । चारों तरफ से गोलियाँ चल रहीं थी, और उन्हीं में से एक गोली एक पुलिस वाले को भी लग गयी । कुछ पुलिस वाले उसे लेकर भागे, और वो जिसे गोली लगी थी उन्हें जी भर कर गालियाँ दे रहा था। पुलिस वालों ने कमरे में मौजूद सबको मार दिया था। वो अपने साथी को उठाकर वहाँ से ले गये और कुछ लम्हों के लिये वहाँ ख़ामोशी छा गयी। और तब मैंने वो मंज़र देखा जिसे कोई भी देखता तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते...वो लोग जो ज़िंदा-दिली की मिसाल थे, लाश बन कर पड़े थे..बेजान..बेहिस। जिनके ठहाकों से पूरा घर गूँजता था, वो चुप थे..ख़ामोश थे । फिर कुछ पुलिसवाले अंदर आये और फिर शुरू हुआ, कहानी बनाने का दौर। मैं वहीं था, मुझे भी एक सबूत के तौर पर रखा गया था । मैनें देखा कैसे-कैसे किस्से बनाये गये...वो लोग जो जीना चाहते थे, उन्हें मौत का सौदागर बताया गया। वो लोग जो सबको प्यार करते थे उन्हें कातिल करार दिया गया। जो पुलिसवाला खुद अपनी ही गोली का शिकार बना था, ये कहा गया कि वो तो ‘आतंकवादियों‘ की गोली का शिकार होकर शहीद हुआ है, और मैं सबूत बना, ख़ामोश उस ड्रामे के एक-एक भयानक चेहरे को उजागर होता देखता रहा। 
फिर मुझे मालखाने में जमा करवा दिया गया । मालखाना उस जगह को कहते हैं जहाँ पुलिसवाले उस सामान को रखते हैं जिसे वो बाद में बेच देना चाहें, जिसे नेता लोग कौड़ियों केे भाव खरीद लें। लेकिन मैं एक अदना सा लोटा, एक आतंकवादी के खून से सराबोर लोटा, कौन मुझे लेता, कौन मुझे चुनता, और मैं ऐसे ही पड़ा रहा, अपने मालिक कॉम. नसरू को याद करके, उसकी ज़िन्दादिली को, हिम्मत को याद करके खून के आँसू रोता पड़ा रहा उसी मालखाने में। और न जाने ऐसे ही कितने साल गुज़र गये। फिर एक दिन मुझे बाहर निकाला, एक गरीब से थाने में ही मुझे धुलवाया और थाने के पीछे बनें अपने क्वॉटर में मुझे ले आया। उसने मुझे मेरी पहली मालकिन की तरह भगवान के काम के लिये रख छोड़ा था। लेकिन उसको क्या पता कि कॉम. नसरू के साथ रहकर मैं नास्तिक हो गया था, मुझे भगवान में कोई विश्वास नहीं रह गया था। लेकिन मजबूरी में मैं पुलिसवाले का काम करता रहा और अपनी ज़िन्दगी के दिन काटता रहा....

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