नमस्कार दोस्तों, मैं कपिल एक बार फिर आपके सामने। हमें इतिहास ग़लत पढ़ाया गया है, अब इस बात पर मेरा यक़ीन बढ़ता जा रहा है, पहले अंग्रेजों ने, फिर वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास लेखन का जो तरीका अपनाया था, वो बहुत ही ग़लत था, मेरा मतलब है, है, क्योंकि उन्होने सिर्फ फैक्टस् पर ध्यान दिया, सिर्फ फैक्टस् को कंसीडर किया, और हमारी भावनाओं का, हमारे धर्म, संस्कृति आदि पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। और मैं आपको सच कहूं तो फैक्टस् पर यकीन करना, यानी इन वामियों के कपट जाल में फंसना होता है। वैसे भी फैक्टस् का भरोसा तो ना ही किया जाए तो बेहतर है।
तो दोस्तों फैक्टस् पर बेस्ड इतिहास आपको हमेशा ग़लत जगह लेकर जाता है। इसलिए हमारे पूर्व सी जी आई ने बाबरी मस्जिद और राममंदिर वाले मामले में फैक्ट पर नहीं, बल्कि अपनी आस्था का अपने विश्वास का सहारा लिया और फैसला सुना दिया।
और इसीलिए तो मेरे दोस्तों, असली बात ये है कि फैक्टस पे बात करना, इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना है, असली बात ये है कि फैक्टस की जगह इतिहास को ऐसे लिखा जाना चाहिए कि हिंदु क्या चाहते हैं। दरअसल, ये जो तथाकथित वामी, प्रगतिशील इतिहासकार हैं, ये फैक्टस का सहारा लेते हैं, उन्हें आधार बनाते हैं, जबकि हमारी भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जाता, तो फिर आप ही बताइए, उनके लिखे इतिहास को मानने का क्या तुक बनता है। हद तो तब हो जाती है जब ये लोग पद्मावत को इतिहास नहीं मानते, हीरामन तोते के असतित्व से ही इन्कार कर देते हैं, जिसने रानी पद्मिनी की बात राजा पृथ्वीराज को बताई थी, जबकि हीरामन तोता तो असल में था, जैसे वो बुलबुल भी असल में थी, जो वीर सावरकर उर्फ चित्रगुप्त को अंडमान जेल से अपनी पीठ पर बैठाकर ले जाती थी और फिर उन्हें भारत माता के दर्शन करा कर वापस जेल में छोड़ आती थी।
तो बात ये है कि पिछले दिनों फिर से ताजमहल, मेरा मतलब तेजोमहाआलय पर बहस शुरु हुई। अब मैं आपको अपने मन की बात कहूं तो तेजोमहाआलय के सच पर मुझे यकीन है। ये अंग्रेजों की, वामपंथी इतिहासकारों की साजिश है कि वो तथ्यों के आधार पर इतिहास लिखने की कोशिश करते हुए ताजमहल को मुगल बादशाह शहाजहां द्वारा निर्मित मानते हैं, इनका कहना है कि ताजमहल शाहजहां ने अपनी बेगम, नूरजहां की याद में बनवाया था, जिससे वो बेपनाह प्यार करता था। लेकिन ये बात असली भावनात्मक सच्चाई से कोसों दूर है।
अब मैं आपको ताजमहल की असली सच्चाई बताने जा रहा हूं, ज़रा ग़ौर से सुनिएगा, सदियों पहले की बात है, चारों तरफ जंगल ही जंगल था, हद ये थी कि तब के ज़माने में जंगल में मंगल नहीं था। दरसअल उस वक्त तक अंग्रेजों के कदम यहां नहीं पड़े थे, और इसलिए सोम, मंगल, बुध का हफ्तावारी सिलसिला नहीं चलता था। खैर तो सदियों पहले जब चारों तरफ जंगल था, तब एक हिंदू राजा ने एक मंदिर बनाया, जिसका नाम रखा तेजोमहाआलय। उस राजा का घर भी वहीं था, जहां मंदिर था। और मंदिर का नाम था तेजोमहाआलय। तो साहब वक्त ने करवट बदली और उसके कई साल बाद मुगल यहां आ गए।
अब मुगल कोई बिन बुलाए नहीं आए थे, कहते हैं, हालांकि वही वामी इतिहासकार कहते हैं कि राजस्थान के असली क्षत्रिय राजपूत राणाओं ने उन्हें बुलाया था। इन्हीं मुगलों में एक राजा था, जो खुद को बादशाह कहलवाता था। उसकी बीवी की मौत हो गई। अब उसने अपने दरबारियों को जमा किया, और एक अजीब सी शर्त रखी। शर्त ये थी कि कोई ऐसा मंदिर खोजा जाए, जिसका नाम ताज महल या उससे मिलता-जुलता हो, जो उसकी मरहूम बीवी के नाम यानी नूरजहां से मिलता-जुलता हो। क्योंकि वो अपनी बीवी की याद में एक मकबरा बनवाना चाहता था। अब मुसीबत ये थी कि उसके पास पैसे की कमी थी, इसलिए नई इमारत बनवाना नहीं था, दूसरे उस समय के मुगल ऐसे ही होते थे, जो पहले से बनी इमारतों पर कब्जा करते थे, और उनके जो नाम होते थे, बस उनमें तब्दीली कर लेते थे, नया नाम रखने का रिवाज़ उस समय तक नहीं था।
तो खैर साहब, बहुत सारे मंदिरों पर विचार हुआ, कई मंदिरों के नाम सानमे आए, लेकिन उस तथाकथित बादशाह यानी शाहजहां को एक ही नाम पसंद आया। आगरा में ”तेजोमहाआलय” नाम का एक मंदिर था, अब बाहशाह शाहजहां को उस मंदिर से, उसकी वास्तुकला से, वो कहां बना है, कुछ लेना-देना नहीं था। उसे तो सिर्फ नाम से मतलब था। इसे इस तरह समझिए कि अगर ”तेजोमहाआलय” नाम का कोई मंदिर गुजरात में, या असम में, या बंगाल में होता तो शाहजहां ने वहीं उसके नाम को बदल देना था। बस वहीं ताजमहल होता। लेकिन संयोग देखिए कि ये ”तेजोमहाआलय” नाम का मंदिर आगरा में था।
तो जनाब बादशाह ने फौरन उस उस मंदिर और महल से राजा के वंशजों को बेदखल कर दिया। अब थी तो ये नाइंसाफी, लेकिन उस वक्त कोई सुप्रीम कोर्ट तो था नहीं, दूसरे प्रॉपर्टी डिसप्यूट के केस वैसे भी बहुत लंबे चलते हैं, जिनके पचड़े में पड़ना राजसी शान के खिलाफ होता है। इधर मुगल बादशाह, जिसे मंदिरों के नाम बदलेन का शौक था, उसने फौरन से पेश्तर ”तेजोमहाआलय” का नाम बदल कर ”ताजमहल” कर दिया। यहां गौर करने वाली बात ये भी है कि ये जो मुगल बादशाह थे, ये रचनात्मकता यानी क्रिएटिविटी में बिल्कुल कोरे थे। आप देखिए ज्यादातर जगहों पर इन्होने बहुत ही वाहियात तरीके से नाम बदलने और नाम रखने की कवायद की है। जैसे बाबर ने जो मस्जिद बनवाई उसका नाम ”बाबरी मस्जिद” रख दिया, लाल पत्थर का किला बनवाया उसका नाम लाल किला रख दिया, एक बहुत उंचा दरवाजा बनवाया तो उसका नाम बुलंद दरवाजा रख छोड़ा, ठीक इसी तरह बिना ज्यादा मगजपच्ची किए, शाहजहां ने ”तेजोमहाआलय” का नाम सीधे-सीधे बदल कर ”ताजमहल” रख दिया बस्स्स्स।” लेकिन ये तथाकथित बादशाह इतने पर ही नहीं रुका, महान हिंदु इतिहासकार बिना किसी स्रोत के अपनी सोच से ये बताते हैं कि इस बादशाह ने पूरे आगरा के इर्द-गिर्द एक दीवार बनवा दी थी, ताकि लोगों के दिलो-दिमाग से ”तेजोमहाआलय” की याद खत्म हो जाए। दीवार की याद को ग़ायब करने के लिए इस बादशाह ने क्या किया, इसका जिक्र इन महान हिंदु इतिहासकारों ने नहीं किया है, इसलिए हम भी नहीं जानते।
खैर बीस साल बाद वो दीवार गिराई गई, और तेजोमहाआलय विद अ साइनबोर्ड ऑफ ताजमहल वहां लोगों को दिखाई दिया। मासूम लोगों ने तब मान लिया कि ये ताजमहल ही था। इस तथाकथित बादशाह ने एक और काम किया, तेजोमहाआलय की जितनी मूर्तियां आदि थीं, उन्हें नष्ट नहीं करवाया, बल्कि बीस कमरे बनवा कर उनके अंदर मूर्तियों को बंद कर दिया, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए ये सुविधा रहे कि वो इन कमरों को खोल कर इनकी मूर्तियां निकाल कर इस राज़ का पर्दाफाश कर सकें।
मुगलों के बाद अंग्रेज आए, लेकिन राजपूताना राजसी ख्वाहिशों ने अपनी आन-बान-शान कायम रखते हुए ताजमहल का किस्सा नहीं छेड़ा। जो गया उसे वापस लेने की बात तो छोड़ दीजिए, अपना जो कुछ था, वो भी लाट साहब के दरबार में रख दिया और कोर्निश बजाने लगे। अंग्रेज गए तो देश में लोकतंत्र नाम की चीज़ आ गई, और अंग्रेज बहादुर जो राजपूत बहादुरों के लिए सालाना भुगतान शुरु करके गए थे, वो भी बंद कर दिया गया। ये सब सिर्फ राजपूतों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि हिंदुओं के खिलाफ साजिश थी। तो दोस्तों ये था ताजमहल यानी तेजोमहाआलय का असली सच,
जिसे आज तक जानबूझकर आपसे छुपाया गया है। लेकिन अब वक्त आ गया है कि जब तकरीबन आठ सौ या हजार साल के बाद हिंदुस्तानी लोकतंत्र की राजगद्दी पर एक हिंदू राजा बैठा है, सुप्रीम कोर्ट भी अब फैक्टस् के आधार पर नहीं, बल्कि आस्था और भावना के आधार पर फैसले दे रहा है। ऐसे में ये एक मौका है राजपूताने के राणाओं के पास, दावा कर दो, ये सही है कि तुम्हारे पास किसी दावे का कोई आधार नहीं है लेकिन
और वैसे भी अखंड हिंदू राष्टर्वादियों का दावा तो पूरे भारत का है, यही मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट तुम्हारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ये कह चुका है कि 15 अगस्त 1947 के बाद जो इमारतें हैं, उन पर कोई दावा स्वीकार्य नहीं होगा, लेकिन वही सुप्रीम कोर्ट किसी ना किसी रास्ते हिंदुओं के दावे स्वीकार कर लेगा, यही मौका है। क्योंकि
कश्मीर से लेकर कुतुबमीनार तक, हर जगह जाकर पहले गला फाड़ कर हनुमान चालीसा पढ़ो और फिर सुप्रीम कोर्ट में दाव ठोंक दो। वहां जज साहब अपने ईश्वर से आदेश लेकर तुम्हारी भावनाओं का ख्याल करके फैसला तुम्हारे पक्ष में दे देंगे। चिंता मत करो। यही मौका है, क्योंकि
जिस देश में ऐसा अखंड कीर्तन चल रहा हो, वहां लोकतंत्र की बात बेमानी होती है। आज राजा, न्यायाधीश, पुलिस, कानून सब तुम्हारे साथ खड़ा है। जल्द ही ताजमहल पर दावा ठोको और उसे अपने कब्जे में कर लो। ताकि इन बदले हुए नामों वाली इमारतों का झंझट खत्म हो, और इस विराट, पावन धरती से असुरों का नाश हो।
चचा हमारे, ग़ालिब ताजमहल उर्फ तेजोमहाआलय पर एक शेर कह गए हैं, वो शेर आपकी नज़र है।
ग़ालिब क्या बात करें ताज की बता
किसने बनाया है और कैसा ये बना है
ये बात मेरे मन की, इतिहास बस यही है
सुप्रीम कोर्ट जाकर बस केस ठोकना है
चचा ग़ालिब अपने मरने के बाद कई सालों तक लुग्दी कागज पर इसी तरह के शेर लिखते थे, जो उनके दीवान तक में शामिल नहीं है, इसलिए इस शेर को वहां ढूंढने की कोशिश ना करें। बाकी इंतजार कीजिए कब ताज के नये नाम की घोषणा होती है। लोकतंत्र जिंदा बाद।
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