भाग-1
आज जब इस अंधेरे कमरे के घुप अंधियारे में मैं इतने कबाड़ से ढ़का, दबा आपको अपनी कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूँ तो अब लगता है कि ये कह देना भर काफ़ी नहीं होगा मैं एक लोटा हूँ, जो किसी दिन फैक्ट्री से निकला था और आज अपनी उपयोगिता पूरी करके अपने गलाये जाने का इंतज़ार कर रहा हूँ, बल्कि मुझे तो लगता है कि ये बात को गलत तरीके से कहना होगा ।
लेकिन ज़रा रूकिये, कहानी के इस हिस्से पर आप सोच रहे होंगे, (क्या बकवास है, क्या किसी लोटे की भी कहानी हो सकती है)...लेकिन सच तो ये है कि इस दुनिया में हर चीज़ की कोई न कोई कहानी होती ही है, ज़रूरत है एक बार थोड़ा सा रूक कर उसे देखने की, जानने की, महसूस करने की ।
अब सवाल ये है कि क्या आप इस लोटे की वो कहानी सुनना चाहेंगे, जो हो सकता है आपके लिए एक बोर मसाला हो, लेकिन मेरे लिए तो ज़िदगी की कहानी है, आप चाहें तो इसे पढ़ सकते हैं, या न पढ़ना चाहें तो डिलीट भी कर सकते हैं, आपकी मजीऱ् है,...लेकिन मेरी मानें तो अपनी ज़िंदगी के कुछ पल निकाल कर इस लोटे की आप बीती सुन लीजिए, ताकी आप अपनी इस चमकती-धमकती दुनिया का वो वीभत्स चेहरा देख सकें जो उन परदों के पीछे छुपा रहता है जो हर बुराई को छुपा के रखते हैं।
तो कहाँ से शुरू करूँ, उस माइन से जहाँ से मेरा धातु निकला था, या उस फैक्ट्री से जहाँ मेरी ढ़लाई हुई, या दुकान से जहाँ मैं पहली बार बिका था...
चलिये शुरू करते हैं...
मुझे नहीं पता कि मैं उस दुकान में कैसे पहुँचा, बस यूँ समझ लिजीये कि जब मेरी आँख (अगर आप कल्पना कर सकते हों कि अगर किसी लोटे की आँख होती तो वो कहाँ होती) खुली, या यूँ कहिये कि मैंने होश सम्भाला तो मैने खुद को उस दुकान के सबसे ऊँचे शेल्फ की साफ, शफ़ाक, नयी-नकोर पेंट की हुई छोटी सी जगह पर पाया, तब यूँ लग रहा था कि मैं दुनिया का सबसे चमकदार लोटा हूँँ, यूँ तो मेरे बगल में कतार बॉधे कई लोटे बैठे थे, लेकिन उनमें वो बात कहाँ थी, मेरी शाइनिंग और मेरा रूतबा कुछ और ही था। दुकान वाला बहुत भला और सफाईपसंद आदमी था, हर घंटे आधे घंटे में एक बार बरतनों को चमकाता रहता था, खैर मैं तो वैसे ही चमकदार था, लेकिन सड़क पर धूल बहुत थी...इस देश में ईश्वर का पता नहीं पर धूल सर्व-व्यापि है, सुना है विदेशों में ऐसा नहीं है, वहाँ धूल नहीं है, गरीबी और बेरोज़गारी तो है, शोषण और अत्याचार भी हैं, लेकिन वो लोग बहुत चालाक हैं और धूल की तरह जल्दी ही इप लानतों से भी निज़ात पा लेंगे, चलिये हमें क्या, तो मैं कहाँ था, हाँ, मैं दुकान की चमकदार शेल्फ पर बैठा हुआ था और दुकानदार बार-बार मुझे साफ कर रहा था।
हाँ, मेरे दिल में ढे़रों अरमान थे, कभी मैं सोचता था कि जो भी मुझे खरीदेगा मैं उसकी जिन्दगी सँवार दूँगा, उसे भरपूर खुशी दूँगा (हालाँकि आपको याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि मैं अलादिन का चिराग नहीं लोटा हूँ)
तो मेरे दिल में वही सब अरमान थे जो किसी नये-नकोर लोटे के मन में हो सकते हैं,
(अगर आप कल्पना कर सकते हों कि अगर किसी लोटे के कोई अरमान होते तो क्या होते)
...ओहो, मैं भूल गया आप तो इंसान हो, हाँ तो मैं कुछ ब्रीफ सा आइडिया दे देता कि मेरे क्या अरमान थे, मेरे अरमान थे कि मैं दुनिया का....,चलो वो बहुत बड़ी है, एशिया का...,नहीं उसमें कई ऐसे देश भी तो हैं जो लोटा इस्तेमाल नहीं करते, साउथ एशिया का, जिसमें से कुछ निकाल दिये जायें, जैसे चायना आदि, तो उस रीजन का जिसमें इंडिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश ,नेपाल, श्रीलंका...आदि आते हैं, उस रीजन का सबसे मशहूर लोटा बन जाउँ, अब आप सोच रहे होंगे, बहुत महत्वकाँक्षी लोटा है, लेकिन आप ही बताइए, जब ये देश 14 गोल्ड लाकर अपना नाम रोशन कर सकता है, कुछ करे न करे लेकिन ओलम्पिक गोल्ड की बाबत सोच सकता है तो एक लोटा अपनी शोहरत का दायरा क्यों नहीं बढ़ा सकता ।
तो मेरा बस यही अरमान था, जैसा कि ग़ालिब ने कहा है ‘‘चाँद तारे तोड़ लाऊँ, सारी दुनिया पर मैं छाऊँ, बस इतना सा ख़्वाब है, बस इतना सा ख़्वाब है‘‘ मैनें ये जिसके मुँह से सुना था वो इसे ग़ालिब का शेर बता रहा था, ख़ैर ये शेर मेरे दिल के अरमाँ तो बता ही देता। तो मैं दुकान पर बैठा ‘अपनी‘ खुली आँखों से सपने देख रहा था कि दुकान के सामने एक स्कूटर आकर रूका।
स्कूटर बहुत नया नहीं था, वैसा ही था जैसा कि आम मिडिल क्लास घरों मंे देखने को मिल जाता है, और स्कूटर के मालिक भी मिडिल क्लास ही थे। ख़ैर मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि, तब तक मुझमें वर्ग चेतना नहीं थी, तो मुझे ये नहीं पता था कि लोगों का वर्ग कितना इम्पॉर्टेंट होता है, वो तो जब एक साहब के घर पहुँचा तो वहाँ अक्सर वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष की बातें होती रहती थीं, तो मुझे पता चला कि वर्ग क्या होता है, पर ये बात तो मैं आपको आगे बताने वाला हूँ, अभी तो कहानी को जारी रखते हुए, मैं आपको बता रहा था कि, स्कूटर पर आने वाले लोग मिडिल क्लास के थे, महिला थोड़ी नाटी और भारी शरीर की थी, पुरूष भी ठीक-ठाक भारी था, लेकिन दोनों को अपने शरीर के भारीपन पर कोई एतराज़ हो ऐसा नहीं लगता था। दोनों बरतनों की उस दुकान पर लोटा ही खरीदने पहुँचे थे, तो उन्होनें लोटों को लेकर भाव तय करना शुरू किया, एक तरफ तो मेरा मन कर रहा था कि मेरी तरफ देखा जाये और दूसरी तरफ मैं उनके साथ जाना नहीं चाहता था, मुझे लगता था कि मुझे तो किसी अमीर आदमी के साथ जाना चाहिये, लेकिन जब मैं ये सब सोच रहा था तभी दुकानदार ने हाथ बढ़ा कर मुझे उठा लिया और एक झटके से उस आदमी के हाथ में दिया । उस आदमी ने मुझे थोड़ी देर उलट-पलट कर देखा और फिर मुझे महिला के हाथ में दे दिया, हालाँकि मुझे इससे पहले किसी महिला ने हाथ में नहीं लिया था लेकिन फिर भी उस महिला का तोल-मोल कर मुझे देखना अच्छा नहीं लगा, उन्होनें दुकानदार के साथ बहुत मोल-भाव किया, एक बार तो ऐसा लगा कि वो बिना कुछ लिए ही वहाँ से वापस चले जायेंगे, लेकिन आखिरकार उन्होंने मुझे खरीद ही लिया (मुझे बाद में पता चला कि ये मोल-भाव करने का तरीका होता है, कि आप यानी ग्राहक, दुकान छोड़ कर जाता है, और आखिर में अपने भाव पर सामान खरीदता है)। तो इस हिसाब से उन लोेगों ने, यानी मिडिल क्लास दम्पत्ति ने मुझे खरीद लिया, पता नहीं कितने पैसे दिये, उस वक्त तो मुझे पैसे का भी कोई हिसाब-किताब पता नहीं था। और उस औरत ने मुझे बहुत बेरहमी से अपने झोले मंे घुसेड़ दिया, पहले तो लगा कि ये कहाँ आ गया, लेकिन फिर अपने आस-पास का जायज़ा लिया तो लगा कि मूलियों, आलुओं और प्याज़ के बीच मुझे सुरक्षित रखा गया था ।
स्कूटर धड़-धड़ाते हुए चलने लगा और वो पहला सफ़र था जो मुझे पसंद आया, ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी हिंडोले पर बैठकर बहुत तेज़ी से सफर कर रहा हूँ। और पहले चौड़ी सड़क, खुली हवा, फिर कुछ छोटी सड़क और कुछ बंद हवा, और आख़िर में एक बदबूदार गली में उनका मकान आया, और स्कूटर रूका....मकान क्या था, दो कमरे थे जिनमें उपयोगिता का कोई विशेष अंतर नहीं था। कुछ लोग इस कमरे को बेडरूम की तरह इस्तेमाल करते थे तो कुछ यही काम दूसरे कमरे में करते थे, लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि उनकी आपस की बातचीत मंे उन्हें पता नहीं होता था कि बात किस कमरे की हो रही है, इसलिए जब घर आकर उस महिला ने उसी बेरहमी से मुझे झोले के बाहर निकाला तो अपनी बहु से कहा ‘‘इस लोटे को उस कमरे में रख दो‘‘ और उसकी बहु ने मुझे बिना कुछ सोचे समझे उठा लिया और ले जाकर दूसरे कमरे में रख दिया। और यही बात उस रात उस बहु के पिटने का कारण बनी ।
असल कारण तो मुझे बाद मंे समझ आया, वो महिला चाहती थी कि उसकी बहु किसी ऐसे खानदान (यहाँ घर पढियेगा) से होती जो उसके घर को (यहाँ दो कमरों का मकान पढियेगा) खुशियों (यहाँ दौलत और गहने, जे़वर, कपड़े आदि पढियेगा) से भर देती, क्योंकि उसका बेटा तो लाखों मंे एक (यहाँ औसत शरीफ़ आदमी पढियेगा) था। रात को बड़ा ड्रामा हुआ, खाना-वाना खा के वो महिला अन्दर आई, उसने लोटा देखा जो खिड़कीनुमा चौखट पर रखा हुआ था, और आसमान सर पर उठा लिया, बहु को खूब कोसा गया, उसके पूरे खानदान में किसी को तमीज़ नहीं है कहा गया, और तभी मुझे पता चला कि मोहल्ले के कोने पर एक मन्दिर है, और मुझे रोज़ सुबह वहाँ जल चढ़ाने के लिए खरीदा गया है, उस (बदतमीज़, कुलक्ष्णी, सात घर खाउ) बहू ने मुझे ऐसे ही आले पर रख दिया था, वो तो उस घर के लोग समझदार थे कि किसी ने मुझे हाथ नहीं लगाया था और मेरी पवित्रता नष्ट नहीं हुई थी । रात को दो घंटे तक यही चलता रहा, जिसमें कम से कम 5 बार उस महिला ने अपनी बहु को सजेस्ट किया कि वो ज़हर खाकर मर जाये ताकि वो अपने बेटे की दूसरी शादी कर सके।
पति ठीक-ठाक था, बस माँ से कुछ बोलता नहीं था, आख़िर किसी भी शरीफ़ लड़के को अपनी बीवी की तरफ़दारी नहीं करनी चाहिए, मर्दानगी का यही उसूल है, उसे मोटे तौर पर अपनी बीवी से कोई शिकायत नहीं थी, बस वो एक अच्छा लड़का था जो अपनी माँ का बेटा बना रहना चाहता था, इसमें उसका तो कोई कसूर नहीं था। ख़ैर आप मेरी सुनिये, दूसरे दिन से शुरू हुआ मेरी उपयोगिता का दौर, वो महिला 5-5ः30 पर उठी, मुझे बड़ी बेरहमी से माँजा, और मुझमें पानी भर के मन्दिर की तरफ चल दी ।
मन्दिर में मेरी उपयोगिता पानी चढ़ाना कम और उस महिला के पास पड़े रहना ज्यादा थी। अब आप ही बतायें किसी लोटे के लिये ये कितना अपमानजनक मामला होगा कि उसे पूरे दिन मंे सिर्फ एक बार इस्तेमाल किया जाये और फिर पूरी पवित्रता के साथ उपेक्षित छोड़ दिया जाये। लेकिन मेरे साथ यही हुआ, मैं रोज़ सुबह उठाया जाता, गरदन पकड़ कर बड़ी बेरहमी से, पूरे कसाईपन के साथ मुझे माँजा जाता, इतनी बेरहमी से कि कई बार तो मेरी चमड़ी छिल जाती थी, आप कभी उस महिला को मुझे माँजते देखते तो आपको लगता कि जैसे कोई बदला ले रही हो, मुझे रगड़गते हुए उसके चेहरे पर ऐसे भाव होते थे कि अगर कभी गलती से किसी लोटे के पैर होते तो वो भाग खड़ा होता,
लेकिन अफ़सोस(हंुह) की बात है कि मेरे पैर नहीं थे, इसलिए, रोज़ मुझे माँजा जाता, रोज़ मुझमंे पानी भर के मुझे मंदिर ले जाया जाता, और रोज़ मैं उस महिला की गोद में पड़ा रहता, और उसकी बातें सुनता रहता था, वहाँ बैठ कर उस महिला की बातें सुनते हुए एसा लगता था जैसे उस की बहू से बुरी औरत इस पूरी दुनिया में कोई ना हो, और वो महिला मन्दिर में बैठ कर इतना झूठ बोलती थी कि लगता था जैसे मन्दिर नाम की जगह होती ही बुराईयों का घर है। मैंने इतना झूठ, चोरी, व्याभिचार और दुनिया भर के तमाम बुरे काम मन्दिर में देखे उतने और कहीं नहीं देखे। उस महिला के साथ एक और महिला थी, जो उसकी हर बात सुनती और गुनती थी, वो महिला लगातार इशारों-इशारों में ही मेरी पहली मालकिन को ये बताती रहती थी कि कैसे वो अपने ‘सपूत‘ की दूसरी शादी कर सकती थी। लेकिन गाड़ी यहीं आकर रूकती थी आजकल एक से ज़्यादा शादियाँ करने पर सज़ा हो जाती है (हालाँकि इतने से भी कोई मानता नहीं है)। एक दिन हुआ ये कि दूसरी महिला ने पहली महिला को कहा कि क्यों ना अपनी बहु को मार दे, सुना आपने, मन्दिर में बैठकर वो दोनों महिलायें ये योजना बना रही थी कि किस तरह अपनी गृहलक्ष्मी का कत्ल करके वो अपने बेटे की दूसरी शादी करवा सकती हैं, मैं इतना शॉक हुआ कि उस औरत की गोद से उछलकर नीचे जा गिरा, काश उस वक्त मेरे पैर होते तो मैं फ़ौरन वहाँ से भाग खड़ा होता, मैंने अपने पूरे जीवन में अपने पैर ना होने का इतना अफ़सोस कभी नहीं हुआ, ख़ैर ।
मुझे उम्मीद थी कि वो औरतें अपने इन नापाक इरादों से बाज़ आ जायेंगी, लेकिन अफ़सोस की ऐसा नहीं हुआ, वो नहीं मानी, मैं उस मोटी के साथ रोज़ मन्दिर ले जाया जाता रहा, और उनकी सारी साज़िश का गवाह बना रहा, काश मैं उस मासूम लड़की को बता सकता, काश उसे बचा सकता। पहले से ही किसी और मजबूर लड़की के बाप से बात करके सब तय कर लिया गया, फिर साजिश हुई, उस लड़की की हत्या करने की ।
मुझे वो रात बिल्कुल साफ तौर पर याद है, उस रात मैं बहुत डरा हुआ था, क्योंकि मन्दिर में सुबह ही ये प्लान बन चुका था कि आज रात बहु को ठिकाने लगा देना है, और जब रात ज़्यादा काली हो गई थी, तब माँ बेटे ने मिलकर उस बच्ची को दबोच लिया, बाप ने उस पर मिट्टी का तेल डाला और माँ ने आग लगा दी, उफ़्फ़्फ्फ्फ, क्या दिल दहला देने वाला दृश्य था, मैं आज भी उस रात के बारे में सोचता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वो बच्ची कितना तड़पी, चीखी-चिल्लाई, लेकिन रोज़ मन्दिर जाकर पीपल पर जल चढ़ाने वाली उस औरत का दिल नहीं पसीजा, एक बार को तो मैं ही उछल पड़ा, थोड़ा उछलकूद भी मचाया, लेकिन मुझे दबा दिया गया, मुझे दबा दिया गया......
मैं क्या कहूँ, एक लोटे का दिल रो रहा था, और तीन वहशी हँस रहे थे, अगर मेरे पैर होते तो मैं तब भी वहाँ से भाग खड़ा होता, लेकिन मैं मजबूर था, कि मैं एक लोटा था ।
दूसरी सुबह जब उस मासूम की लाश को जलाने के लिए ले जा रहे थे, तो दूसरी औरत ने आँख बचा कर मुझे अपने झोले में डाल लिया, वही जिसने मेरी मोटी मालकिन को अपनी बहु को मारने की सलाह दी थी उसी ने उसके घर पर मौका देखकर हाथ-सफ़ाई भी दिखा दी, और मैं आसमान से गिरा खजूर में अटका वाली तर्ज़ पर उस महिला के झोले में जा गिरा जिसमें और भी सामान पड़ा था ।
लेकिन मैं उस औरत के पास भी ज़्यादा देर नहीं रहा, हो सकता है कि इसके पीछे मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति का भी हाथ रहा हो, हालाँकि किसी लोटे की इच्छा क्या और शक्ति कैसी। लेकिन मेरी थी, और बहुत बढ़िया थी क्योंकि मुझे उस महिला से फौरन ही छुटकारा मिल गया, चुराये हुए सामान का झोला लेकर वो महिला कहीं जाने के लिए एक ऑटो पर बैठी, और वो किसी रेड लाईट पर रूका तो एक उठाईगिरे ने ऑटो से वो झोला पार कर लिया, और इस तरह मुझे लगभग फ़ौरन ही उस महिला से छुटकारा मिल गया ।

एक दम सटीक है ये लोटे की आत्मकथा| आज के हमारे दौर में मनुष्यकी स्तिथि भी इसी लोटे की तरह हो गयी है जो सब कुछ देख कर भी चुप रहता है| बहुत खूब लिखा है और शुक्रिया इसे पोस्ट करने के लिए काफी समय से इंतज़ार था इसका|
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हटाएंदिल को हिला देने वाली कहानी है। लोटे के रूपक का बड़ा अच्छा इस्तेमाल किया है आपने कपिल जी। बहुत जी बाते जानता हूँ लेकिन पहचानता नहीं, इस लोटे की यात्रा मेरी भी यात्रा साबित होगी
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