यूं तो ये कथा बहुत पुरानी है, दादी नानी की कहानी जितनी पुरानी, लेकिन कुछ कथाएं ऐसी होती हैं जैसे शराब। जितनी पुरानी होती हैं, उतना ही उनका मैटल मजबूत होता जाता है। आज जब प्रधानमंत्री जी को एक पुल पर तिरंगा फहराते हुए चलते हुए देखा तो कसम से आंखें भर आईं। किसी जमाने में एक फोटो देखी थी, जिसमें प्रधानमंत्री तिरंगे से मुहं पोंछ रहे हैं,
पिछले 12 - 15 सालों में कम से कम उन्हें ये तो समझ आया कि तिरंगा फहराया जाता है, उससे मुहं नहीं पोंछा जाता। अभी कुछ समय पहले एक और भाजपा विधायक थे, जो तिरंगे से नाक पोंछते नज़र आए थे।
भाजपा विधायकों को थोड़ा धीरे-धीरे समझ आता है कि तिरंगा राष्टरीय ध्वज है जिससे मुंह और नाक नहीं पोंछा जाता, उसका सम्मान किया जाता है, उसे गर्व से फहराया जाता है। प्रधानमंत्री को एक दशक से ज्यादा लग गया ये समझने में, विधायकों को हो सकता है थोड़ा जल्दी समझ में आ जाए।
अभी जो बात हो रही है सरेंडर की, वो सरेंडर नहीं था या नहीं था। मेरा मानना है कि वो सरेंडर नहीं था, बल्कि अपनी छवि को सुंदर बनाने का उत्साह था, जो छलक-छलक पड़ रहा था, और आप कह रहे हैं कि जीत के दावों के बावजूद तीन दिन में ही युद्ध रोक दिया गया। यहां दर्जी वर्दियां सिल कर बैठे थे, फोटोग्राफर सारे फोटोशूट की तैयारियां करके बैठे थे, फोटोशॉप वाले कम्प्यूटर पर तैयार बैठे थे। पोस्टर बन चुके थे, रैलियों की सारी तैयारियां हो चुकी थीं, लोगों को आने वाले दिनों में ऑपरेशन सिंदूर के सिलसिले में क्या-क्या कार्यक्रम होने चाहिए, उसकी सूचना भिजवाई जा चुकी थी। ऐसे में आप बताइए कि आप होते तो क्या करते। अगर ये युद्ध और चलता रहता तो इन सारी तैयारियों का क्या होता।
तो इन सब तैयारियों के सही इस्तेमाल के लिए युद्धविराम होना जरूरी था। ऑप्टिकस् तो यही कहता है कि सेना की सफल कार्यवाही को इसलिए रोका गया ताकि सरेंडर मोदी की कार्यवाही को सफल बनाया जा सके। सैनिक वर्दी में लाइफ साइज़ पोस्टर, नसों में खून की जगह सिंदूर के नारे, बाइस मिनट में बाइस तारीख का बदला जैसे जुमले, ये है पहलगाम के बदले की सही हक़ीकत।
मैं बस कोशिश कर रहा हूं सरेंडर मोदी की सही मानसिक स्थिति के आंकलन की। देखिए एक तरफ सेना अपने परे गौरव और अभिमान के साथ युद्ध कर रही थी। सेना को अच्छी तरह पता था कि उसे कहां और कितना वार करना है। लेकिन हमारे न्यूज़ स्टूडियोज़ में बैठे एंकरों को ये बात थोड़े ही पता थी। किसी ने इस्मलामबाद को नेस्तनाबूद किया था, तो किसी ने लाहौर पर कब्जा करवा दिया था।
मुझे लगता है कि सरेंडर मोदी ने टी वी पर इन्हीं न्यूज़ चैनलों को देखा और अपने इन खबरचियों की खबरों पर यकीन कर लिया। फिर हो सकता है कि उन्हें लगा हो कि यार, अब ज्यादा हो जाएगा, जितना बचा है उतना पाकिस्तान छोड़ देना चाहिए। और उन्होेने दया करके युद्धविराम के आदेश दे दिए। ये तो उन्हें बाद में पता चला कि ये सारे स्टूडियोज़ में बैठे एंकर और उनके एडिटर झूठ बोल रहे थे। इसलिए उनकी इस युद्धविराम में कोई ग़लती नहीं है। उनके एंकरों ने तो उन्हें पाकिस्तान का बेताज बादशाह बना ही दिया था। ऐसे में राहुल को उन्हें इतनी रियायत तो देनी चाहिए, उन्हें सरेंडर मोदी नहीं कहना चाहिए।
ये जो चल रहा है सरेंडर का, राहुल गांधी ने कह दिया, नरेंदर......सरेंडर.....
अब ये कोई बात हुई भला। आपको समझना पड़ेगा, यूं आप किसी पर, वो भी विश्वगुरु पर इस तरह की तोहमत नहीं लगा सकते। यूं तो सरेंडर का पूरा इतिहास भरा पड़ा है, देखिए वीर सावरकर ने,
जब वो जेल में थे, तो ब्रिटिश सरकार को कई पत्र लिखे, उनमें खुद को छोड़ देने की दुहाई की, और ये तक कहा
कि सरकार अगर अपने विविध उपकार और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करतेी है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूंगा। अब ये सब लिखा तो सावरकर ने ही था, लेकिन दरअसल ये सब उन्होने अंग्रेज सरकार को धोखा देने के लिए लिखा था, और देश सेवा के लिए लिखा था। ये बात आपको समझ नहीं आती। अंग्रेज सरकार वीर विनायक दामोदर सावरकार की चाल में ऐसी फंसी कि ना सिर्फ उन्होने सावरकार को रिहा किया, बल्कि उनकी मासिक पेंशन भी बांध दी। अंग्रेज सरकार को लगा कि ये तो अब हमारा काम करेगा, हमारा वफादार रहेगा। लेकिन सावरकर ने सरेंडर नहीं किया था, जैसे मोदी जी ने नहीं किया। बल्कि सावरकर ने रिहा होने के बाद, 1941 में बिहार में भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का ऐलान किया। लेकिन इसके पीछे भी सावरकर का, माने वीर सावरकर की ये चाल थी, कि अंग्रेजों को दिखाते रहो कि देखो मैं तुम्हारा वफादार हूं,
अपनी अंग्रेजों के खिलाफ इसी सरेंडर वाली चाल को आगे बढ़ाते हुए सावरकार ने मदुरै में 1940 के अधिवेशन में भाषण दिया कि उन्होने एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सेना में भर्ती कराया है, जिसने आखिर कार सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज को रोकने में अंग्रेजों की मदद की।
लोग यूं ही सावरकर को बदनाम करते हैं, उन्होने सरेंडर नहीं किया था, अपने पत्रों के ज़रिए उन्होने सिर्फ अंग्रेजों को धोखा दिया था। रिहा होने के बाद में वे मन से देशसेवा ही करना चाहते थे, बुरा हो गांधी का इससे पहले कि सावरकर को देशसेवा का मौका मिलता, उन्होनेे आज़ादी के लिए हां कर दिया। और बेचारे सावरकार को लगातार कोशिशों के बावजूद देश सेवा का मौका नहीं मिल सका और वो बेचारे ताजीवन अंग्रेजों की सेवा ही करते रह गए। यहां तक कि जब अंग्रेज भारत छोड़ गए, तो भी सावरकार अपने अंग्रेजों को धोखा देने की नीति पर कायम रहते हुए अंग्रेजों की सेवा करते रहे। इससे उनकी वफादारी का सबूत मिलता है। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। भई अगर वो अंग्रेजों के वफादार ना बनते तो कोई और बन जाता, और ये उनका सिद्धांत था, कि अगर पैसा आ रहा हो, तो कोई मौका छोड़ना नहीं चाहिए।
तो राहुल गांधी जो सावरकर के मन की बात नहीं समझ पाए, वे सावरकार को माफीवीर बताते हैं, जबकि खुद सावरकर ने अपने को वीर का खिताब दिया था। अब बताइए, कोई खुद को वीर कहना चाहे तो क्या ये गुनाह हो गया। हमारे महामानव की शिक्षा का तो पता नहीं, पर दीक्षा इन्हीें विचारों की छत्रछाया में हुई है, इसलिए वो सारे गुण जो वीर सरेंडर सावरकर के थे, वही इनमें भी आ गए हैं।
इसलिए खुद का विश्वगुरु कहने-कहलवाने वाले हमारे वर्तमान महामानव ने खुद को ईश्वर बताने में कोई कमी नहीं छोड़ी। अब अगर आप उन्हें ईश्वर ना माने तो उसमें उनकी गलती नहीं है, बल्कि खुद आपकी गलती है। वे तो लगातार अपने कामों के ज़रिए, भाषणों के ज़रिए ये कहते ही रहे हैं, उनके भक्तों ने तो उन्हें आधा-पौना ईश्वर मान ही लिया है। लेकिन खुद वो मानते हैं कि वो बहुत बचपन से ही सरेंडर संघ के सदस्य बन चुके थे। और अपने पूरे जीवन में उन्होनें इसी सरेंडर से काम लिया और सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए। सरेंडर की ये गाथा, इतनी रोचक है कि इस पर कई महाकाव्य, लघुकाव्य, वृहद उपन्यास, लघु उपन्यास, और हजारों कहानियां लिखी जा सकती हैं। छोटी-छोटी कॉमिक्स तो वैसे ही मार्केट में खूब घूम रही हैं।
राहुल गांधी के संरेडर पर खूब वबाल भी हुआ है, हो रहा है। ये राहुल भी जाने कहां -कहां से ऐसी बातें ले आते हैं। डोनाल्ड टरम्प ने भी ये नहीं कहा कि मोदी जी ने सरेंडर किया, उसने तो सिर्फ ये कहा, और करीब दर्जन भर बार कहा कि उसने व्यापार की धमकी देकर सीज़फायर करवाया है,
पर ये नहीं कहा कि मोदी जी ने सरेंडर किया है। ऐसे में आप ही बताइए, क्या नरेन्दर मोदी को सरेंडर मोदी कहना सही है? फैसला आप पर है, क्योंकि आप जनता हैं, और लोकतंत्र में जनता की बात ही चलती है। कमेंट करके बताइए कि अब आप इन्हे सरेंडर मोदी कहेंगे या नहीं। मर्जी है आपकी, क्योंकि फैसला है आपका।
बाकी ग़ालिब जो चचा थे हमारे, ये एक शेर अर्ज़ कर गए हैं।
दुश्मन से नहीं डरना गर बाजुओं में दम हो
रुक जाना ज़रा हटके, पानी जो तुझमें कम हो
ग़ालिब ऐसे ही फालतू शेरों के लिए बदनाम हैं, आप इस पर ध्यान मत दीजिए। बस लाइक और शेयर कीजिए, और हां, सब्सक्राइब भी कर ही लीजिए। ठीक है। नमस्ते।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें