नमस्कार, मैं कपिल एक बार फिर आपके साथ यानी सामने हूं। देखिए मैं कोई पत्रकार नहीं हूं कि खबरें सुनाउं या उन पर टिप्पणी करूं। साधारण इंसान हूं, साधारण यानी आम और इंसान यानी आदमी, कुल मिलाकर आम आदमी हूं, और इंसानी समाज में रहता हूं इसलिए पॉलिटिकल भी हूं। खूब पॉलिटिकल हूं साहब। कोई इंसान जो किसी समाज में रहता हो, वो एपॉलिटिकल हो ही नहीं सकता। ये ऐसा ही है जैसे कोई जीवित इंसान कहे कि वो सांस के बिना जीवित रह सकता है। जीवन के हर क्षेत्र में राजनीति का दखल है, फिर आप चाहे सन्यासी ही क्यों ना हो जाएं, ए पॉलिटिकल नहीं हो सकते। बच्चे के पैदा होने से पहले वो पॉलिटिक्स से प्रभावित हो जाता है, मरने के बाद तक वो पॉलिटिक्स से प्रभावित रहता है, इसलिए किसी का ये कहना कि वो एपॉलिटिकल है, धूर्तता है या मूर्खता है।
खैर इस बात पर बहस करेंगे फिर कभी। अभी तो मामला है भाखा का यानी भाषा का।
बढ़िया मामला चल रहा था, तामिलनाडू और केन्द्र सरकार के बीच भाषा को लेकर। इसके बीच हिंदी उर्दू विवाद और उसमें बड़े वाले ज्ञानियों की चर्चा में आनंद आ रहा था। फिर ऑपरेशन सिंदूर हो गया, बाकी सारे मुद्दे थोड़ा पीछे की तरफ हो लिए। तामिलनाडू अपनी जगह से टस से मस नहीं होकर दे रहा, और केन्द्र सरकार अपने पूरे जाम-जमावड़े के साथ इसे लागू करने पर लगी हुई है।
अब हम आम आदमी को ये झगड़ा ही समझ नहीं आ रहा। ज्यादातर को लगता है कि केन्द्र सरकार दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी को थोप रही है, और तामिलनाडू इसका विरोध कर रहा है। असल में केन्द्र सरकार के सरकारी प्रवक्ता टी वी चैनलों पर इसे पेश भी ऐसे ही कर रहे हैं कि जैसे स्टालिन, जो कि तामिलनाडू के मुख्यमंत्री हैं वो जानबूझ कर हिंदी को, जो भी भारत की राजभाषा है, उसके खिलाफ हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही है, या मामला कुछ और है।
थोड़ा बहुत भाषा नीति जो की शिक्षा की भारतीय राष्टरीय नीति के तहत तीन भाषा फॉर्मूला था, उसे समझे ंतो कुछ चीजें साफ हो जाती हैं। देखिए 1968 में भाषाई शिक्षा और राष्टरीय एकजुटता को मजबूत करने के लिए तीन भाषा फॉर्मूला लाया गया था, जिसमें ये कहा गया था कि सभी छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी, एक अपनी स्थानीय भाषा, दूसरी कोई भारतीय भाषा जिसमें हिंदी या अंग्रेजी थी और तीसरी अंग्रेजी या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा। अब इसके पीछे जो तर्क था वो ये कि भई स्कूल से ही जो बच्चे तीन भाषाएं सीखेंगे, उसकी वजह से लिगुइस्टिक डायवर्सेटी बढ़ेगी और विभिन्न इलाकों के बीच संवाद भी बढ़ेगा।
दरअसल फॉर्मूला 1964-66 के बीच बने कोठारी कमीशन ने सुझाया था, जिसे 1968 में इंदिरा गांधी ने अडॉप्ट किया था। 1986 में राजीव गांधी और 1992 में नरसिम्हाराव ने इसकी पुष्टि की थी।
2020 की नई शिक्षा नीति के तहत जो तीन भाषा फॉर्मुला लाया गया उसमें बदलाव ये किया गया है कि पहले तीन भाषा फॉर्मुला में एक भाषा स्थानीय थी, दूसरी कोई भारतीय भाषा यानी हिंदी या अंग्रेजी थी और तीसरी अंग्रेजी या कोई आधुनिक भारतीय भाषा थी। अब यानी 2020 की शिक्षा नीति के तहत तीन भाषा फॉर्मूले में छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होंगी जिनमें से दो का भारतीय भाषाएं होना जरूरी है।
मामला ये है कि तामिलनाडू ने कभी भी, यानी पहले भी कभी तीन भाषा फॉर्मूले को स्वीकार ही नहीं किया। यहां तक कि वो देश का अकेला ऐसा राज्य है, जहां तीन भाषा फॉर्मूला कभी लागू ही नहीं हुआ। बल्कि जब 1937 में सी राजगोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य किया तो पूरे तामिलनाडू में इसका विरोध हुआ, और 1940 में इस कदम को वापस लेना पड़ा। इस तरह के हर भाषा फॉर्मूले को तामिलनाडू ने तामिल भाषा के उपर हिंदी को इम्पोज़ करना, यानी जबरन लागू करना ही माना है।
अब सवाल ये है कि क्या ये सही है। देखिए एक सवाल तो मातृभाषा का है। हर व्यक्ति को लगता है कि मातृभाषा यानी वो भाषा जो उसने अपनी मां से सीखी है, यानी मां की भाषा, मातृभाषा।
लेकिन मुझे लगता है कि ये सही नहीं है। मातृभाषा मां की भाषा नहीं होती, बल्कि देश की भाषा होती है। यानी मान लीजिए कि अगर आप भारत में हैं, पिता हिंदी बोलने वाले भारतीय हों, और मां मान लीजिए जर्मन बोलने वाली जर्मन हों, जो भारत में ही रहते हों, तो आपकी मातृभाषा जर्मन नहीं हो जाएगी। ये हो सकता है कि मां की भाषा जर्मन होने की वजह से आप जर्मन सीख लें, लेकिन बोलचाल की भाषा जो आपकी हो, वो हिंदी हो, या तामिल हो, या भोजपुरी ही हो। तो भाषा जो संवाद का माध्यम है, उसे पहचान भी बनाया जा सकता है, और राजनीतिक हथियार भी बनाया जा सकता है।
जर्मन चांसलर बिस्मार्क ने जब जर्मनी को एकीकृत किया था, तो उस समय तमाम जर्मेनिक भाषाएं प्रचलन में थीं, और जब जर्मनी का एकीकरण हुआ तो सिर्फ एक भाषा रही, जिसे आज डोएच या जर्मन कहा जाता है।
जर्मन राष्टर, जर्मन भाषा, और जर्मन पहचान, की शुरुआत यहां से हुई और इसी के साथ हुआ, जर्मन पूरी दुनिया में सबसे महान है के विचार का सिलसिला, और यहीं से भाषा का राजनीतिकरण शुरु होता है। भाषा एक पहचान बन जाती है, वो बरतने का साधन नहीं होती, संवाद का माध्यम नहीं होती, वो राजनीति में अपनी रोटियां सेकने का औजार बन जाती है। यूं अगर सही नीयत से किया जाए, तो ना दक्षिण के किसी राज्य को हिंदी सीखने में, बोलने में एतराज होगा, और ना उत्तर के किसी राज्य को तामिल, तेलुगू, कन्नड़ या मलयालम सीखने में कोई एतराज होगा। लेकिन सारा सवाल नीयत का ही है।
सवाल है उत्तर भारतीय पहचान को, भारत की एकमात्र पहचान बना कर पेश करने का, उसे पूरे भारत का बताने का, और इसी विचार के तहत इतिहास, भूगोल, धर्म, अधर्म सब उत्तर भारत के हिसाब से तय होता है। इसे इस तरह भी समझिए कि भारतीय इतिहास में से दक्षिण भारत का इतिहास या साहित्य, या तो नहीं है, या नहीं के बराबर हीह ै। साहित्य हो, या कला, इतिहास हो या परंपरा, हम उत्तर भारतीयों को दक्षिण से सिर्फ इतना मतलब है कि वहां इडली डोसा बनता है, और लोग लुंगी पहनते हैं। अभी कुछ साल पहले तक तमाम दक्षिण भारतीय हमारे लिए मद्रासी होते थे, और मद्रासी बोलते थे।
ये उत्तर भारत की प्रधानता का जो विचार है वो वास्तव में कोई नया विचार नहीं है। और प्रधानता में भी वही लोग उछल-उछल कर इसकी ताईद करते हैं जो ब्राहम्ण राज की कल्पना करते हैं, ंिहंदू सवर्ण मानसिकता इस मामले में सबसे आगे रहती है। ऐसे में यदि दक्षिण भारत के राज्य अपनी पहचान यानी अपनी भाषा के लिए इतना उत्साहित होते हैं तो इसमें फिर आश्चर्य की बात ही क्या है। उत्तर भारत की सहिष्णुता का अंदाजा तो इस बात से ही लगाया जा सकता है कि खुद भारत में पैदा हुई, बोली जाने वाली उर्दू तक को नकार देने, उसे सिर्फ मुसलमानों की या अगर उसे और खराब विशेषण देना हो तो आक्रांताओं की भाषा कहने का रिवाज है। एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री ने तो घोषणा ही कर दी, और वो भी विधानसभा में कि उर्दू पढ़ना यानी मौलवी बनना है। अब बताइए, मूर्खता की इससे बड़ी हद और क्या होगी।
दूसरी तरफ उर्दू के पैरोकारों ने इस भाषा की ऐसी पैरोकारी की कि देख सुन कर हंसी आती है। उर्दू की पैरोकारी करने वाले इन लोगों में ज्यादातर वो लोग थे, जो उर्दू जानते नहीं हैं, यानी ना कभी सीखी, ना पढ़ी, ना लिखी, लेकिन पैरोकारी में उर्दू के नाम के कसीदे ऐसे पढ़े के तौबा भली। ज्यादातर का यही कहना था कि उर्दू नफासत की ज़बान है, ये मुहज्जब जब़ान है, ये तहजीब - ओ- तमद्दुन की ज़बान है। भाई साहब, कौन सी ऐसी ज़बान है जो तहजीब ओ तमद्दुन की ज़बान नहीं है। तहजीब ज़बान में नही होती, ये इस्तेमाल करने वाले के चरित्र में होती है। जैसी बरतिएगा, वैसा मजा देगी। महाशय, उर्दू अगर ऐसी ही तहजीब की ज़बान है तो बताइए ज़रा ये जो सारी गालियां आप देते सुनते हैं, उसके सारे फहश अल्फाज़ उर्दू के ही क्यों हैं। मेरी ये बात सुन कर बुरा सा मुहं मत बनाइए, ज़रा गौर कीजिए, आप जो भी गालियां देते हैं, वो सब उर्दू में ही संभव हैं, हिन्दी में इनका तर्जुमा करेंगे तो गालियां गालियां रह नहीं जाएंगी। अब आपको जिन्हें मेरी ये बात बुरी लगी, चैलेंज है कि हिंदी की गालियां निकाल कर दिखाइए। मेरा दावा है कि नहीं मिलेंगी। ज़बान ज़बान होती है, संवाद का माध्यम, औजार, उसे उसी तरह बरतना चाहिए। अगर आप किसी ज़बान की पैरोकारी करना चाहते हैं तो सबसे पहला कदम इस तरफ होना चाहिए कि उस भाषा को सीखिए और उसमें अपना काम काज शुरु कीजिए। उर्दू की बेक़दरी अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी ने नहीं की, बल्कि आपने की है। कोई भाषा आपकी पसंद-नापसंद पर निर्भर नहीं होती, वो आपकी पैरोकारी से जिंदा नहीं होती। वो आपके इस्तेमाल के लिए है, इसलिए अगर आप उसे इस्तेमाल करना बंद कर देंगे तो वो खत्म हो जाएगी। एक ज़माने में उर्दू के तमाम रिसाले, मैगजीन, अखबार निकलते थे, फिल्मों में मुकालमे उर्दू में लिखे जाते थे, और आज हालत ये है कि ज्यूं-त्यूं करके दो अखबार निकलते हैं, जो गाहकों की कमी के बायस खत्म होने के कगार पर हैं।
दूसरे उर्दू को बेहतर बताने के चक्कर में हिंदी और संस्कृत से दुराव मत कीजिए, उन्हें छोटा मत बनाइए। भाषा अपने आप में इतनी बड़ी और महान होती है कि उसे इस्तेमाल करते रहेंगे तो अपनी पैरोकारी वो खुद कर लेगी, आपको इसकी ज़रूरत ना पड़ेगी।
खै़र, मैं यहां उत्तर भारत की हैजेमनी की बात कर रहा था। तो आश्चर्य इस बात पर होता है कि जब दक्षिण भारतीय जनता अपनी भाषा के लिए खड़ी होती है तब हमें भारत, हिंदी, और हिंदू अस्मिता पर खतरा मंडराता नज़र आता है। अरे भई, उनकी भाषा भी तो उनकी पहचान है, वो जो भाषा इस्तेमाल करना चाहें करें, अगर उन्हें कोई और भाषा सीखनी होगी तो वो आपके मुहताज तो नहीं ही रहेंगे। हिंदी पूरे भारत की भाषा नहीं है, कभी नहीं थी, भविष्यवक्ता तो मैं नहीं हूं, लेकिन ज़बानों के आज के हालात देख कर तो यही लगता है कि आगे भी इस बात के आसार तो नहीं ही हैं कि हिंदी पूरे भारत की भाषा हो जाए। बल्कि अगर इंटरनेशनल तस्वीर देखी जाए तो ऐसी तस्वीर तामिल की निकलती दिखाई देती है, जो आज भी सिंगापुर और श्रीलंका की अधिकारिक भाषा है। इसके बारे में कहा जाता है कि ये दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं मंे से है, और क्या गज़ब साहित्य है तामिल का। आफत ये है कि तामिल साहित्य का हिंदी या उर्दू में तर्जुमा नहीं हुआ, या बहुत कम हुआ, इसलिए हम नालायकों को यही नहीं पता कि हिंदी साहित्य से ज्यादा बड़ा, ज्यादा व्यापक संसार तामिल साहित्य का है। सिलापत्तिकरम, मणिमेखलाई, वलायापति, कुंडलकेसी, तिरुकुरल, तोलकाप्पियम, पोनियन सेलवम......कसम खाकर बताइएगा इनमें से किसी भी एक किताब का नाम भी आपने सुना है क्या? ये भारत की एक महान भाषा की महान किताबें हैं, इनमें से कुछ तो इतनी मशहूर हैं कि तामिलनाडू के हर घर में शायद उसकी एक प्रति आपको मिल ही जाए।
अब ऐसी किसी भाषा भाषी लोगों से आप आदेश करें कि अब तुम एक भारत एक भाषा के नारे के साथ अपनी भाषा पर गर्व करना छोड़ो और देशभक्ति के नाम पर हमारी भाषा को स्वीकार करो। ये कैसे संभव होगा।
ये हिंदी को तमाम उत्तर-पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में, पूर्व में थोपने की कोशिशें वही, एक राष्टर, एक फलां-ढिमाकां वालों के विचार हैं, जो भारत पर एकछत्र राज चाहते हैं, जो अपने ख्वाबों का अखंड भारत देखना चाहते हैं, जिन्हें भारत की समरसता, विविधता, की कोई समझ ही नहीं हैं। महाराज, आपके हिसाब से जब अखंड भारत था ना, तब भी पूरे भारत में हिंदी या संस्कृत नहीं चलती थी, चलती वही थी, जो वहां की ज़बान होती थी।
अब मेरे इस वीडियो से ये मतलब मत निकालिएगा कि मैं, हिंदी, या उर्दू या अंग्रेजी या किसी और भाषा के खिलाफ हूं, बल्कि मैं तो इस बात का पैरोकार हूं कि सभी भाषाओं को बढ़ने और फलने-फूलने का मौका देना चाहिए, ताकि सामज की खूबसूरती को और बढ़ाया जा सके। अपनी भाषा को श्रेष्ठ मानिए लेकिन अन्य भाषाओं का भी सम्मान कीजिए, अच्छा लगे तो सीखिए। इसके अलावा, यहां दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं, आदिवासी भाषाओं, और अन्य इलाकों की भाषाओं का जिक्र सिर्फ इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि अभी जो विवाद है वो तामिल भाषा बनाम हिंदी और हिंदी बनाम उर्दू को लेकर है। बाकी मुझे तो मेरे दोस्तों वो सब भाषाएं बहुत अच्छी लगती हैं, दिल के क़रीब लगती हैं, मेरी तो अगर कोई इच्छा है तो वो ये कि मुझे कम-अज़-कम भारत की तो तमाम भाषाएं आ जाएं, और मैं सबका साहित्य भरपूर पढूं, लेकिन.......काश.....।
खै़र, अंत में ग़ालिब का एक शेर
ग़ालिब के ये शेर दरअसल ग़ालिब ने उस जमाने में लिखे थे, जब वो भविष्य के हालात पर ग़ौरो फिक्र कर रहे थे।
तो पेश है
उनकी ज़बान हमको आती नहीं समझ
ग़ालिब जो हमने ग़ालिबन सीखी नहीं कभी
अब अगली बार मिलूंगा, और कभी संस्कृत के बारे भी बात करेंगे।
नमस्ते।
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